लोग गली - गली ये देखते हुए घुमते कि कौन सी ऐसी जगह है जहाँ कुछ पलों का आराम किया जाये मगर एक रोज का नहीं हर रोज आया जाये? कहाँ पर कोई
रौनकदार सभा बैठी हैं? कहाँ पर शौर
है? कहाँ पर लोग
बुलायेगे और कहाँ पर बैठने में मज़ा आयेगा? लेकिन यहाँ सारी जगहें एक ही आकार और रूप लिए ही थो थी। कभी - कभी तो
आँखें कहीं रूक भी जाती लेकिन ये जबरदस्ती खुद को
कहीं जमाने का समान होता। मन तो जैसे कुछ और ही तलाश रहा होता था।
एक माहौल
से दूसरे माहौल से लोग अगर अपने पाँच – पाँच मिनट भी दे जाते तो दूसरा दिन भी वहीं की तरफ ही अपने पाँव कर लेते। जहाँ
एक बार पाँव जमा दिये तो समझो जमा दिये। सारी जगहें तो यहाँ पर ऐसी ही थी कि किसी को भी
को कहीं पर भी रूकने की कोई मनाही नहीं थी। जमने और बैठने की कोई रोक नहीं थी और कोई जगह खुद के लिए तलाशने की कोई रोक-टोक नहीं
थी। तभी तो कदम कहीं पर निचावले नहीं रहते थे। जैसे पाँव में पहिये लगे थे। भागे फिरते थे कहीं के होने जाने के लिए। ये दौर बना रहता था एक - दूसरे को बुलाने का। चाहें दो या चार पल ही
साथ निभाने के लिए ही सही लेकिन एक – दूसरे के अन्दर की इस लरक को लोग बखूबी
पहचानते थे।
इस दौर
में तो जैसे धर्म का ही प्रचार किया जाता था। जो भी इस दौरान नई जगह या नया माहौल अपने
पाँव जमाता लोग उसे अपना कहकर अपनी ग्रफ्त में कर लेते मगर असल में वो ग्रफ्त उस जगह और
माहौल के लिए कैदखाना नहीं बनती थी। बस, जो होता था वो था नज़र और दिलो - दिमाग में अपनी बात, काम और कर्मों को जैसे उतारा जाये? वही बिना आना-कानी शायद कानों तक चला भी जाता।
ये दौर
शायद सुनकर और सुनाकर निकल जाने वाला नहीं था। जो भी
दृश्य, शब्द और गुट
आदमी के बाहर आ जाता तो वो अपना ठिकाना खुद ही बना लेता, जम जाता
और बहुत जल्दी जगह में ठहराव पा लेता। उसके बाद में हर कोई उसके नीचे या ऊपर अपने आशियाने
तैयार करता। एक से दूसरे के अन्दर तैरने के
तरीके खुद से बना लेता। जैसे इस पल में सभी खाली नइया की तरह से इस समा के समन्दर में खड़े होते और कोई भी माहौल उनके लिए किसी
खास तरह से चप्पू का अभिनय निभाकर उन्हे कहीं दूर ले
जाने की कोशिश में रहता। शायद ये हो भी रहा था। जो सब के लिए बेहत्तर था, आखिर घूमता कौन नहीं चाहता था?, कौन नहीं था जो तैरना चाहता था? और कौन नहीं था जो खुद से, काम से और बने - बनाये इस माहौल से दूर नहीं जाना चाहता था? ये दूर
जाना, खुद में
खोना बेअसर था। बिलकुल अनमोल के समान जिसका कोई मोल नहीं होता। जमीन से जुड़े रहना,
अपनी जमीन को सकेरना, बनाना और ताज़ा रखना ये सभी के
अन्दर पल रहा था और नये माहौल बनने की ताज़गी उनमें वलवलाती रहती।