Thursday, September 13, 2012

एक बस ड्राइवर अपने आप में

उंचाई और निचाई से बने रास्तों ने हमेशा सर्तक रहने पर ही जोर दिया। बस, अपने साथ वाले पर नजर रखने की ताक में रखा। रूट तय है और लोगों को गिनकर चलना फिक्स। और बस अगर चलते वक़्त अपने जोश मे कभी आ जाती तो लोगों की गिनती में बड़ा परिवर्तन आ जाता है। ये करना तय नहीं है। मैंने रोज ये घटते बड़ते देखा है। और घटने को बड़ाने मे तब्दील करने का काम करते भी। दिन खत्म होता जाता है। घटने को कम करना और बड़ाने में उसे ले जाना हर रोज़ का बन गया है। जिस रास्ते जा रहे हैं उसी रास्ते वापसी। कहां पर रूकना है, कितना रूकना है मे टाइम की कोई जानकारी नहीं। इस सबके बीच मे मैं दिन को कैसे दोहराऊँ? लोगों की गिनती फटी और बिखर गई टीकट मे भी परिवर्तन मे आ ही जाती है। बस मे जो भी चड़ता या उतरता है उसकी गिनती रोज होती है। मगर चलाने वाले की उस गिनती से कोई लेना देना नहीं। 

पूरा रास्ता नफा कहां है और नुकसान कितना की सोच ने एक दिन मे गुजरे हर रास्तो को उसकी चमक से ही बाहर कर दिया। मेरी समझ में आज तक नही आया की नफा क्या है और नुकसान क्या? लोगों को गिनना या उनकी दूरी को गिनना? दूरी को गिनना बेमाइने है। दूरी जो रोज़ाना की तय होकर रास्तों पर निकलती है और लोगों को गिनना मुश्किल बनता चलता गया है। नफा व नुकसान के बने टोकरे मे दिन को धकेलना लोगों के बीच होने को गायब करता जाता है। हर रोज़ के एक ही रास्ते पर चलते चलते हैं  लगता है कि रास्तो के माहिर तो हो गये लेकिन मंजिल पर उतर जाने के बाद लगता कि रास्तों ने उस रफ्तार और खो जाने को खा लिया जिसमें हमेशा जागते रहने की शर्त छुपी है। मैं तो कभी किसी को लेकर खो ही नहीं पाया। कैसे खो जाऊँ? इस घटते जाने को बड़ाने की लड़ाई से बाहर निकलकर।


सोचता हूँ की रूट को बदल बदल कर चलूँ।
रास्तों मे छुपी ऊंचाई और निचांई के साथ खेल से भरा लुफ्त है। कौन मिला और कौन छूटा को सोचने की जरूरत के बिना सफ़र बहता चलेगा। जैसे रास्तों ने अपने रहस्य को दिखा दिया हो। जिसमे घुसना भी दिलचस्प है और ना घुसना भी। अगर हर रास्ते के बाद कोई मंजिल है तो बीच में तो रहस्य है। मजा होगा। कहां निकल जायेगें की उत्तेजना और ना निकल पाने में राह खोजने की चाहत रूट को भी मजेदार बना देगी। हर दिन सेंकड़ो लोग चड़ते हैं और अपनी अपनी दूरी के समान रहकर उतर जाते हैं। इनकी दूरी के साथ रास्ते के अन्दर के मोड़ ज्ञात होगें।


सोचता हूँ की किसी दिन बिना टीकट के लोगों को आने - जाने दूँ।
हर रोज़ एक ही रूट पर चलना या हर रोज़ एक ही रास्ते पर चलना क्या? रास्ते तो हमेशा ही लम्बे रहे हैं। बस सिर्फ इतना फर्क है कि चलने वाला अपना सफ़र कर रहा है या अपने कदम गिन रहा है। कदम गिनना ही रूट है। रूट रास्ते को भोगते जा रहे हैं और उंचाई - निंचाई उन सपाट रास्तों को जिनपर जागना सिर्फ किसी पर नज़र रखना नहीं है। यहां पर चलने वालों ने ऊंचाई और निंचाई को नफा नुकसान माना है।

रोज कई लोग आगे के गेट से चड़ते हैं। बिना कुछ बोले चुपचाप बोनट पर बैठ जाते हैं। कई लोग फिर वहीं पर जमा होते रहते हैं। ना जाने क्या बातें चलती रहती है। उन्हे कहां उतरना है जैसे कुछ समय के लिये भूल गये हो। उस्ताद जी, कहकर ये दिखाने की कोशिश करते हैं कि हमारी बहुत पुरानी जान पहचान है। सिर्फ टीकट की गिनती इन मुलाकातो को बता नहीं पाती। किसको कितनी दूर जाना है ये तह होना ठीक होता हो लेकिन मोड़ कभी कभी इसे भी बदलने को उक्सा जाये तो? एक दिन ऐसा हो की जिसको जहां जाना है जा सकता है। जिसको जहां उतरना है उतर सकता है। गिनती से बाहर होते लोग अपनी जगहों से कहां पर जाने के लिये निकलेगे।


सोचता हूँ किसी दिन सवारी बन जाऊ :
देख पाऊँगा की अंधेरे और उजाले दोनो के बीच में सिर्फ समय के फासले का ही खेल नहीं चलता। सवारी कहां है? और कितनी है? को चुनना अंजानी मुलाकातों को भूला देता है जो अपने लिये कुछ बुन के लिये आती है और फिर गायब हो जाती है। अगर दिन के खत्म होते होते उन मुलाकातों को दोहराया जाये तो कैसे?

नफा और नुकसान सफर में रहने को जोर नहीं देता। वे फिर सफ़र ही कहां है। कितना चले को सोचा जाये या कितनो को देखे और मिले को सोचकर अपने रास्ते को बुना जाये। हर रोज एक ही रास्ते पर चलते चले जाना उस बीच के हिस्से को गायब कर दिया है। जहां से गुजरने पर ये ख्याल ही दूर हो जाता है कि कौन कितने समय से मेरे साथ है। बल्कि कौन कहां जा रहा है और उसका इंतजार किसको अपने साथ लेकर जायेगा का भ्रम जिंदा रहता है। ये सफ़र उस भ्रम का सारथी कि तरह है।

ये सारथी कौन है -  चलाने वाला चालक, बैठे रहने वाला सहायक, हर किसी के रास्ते का हमसफ़र, रास्तों को अपनाने वाला कोई पागल, गलती से चड़कर उतरने का ठिकाना तलाशने वाला, चालक के रोल में कोई काम करने वाला या चलने को काम मानने वाला या नये लोगों के साथ मे रहकर जीने वाला, भागकर बस में चड़ने वाला, गेट पर ही रहने वाला, बस की सजावट में उसमें लाइने लिखने वाला, संदेश देने वाला, सड़क पर रहकर बस पर नज़र रखने वाला या रास्ते पर कौन कैसे चलेगा के रूट मेप बनाने वाला।


अभिनय बेशक बहुत छोटा व बनावटी होता है मगर हर बार के रोल में राहों के मेप बदल जाते हैं।


 लख्मी

हूटर पर नृत्य

आसमान में सो चक्कर लगाने के बाद पानी पीने उतरे एक पक्षी ने खुद के अक्श को देखते हुये सोचा -

कभी कभी सोचता हूँ की पनियल सा बनकर बस चलता चला जाऊं। लोग मेरे अन्दर से होकर निकलते जाये। मेरा अहसास हो उन्हे लेकिन मुझे चलने के लिये रास्ता ना दे। कभी किसी के साथ साथ चल दूं। उसे लगे की उसके साथ कोई है, मगर वो मुझसे दूरी ना बनाये। डरे नहीं, भागे नहीं।

घर, परिवार, यारो की गढ़ी नजरों को धोका दूं। या फिर उन्हे भी चौंका दूं। मुझे चिंहित करने वालो को परेशान करूं या उन्हे हैरान करूं।

रात मे चिपकने वाले उन पोस्टरो की तरह हो जाऊं जिनमे जाने - पहचाने चेहरे भी उस तरह अंजान बन जाते है कि उन्हे फिर से खोजना पड़ता है। हर आंख उसे उस तेड़ी निगाह से देखती है जिसमें यह तंज होता है कि "ये पहले मिला या नहीं" इस तंज़ को अपना लिबास बना लूँ।

या किसी नाटक के उस किरदार की तरह हो जाऊं जो बिना डायलॉग के खड़ा है या रामलीला के स्टेज पर दिखती उस परछाई की तरह दिखने लगूं जिसे सब देख सकते हैं कि वे उड़ रही है या मेकअप उतारते उस कलाकार की तरह बन जाऊं जो मेकअप में भी  अंजान था और मेकअप उतारने के बाद भी या ऐसा बन जाऊं या वैसा दिखने लगूं या तैसा बन जाऊं या.....या.....या.... या....

इस "या" की भूख कभी बूढ़ी नहीं होती। वे हमेशा जवान रहती है। अनेकों 'या' एक अकेला मन अपने मे लिये चलता है। फेलियर से बाहर निकालने वाला या, खो जाने के लिये बना या, तैयार होने के लिये या, चौंकाने के लिये या, जीवन मे "नहीं बन पाया" की भरपाई का या, चुनाव की कसौटी का या, शख्सियत बदलने के लिये या, डर से भरा या, उन्माद का या, मसखरी से सजा या, मजबूरी का या, सलाह सा बना या। आइने के सामने दिख रहे बिम्ब ने खुद के चेहरे पर हाथ मारते हुए इस पल में अनेकों 'या' के होने को जिया हो जैसे। दरवाजा सामने दिख रहा है। जिससे हर रोज़ जो अन्दर आयेगा, बाहर भी वही जायेगा के ऊपर करोड़ो सवाल बिछा दिये गये।

पक्षी सा मन आइने के सामने खड़े बिम्ब में मिक्स हो गया।


हाथ में कुछ किताबें लिये वे उस जगह पर पहुँच गये जहां से शहर मे निकलने का पहला दौर शुरू हुआ था। एक साइकिल पर रखी किताबें उन्हे जितना लोगों के बीच मे उतारती  उतना ही अपने अंदर भी ले जाती। उनके पास कोई नहीं आता। वे ही सभी किताबों को पढ़कर अलग अलग नाम लिख देते। उनके रजिस्टर मे लिखा होता - अशोक एक किताब ले गया है जिसका पता ये है। अनेकों लोग उनके नाम, किताबों के नाम और पते लिख वे ही सभी को पढ़ रहे थे। काम कि दुनिया के साथ खेल कर वे किन्ही भीड़ को खुद से रचते चले जा रहे थे।

सरकारी संदेश अनुसार किताबघर के बंद होने को बोल दिया गया था। वे अनेकों नाम लिख कर उन सभी किताबों को अपने घर ले गये। आज वे उन सभी को निकालकर उनमें खुद को तलाश रहे थे। जैसे वो एक परछाई हो और उड़ रहे हो।

पक्षी सा बन वे कमरे से बाहर निकल गये।

लख्मी