Friday, October 31, 2014

पुल


हम
अनेकों "मैं" का बसेरा।
'एक' और 'अनेक' के बीच का एक ऐसा पुल जिसपर कभी भी यहां से वहां हुआ जा सकता है।
विभिन्न आवाज़ों से बनी एक गूंज।
"सब कुछ" की इच्छा से बना

मैं
रिफ्लेक्शन व शहडोह जो कभी भी अपने से बाहर हो सकती है।
"मैं" अनेकता या विशालता का रूप है
स्वयं और लिबास के बीच हमेशा टकराव में रहता है।
अनेकों परतों का डेरा जैसा, अपने से बाहर के दृश्य को विविधत्ता मे ही सोचने पर जोर देता है।
मैं असल में, तरलता का ऐसा अहसास है जो जितना फैल सकता है उतना ही जमा भी रह सकता है।