घर
से जंगल और जंगल से घर उनके
लिए कभी दूर ही नहीं रहा। वे
भागे - भागे
वहाँ की ओर चले जाते थे। रात
चाहें कितने ही पहर में होती
हो लेकिन सुबह का आलम उनको
पूरा पता होता। ये भूख थी जो
उनकों वहाँ तक ले जाती थी।
खाली नज़रों का मामला नहीं
था। ये कसक थी जो उनके अन्दर
रह-रहकर
वलवलाती थी। वो जंगल से दस
किलोमीटर की दूरी पर रहते थे।
लेकिन जैसे ये फासला कुछ नहीं
था उनके लिए।
यहाँ
कोई किसी को जानता था नहीं था,
हाँ
भले ही यहाँ आये सभी एक ही जगह
से थे। सभी बस,
एक
- दूसरे
को ताकते रहते थे। हर निकलने
वाला शख़्स अपना ही पड़ोसी
मालुम पड़ता लेकिन उसको पहचानना
थोड़ा मुश्किल था। गलियाँ,
चौबारें,
रेनबसेरे
और यहाँ के साँझे इलाके सभी
में एक रस़ था,
जिसे
पाने के लिए दिल चाहता था।
उनको यहाँ पर आये केवल अभी तीन
ही महीने हुए थे और वो अपनी
कोई जगह तलाश रहे थे। जिसके
लिए वो ना जाने कितनी ही दूरी
तय कर लिया करते थे। ये जगह
रहने के लिए नहीं थी,
ना
ही सोने के लिए,
ना
ही काम के लिए और ना ही बतियाने
के लिए। ये तो कुछ और चाहत से
तलाशी जा रही थी।
वो
खुद से भाग रहे थे मगर अकेले
नहीं थे। ये ही उनकी सबसे बड़ी
ताकत थी। यहाँ की हर जगह अपनी
तरफ खींचती थी,
हर
जगह खुली पड़ी थी। गली पर कोने
का मकान, उधड़े
पड़े पार्क, लोगों
के बिना खाली पड़े चौपाल। ये
सभी हिस्से अपनी ओर खींचते।
अव्वल तो ये जगह इतनी बसी भी
नहीं थी के उनके हिस्सो को
किसी नाम से पूकारा जा सके।
यहाँ पर घर, घर
नहीं थे, गली,
गली
नहीं थी और यहाँ के पार्क,
ये
पता नहीं था कि वो पार्क है या
दुकान लगाने वालों के लिए
ठिया। बस, ये
ही तय कर पाना मुश्किल था।
इतना
होने के बावज़ूद भी वो ऐसी जगह
तलाशते जहाँ पर उनकी आवाज़
किन्ही और आवाज़ों से मिलती
हो। जहाँ पर वो कुछ बोले और उस
बोले हुए को कोई बड़ाने वाला
या काटने वाली कोई तो आवाज़
हो। जहाँ पर वो किसी नई आवाज़
को रच सके। किसी की आवाज़ से
मिला सके या वो उस आवाज़ से
अपनी आवाज़ की तेजी को पहचान
सके। कान तो सुनना जानते थे
जो बिना कुछ सोचे-समझे
बस, कुछ
सुनने पर उतारू होते लेकिन
उन्हे हर वक़्त कोई आवाज़ कैसे
सुनाये। ये उन्हे तिल -
तिल
कसोटता था। इसलिए वो उस आवाज़
से मिलने चले जाते जिसे सुनने
के लिए वो जगह – जगह घूमते थे।
वो जहाँ पर रहते थे उस जगह में
किसी भी आवाज़ को सुनना न के
बराबर था। यहाँ पर आने के बाद
जैसे सभी अपनी आवाज़ कहीं
छोड़कर आये हो। कभी-कभी
तो वहाँ पर लगता था जैसे दम ही
घूंट जायेगा। दिन का कोई तो
वक़्त हो जहाँ पर ये अहसास हो
की हम ज़िन्दा है। ये अरमान
तो कोई भी अपने में रख सकता
है। तो वो क्यों नहीं रखते?