Thursday, May 9, 2019

स्ट्रीट फूड - कहानी भाग तीन


एक दिन मिड्डे-मील थोड़ा देरी से आया। स्कूल में सभी बच्चे अपने बर्तन लेकर यहां से वहां घुम रहे थे। स्कूल में आधे से ज्यादा बच्चे तो इसलिये आधी छुट्टी के बाद टिकते थे क्योंकि खाने को खाना मिलता था। स्कूल का बड़ा गेट खोला गया। एक सफेद रंग का आटो रिक्सा अंदर दाखिल हुआ। सभी बच्चे लाइन लगाकर खड़े हो गये। खाना बांटने वाले टीचर भी आ गये। आटो का दरवाजा खुला और बच्चों में खुद होने की चहलकदमी दिखने लगी। बड़े - बड़े बर्तनों को नीचे रखा गया। जैसे ही उसका ढक्कन खोला गया तो उसमें से गर्म महक बाहर निकली। बच्चों मे और ज्यादा खुशी की लहर दोड़ गई। मोन्टू सबसे पीछे खड़ा था। उस तक जैसे ही वो महक गई तो वो आगे की ओर दौड़ा। इतने में टीचर ने चमचा सब्जी में चला दिया। मोन्टू बहुत तेज दौड़ा और टीचर का हाथ पकड़ लिया। टीचर ने गुस्से में मोन्टू की ओर देखा और जोर से कहा "किस क्लास के हो तुम, अपनी जगह पर जाओ।" मोन्टू ने हाथ नहीं छोड़ा। टीचर ने फिर से गुस्से में पूछा "हाथ छोड़ो, क्या बात है?” मोन्टू ने कहा "सर ये सब्जी बुस गई है, खराब हो गई है। इसे खाया तो सब बिमार हो जायेगे।" टीचर ने भी सूंघा। उन्हे ऐसा कुछ नहीं लगा। उन्होने कहा "तुम्हे कैसे मालूम?” मोन्टू बोला "सर देखिये इसमें झाक हो रहे हैं।" टीचर जी ने उस खाना लाने वाले को बुलाया और पूछा "ये खाना खराब है और तुम बच्चों को यह खिला रहे हो?” खाना लाने वाले ने कहा "हमें नहीं मालूम होता सर। जो हमारी गाड़ी में रख दिया जाता है हम उठा लाते हैं।" टीचर जी ने वो सारा खाना वापस लौटाया और मोन्टू के नाम की पूरे स्कूल में ताली बजवाई। मोन्टू बेहद खुश हुआ। और वो स्कूल से निकलकर फिर से उसी जगह पर जाकर बैठ गया। वहां पर आज का पूरा दिन दोहराने लगा। उन कॉपी को देखता रहता जिसमें उन रेहड़ी वालों ने उसे मसालो व स्वादिस्ट खानों की लिस्ट बनवाई थी। वे उन्हे देखता और पढ़ता रहता।

घर पर भी उसका मन नहीं लगता था। घण्टों खामोश बैठा रहता। एक दिन उसके पिताजी ने उससे पूछा "क्या हुआ मोन्टू तुम इतने चुप चुप क्यों बैठे रहते हो? दोस्तों से झगड़ा हुआ है क्या?” मोन्टू कुछ ना कहता। बस, ना में गर्दन हिला देता। पिताजी ने फिर से पूछा "मुझे नहीं बताओंगे? मैं तो तुम्हारा दोस्त भी हूँ ना!” मोन्टू उनकी गोद में लेट जाता है और पूछता है "पापा जब को हमसे दूर हो जाता है तो हम उसे याद कैसे करते हैं?” उसके पिताजी यह बात कुछ समझ नहीं पाये। वे थोड़ा रुके और सोचे की वो अपनी मम्मी को याद करके दुखी है। उन्होनें उन्ही को सोचते हुए जवाब देना बेहतर समझा और कहा "उनकी कही हुई बातों को दोहराकर और आधी बातों को पूरा करके। मालूम है बेटा तुम्हारी मम्मी हमेशा मुझे आधी बात बताती नहीं थी। हमेशा या तो अपने में ही छुपा लेती तो कभी अपनी डायरी में लिख लेती। मैं आज भी उसकी डायरी को पढ़ता हूँ। ऐसा लगता है जैसे तेरी मां से ही बात कर रहा हूँ।" मोन्टू उन्हे देखकर मुस्कुराने लगा। उसने फिर से पूछा "क्या मम्मी की डायरी भी आपसे बात करती है पापा?” पिताजी बोले "नहीं, वो तो नहीं करती मगर मैं ही कभी तेरी मम्मी बन जाता हूँ तो कभी तेरा पापा।" मोन्टू चौंक कर बोला "अच्छा! कैसे पापा?” पिताजी बोले "मैं तेरी मम्मी का लिखा पढ़ता हूँ और उसे पीछे खाली पेज पर उस बात का जवाब लिख देता हूँ। और कभी इस बात पर तेरी मम्मी क्या कहती ये सोचकर उसका भी जवाब लिख देता हूँ।" मोन्टू हंसने लगा। पिताजी भी हंसने लगे। ऐसा लगा जैसे मोन्टू की मम्मी उन्ही के बीच में बैठी हंस रही है। मोन्टू ये महसूस कर सकता था।

दूसरे दिन मोन्टू एक घण्टा पहले ही स्कूल चल दिया। बसते में कुछ कोरे कागज भी भर लिये। और पहुँच गया उसी जगह पर जहां पर वो रेहड़ियां लगा करती थी। वहां पर बैठ कर उनकी बताई खाने की लिस्ट उन कोरे कागज पर लिखने लगा। साथ ही मसालों की भी। और वहीं पेड़ पर चिपका देता। ऐसा वो रोज करता। वहां पर क्या मिलता था। और वो कैसे बनता था। यह सब लिखकर टांग देता। शुरूआत में तो लोग उसे देखकर बच्चे का खेल समझकर चले जाते। लेकिन जब वो पेड़ उन कोरे कागजों से भरने लगा तो लोगों की भीड़ वहां पर लगने लगी। लोग उन सबको पढ़कर खुश होते, हंसते - खिलखिलाते और वहीं कुछ देर टिक जाते। पेड़ का चबूतरा साफ रहने लगा। जो लोग यहां - वहां दुकानों पर काम करते थे वे वहीं पर आकर अपना टिफिन खाने लगे। धीरे - धीरे लगा की जैसे वही माहौल वापस लौट आया हो। मोन्टू के लिये एक वही जगह उसका स्कूल तो नहीं, ना ही क्लास बनी लेकिन लंच टाइम की जगह जरूर बन गई।

आज स्कूल में 14 नवम्बर मनाया जा रहा था। जिसकी तैयारी काफी दिनों से चल रही थी। वे सभी बच्चे पूरी तरह से तैयार थे जिन्हे टीचरों ने बोल दिया था कि उन्हे क्या सुनाना है। टीचरों ने खुद ही उनकी तैयारी कराई थी। मोन्टू भी इस खास दिन में हिस्सा लेना चाहता था। उसने अपने दोस्तों से, अपनी क्लास टीचर से कहा लेकिन बिना तैयारी के उन्होनें मना कर दिया। क्योंकि इलाके के बड़े नेता आ रहे थे। उनके सामने कोई बिना तैयारी के गया तो पूरे स्कूल का नाम खराब हो जायेगा। मोन्टू ने सबसे पीछे खड़ा हो गया। खाना बांटने वाले टीचर उसके पास गये और कहा "तुम आगे क्यों नहीं जाते?” मोन्टू बोला "मैं कुछ सुनाना चाहता हूँ मगर कोई सुनाने ही नहीं देता।" वो टीचर ने मोन्टू का हाथ पकड़ा और आगे ले जाकर कहा "सुनाओ जो सुनाना है?”

मोन्टू सहमा सा सबके सामने खड़ा हो गया। टीचर की जगह पर खड़ा होकर पूरे स्कूल के बच्चों को देखना उसके लिये पहला अवसर था। जो टीचर उसको हाथ पकड़कर लाये थे उन्होने बिना आवाज़ किये कहा "बोलो।" मोन्टू फिर शुरू हुआ। उसने एक कविता सुनाई जो "खाना" पर लिखी थी। जिसमें स्ट्रीट पर लगने वाले स्वाद का जिक्र था।

स्कूल के बाहर हैं लगती रेहड़ी।
                  नई – पुरानी, लंबी रेहड़ी।

लख्मी 

1 comment:

Unknown said...

शुक्रिया सर