
मैं अधिक रूपों से खेल रहा हूँ। मैं कारणों में खुद को सुनिश्चित नहीं करता हूँ।
5 साल तक केबल लाईन अन्तराल में रहे है। कभी कम्पलेन्ट को कम्पलेन्ट नहीं समझा उसे रिलेश्नसिप समझते हुये सोचा। वो एक रचनात्मक शख़्स को प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित रहते हैं। "मेरे स्वंय के भीतर भी कोई है।"
पैदल घूमने का अनुभव ज़्यादा करता हूँ। जगह के वहां के बदलाव संबद्धित चीजों से परिचित है। "केबल के काम से मुझे बहुत प्रेम है।" तभी अपना हुनर अपने आप से बनाया और आसपास के लोगों से समझा है। फिर उसे सोचा की वो खुद के लिये क्या जगह बनाता है। अपनी तैयारी खुद की, कि किस तरह और किस आधार को लेकर जीवन जीना है। तैयारी जीवन में रफ़्तार लाती है। ठीक उस वक़्त की तरह जो अपनी बटोरी गई ढेरों इंद्रधनूषी रंगो में ढली परछाई को विराजमान देखता है।
ये बात आसानी से मान ली, सोचा चलों इस बहाने बाहर निकल जाने का मौका मिलेगा और अपने से कुछ कर सकुंगा। मुझे पहले केबल के ओफिस में सफाई करने को कहां गया मैंने कमरे की मशीनो की 3-4 महिनों कस के सफाई की।
जहाँ मैं था। उस जगह में मुझे अब नये जीने के मौकों की तलाश थी वो मिलने लगे। वहाँ सीखने को बहुत कम था मगर मेरे पास तो वही एक अधूरी मुर्ती थी जिसे मैं अपनी छवि कह सकता था। जिसपर जीवन उकेरने का मौका मेरे खाली वक़्त में निकलता था। वो खाली वक़्त जो कोरे पन्ने के समान होता..जिसपे अगर ठीक से लिखा नहीं जाता पर कभी पैन की शाही से अद्धबनें शब्दों को देख कागज पर पैन झटकने से शाही की छीटे पड़ जाती और उस पर आकृति का भी मतलब बना होता।
मेरा रूटीन अब बदल गया था एक नया सफर की तरफ। जहां मशीनों के बीच जीवन की शुरूआत होती। वहां से मुश्किलों का संमुद्र भी दिखता था। रूटीन वक़्त के पहिये की तरह चलता रहता...।
सुबह सात बजे भगवान की आरती और फिल्मी गाने। तब से लेकर नौ बजे से नई या पुरानी फिल्में। बारह बजे तक रिमिक्स गाने। उसके बाद, दोपहर के दो बजे से फिल्म 4:30 तक चलती
जहां वक़्त कभी अपने आप ही किसी कमरे में आकर ठहर जाता और कभी कुछ रोशनियों के टूट जाने पर फिर नयी रोशनियों के पैदा हो जाने पर जगह रोमांचक मोड़ ले लेती जिसमें कोई लिमिट नहीं नजर आती वो बस किसी सिरे तक झुका हुआ नक्काशिदार सजना नजर आता फिर कहीं से उपर उठा हुआ दिखता।
ये दो घंटे जो 8:30 से एक नयी रात का कथन कर देते और रात की फिल्म के शुरू होते ही इस बहाने बैठे हम अपने विचारों की गुथ्थम गुथ्था मे लिपट जाते। हम वहां होते भी और वहां कभी खुद को पाना भी कठीन होता कि हम किस बुनाई में हमारे सपनों को बसाने की कोशिश कर रहे है?
वक़्त का घेरा हमें रोक लेता ठहरा देता। लेकिन यहां कभी तो मैं अब मेरे लिए एक मिठास, एक खुशी है और एक प्रकाश है। मैं पहले अनुभवी कभी नहीं था। इसका अनुभव किया? तो जैसे किसी कमरे मे जल रहे मिट्टी के तेल वाले स्टोब में पम्प भरते जाना लगातार। ताकी उसकी बनी भवक मे शरीर से छूटते पसीनों से बनी तराई मालूम होती है।
उस मेरे मैं की मिठास, खूशी ने जन्म लिया। उस वक़्त। मेरा रोजाना का त्याग होता घर से, काम से, समाज के बोझ से तब कहीं मेरे चेहरे पर मुसकुरहाट के दो-चार बल पड़ जाते। असल में अपने आप को जानना वहीं था, जब भीड़ में स्वंय की रचना करके। वहाँ कई-कई बार मैं हुँ। शायद कि मैं नहीं। बल्कि खुद को सुनने के लिए सुन पाने से रिश्ता निभाना भी मेरे लिये जरूरी रहा है। दूसरों के लिये एक द्वार ( दवाजें-खिड़की -निकास ) को बनाया जाना। मेरे लिए एक कल्पना भी है और रोमांचक बात है।
राकेश...