Monday, May 31, 2010

शौर, खमोश शौर




किसी के होने का अहसास क्या है? वो क्या जो "है" और "था" के बीच मे है? और वो क्या जो पकड़ मे है लेकिन फिर भी छूटने के अहसास है। कुछ धमक है, एक ऐसी धमक जो समय पर अपनी छाप छोड़ती है। जो लम्बे समय तो अपने साथ रहती है। जो खमोश है मगर फिर भी विचलित है।

लख्मी

Saturday, May 29, 2010

दर्द का कई जुबान है

खुले अवसर की तरह हमारे बीच का रिश्ता दिखाता है।
उसे जानने और उसकी परख से मुखातिब जब हम होते हैं तो क्या दिखता है?
जीवन का सफ़र कई चीजों और उनसे जुडे सदंर्भो से मिला-जुला ढ़ाँचागत है।

जिसको हू-ब-हू से हटकर उसके होने के दृश्य उपजी कल्पना और सोच के ठिकानों को समझा जा सकता है।
आज का समय जो अभी के हाल को व्यक़्त करता है वो अस्थिरता के सामने होता है।
वो बाद के पहलूओं को भूलकर आने वाले का प्रचार जाने वाले का दर्द और इस दर्द से जुड़े वर्तमाण की तरलता के अहसासों को ठोस करता है।

घर में दर्द को जीने का जुबान क्या है? जिसमें डूब कर भी जीने का मज़ा सूख और अमन से जीने से ऊपर उठ जाता है।
दर्द का कई जुबान है वो एक जुबान में बयाँ नहीं किया जा सकता।
हम दर्द जीते हैं, पीते हैं इसमे रहकर भी इसी को असीम में ले जाते हैं।
दर्द का कहानी विरासत से जुड़ा है वो सिर्फ अभी की उपलब्धी नहीं है।
घर वो है जिसमें कहीं होकर अपने चिन्ह को छोड़ जाने के समान है।
और अपने बाद क्या छोड़ गया और क्या बनाया का कोशिश।





राकेश

Thursday, May 27, 2010

नियमित होना क्या है?

हमारे सामने नियमित कोई चीज़ बहती जाती है। उसकी गती और समय की अवधि उसको फोर्स देती है। जिसको लेकर वो अपने होने अहसास हो निरंतर गाड़ा करती जाती है।

ये तो एक प्रक्रिया है, जो उसको जिन्दा रखती है। लेकिन, क्या हमें पता है कि हम उस नियमित और निरंतर गति मे कैसे दाखिल होते हैं?




लख्मी

Monday, May 10, 2010

किताब अच्छी है!

किताबें अपने साथ कई तरह की तलाश लिए चलती हैं जिसमें जुड़ने वाला हर अनुभव उसमें अपने को महसूस करने के कोने तलाशता है। वो तलाश कभी तो उसमें उभरने वाले सवाल बनती है तो कभी अपने मन-मुताबिक कलपना करके जगह बना लेती है।

यही खोज किताबों की दुनिया में हमें खींच लेती है। जिसके साथ बनने वाला रिश्ता कई तरह के रूप बयाँ करता है।

ये तलाश क्या है? वैसे माना जाये तो तलाश हमें एक जैसे रूप मे नहीं जीती। वे बदलती रहती हैं। तलाश का बदलना, जहाँ दूर की अवशेषों को करीबी से देखने और सोचने पर मजबूर करता है वहीं पर फैलाव के ऐसे कोनों को खोलता है जो इस बदलाव को भी उर्वर बनाती है। जैसे - तलाश कभी जगहों में तबदील होती है तो कभी उन अहसासों में जो हर रोज की ज़िन्दगी में कभी नज़र नहीं आते या फिर ये वो किनारें हैं जिनको हमेशा नज़र-अन्दाज करके जिया जाता है।

किताबों की दुनिया में, कई तरह के अहसास भी छुपे होते हैं। वे हर अनुभव और जीवन से बहस, सवाल और कल्पना की उड़ान में शामिल होकर जीने के तरीके बनाते हैं। इसके बावज़ूद भी यही सवाल आकर ठहर जाता है कि किताबें हर शख़्स के अनुभव में कैसे जुड़ती अथवा उनकी तलाश में भागीदार बनती है? इस तलाश में क्या-क्या छुपा होता है?

असल मायने में, हर किताब अपने साथ में अपनी पब्लिक की कल्पना लिये चलती है। उसमें बनने वाले माहौल व चित्र किसी जीवन से संवाद बनाने की कोशिश लिये रहते है। मांग, चाहत और उत्सुक्ता का रिश्ता उसमें चाव जगाता है। लेकिन वो किताब कौन सी होती है जो हमें अपनी ओर आक्रषित करती अथवा खींचती है?

कल्पना में किताब का आकार और उसमें उभरने वाले माहौल ही पाठक की चाहत के पात्र बनते हैं। जिसमें माहौल, जगहें, शख़्स, शब्द, कुछ ऐसे ब्यौर जिनमें वे अहसास हो, जो सामने चलते बेजान चीज़ों को भी जिन्दा करदे जैसे नई कल्पनायें दें।

इन चीज़ों को किताब में भरपूर चाहत और मांग से तलाशा जीता है। एक ऐसी किताब जो हमें ऐसे संदर्भो से रू-ब-रू करवायें जिनके साथ हमारा नाता खाली देखकर निकल जाने का नहीं होता या वे रिश्तें उभार जो खुद से बनाये तरीकों पर जीते हैं।

हर संदर्भ में किताब अपनी एक खास जगह बनाती है। जिसकी जगह बन जाने पर हर शख़्स उसमें खुद को खोजता है। अपने सवालों को, अपनी जगहों को, अपनी याद से जुड़ाव रखने वाले चित्रों को, नये शब्दों को, नये रिश्तों को और नई कल्पनाओ को।

ये सब अलग-अलग जीवन की हिस्सेदार बनती है।

जिसमें ऐसे माहौल हो, जिनमें हम रोज जीते हैं लेकिन उनको देखने के विभिन्न-विभिन्न नज़रिये बना नहीं पाते, वे माहौल हो जिनको देखने और उसमे रहने का रिश्ता कई अलग तरह के रूपों में जाहिर होता है।

माहौल, वे रूप लिए हुए हो जो अपने साथ कई ऐसी आवाज़ें लेकर आये जिनको सुनकर अनसुना कर दिया जाता है। किताब का आकार कुछ ऐसे माहौल उभार जो नज़र में होकर भी गायब होते हैं।

जगह, कई अलग-अलग तरह की जगह से मुलाकात करने की इच्छा दिल में ऐसी चाहत को बयाँ करती है कि हम अपने आप उसमें घुसते जाते हैं। किताब में कई ऐसी जगहें हो, जो खाली बनावट का रूप लिए ही ना हो, वे किसी की कल्पनाओ के साथ मे उड़ान भर सके। वे जगहें हो जिन्हें हम खुद से बनाते हैं।

एक ऐसी किताब जो अपने अन्दर के हर अहसास से आदि हो, हर अनुभव को उसमें जगह देने का न्यौता हो जिसमें कई भिन्न-भिन्न छवियाँ अपने रूपों के साथ में जुड़ाव बना सके।

हर चाहत के अनुसार किताब में चीज़ों का आना मुश्किल होता है। लेकिन उसके साथ-साथ उसमें चेहरों, जगहों और नये अथवा विभिन्न माहौल की तलाश हमेशा चलती रहती है। इस तलाश में किताब का नया आकार उभरता है।

लख्मी

Saturday, May 8, 2010

शूरूआत हो जाती है।









राकेश

माहौल को सोचना

घर को किसी सफ़र की तरह देखकर देखे तो हमे क्या नजर आता है?जरा इस घर के ढ़ाँचा से दूरी
बनाकर प्रवृतीयो मे हम जा गीरतें है ।
जो याद और अभी के समय का रिश्ता आने वालें कल सें बनाते हैं।



















राकेश