Friday, December 31, 2010

वापसी नज़र



क्या कुछ छूटने का अहसास होना जरूरी होता है? चीज़ें जिस ओर लेकर जाती है उसी ओर को बन्द भी कर देती है। जो चीज़ या जगह हमें सबसे ज़्यादा महफूज़ करती है वही चीज़ हमें किसी दायरें मे भी रख छोड़ती है। एक दम राजधानी ट्रेन की तरह - जिसमें हर चीज़ पैक होकर आती है। लगता नहीं जैसे हम भी किसी पैकिंग में लगातार चले जा रहे हैं।

लख्मी

Thursday, December 16, 2010

मेरा अपहरण

आवाज़ें रोज़ मेरा अपहरण करती है और ऐसी जगह पर ले जाकर छोड़ देती है जहाँ पर पहले से मौज़ूद छवियों से मेरा कोई समाजिक रिश्ता नहीं होता। सिर्फ आवाज़ों के साथ रिश्ता बनाना और उनको कोई मतलब देना ही नहीं है। सुनना खुद के साथ एक रियाज़ और प्रयोग है जो बिना किसी रिश्ते के बुनता जाता है।

आज सुनने के साथ एक खास तरीके से मुलाकात हुई - इसमें खुद की परिक्षा लेने के जैसा अहसास था। खुद को सुनना और खुद के अन्दर कई तरह की आवाज़ों को महसूस करके आसपास को सुनना। दोनों के बीच में एकांत और शोर का मेल – जोल था।

किसी आवाज़ तक पहुँचना क्या होता है? और उस आवाज़ तक पहुँचना जो बहुत तरल और हल्की होती है लेकिन उसका खिंचाव अपनी चरमसीमा पर होता है? बहुत धीमी आवाज़ मगर बहुत ऊंची। एक मिनट कानों को जोर से बन्द करके सुनने की कोशिश की। लगा जैसे खुद के अन्दर बैठे और खोये चित्रों को झिंझोर रहा हूँ। मैं सोच रहा था की इन सबको अगर भूल जाऊँ या छोड़ दूँ तो क्या हासिल कर पाऊँगा?


एक तस्वीर उभरती हुई मेरे चारों ओर घूम रही थी। जिसका मेरी याद के साथ और मेरे आज के साथ कोई नाज़ुक या कठोर रिश्ता नहीं था। ऐसी आवाज़ जो घुमावदार है जो मेरी सांसो के शोर को अपनी आवाज़ बना लेती है और उसके जरिये मेरे शरीर में सफ़र करती है। कुछ ही पल मे महसूस हुआ की मेरे अंदर चलती कई सारी हलचलें मेरी नहीं थी, उन्हे किसी ने अपहरण कर लिया था। मेरी आँखों में बसी तस्वीरें मेरे होने को झुठला रही थी।


मुझे खुद ही सोचकर एक खास तरह का अहसास होता की आवाज़ें - ये आवाज़ें क्या हैं और क्या वे अकेली हैं या सिर्फ सुनकर, सोचकर और कहने तक ही हैं या फिर उनके ऊपर कुछ करने के जैसा। क्या ये जीवन को समझने में कोई मदद नहीं करती?

वे आवाजें जो हम कमरे के भीतर सुनते है वही आवाज़ें, वही जगह, वही टाइम और वही सवाल हमारे साथ रहता है लेकिन स्थान अगर बदल जाये तो? कुछ देर के लिये मैं छत पर चला गया। सोचा की यहाँ पर मैं अपनी सोच की कैद से बाहर निकलकर कुछ नया पिरो पाऊँगा? छत पर जाने के बाद में लगा की आवाज़ कभी अकेली नहीं होती। आवाजें छत तक आने में कई और आवाज़ों का सहारा लेती हैं और शेम्पू के बुलबुले की भांति कोई आकार लेती हुई छत तक आती हैं। ऊपर की ओर आते-आते एक धमाका करती हैं। मगर इस धमाके में वे अपना दम नहीं तोड़ती बल्कि एक बड़े आकार में शामिल हो जाती हैं। इसी में सारा समझना, रिश्ता, पहचान छुपा होता है। ये आवाज का ब्लास्ट हो जाना असल में खुद के साथ कोई कनेक्शन होने के समान ही था।

मगर सिर्फ हमारे सवाल और हमारे समझने के साथ समझोता ही नहीं थे। आवाज़े खाली सुनने और समझने के साथ रिश्ता नहीं बनाती। बल्कि आवाजों का ठहराव, परत और तेजी किसी वक़्त को इस तरह जोड़ देती है जिससे की वे उसकी राहगीर बन जाती हैं।

ये सफ़र की तरह बढ़ता चलता है -
लख्मी

Friday, December 3, 2010

इशारे भर शहर







लख्मी

कुछ याद क्यों आता है?

काफी दिनों से शहर मे ऐसे घूम रहा था जैसे कुछ तलाश रहा हूँ। लेकिन इस घूमने के बाद जब सोचता तो साफ लगता की तलाश मे हो रही चीजें, गुजर रही बातें सबको खुद से जोड़ रहा हूँ। काफी घूमने के बाद मे थोड़ा खुद को तोड़ने की इच्छा हुई। सवाल उभर रहा था खुद से कि सफ़र को अगर खुद के साथ न जोड़ा जाये तो वे क्या चिंह खोलता है रास्ते और शहर को सोचने के? क्यों किसी को दोहराया जाये और क्यों किसी को याद किया जाये? क्या दोहराना याद करना होता है? या याद मे रखना एक दिन दोहराने मे तब्दील हो जाता है?

दिन और दोहपर मे घूमते हुए आज ये गाना अचानक याद आया। “जीनव के सफ़र में राही - मिलते हैं बिछड़ जाने को।
और दे जाते हैं यादें तन्हाई मे तड़ पाने को"

असल मे याद नहीं आया बल्कि लगा जैसे ये इस सफ़र के लिये ही बना था। चेहरे लगातार बदल रहे थे जिनको याद में रखना कोई जरूरी नहीं था। लेकिन कभी किसी मोड़ पर उसे दोहराया जरूर जाया जा सकता था। दोहराने की उम्र बहुत कम होती है। इसकी जगह दिमाग में बहुत कम होती है। जैसे ये ट्रांसफर होने के लिये बना है। बिलकुल उन यात्रियों की तरह जो बस में चड़ते हैं और गेट के पास ही खड़े हो जाते हैं।

पूरे दिन में आज इतने लोगों की छूअन ले चुका था की अब तक कितने अक्श मेरे होने को बना रहे हैं ये सोचना और कल्पना आसान नहीं था। ये खाली मेरे अंदर कितने चेहरें बस गये हैं, ये नहीं था बल्कि मेरे बाहर चलते शहर की मात्रा कितनी घनी हो गई है इसको सोचना मेरे लिये बहुत महत्वपूर्ण हो गया था। बगल से निकलने वाला, टकराने वाला, कुछ पूछने वाला, कुछ बताने वाला, साथ मे बैठने वाला, मुझे सुनने वाला, मुझे देखने वाला। इनके चेहरों को याद रखना जरूरी नहीं है। बल्कि ये क्या चिंह छोड़ जाते हैं उन चिंहों को दोहराना ही सफ़र है।

कभी-कभी लगता जैसे लोगों को याद रखा ही कब जाता है? वे किसी वक़्त के साथ दोहराने के लिये कुछ समय ठहराव लेते हैं। कोई काम, खेल, रास्ता, अदा और बैचेनी की चाश्नी में घुले कुछ चेहरे मटमैले हो जाते हैं। चेहरा याद ही कहाँ रहता है। याद तो वो चाश्नी रहती है। जिसको बार-बार चटखारे लेकर दोहराया जाता है।

ये गाना - मुझे मुझसे बहुत दूर ले गया था। लगता था की शहर को खुद मे डालने के लिये इसे गा रहा हूँ। उन दृश्यों को इसकी तस्वीर बना रहा हूँ जो मेरी आँखों से दूर होते ही शहर मे घुल जाती है। या हवा हो जाती है। जिनको दोबारा से पकड़ा नहीं जा सकता। हाँ, उसके जैसे दिखने वाले दृश्य से पिछले का अंदाजाभर लिया जा सकता है।

घुलते हुये इस शहर मे जब हम बेनाम और अंजानपन से चेहरों से दूर कर रहे होते हैं तब अपने भीतर भी उनको किसी वक़्त से भिड़ा रहे होते हैं। ये भिडंत क्या है? क्या ये देखने वाले की कशमकश है या उसकी तेजी है?

घूमना अब भी जारी है -
लख्मी

Thursday, December 2, 2010

ठहराव और रफ़्तार के दरमियाँ

भागते और ठहरते हुए समय को हम कैसे सोचते हैं?

ये एक ऐसा कोना है जो कई नक्शे तैयार करता है। अजनबियों का एक ऐसा रास्ता जो शहर को बनाने मे मदद करता है। चलता है, रूकता है, भागता है, सोता है, सांसे लेता है और फिर से कहीं चल पड़ता है। कहीं पर अगर आँख रूक जाये तो इस पूरी जगह को तोड़ने का काम करती है। तोड़ना यानि खुद को मौजूद रखना।



लख्मी

Thursday, November 18, 2010

बहते रास्ते

हमेशा कुछ ताज़ा रखने के लिए - कुछ पीछे छोड़ना जरूरी महसूस होता है।
नजदीकी के अहसास को बरकरार रखने के लिए लगता है जैसे दूरी से भिड़ना जरूरी होता है।

ये भिड़ंत क्या है?

किसी चीज़ के साथ भिड़ना और किसी चीज़ को साथ लेकर उड़ान भरना दोनों के बीच में एक सकेंत का दृश्य होता है।

Wednesday, November 3, 2010

एक जगह ऐसी -

( विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता )
एक शख़्स हताशा से कहीं बैठ गया।
मैं उस शख़्स को नहीं जानता था मगर हताशा को जानता था।।
मैंने उसे अपना दिया। वो हाथ पकड़ा और खड़ा हुआ।
वो मुझे नहीं जानता था। मगर मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था॥
हम दोनों कुछ देर साथ चले।
हम एक दूसरे को नहीं जानते थे बस, साथ चलने को जानते थे।


वो कोनसी जगह होगी जहाँ पर खिलने और उड़ने का मौका मिले। जहाँ पर रूकने और तैरने का इशारा मिले। जहाँ पर मिलने और ठहरने का अंदेशा मिले। हमको लगता है हर शख़्स अपने भीतर ऐसी ही किसी जगह की कल्पना लिये चल रहा है। वो जगह जिसे वो रोज़गार और रिश्तों से बाहर देखता है। जिसमें खुद की कल्पना होती है। ऐसी कल्पना जिसे वे एंकात में जीना चाहता है। ऐसा एंकात जिसमें वो खुद को नये रूप में देखे और बनाये। अपना वक़्त, अपनी कला, अपने रियाज़ और अपना ठहराव – तेजी सब कुछ किसी ताल में सोच पाये।
आप ऐसी कोनसी जगह की क्या कल्पना करते हैं? जो परिवार, काम, दुकान और ट्रनिंग सेंटर से अलग है? वो जगह जो आपको उड़ान की तरफ ले जाती है। वे उड़ान जिसकी ओर आप जाना चाहते हैं।



हमें बताएँ वो जगह कोनसी होगी और कहाँ पर होगी? कैसी होगी? उसका वक़्त क्या होगा? अपनी कल्पना को तस्वीर दें।
ट्रिकस्टर ग्रुप
पता - जे 558, दक्षिणपुरी, नई दिल्ली - 110062
इमेल - ek.shehr.hai@gmail.com
फोन नम्बर - +919811535505, +919811233689

असपष्ट शहर



"असपष्ट शहर" - संभावनाओं से भरा शहर।
अनकेनी की तरह ले जाता शहर।
बिना रूके, रोक लेने वाला शहर।
जीने को जीने लायक बनाने वाला शहर।
सफ़र को चौंकाने वाला बनाते रहने वाला शहर।

धूंधला होना और असपष्ट होना दोनों के बीच मे रहने का ये अहसास अपने चित्रों को मान देने के समान होता है। उन चित्रों को जो किसी से भिड़ने के लिये तैयार रहते हैं।

लख्मी

Saturday, October 23, 2010

ओखला कॉर्पोरेट्स और जनता की पहल

मानवीय नमूना





ओखला के आसपास बहुत से पॉश कॉलोनियों मिल अपने घरेलू सफाई, ड्राइवरों, आदि ।
कॉर्पोरेट्स और जनता की पहल की कमी जैसी मदद करता है ऐसे स्थानों बनाया है।
ये बस्ती में रहने वाले लोगों जिसे हम क्षेत्र के प्रदूषण के लिये जिम्मेदार ठहराजाता है।
वो किसी के लिए घरेलू नौकर का स्रोत बनते है। और फैक्ट्रीयो मे श्रम भी करते है।
उनके घर कैसे है कैसे जीवनयापन करते है।
इस कार्यालो के मलिको को कोई फर्क नही पड़ता ।
उनका मशीन से काम कर के आने बाद वो अपने आम जीवन को किसी कल्पना की तरह सोच कर फेक्ट्रीयो में काम खत्म करने के बाद शूरू होता है।
पहले और बाद के बीच का जो दायरा है वो मशीन को अपनी दुनिया मे कुछ अलग ढंग से ले जाने का है।
जिस मे अगर झाक कर देखेंगे तो दोनो का मिला-जूला एक गठन समझने को मिलेगा।

राकेश

Wednesday, October 13, 2010

Friday, October 8, 2010

अनगिनत परछाइयों की छाया



हर कोई अपने अंदर कई ऐसी परछाइयाँ लिये चलता है जिसे वे किसी छाया के रूप के बनाने की कोशिश में है। वे परछाइयाँ जो उसकी हैं, उसपर जिसकी पड़ी हैं उसकी हैं, उसकी हैं जो उसे छोड़कर चला गया है और उसकी जो उसके लिये आया है। एक अकेली परछाई हकीकत में कई छुअनों का अहसास देती है और एक छाया कई परछा‌इयों के मिलन से बनती है।

वो मिलन जो किसी के छूने से बना है, किसी के इशारे से पनपा है, किसी के अक्श से बना है। इसमें उस गुंजाइश का कल्पना होती है जो कई और जगहें और ठिकाने बनायेगा। वे ठिकाने जो किसी एक के लिये नहीं होगें।

लख्मी

Monday, October 4, 2010

शहर का नीला डर

ये एक ख़ास मिलन है। इस मिलन में एक ख़ास झलक है और इस झलक में एक ख़ास पल भी छुपा है। साथ ही साथ इसको एक ख़ास भविष्य से भी समझा और देखा जा सकता है। भई, सरकारी महकमों का तो यही समझाना है। फिर कोई कैसे चूक सकता है इसे समझने के लिये। 'तैयारी औ डर' ये संजोग इस सारे सफ़र का।




तैयारी जहाँ विश्वासजनक दुनिया बनाने की पूर्ण कोशिश करती है वही पर एक डर के पायदान को भी खुला छोड़ देती है। हम किस ओर जा रहे हैं और हमरा ओर है कोनसा? इस सवाल का सबसे महत्वपूर्ण भाग तो तब शुरू होता है जब ये दोनों की एक दूसरे के बहुत नजदीक होते हैं। दिनॉक 1/10/2010 को दिल्ली की सड़कों पर इस अहसास को महसूस किया मैंने। वैसे तो मेरे एक साथी ने इसे पहले ही मुझे महसूस करवा दिया था मगर मैं सोच रहा था कि सारे सविधान तोड़ने वाली और उसे भिड़ने वाली पब्लिक कैसे नियमित दुनिया की रहनवाज़ हो सकती है?
'यहाँ पोस्टर लगाना मना है' इस लाइन को छुपा देता है शहर पोस्टर के नीचे।
'नो पार्किंग' इसपर डिप्पर लाइट ओन करके सुस्ताता है शहर।
'ये आम रास्ता नहीं है' इसे अपना समझकर इस्तेमाल करता‌ है शहर।


मगर ये सारे सविधानों का पिता दिखा उस तारीख को। शहर का 'नीला डर' ये आसमान नहीं है और न ही पानी है। ये तो कुछ और है।
लेकिन खेल फिर भी चालू है - भिड़ंत को हर जगह महसूस किया जा सकता है।

एक बार हमारे एक साथी ने सवाल किया था जो आज खुला महसूस होता है -
जो नियमों को माने वो सच्चा और अच्छा नागरिक और जो नियम न माने वो बाग़ी लेकिन जो नियम में जाये और बाहर आ जाये उसे क्या कहेगें?


लख्मी

दूरियाँ



'कहीं' किसके पास है?
'कहीं' कोन जीना चाहता है?
'कहीं' को कोन देता है?

लख्मी

Tuesday, September 28, 2010

सच और सजीव के पीछे क्या?

झूठ क्या है? कितना आसान और सुलझा हुआ सा सवाल है? इसी में जुड़ा है निर्जीव क्या है? बौद्धिक रूप से देखा जाये तो कुछ भी झूठ और निर्जीव नहीं होता। हम एलीमेंटस को निर्जीवता से आंकते हैं और सुनने - समझने को झूठ का जवाब। लेकिन, अगर सब कुछ अनुभव हैं तो और सबका अनुभव सबका अपना सच होता है तो फिर झूठ क्या है?

झूठ एक संभावनात्मक रूप से जीता है। जिसके आधार अगर न कहकर भी तलाशा या जिया जाये तो वे फलता - फूलता है। इसके अवशेष कई कथाओं को जीवन देता है। सही मायने मे अगर इसके चिंह खोजें जाये। ये महज इसका रिश्ता कहने और सुनने के साथ होता है। झूठ की अपनी कोई तस्वीर नहीं है। ये मानना और माने जाने के साथ बहस करता है। झूठ तब आता है या तब होता जब सच्चाई होना होता है। यानि झूठ को अकेले नहीं समझा जा सकता वे सच्चाई के सामने खड़ा होकर पैदा होता है।

जीवन को जीने के कई कारण, निर्णय और समझोते हैं जिनमें खुद को उसमे ढालने और रमाने का एक खास अहसास जुड़ा होता है। इनको अपने मानने और किसी और समझाने की कल्पना को सोचा जाये तो ये संभावनात्मक बनता है। यहाँ इस अवस्था में हम झूठ और सच को सोचे तो लगता है की जैसे दो पार्टीशन को जीने की बात कर रहे हैं।

सबसे मजेदार बात होती है कि झूठ मे किसी दूसरे की कल्पना समाई होती है। सच खुद में होता है लेकिन झूठ हमेशा किसी दूसरे का अहसास करवाता है। झूठ अपने से बाहर होता है। अपने अंदर का झूठ भी खुद के अनुभव का सच बनकर बाहर आता है।

इसके अहसास क्या है ?
सच बहुत ठोस होता है लेकिन झूठ तरल और न होने की छवि में बनाया और पिरोया जाता है
झूठ रूपकों से बयाँ किया जाता हैं
झूठ में एक समय का अहसास होता है
झूठ में कभी अकेला नहीं होता वे किसी माहौल, शख़्स या कहानी का पात्र बनकर उभरता है

कैसे ये अहसास होता है कि ये जगह किसकी है? इसमें बँटवारा ये हो सकता है कि "हमारी - तुम्हारी" या फिर इसको सोचा जाये की "सबकी"। इसको कैसे चिन्हित किया जाये?

ये एकदम अधूरा और कटा हुआ है। समझ लें की जीवन के अक्श अभी किसी 'पज़ल गेम' की तरह से टूकड़े होकर बिखरे पड़े हैं। ये टूकड़े मरने के समान नहीं होते बल्कि इनको जोड़ा जा सकता है। दोबारा से बनाया जा सकता है।

लख्मी

Monday, September 20, 2010

हवादार दर



कोई जा रहा है।
कोई मगन है।
कोई टहल रहा है।
कोई खो रहा है।
को झूम रहा है।
कोई झांक रहा है।
कोई बदमाशी कर रहा है।
कोई उदास है।
कोई मना रहा है।
कोई रोमांश में है।
कोई गा रहा है।
कोई सुन रहा है।

इस "कोई" की कोई सीमा नहीं -

लख्मी

Tuesday, September 14, 2010

एक अजनबी

सड़क पार कर रहा होगा।
गाड़ी को धक्का लगा रहा होगा।
नाले किनारे बैठा बीड़ी पी रहा होगा।
झूले को धक्का मारकर ले जा रहा होगा।
टेंट उखाड़ रहा होगा।
खेलों के लिए सड़क पोत रहा होगा।
बस का इंतजार कर रहा होगा।
सड़क के किनारे लगे पेड़ के नीचे पसीना पोंछ रहा होगा।
स्टेशन के गेट पर खड़ा खिड़की खुलने का इंतजार कर रहा होगा।
बस के पीछे लटक रहा होगा।
कंधे पर बोरी लटकाए कुछ बीन रहा होगा।
अपने हाथों से दूसरे हाथों में पेम्फलेट बाँट रहा होगा।
बीआरटी कॉरिडोर को डर-डर के पार कर रहा होगा।
सड़क पर लगे बोर्ड पढ़ रहा होगा।
साइकिल की उतरी चेन लगा रहा होगा।
पानी की रेहड़ी के छाते के नीचे छुप रहा होगा।
पैदल पथ में कहीं सो रहा होगा।
खम्बे पर चढ़ा होगा।
भरी धूप में चिल्ला रहा होगा।
उस चिल्लाते हुए को देख रहा होगा।
आटो के मीटर की रेटिंग देख रहा होगा।
टूटी हुई चप्पल से चलने की कोशिश कर रहा होगा।
बस के गेट पर लटका होगा।
साथ वाली लड़की को देख कर मुस्करा रहा होगा।
सवारी उठाते आटो में फँसकर बैठा होगा।
सड़क पर अपनी जेब से गिरा रूपया खोज रहा होगा।
किसी की साइकिल पेंचर कर रहा होगा।
किसी खड़ी गाड़ी के होर्न को बार-बार बजाकर भाग रहा होगा।
कुत्तों से डरके गली में से निकल रहा होगा।
खिड़की पर खड़ा होकर मौसम को कोस रहा होगा।
नौकरियों के फॉर्म में अपने मुताबिक कुछ तलाश रहा होगा।
छोले-भटूरे की दुकान पर खड़ा जेब टटोल रहा होगा।
बस स्टेंड पर बैठा पेंटिंग कर रहा होगा।
धूप में अपनी किताब सुखा रहा होगा।
बस स्टेंड पर लेटा किताब पढ़ रहा होगा।
गली के कोने पर गुट में बैठा कोई अधूरी कहानी सुना रहा होगा।
किसी दीवार पर रात में कुछ लिख रहा होगा।
स्ट्रीट लैम्प की रोशनी में दीवारों पर पोस्टर चिपका रहा होगा।
बाहर खड़े रिक्शे पर अपने सोने का इंतजाम कर रहा होगा।
तेज हवा में दिया जलाने की कोशिश कर रहा होगा।
किसी दरवाजे से कान लगाकर कुछ सुन रहा होगा।
अस्पताल के बाहर खड़ा दुआ पढ़ रहा होगा।
गले लगाने के लिये किसी को ढूँढ रहा होगा।
बारिश से बचने के लिये कोई ओटक तलाश रहा होगा।
किसी से माचिस मांग रहा होगा।
अपनी दुकान उठा रहा होगा।
अपने घर का छप्पर ठीक कर रहा होगा।
भीड़ मे खड़ा देख रहा होगा कि वहाँ उसके जैसे कितने लोग हैं।

मेरे साथी ने एक बार एक लाइन कही थी जो अब 'बहुरूपिया शहर' किताब में है-
"शहर में रेड लाइटें नहीं होतीं होते हैं तो बस अनजबियों के हाथ"

लख्मी

Tuesday, September 7, 2010

दूर बनता शहर



बचपन के शरारते, बड़ों के खेल
बचपन मे खिलोने, बड़ो के बर्तन
बचपन की कहानियाँ, बड़ों के अनुभव
बचपन की बातें, बड़ों की दुनिया
बचपन के घरूए, बड़ो के घर

ऐसी ही कल्पनाओं और जूझने से बनता है कहीं किसी कोने मे शहर।

लख्मी

Tuesday, August 31, 2010

जो सबसे नजदीक रहती है

आर.टी.वी बस में कोने की सीट
पार्क में कोई तनहा बेंच
खाली बस स्टेंड का इशारा
बाइक के पीछे की सीट
स्ट्रीट लेम्प के नीचे का कोना
छत की तन्हाई में सुनी बालकनी
गली का सबसे कोने का मकान
सबसे पीछे वाला चबूतरा
चौराहे पर खड़ा स्कूटर
किसी स्कूल की मुंडेरी
बारात घर की छत
बन्द घर की बाहर निकलती सीढ़ियाँ
बनते हुए मकान की बेकार पड़ी इंटे
फैंकी गई कुर्सियाँ
टेंट वाले के सुखते कारपेट
मिट्टी के भरे पड़े बोरे
रेट के चिट्ठे
भूली पड़ी खाट
बन्द हो रहे बाजार के तख्त
सड़क किनारे खड़े रिक्शे
खाली दुकान के बेंच
नाई के शीशे
प्याऊ की टंकियाँ
मन्दिर की सीढ़ियाँ
बूड मार्किट की लकड़ियाँ
चलान मे पकड़ी गई बसें
जले हुए बर्तन
शमशान की कब्र
पेड़ों पर बनी मचान
सर्कस की सबसे पीछे वाली कनात
मेले के झूले
किसी सरकारी आफिस की रेलिंग
बैंक के बाहर लगी सीटें
बस स्टेंड का कोना
जागरणों मे बिछे टाट
पार्क फिल्मों के पड़े बोरे
आफिस की लाइब्रेरी की कोई भी कुर्सी


किसी के पास है कोई - किसी की तलाश मे है कोई

लख्मी -

Friday, August 27, 2010

चीजो को उसीं तरह रेहने देना



सदा हम चीजों के आस-पास होते हैं। कैसें कहाँ ,क्यों इस सें हम अन्जान होतें हैं।
एक जगह की कल्पना मे हम किसी तरह तो हैं।


राकेश

Sunday, August 22, 2010

मस्तकलंदर

समय ,11:40 pm
दैनिक सूपर हिरों ,जिन्दगी भी हमें कुछ न कुछ जरूर देती है ।
हम खूद भी अपने लियें कारवां चूनते है। मस्तकलंदर की तरह ।





राकेश

Friday, August 20, 2010

अपनी दुनिया

कभी-कभी सब अजीब सा लगता खुशी और ग़म साथ चलने वाले दो साएँ की तरह होते हैं। जो न हाथ में आते हैं और न ही हमें छोड़ते हैं। हालातों के टकरावों में सोया हुए तूफान को छेड़ देते हैं। जिसके कारण दर्द असानिये हो जाता है। दर्द का पता भी तब चलता है। जब झुँझलाकर अपनी वास्तविक इच्छाओं को मार दें।

ये कैसी मौत हैं? जिसमें आँखों से पट्टी बांधकर किसी ज्वालामूखी में उतरने की कोशीश कि जा रही है। चारों तरफ भागकर और सब के बीच रहकर भी कोई अकेला नहीं होता। क्या चाहिये, कहाँ जाना है? हम इस सवाल को भूलकर अपनी दूनिया में मस्त होकर जीवन को जीते जाते हैं। वो जीवन जो नित-नये रूपों में दिखाता है। वो जो किसी आँख के दोष या छलावे पर निर्भर करता है।

नीला दूपट्टा, सूखमय अहसास, आराम की नींद, हासिल करना। उसे पाना जो खोया है। ये किस तरह का जीवन है? क्या सब किसी छल का चक्कर हैं? समाज में जीवन का नियम है उस से कोई बचा है या किसी ने इस समाज में आने के लिये अपने नियम बनाये हैं। अगर वो निजी है तो वो समाज में कैसे खुद को जमा सकते हैं। समाज तो बना ही विभिन्न नियम और आजादियों को लेकर। जो सब के लिये कुशल हो लाभप्रद हो। उस समाज के नियमों का गठन ही तो एक मात्र जीवन का घेरा है जिसमें खुद को किसी पर किसी मे जाहिर करने की प्रक्रिया जारी रहती है। जहाँ से हम अपने स्वप्न दर्शनों को किसी के ऊपर उडेल देते हैं। वो अपना हो जाता है या हम उसके हो जाते हैं। यही जिन्दगी का मेल है।

राकेश

मन चंगा तो कटौती मे गंगा

इससे पहले की मैं कुछ कर पाता उसने मेरी बोलती बन्द कर दी, खामोश!

चारो तरफ नाचने वाली मक्खियाँ हैवानियत पर उतर आई, जैसे उनकी शान्ती किसी ने भंग करदी हो।

पीटर माना नहीं, वे अपनी जेब से रुपिये निकालता और ऊँची आवाज़ में कहता, "देख मेरे पास माल कितना है। तू कटपुतली की भांति जीता है, अपुन का ज़िंदगी एक दम झकास है।"

वे अपने आत्मविश्वास की नींव दिखा रहा। उसकी वास्तविकता जो मुझे अस्विकार कर रह थी।अभी उसका आत्मविश्वास चुनौती की कग़ार पर उतरना बाकी था। उसकी पागलों वाली हंसी को देखकर चंद कदमों की दूरी पर तैनात पुलिसकर्मी हमारे नज़दिक आ गए। कुछ ठिठ्की हुई बोली मे उन्होनें हमें लपेटना चाहा। ज़्यादा कुछ नहीं था हमारे पास। पर्स और जेब उन्होने टटोली और सिर से पांव तक तलाशी भी ले ली। पीटर तो सुन्न हो गया। कमाल है बेवजह इतनी बेदर्दी से इन्होने हमारी तलाशी ले ली। इन्हे इस बेदर्दी का जरा भी अहसास नहीं मालूम होता।

दो तीन बार पीटर ने उन्हे पलट-पलट कर देखा। वो अपनी ड्यूटी कर रहे थे या मश्खरी पता नहीं चला। जब वो यहाँ-वहाँ हाथ लगा रहे थे तो गूदगूदी हो रही थी। वो कदमों की ठप-ठप खींचातानी से बना शौर-गूल पास से रगड़ कर चली जाता कोई जो किसी वक़्त को धूंआ सा बना जाता। वे अभिव्यक़्तियाँ यहाँ किसी गली की दिवार पर साया बनकर चिपकी हुई थी।

सेवाराम अपने पान के खोके का पल्ला लगा रहा था उसने कुछ सामान अपने साथ झोले में रखा। उसके खोके के दोनों तरफ पान के लाल रंग की छीटें पड़ी थी।

"अरे ओ सेवाराम के बच्चे जल्दी कर नहीं तो तेरा लाईसेन्स कैंसल करवा दूंगा फिर लगता फिरयों दफ्तरों के चक्करों में"
"हाँ-हाँ साहब करता हूँ। डरा क्यों रहे हो।" पीटर अपनी बात पर अड़ा था। उसने तुरन्त धूंऐ कि तरफ मेरा मुँह किया मेरी ओर देखा। उस रात हम दोनों किसी काम से बाहर आये थे रास्ते में देर होने के कारण हमें घर पहुँचने का कोई ऐसा रास्ता चुनना था जिसमें हमें कोई डर न हो न ही कोई पुलिस वाला मिले। जिसका हमे अंदेशा था वही हुआ सड़कों से बचकर हम इसलिये आये की कोई पुलिस वाला न मिले पर पुलिस वाले बाजार की इस गली में भी अपनी धूनी रमा कर बैठे थे।

ये बाज़ार हमारे लिये कोई नई जगह नहीं थी यहाँ से हम पहले भी गूजरें हैं पर इस वक़्त का अनूभव नया और पैचीदा था। रात के गहरे घने अंधेरे में जैसे कोई देत्य आसमां से उतर आया हो। बुझी लाल टेन और बिजली के बल्बों के घेरे जिनपर स्लेटी और मटमेला रंग धूल की तरह पढ़ा था जैसे कोई खण्ड़रों की तस्वीर सामने आ गई हो। चट्टानों कैसा एक बड़ा सा हवा का गोला हमारे पास घूमता हुआ आ रहा था। कोई सुलघती आग ओस को खा रही थी या ओस उस आग में से चटकते शोलों खा रही थी। पता नही, कौन किस को खा रहा था।

हमारे पांव जमीन से उखड़ रहे थे। जैसे वो देत्य रूपी आग तेज हुई। उससे उत्पन्न रोशनी ने सामने की तस्वीर हमे साफ दिखा दी।

पीटर बोला, "अबे डरपोक वो तो कोई बूढी औरत है जो अंगीठी में आग जला कर बैठे हैं।" कुछ भी हो उसका चेहरा तमतमा रहा था।
"मुझपर हंसने से पहले अपनी तरफ देख तेरे माथे पर पसीनों की झड़ी लगी है।" दोनों एक-दूसरे की ओर हैरानी से देखने लगे। उनके साथ कुदरत क्या करने वाली थी इस बात की उन्हे जरा भी भनक नहीं थी। उस जगह जहां आग के पीले, केसरी धूआँ बन कर फैलते छल्ले दिख रहे थे। उसकी ओठ में दिवार पर किसी की परछाई बनी नज़र आ रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहता था की कोई है वहाँ। किसी का वजूद उस अंधेरी रात में दखिल हो रहा था। हमारे पीछे से आता वो हवलदार सहानुभूती दिखाता हुआ बोला, "कोई प्रोबलेम है क्या?”

कितना आसान सवाल था पर सुनने में हकिकत में ये उतना ही दुर्लब था जितना हम सोच भी नहीं सकते थे। आसान सवाल क्या होते? क्या कोई सवाल आसान होता है? आखिर इस जद्दोजहद से क्या हासिल होने वालामन चंगा तो कटौती मे गंगा था। हवालदार बस इतना पूछकर चला गया। "चलो यहाँ से निकलों" फिर कोई सवाल वो हवलदार करेगा। वक़्त के सात इस जगह में शौरगुल ठहाके और आवाज़े हल्की पड़ गयी थी। परिस्थितियों खुर्दे-सपाट रास्ते खूद भी सो गये थे। मगर मेरा अहसास जागा था। वो इच्छाएँ जो कभी मरती नहीं वो मन में करवटें बदल रही थी। जिन्हे अभी बहुत ऊँचा उड़ना है। स्वर्ग और नर्क के बीच में फसीं इस जिन्दगीं कल्पना देनी है। कितना हैरान किया है इस जीवन की समझ ने मुझे। कुछ हासिल नहीं होता बस कुछ क्षणों की तसल्ली मिलती है फिर बाद में वही दर्द जिसमें जीने की आदत है। वो भला कैसे बदल सकती है। पुरानी आदत कैसे छूट सकती है और नई आदतों को कैसे अपना जाये। कोशिश करो, कोशिश करो। किये जाओ। । वो सम्भव और असम्भव के बीच मेरा प्रवेश अजीब था।

राकेश

Wednesday, August 4, 2010

दूर के सुहावने ढोल

खुश रहने के लिये आखिर करना क्या पड़ता है? क्या खुद को भुला देना ही खुशी है? या खुद को हमेशा याद मे रखना ही खुशी के समान है? मेरे दोस्त अक्सर इस बात से बहस करने के लिये हर दम खुद को आज़माते रहते हैं। लेकिन इसका हल उतना ही नाज़ुक और महीम होता है जैसे तेज़ पानी की धार मे कई बुलबुले जन्म लेते हैं और खत्म होते जाते हैं। इस जीवन की गुणवत्ता को खुशी के अहम झरोखो से होकर देखने की लालसा खुशी का पर्दा कहलाती है।

ये बात कोई खुशी की परिभाषा नहीं है और न ही उसकी कोई चादर। ये तो वो अहसास है जो जीने मे कभी कटूरता ले आते हैं तो कभी सम्पर्ण की बात कहते हैं मगर हाँ, इस बात में कई अनंत जीवन के रूप शामिल होगें।

शहरी चेहरों पर गुदी कई ऐसी व्याख्याएँ अपनी छाप छोड़ती जाती हैं जैसे जो शायद किसी एक ही जुबान से निकलने के बाद में अनेकों जीवन के आधार की अभिलाषी हो। ये होना कोई जादूई खेल नही हैं बल्कि ये उस दमखम से खुद को पैश करना और करते जाना है जिसको कोई कभी न कभी अपना ही लेगा ये रिद्धम इसी दौर में जीती है। जैसे - इसका जीवन फिल्म के उन डायलॉग की तरह होता है जो फिल्म मे किसी मतलब के नहीं होते हैं लेकिन फिर भी किसी के जीवन में किसी पीटे वक़्त को दोहराने के लिये जुबानों पर आ ही जाते हैं।

जीवन के अनेकों अहसासों मे सबसे ज्यादा दूरी किस अहसास से हो जाती है और किसको हमेशा पाने की रेस में रखा जाता है? लेकिन, इससे भी ज्यादा जरूरी ये बात दिमाग मे अपनी निगेबाँह छोड़ती है कि क्या हम हर वक़्त उसी चीज़ की या अहसास की तलाश मे रहते हैं जिसके स्वाद को हमने सिर्फ छुआ या महसूस किया है? क्या हम हर स्वाद को पाने की लालसा पाल सकते हैं? क्या हमारा अपना कोई स्वाद बनता है उसकी परख क्या है?

ये अपने को समझने की बात नहीं है बल्कि उस रफ़्तार को छेड़ने की कोशिश है जिसको हम रेस कहते हैं और सारी तलाशों को उसके मोड़ बनाकर जीते हैं। खेर, ये मोड़ क्या कहते हैं और कहाँ पर ले जाकर छोड़ देते हैं इसका खामियाज़ा किसी के कब्जें मे नहीं है। ये तो अपने मनमुखी द्वार से बनते हैं और अपने साथ किसी वक़्त की गहरी छाप को ले जाते हैं।
सवाल अब भी वहीं पर जमा रहता है - खुश रहना क्या है?

खुश रहना उस उल्लास की तरह क्यों है जो महज़ किसी अवसर का अभिलाषी है? खुश रहना उस भेंट की भांति क्यों है जो किसी और से मिलती है? खुश रहना उस विज्ञापन की तरह क्यों है जो तीन घण्टे के बीच मे आती है? खुश रहना क्यों चाहता है कोई?

इस बात के कई जवाब होगें लेकिन खुश रहने की चाहत बनाना यानि किसी ऐसे स्वाद की तरह बढ़ना जो मन पसंद है।

मेरी एक दोस्त मिली उसका एक बात का जवाब सुनकर मैं दंग रह गया - जो बहुत सरल था। जिसमे कोई बनावट नहीं दिखी मुझे। उसी से ये समझ मे आया की जीवन की नीति क्या है?

उससे मैंने पूछा, “तुम डरावनी फिल्में ही क्यों पसंद करती हो?”
वो बोली, “क्योंकि मुझे बहुत डर लगता है।"

ये एक लाइन मुझे बहुत सरल बना गई। मेरा एक साथी जिसे लिखने का बहुत शौक है। उससे एक बार सवाल किया मैनें, “तुम अगर बहुत मेहनत करके, रात भर जागकर कोई लेख लिखो तो किस गुट मे उसे पढ़ना चाहोगें?”

उसने मुझसे कहा, “उसमें जो लेख को कहानी की भांति सुनता है। जो खुद नहीं लिखता।"

इन दोनों जवाबों में दोबारा "क्यों" कहने का सवाल ही पैदा नहीं हो पाया। ऐसा लगा की जीवन साथी, संगत और आसपास को एक बार फिर से सोचने की पैदाइश हो रही है। ये वो आसपास नहीं है जो पसंद और न पसंद से बना है बल्कि ये वो है जो बहस से जन्मा है।

खुशी होना और खुश होना - इसी रिद्धम के बीच की धरा है जिसमें शख्सियत और जीवन का खेल है। कौन कहाँ पर रूक जायेगा?

लख्मी

मांजना लगा रहता है

जब भी घर में मेहमान आते।
पुराने बर्तन मांजकर उन्हे परोस दिये जाते॥
मैं हर रोज़ पूछता घर में - नये क्यों नहीं निकालते इस वक़्त में?
तो मांजने को सभी जीवन कह जाते॥

हर रोज़ मेरी माँ मांजने में लगी रहती
जब तक चेहरा नहीं दिख जाता, उसे घिसती रहती।

मैंने एक बार पूछा उनसे "तुम बर्तन को कहाँ तक मांजती हो?
पुराने दिन को मिटाती हो या कोई नयी परत चढ़ाती हो?"
वो हँसकर अक्सर बोलती "न पुराने को मिटाती हूँ, न नयी परत चढ़ाती हूँ
मैं तो बस बर्तन को ताज़ा बनाती हूँ॥"

एक दिन मेरी माँ ने ही मुझसे पूछा, "तू जब अपने दोस्तों से मिलता है तो हाथ क्यों मिलाता है?
पुराने दिन की याद दिलाता है या कुछ नया रंग चढ़ाता है?"

सवाल बहुत आसान था और जवाब भी बिलकुल साफ था
न कुछ याद दिलाना था इसमें और नया रंग चढ़ाना था
किसी अहसास को छुअन से ताज़ा बनाना था

हर तरफ हाथ मिलाना रिश्ते को गाढ़ा करने के जैसा महसूस नहीं हो रहा था
ऐसा लगता जैसे - समाजिक का अंत और बौद्धिक को जिन्दा करना लग रहा था।

लख्मी

Monday, July 19, 2010

ये एक खुल्ला संवाद है

अगर किसी सवाल का कोई जवाब नहीं है तो क्या वो सवाल रहता है? अगर वो सवाल नहीं है तो फिर वो क्या है?

मेरे एक साथी ने कहा कि कुछ सवाल हमेशा जिन्दा रहते हैं? यानि जिनका जवाब नहीं होता वे जिन्दापन का अहसास लिये जीते हैं तो फिर इसका मतलब क्या है?

ये एक और सवाल था लेकिन किसी एक ऐसे सवाल को सोचना जिसका कोई जवाब नहीं होता तो क्या उसको शहर मे, जीवन मे, संदर्भ मे और बातचीत मे उतारने के लिये किन्ही और सवालों की जरूरत होती है?

क्या वे सवाल जिनके जवाब नहीं होते, वे सवाल जिनके जवाब हमेशा बदलते रहते हैं, वे सवाल जिनके जवाब है लेकिन तलाशे नहीं जाते, वे सवाल जिनके कई जवाब हैं।

कुछ चीज़ें हमेशा उधेड़बुन मे रखती है। जो कभी समाप्ती या निवारण तक नहीं ले जाती। वे किन परतों मे जीती है? और उनका बसेरा कहाँ होता है?

लख्मी

Thursday, July 15, 2010

एक चुन्नू सी दुनिया

वैसे तो कहते हैं कि ये दुनिया बहुत बड़ी है, विशाल है और बेआकार है। लेकिन उसके बाद भी मिलना - बिछड़ना लगा रहता है। साथ ही साथ ये भी कहते हैं कि हर कोई अपनी दुनिया अपने साथ लिये चलता है और एक वायव्रेश्न छोड़ता चलता है जो शहर मे एक चुम्बक की भांति काम करती है और उस दुनिया को विशालता मे बदलती चलती है। विशालता जो न जाने कितनी ऐसी सांसों और धड़कनों से बनी होती है जिसका रिश्ता और नाता क्या है वे तक नाममेट होता है। बेअसर होता है, बेनाम होता है और महीम होता है।

मगर एक असर जो मुझे अक्सर बहुत महसूस होता है की विशाल दुनिया जब हम कहते हैं तो असल में किसी एक दुनिया का जिक्र नहीं करते या करते हैं तो उसमे अनेकों दुनियाएँ जी रही होती है, पल रही होती है। हर कोई अपनी कोई विशालता तलाशने का जिम्मा उठाकर कहीं दूर जाना चाहता है। किन्ही और रिश्तों, चेहरों मे खो जाना चाहता है, किन्ही और दरवाजों पर दस्तक देना चाहता है। मगर क्या हम जानते हैं कि ये असलियत मे होता है?

पिछले दिनों अपनी एक दोस्त से बात कर रहा था। वे लिखती हैं, वे सपनों को भी अपनी प्ररोफाइल ( परिचय ) में जगह देना चाहती हैं और उन लोगों को देखना चाहती है जिनको सपनों मे जगह नहीं मिलती। यानि अपने मन को आजाद रखकर दोस्त बनाना चाहती है।

उसके साथ बातचीत में रोमांचक था की तलाश अपने अन्दर जाने की नहीं है बल्कि अपने से बाहर "किन्ही और" के बीच में उतर जाने की है।

क्या दुनिया वही होती है जो हमें मिलती है या दुनिया वो होती है जिसे हम बनाते हैं? ,मिलना और बनाना क्या है? एक वक़्त मे लगा जैसे मिलना हमें समाजिक नितियों मे ले जाता है लेकिन फिर भी उसमे एक उर्वर स्पेश होता है। कभी - कभी खुद बनाना भी उस चुनाव की तरह हो जाता है जो अपने बेहद नजदीक होता है। नजदीकी हर तरह की सूरत मे हो सकती है लेकिन बनाना और चुनाव दोनों एक साथ चलते हैं।


माना की इस दुनिया का तैराकी सफ़र बहुत रोमांचक होता है। लेकिन एक बात दिमाग में ठहरती जाती है - यहाँ पर हर कोई अपनी दुनिया को विशालता में ले जाना चाहता है लेकिन इसे विशाल करने की प्रक्टिक्स क्या है?, यानि अभ्यास क्या है?

लोग जो अपनी दुनिया बनाते हैं उसमें साथी चुनने का अभ्यास क्या है? एक बार तो लगता है कि जैसे चुनाव ही हमारी जिन्दगी का सबसे हसीन और सबसे खतरनाक अभ्यास भी है। इसमें बँटवारें का वो पहलू छुपा है जिसको हम अपने बेहद नजदीक लेकर जीते हैं।

अपनी दोस्त से बात करते हुये एक रोमांचक स्थिती पर पहुँचा - मैं उसके परिचय को पढ़ता हुआ उसकी तस्वीरों को भी देखने लगा। कुछ देर के बाद मे उसमे बहुत अटपटे सवाल किये।

उसने लिखा, “आप कौन है?”
मैनें लिखा, “मैं लख्मी हूँ"
उसने लिखा, “हाँ, ठीक है लेकिन आप है कौन?”
मैंने लिखा, “मैं एक लड़का हूँ।"
उसने लिखा, “वो तो ठीक है मगर आप है कौन?”
मैंने लिखा, “मैं एक लेखक हूँ दिल्ली मे रहता हूँ।"
उसने लिखा, “आप कौन है वो बताइये?”
मैंने लिखा, “मैं एक हिन्दी ब्लॉग चलाता हूँ अपने एक साथी के साथ।"
उसने लिखा, “ये सब तो ठीक है लेकिन आप कौन हैं?”
मैंने लिखा, “मैं फेसबुक में नये संवाद करता हूँ, दोस्तों की फोटो के साथ खेल करता हूँ।"
उसने लिखा, “तो मैं क्या करूँ, आप कौन है वो बताइये?”
मैंने लिखा, “मैं आपके फेसबुक के घर मे एक बिना किराये का पेइंगगेस्ट हूँ।”
उसने लिखा, “ आप मुझे जानते हैं?”
मैनें लिखा, “हाँ आपके लिखित परिचय से वाकिफ हूँ।"
उसने लिखा, “बिना रिश्तों के किसी के दरवाजे से अन्दर दाखिल नहीं होते।"
मैंने लिखा, “तो क्या बिना जान – पहचान के कोई रिश्ता नहीं होता?”
उसने लिखा, “नहीं, हम अपने को सोचते हुये अपना घर सजाते हैं।"

मैनें लिखा, "हम बिना चुनाव के अपनी दुनिया को बड़ा नहीं कर सकते? घर से बाहर आये मगर वहाँ पर भी दोस्त अपनी मनमर्जी के क्यों चुनते हैं?”
उसने लिखा, “उसी को तो हम अपने घर मे सोचेगें की जिसको जानते हैं, समझते हैं!”
मैंने लिखा, “पूरी दुनिया को सजाने का अहसास लिये हम अपना कोना क्यों तलाशते हैं? हर जगह आसरा क्यों चुनने लगते हैं?”
उसने लिखा, “अस्पताल में बेड बदलने वाला भी अपना सारा समान लेकर जाता है और वहीं पर रूकना है कुछ समय के लिये, ये सोचकर ही तो अपना ठिकाना तय करने लगता है!”
मैंने लिखा, “आप कौन हैं फिर ये सवाल क्यों पूछते हैं हम? मैं भी तो उसी अस्पताल का कोई शख़्स हूँ जो किसी लाइन, भीड़, पर्चे, रास्ते मे मिला होऊँगा आपको।"
उसने लिखा, “इट्रस्टिंग।"

बातचीत कुछ समय के लिये रूक गई, लेकिन अपना आसरा, अपना कोना और अपना चुनाव ये किस ओर ले जाता है? और उसके निश्कर्ष क्या है? अगर "साथी" उसका निश्कर्ष है तो उसमे संभावनाये क्या है और नकारात्मक चीज़ क्या है?

एक वक़्त मे लगा की हमें साथी, संवादक, पाठक और सलाहकार को दोबारा से सोचना होगा।

लख्मी

Tuesday, July 6, 2010

The Last Layer

बहुत इट्रस्टिंग है, दुनिया जिसे पाना या सुनने के लिये अकेला छोड़ा गया है असल में वे किन्ही ऐसी दुनियाएँ अपने साथ लिये जी रही हैं जिसका कोई अंग ही नहीं है फिर भी वे साथ रहने का अहसास देती है।

सुनना और कहना - इसके बीच में हमेशा एक द्वंध रहता है -
उन शब्दों और जीवन के पलों को एक साथ कहीं किसी दिशा मे ले जाकर सोचना बेहद मुश्किल हालात की व्याख़्या करने लगते हैं और जीवन की ओझल और नज़र आती आकृतियों के लिये मुनासिब नहीं होता।

विस्तार खाली यही नहीं है कि अपनी मुलाकात के कुछ हाथ मे पकड़ बनाने वाले अवशेषों से दुनिया को रचा जाये। एक मुलाकात याद आई – पिछले दिनों मैं पोढ़ी गड़वाल गया। वहाँ पर फरीदाबाद से आये हुये एक शख़्स से मुलाकात हुई। वे फरीदाबाद में मजदूर अखबार बनाते हैं। उनका नाम – शेर सिंह है। वे उम्र मे काफी सीमाये पा चुकें हैं। उन्होनें एक अखबार मुझे दिया और पढ़ने को कहा। उनके साथ बातचीत के दौरान वो अखबार मुद्दा नहीं था बल्कि वो नज़रिया या वो गेप था जो शहर के साथ मिलने और जूझने के लिये बनाया गया था।

शहर काफी था लेकिन वही शहर था जो बनाया और देखा जा रहा था। कुछ समय के बाद में लगा की जैसे उल्लास का होना जीवन में खाली फिल्म के बीच मे आने वाली उन मसूरी यानि एडवोटाज़िंग की तरह है जो शायद कुछ पल में चल जायेगी, जिसका टाइम फिक्स है और जो हर आधे घण्टे के बाद में आयेगी।

उनका अखबार पढ़ते समय कुछ सवाल दिमाग में घूमें तो खाना खाते समय बातचीत करने की इच्छा हुई।

मैं इन सवालों को सोच रहा था -
एक चेप्टर में कई जुबानें होने से क्या दुनिया बड़ी होती है या गहरी?
जुबानों को कोई जीवन ले रहा है या कोई कान? जुबानों को सुन कोन रहा है?


वे अपने अखबार को बोलते समय जो छोड़ रहे थे वे अखबार ही था। जो सुना रहे थे वे था वो जीवन जो अखबार से पहले का दर्शन था। लोग अपनी इच्छाओं से कुछ पैदा करते हैं जो उनके बड़ी मश्क्कत के बाद मे और मेहनत के बाद मे मिलने की एक राह दिखाई देती है लेकिन ये दिशा जब धीरे - धीरे मिटने या गायब होने लगती है तो वे सारी इच्छायें जाती कहाँ है?

डार्क दुनिया और गाढ़ी दुनिया : - इन दोनों के बीच में क्या फर्क है? इसका बीच का दृश्य क्या है?

जब वो बातचीत मे थे तो लगा जैसे जो सुना रहा है वे उस दुनिया का पात्र है जो अपनी सारी उलझनों को गाढ़ा करके दिखा पाने की क्षमता रखता है और उस क्षमता का विस्तार सुनने वाले के जीवन मे उस समानता की जिक्र करता है जो हर अवशेष मे, सफ़र मे और बैठकर मे बराबर है। वे नीजि होने से बाहर है। एक बेहद इन्ट्रस्टिगं बात लगी।

उन्होने कहा, “हम लिखते क्यों हैं?, अगर हम कहे की लिखना 99 प्रतिशत गुमराह करने के लिये होता है तो आप क्या कहेगें?"

मैं सोच रहा था इस बात से की, जब चीज़ें अपनी चरमसीमा पर होती है, अपने बहकने और अपने बनने पर होती है तब लिखना अपनी दुनिया किसी के बोलों और अपने मौजूदा शब्दों की रखवाली करने के लिये नहीं होता। वे रचना के उस शिखर पर होता है जिसको आज से पहले और अब से पहले उसे किसी ने नहीं चखा हो।

उनके जीवन की दिशा मे लेखन गुमराह करना इस सोच से नहीं था कि लोग जो लिख रहे हैं वे रोजगार में चला जाता है। यानि लेखन अगर रोज़गार है। वे अगर स्कील ( हूनर ) है तो ठीक है लेकिन अगर वो हूनर है फिर लिखने वाला किसी और की ज़िन्दगी को क्यों लिख रहा है अपनी से बाहर क्यों है?

ये बहस एक पोइंट पर ठीक लगती है लेकिन एक वक़्त के बाद मे लगता है जैसे जीवन को अपने खुद के चश्मे से देखने के समान है।

वे फरीदाबाद मे एक संदर्भ बनाये है जहाँ पर लोग आते हैं। वे लोग जो किसी न किसी रह के काम से जुड़े हैं जैसे फैक्टरी मे काम, हुनरमंदिदा काम वगेरह। वे वहाँ पर आकर बैठते हैं और बातें करते है। कोई कुछ लिखता नहीं है। अगर कोई किसी चीज के बारे मे सुनाना चाहता है तो सुना देता है। उसी को वे शब्दों मे ढालकर अखबार मे डाल देते हैं।

एक इंट्रस्टिंग बात – जो सुनाने मे आ जाता है या जो सुनाने मे नहीं आता खाली वही जीवन क्यों होता है? जो चाहते और कल्पनायें हैं वे कहाँ है? वे सारी जाती कहाँ हैं? एक वक़्त मे कहानियाँ जो सुनाई नहीं गई वे कहाँ चली गई का सवाल छोटा लगने लगता है लेकिन जो कल्पनाये और चाहते बोलों मे नहीं आई वे कहाँ चली गई? ये सवाल बहुत गहरा होने लगता है।

इस जीवन की धारा मे उल्लास पैदा करना होता है या उल्लास होता है उसे परखना होता है? अपने लिये परखना और अपने से बाहर परखना क्या होता है?

मेरे दोस्त लव ने उनसे एक सवाल किया, “ये अखबार कौन लिखता है?

तब उन्होने कहा, “इसे हम नहीं लिखते ये लोगों की जुबान है।"

एक ही पल मे ऐसा लगा जैसे किसी चीज़ से तुरंत ही दूर हो गये। कभी - कभी लगता है जैसे बोलना अपनी जिन्दगी में संदर्भ से बदल जाता है। वो बोल कहाँ पर रहा है? का अहसास भारी होता है। वो आपके संदर्भ मे कुछ सुनाने के लिये आया है तो क्यों? क्या उसे संदर्भ का पता है?, वे क्या सुनता है?, उसके कान कैसे है? इसका भार होता है।

एक अलग सोच : -

अंधेरा क्या होता है? क्या अंधेरा भारी होता है? क्या अंधेरा ठोस होता है? मुझे लगता है अंधेरा गहरा होता है लेकिन वो ठोस नहीं होता। अंधेरा तरल होता है। वे बहता नहीं है लेकिन उड़ता है। वे जमता नहीं है लेकिन रुकता है।

वे किसी को छुपा सकता है लेकिन किसी गायब नहीं कर सकता। वे कुछ दिखने से रोक सकता है लेकिन मिटा नहीं सकता। रीडिंग मे भी जो "कहाँ" का सवाल उत्पन्न होता है वे गहरा है लेकिन गाढ़ा नहीं है। यानि वे किसी खास दिशा मे है जिसका बाहर आना वाज़िब है लेकिन तय नहीं है। लोग जो कह रहे है, नियमित कह रहे हैं जो शायद उन्होनें जिया है लेकिन उसमे इतनी और संभावनाये हैं कि वे अनेकों उन कहानियों को भी सफ़र का हिस्सेदार बना सकते हैं जिनका होना तय नहीं था। यानि इस सफ़र मे समय का कोई गाढ़ापन नहीं होता। वे बहाव मे होता है।


पिछले दिनों रात और दिन को लेकर जब सोच रहा था तो लोगों की जुबान का अंदाजा हुआ। वे जुबान जो बदलती है, तब्दील होती है और गाढ़ी होती है। लेकिन निजी अवस्था से बाहर होने का अहसास करवाती है जिसमे पक्ष और विपक्ष का कोई बहाव नहीं होता। ये बिलकुल उन दोनों बहनो की दुनिया को समझने के समान है मेरे लिये जो कई जुबाने लिये जी रही हैं। वे समय का जमाव नहीं है बल्कि समय के बहाव का किनारा है। जो अनेकों आखिरी चीज़ों का अहसास करके जीने का स्वाद बनाती हैं। किसी जगह के उन अवशेषों की तरह जो कहने को लास्ट लेयर हैं लेकिन अपने साथ दुनिया को बदलने और नया आकार देने की तमन्ना रखते हैं।

सोचने को कुछ मिला -
लख्मी

Thursday, July 1, 2010

एक लेखिका का परिचय पढ़ा

एक लेखिका का परिचय पढ़ा, परिचय की ठोस रूपी जीवन से अत्यंत अलग महसूस हुआ। यही अलग और विभिन्न होने का अहसास अगर हम लेकर चलें तो आसमान भी छोटा पड़ेगा उड़ान के लिये।

परिचय अक्सर इतना मजबूत होता है कि उसमें शरीर के ऊपरी हिस्से की बेहद कड़ी जानकारी बसी होती है। यानि परिचय मे पाँव का कोई अभिवनय नहीं होता। परिचय में कोन का सवाल जितना सख़्त होता है उतना ही कहाँ से है का भी दबदबा रहता है। इसलिये पाँव का कोई मोल नहीं। अगर हम अपने परिचय में पाँव का मान देते हैं तो वे समाजिक नितियों से बाहर हो जाता है जिसका बौद्धिक जीवन यानि उड़ान वाले अहसास से जुड़ने लगता है। फिर वो अपने जीवन को उन पाठ्यक्रम मे देखने लगता है जैसे किसी फिल्म मे चलती कोई एड़वोटाज़िंग हो। समाजिक जीवन मे बौद्धिक जीवन इसी रिद्धम मे पहचाना जाता है। भला क्यों इसका अहसास इसको जीने वाला ही तोड़ सकता है। लेकिन अपने से बाहर जब वो देखता है तब क्या पैश होता है?

परिचय बौद्धिक होता है या समाजिक? परिचय बांधने के लिये होता है या खोलने के लिये? परिचय मिलन के लिये होता है या चुनने के लिये? परिचय की डोर क्या है? या परिचय की कोई डोर ही क्यों है?

ये सब सवाल तब पैदा होने लगते हैं जब किसी क़िरदार लिखा जाता है। लेकिन फिर भी क़िरदार मे और जीवन के मूल शरीर मे बहुत गेप होता है। क़िरदार ज़्यादा आजाद और घुलनशील होता है।

हम अनेकों जीवन की उड़ान से खुद को रचते चलते हैं लेकिन किसी एक वक़्त में ये भूला देते हैं कि हम कहीं उन्हीं मूलधाराओं में तो नहीं फँस रहे जिनको तरल और आसान बनाना है। अपनी उड़ान में इन अहसासों को बांधे।

परिचय को पढ़ने के बाद मे लगा की जैसे परिचय में सपनों की क्या जगह होती है? सपनें किसी परिचय में जब आ जाते हैं तो कुछ तरल हो जाता है।

लख्मी

Thursday, June 24, 2010

रोशनियाँ खोने लग जाती है।

नींद से भरा शरीर और रातों से जागी आँखें। उम्मीदों से बड़े सपनें, तन्हाइयों से गहरे लम्हें।

जब कमरे से बाहर देखा की रात अभी बाकी है तो सोचा रात में जो दिखता है उसको सोचना ना मूमकिन सा लगता है पर दूसरे ही पल सब साधारण लगने लग जाता है।

जैसे कुछ कर जाने की ताकत हमारे पास है । रोशनियाँ खोने लग जाती है। जब सुबह का उंजाला खुद को पेश करता है।

हवा जैसे चीजों को कोई नया जूंबा दे जाती है। माहौल अपनी मटरगश्ती में मश्गूल हो जाता है। कहीं दूर से आती कुछ आवाजें किसी जगह में हो रहे कार्यक्रम का अवागमन करती है।
"कौने है वहां?”

किसी ने अपने पड़ोस के मकान से आई अजीब सी आवाज को सुनकर कहा, "शायद कुछ सामन गिर गया था।" "बिल्ली होगी और कौन हो सकता है?” दिपा ने कहा।

दिपा यहां रहती है। उसको पता है की यहाँ सामने वाले मकान में कई दिनों से कोई आया नहीं है।

हाँ उसे ये जरूर पता है की यहां पहले कोई रहता था पर पिछले दस साल से कोई नहीं आया ।
बस आती है ,तो हमेशा कुछ गिरने-पड़ने की आवाजें। अब उस बरामडें मकड़ियों ने अपना कोना बना लिया है कॉकरोच और मच्छर रेस लगाते दिखाई देते हैं।
दिपा का भाई कृष्णा बी.ए. कर रहा है। वो रोजाना अपनी बालकनी में जब भी किताबे लेकर बेठता है ,तो उसे अपने सामने वाले मकान को देखकर दुख भी होता है।
कभी उसे देखने के बाद कई तरह की उल्झने पैदा हो जाती है।

वो सामने वाले मकान में जिसमे कई दिनों से कोई रहने ही नहीं आया।
पहले इस में कुच लोग रहा करते थे ।
पर अब यहा सिर्फ किसी के होने के अवशेष बचें हैं। जो दिखता है वो बाहर रखा बर्तन रखने का टोकरा। दिवार पर टंगी खूटियाँ ऊपर की तरफ लगा बल्ब जिसमें मकड़ी का बड़ा जाला बना है। लाल गेहरू से बने देवी-देवताओ के चित्र ।
जो किसी अपसर के वार्तावरण को ताजा कर देते है। जब ये सब समझ मे आता है, तो उस गुजरें वक़्त के टूकडे फिर से सामने आ जाते है।
जिनसे जीवन के पहलूओ की एक छाप मिलती है।

कृष्णा और दिपा अक्सर अपनी बालकनी में आकार बैठते हैं। उनकी नज़र ज़्यादातर अपने और सामने वाले बालकनी के कमरे के बारे में सोचती है। वो घर बनाने वाली चीजें जो हमेशा किसी के जरूरतमंद होने का अहसास कराती है ।
जिसको पाने की संम्भावता को पूरा करने की हर संम्भव कोशिश करनी होती है।

बाहर के दृश्य जो अपने आप में बहुत बड़े होते हैं जिसमे खुद को समाना मुश्किल होता है। उतना ही जो करीब होता है उससे भिड़ंत में जीत पाना सम्भव नहीं होता तो करीबी अहसास को कैसे सोचे? उस बालकनी के कमरे में जो भी बची चीज़ें नज़र आती थी वो किसी न किसी रूपरेखा को दर्शाती थी।

वैसे जगह की रूपरेखा ही मूश्किल हलात पैदा कर देती है।
जगह मे जब हम देखते है की अभी क्या हे और वो अपने होने के पहले को कैसे सोचता हे । या सोचता भी है क्या ? कही जो वर्नण जो हे वो आने वाले के लिये कोई जीवन की स्थापना तो नही है?


कही कोई शख्स नही बस किसी होने के चिन्ह है जो कभी बने है और जिसे कोई तलाश एक छौर तक बना गई है।
वो वक़्त से कैसा रिश्ता है ?
जिस मे सब दिखता भी है और कभी औझल भी हो जाता है।


अगर इस नज़रीये से देखे तो वो जगह जो अपने भीतर किसी जीवन के पुर्व-अनूमानो को लेकर जी रही है।


राकेश










































Wednesday, June 23, 2010

कट्टरपंथी द्वार

लिखना क्या है? और लिखने की कग़ारें क्या हैं? हम उनको कैसे लिखते हैं जो हमारी याद से बाहर है और उनके कैसे जो याद में होने के बाद भी बाहर है?

रिश्तों की कट्टरपंथी और उसके चेनसिस्टम में रहकर क्या किसी किरदार के खोने को लिखा या बयाँ किया जा सकता है? असल मे लिखना खाली ये ही नहीं कि जिस क़िरदार से दुनिया का दर्शन करने की चाहत बनाई है उसी को दूर या पास के खेल में लेकर लिखना होता है। बल्कि लिखना खुद के साथ बहस और खास लड़ाई को उभार पाने की कोशिश से भी उत्पन्न होता है।

शहर के बीच मे और रिश्तों के गठबंधन से बाहर निकलकर सोचने की कोशिश की, कोई किरदार अपने अकेले होने को खोने तक का अहसास करेगा तो शायद वो उस माहौल को बयाँ करने लगेगा जो भरपूर है। जैसे किसी को बताने से पहले उसके तोड़ को बताया जा रहा है। जैसे - किसी के होने और किसी के खोने के बीच में क्या उत्पन्न होता है उसको पीछे छोड़ा गया हो लेकिन सवाल यहीं पर बनता है कि क्यों? क्या किसी भरे पूरे माहौल के बिना किसी के होने के अहसास को लिखा जा सकता है?

एक साथी की डायरी पढ़ते समय महसूस हुआ की कुछ चीजें इन्सान के अंदर बसी हैं। जो स्वभाव और बर्ताव में नहीं दिख सकती। उसे पहले खुद ही महसूस किया जा सकता है उसके बाद वो बाहर निकलती है। जो इस जीवन के दर्शन में उभरता है। बहुत महीम सी लकीर है जिसे कभी तोड़ा या लम्बा नहीं किया जा सकता बस, महसूस किया जा सकता है।

हम रिश्तों में इतने क्यों बसे हैं? क्या रिश्तों के अलावा किसी चेहरे, शरीर और सादगी को देखना हमारे लिये मुस्किल है?

जिस अजनबी रिश्ते से चेहरा आखों में अपनी जगह बनता है वो धीरे-धीरे घर की ग्रफ्त में आने लगता है। इस ग्रफ्त से बाहर अगर जीवन और जीवन के सफ़र को देखा जाये तो जिंदगी कितनी ताज़ी रहेगी? हम जानते हैं की हमारी गोद में आने से पहले से ही दुनिया में नया कदम रखने वाला शरीर अनेकों रिश्तों से बंध जाता है, उसका अजनबी अहसास कहीं खोता जाता है। लेकिन इस दुनिया में और इस जीवन के मोड़ों में लगता है जैसे रिश्तों को आज़ाद छोड़कर अपनाना जीवनवार्ता को नई कहानियाँ और चेहरे दे डालता है।

इसे रिश्ते की तरह अगर न देखा जाये तो ये वो सम्भावनाएं खोलती है जिसमें हर सुबह ताज़ी होगी। कोई अपने दिन को अपनी जिन्दगी मे छाप छोड़ने के अहसास मे जीता है जिसके लिये जीना, दिन का ढ़लना और दिन का उगना हर तरह से जीवन की विषेश पलों मे ले जाता है उससे मिलने का अहसास क्या है? उसके माहौल बयाँ करने से पहले उसे इस महसूसकृत जीवन से मिलने न्यौता कुछ खास है।

लख्मी

Friday, June 18, 2010

मूलधाराओं से बाहर

मैंने एक लेख पढ़ा अच्छा लगा.
लेकिन उससे एक सवाल ने अपनी जगह बनाइ

मैंने कई ब्लॉग पड़े - जो हिन्दू और समाज को लेकर खुद को शहर रखते हैं। लेकिन हर किसी में शहर का वो अंग बसा होता है जिसे बोलना और न बोलना दोनों ही सूरत में उसको गाड़ा करने के समान ही होता है। मैं मानता हूँ उन सभी ब्लॉग में दुनिया भर के शब्द हैं। जो अपनी गाथा खुद कहते हैं बल्कि जो उन्हें लिख रहा है उस लिखने वाले के जीवन की भी झलकियाँ दे डालते हैं.जीवन इसे ही चलता है और साथ ही साथ बनता भी जाता है.

खैर, ये तो बात बहुत आसान है कहने के लिए.

पढते समय दिमाग में उछला की क्या हम हिन्दुस्तानी जब खुद को कहते हुए कुछ रचने की कोशिश करते है तो वही दुनिया क्यों बयाँ कर जाते है जो दिखती है या छुपी होती है? जो छुपा है उसे दिखना, जो खोता जा रहा हे उसे याद दिलाना, जो मिट रहा है उसे गाड़ा करना या हो छुट रहा है उसे पकड़ना इसके अलावा क्या है? या क्या हो सकता है? इन सभी ब्लॉग में पाया देश को लिखना, देश को बताना, हालत को लिखना और हालत को बताना. खुद को कभी दूर रखकर तो कभी खुद को शिकार बनाकर लिखना. इसमें भाव इतने नाज़ुक बनते जाते है जिन्हें तोडा या छेड़ा नहीं जा सकता है. क्योंकि ये उस जीवन की दास्ताँ बनती जाती है जिसके अंदर घुसने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उसके बदलाव का इन्तजार करना. ऐसा लगा जैसे इन सबके बीच में उन कल्पनाओ की जगह कहाँ गायब हो जाती है जो हर शख्स खुद में लिए जीता है. खाली अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने रिश्तों और संधर्बो के लिए भी उसकी कल्पनाओ का एहसास छुपा होता है.

मैं पिछले दिनों कई लोगों से मिला, हर कोई अपनी जीवन की घटनाओ और जगह के रूपों को बताने के लिए तेयार था. लेकिन जब उनके हालत को पूछने की कोशिश करता तो वो हंस कर टाल देते. पहले तो मैं सोचता रहा की ये एसा क्यों कर रहे हैं. फिर जब इस धुन को लिखने की कोशिश की तो लगा की लोग अपने को उड़न में देखना चाहते है और दिखाना चाहते है तो उनके गुजरे वक्त और हालत को बताने से ज्यादा मायने रखता है उनकी कल्पनाओ की रचना करना.

सोचता हूँ इन बातों को : -
जगह पर लिखना, जगह में लिखना और जगह को लिखना:- इन बहुत दूरी का एहसास होता है.हम तीनो को मिला देते है।
वैसे ही किसी हालत को लिखना, हालत में लिखना और हालत पर लिखना इनमे भी दूरी का खास एहसास है।
किसी किरदार को लिखना, किसी किरदार में लिखना और किसी किरदार पर लिखना:- इसमें में.

हम कैसे लिख रहे हैं? कहाँ से लिख रहे हैं? कबसे लिख रहे हैं?
एक पल और अनेको पल मिलकर क्या बनाते हैं? इस दूरी को समझने की कोशिश होगी.

दुनिया बहुत गहरी है, जितना डूबना चाहे डूबा जा सकता है. बनी हुई मूल्धाराओं से बाहर कैसे जाया जाये? ये मूल्धाराओं में जीने की वो कोशिश है जिसे नज़रंदाज़ करना खुद के साथ बहसी बनने के समान होगा.
क्या खुद के साथ बहसी बना सकता है?

लख्मी

काश मेरा भाव ही मेरा विरोधी होता!

दुनिया को देखने को जी चाहता है मगर क्या करूँ
जो चश्मा लगा है आखों पर वो कैसे उतारूँ?
जो देखना चाहता हूँ वही क्यों देखूं
जिस पर नज़र रोकना चाहता हूँ वहीँ पर क्यों मैं रुकूँ?

दुनिया पाना चाहता हूँ मगर अपनी ख़ुशी क्यों पकडे रखूं?
आजाद तमनाओं को क्यों अपनी जकड़ें रखूं?
मन से मचलना चाहता हूँ अपने शरीर में
लेकिन मन को अपने शरीर में लेकर क्यों चलूँ?

लगता है शरीर में बोझ बड़ गया है मेरी अनेकों जिंदगियों का
उसमे बहते अनेको किरदारों का, उनके अंदर बसतें उनके अनेको एहसासों का
कभी जी करता है उन सबको निकाल बाहर कर के अकेले भी जिया जाये
कुछ अलग का एहसास जो मड़ता है अंदर मेरे उसको शरीर में पिरोया जाये

शरीर फिर भी तनहा न हो सका वो न जाने और किन किरदारों में जा बसा
एक ही शरीर के कई टुकरे हो गये..
मेरी ही सूरत के कई चेहरे हो गये
खुद को पहली बार अपने ही शरीर से बाहर महसूस किया मैंने
उस लम्हे को जैसे अनेको बार जिया मैंने

सारे भाव मेरी ख़ुशी को कुछ समय के लिए जैसे मुझसे दूर कहीं सो गये
और हम एक से अनेक हो गये.

लख्मी

Wednesday, June 9, 2010

ठोस तरलता



क्या हो अगर सारी दुनिया की ठोस और मजबूत चीज़ें एक दम से तरलता में बदल जाये?
अगर आप किन्ही ठोस चीज़ों को तरलता में देखना चाहेंगे वे कौन सी चीज़ें होगीं?

घर, जिसको समाजिक जिन्दगी का सबसे मजबूत और ठोस ढाँचा माना जाता है। उसके अन्दर बहते हर लम्हे, याद, अनुभव और फैसलें खुद को मजबूत करने के आइने बनते जाते हैं। लेकिन कल्पना में उसको तरल करके देखने की नाज़ूक उम्मीदें हमेशा चलती रहती है।

ये दुनिया कुछ उन कल्पनाओं की ही भांति है जिसको खुद मे तरल अहसास से घुसा जाता है। एक बार मे लगता है जैसे खुद को छूने का अहसास है।

ये भले ही किसी इफेक्ट से उपजती है लेकिन इससे जीवन की मूलधाराओं और मजबूत ढाँचों मे उस अहसास से दाखिल होने का अंदेशा देता है जिससे हम खुद को तरल कर सकते हैं।

डर, भय और खौफ ये सभी शब्द बेजान हो जाते हैं और चेहरे के भाव मे किसी और अक्श का जीवन पनपने लगता है।

लख्मी

Tuesday, June 1, 2010

बहसी -

कलाकार और कलाकारी क्या है? इसके बीच मे कितना गेप है?
हम मानते हैं कि जो बन गया वो कलाकारी है मगर फिर जो बनेगा वो क्या है?

कलाकार और उनके कुछ बनाने के अंतराल में कई बहस और भिंड़त का खेल होता है जिसमें समय की अवधि और उसमे बनने टूटने वाले कई अनेकों अवशेष इस बात के गवाह बनते हैं की एक कलाकार और उसके चीज़ों से विरोध में जो पिरोया जाता है वो उसकी खास अभिव्यक़्ति का अहसास होता है। असल मायने में कलाकार खुद का बहसी होने का नाम है। ये बहसी होना क्या है? इस बहस के अन्दर जितना प्यार और स्नेह का घोल मिला होता है, उतना ही रिश्तों और उनसे टकरार का खेल भी शामिल होता है। चीज़ों की परख अगर खुद के मेल से परे हैं तो उसका वज़न सवालों और जवाबों का अनुभूती शामिल होता है।

देखा जाये तो, किसी चीज़ में अपना जीवन देना उसको अपनी पौशाक नहीं बनने देना। ये उस अभिव्यक़्ति की भांति होता है जिससे खुद के चेहरे और स्वभाव को तोड़ा और बनाया जाता है। अनेकों अभिव्यक़्तियों से जन्मी कग़ारें इसको भरपूर जीने के लायक बनाती है। वे अहसास जो किसी अन्य जीवन को भी अपना सारर्थी बनाकर जी लेगा और उसके अपना स्वरूप बना लेगा का जीवन बहुत मायने पूर्ण अहसास जगाता है।






कलाकार और कलाकारी के मध्य में किसी चिन्ह का खेल है।

लख्मी

Monday, May 31, 2010

शौर, खमोश शौर




किसी के होने का अहसास क्या है? वो क्या जो "है" और "था" के बीच मे है? और वो क्या जो पकड़ मे है लेकिन फिर भी छूटने के अहसास है। कुछ धमक है, एक ऐसी धमक जो समय पर अपनी छाप छोड़ती है। जो लम्बे समय तो अपने साथ रहती है। जो खमोश है मगर फिर भी विचलित है।

लख्मी

Saturday, May 29, 2010

दर्द का कई जुबान है

खुले अवसर की तरह हमारे बीच का रिश्ता दिखाता है।
उसे जानने और उसकी परख से मुखातिब जब हम होते हैं तो क्या दिखता है?
जीवन का सफ़र कई चीजों और उनसे जुडे सदंर्भो से मिला-जुला ढ़ाँचागत है।

जिसको हू-ब-हू से हटकर उसके होने के दृश्य उपजी कल्पना और सोच के ठिकानों को समझा जा सकता है।
आज का समय जो अभी के हाल को व्यक़्त करता है वो अस्थिरता के सामने होता है।
वो बाद के पहलूओं को भूलकर आने वाले का प्रचार जाने वाले का दर्द और इस दर्द से जुड़े वर्तमाण की तरलता के अहसासों को ठोस करता है।

घर में दर्द को जीने का जुबान क्या है? जिसमें डूब कर भी जीने का मज़ा सूख और अमन से जीने से ऊपर उठ जाता है।
दर्द का कई जुबान है वो एक जुबान में बयाँ नहीं किया जा सकता।
हम दर्द जीते हैं, पीते हैं इसमे रहकर भी इसी को असीम में ले जाते हैं।
दर्द का कहानी विरासत से जुड़ा है वो सिर्फ अभी की उपलब्धी नहीं है।
घर वो है जिसमें कहीं होकर अपने चिन्ह को छोड़ जाने के समान है।
और अपने बाद क्या छोड़ गया और क्या बनाया का कोशिश।





राकेश

Thursday, May 27, 2010

नियमित होना क्या है?

हमारे सामने नियमित कोई चीज़ बहती जाती है। उसकी गती और समय की अवधि उसको फोर्स देती है। जिसको लेकर वो अपने होने अहसास हो निरंतर गाड़ा करती जाती है।

ये तो एक प्रक्रिया है, जो उसको जिन्दा रखती है। लेकिन, क्या हमें पता है कि हम उस नियमित और निरंतर गति मे कैसे दाखिल होते हैं?




लख्मी

Monday, May 10, 2010

किताब अच्छी है!

किताबें अपने साथ कई तरह की तलाश लिए चलती हैं जिसमें जुड़ने वाला हर अनुभव उसमें अपने को महसूस करने के कोने तलाशता है। वो तलाश कभी तो उसमें उभरने वाले सवाल बनती है तो कभी अपने मन-मुताबिक कलपना करके जगह बना लेती है।

यही खोज किताबों की दुनिया में हमें खींच लेती है। जिसके साथ बनने वाला रिश्ता कई तरह के रूप बयाँ करता है।

ये तलाश क्या है? वैसे माना जाये तो तलाश हमें एक जैसे रूप मे नहीं जीती। वे बदलती रहती हैं। तलाश का बदलना, जहाँ दूर की अवशेषों को करीबी से देखने और सोचने पर मजबूर करता है वहीं पर फैलाव के ऐसे कोनों को खोलता है जो इस बदलाव को भी उर्वर बनाती है। जैसे - तलाश कभी जगहों में तबदील होती है तो कभी उन अहसासों में जो हर रोज की ज़िन्दगी में कभी नज़र नहीं आते या फिर ये वो किनारें हैं जिनको हमेशा नज़र-अन्दाज करके जिया जाता है।

किताबों की दुनिया में, कई तरह के अहसास भी छुपे होते हैं। वे हर अनुभव और जीवन से बहस, सवाल और कल्पना की उड़ान में शामिल होकर जीने के तरीके बनाते हैं। इसके बावज़ूद भी यही सवाल आकर ठहर जाता है कि किताबें हर शख़्स के अनुभव में कैसे जुड़ती अथवा उनकी तलाश में भागीदार बनती है? इस तलाश में क्या-क्या छुपा होता है?

असल मायने में, हर किताब अपने साथ में अपनी पब्लिक की कल्पना लिये चलती है। उसमें बनने वाले माहौल व चित्र किसी जीवन से संवाद बनाने की कोशिश लिये रहते है। मांग, चाहत और उत्सुक्ता का रिश्ता उसमें चाव जगाता है। लेकिन वो किताब कौन सी होती है जो हमें अपनी ओर आक्रषित करती अथवा खींचती है?

कल्पना में किताब का आकार और उसमें उभरने वाले माहौल ही पाठक की चाहत के पात्र बनते हैं। जिसमें माहौल, जगहें, शख़्स, शब्द, कुछ ऐसे ब्यौर जिनमें वे अहसास हो, जो सामने चलते बेजान चीज़ों को भी जिन्दा करदे जैसे नई कल्पनायें दें।

इन चीज़ों को किताब में भरपूर चाहत और मांग से तलाशा जीता है। एक ऐसी किताब जो हमें ऐसे संदर्भो से रू-ब-रू करवायें जिनके साथ हमारा नाता खाली देखकर निकल जाने का नहीं होता या वे रिश्तें उभार जो खुद से बनाये तरीकों पर जीते हैं।

हर संदर्भ में किताब अपनी एक खास जगह बनाती है। जिसकी जगह बन जाने पर हर शख़्स उसमें खुद को खोजता है। अपने सवालों को, अपनी जगहों को, अपनी याद से जुड़ाव रखने वाले चित्रों को, नये शब्दों को, नये रिश्तों को और नई कल्पनाओ को।

ये सब अलग-अलग जीवन की हिस्सेदार बनती है।

जिसमें ऐसे माहौल हो, जिनमें हम रोज जीते हैं लेकिन उनको देखने के विभिन्न-विभिन्न नज़रिये बना नहीं पाते, वे माहौल हो जिनको देखने और उसमे रहने का रिश्ता कई अलग तरह के रूपों में जाहिर होता है।

माहौल, वे रूप लिए हुए हो जो अपने साथ कई ऐसी आवाज़ें लेकर आये जिनको सुनकर अनसुना कर दिया जाता है। किताब का आकार कुछ ऐसे माहौल उभार जो नज़र में होकर भी गायब होते हैं।

जगह, कई अलग-अलग तरह की जगह से मुलाकात करने की इच्छा दिल में ऐसी चाहत को बयाँ करती है कि हम अपने आप उसमें घुसते जाते हैं। किताब में कई ऐसी जगहें हो, जो खाली बनावट का रूप लिए ही ना हो, वे किसी की कल्पनाओ के साथ मे उड़ान भर सके। वे जगहें हो जिन्हें हम खुद से बनाते हैं।

एक ऐसी किताब जो अपने अन्दर के हर अहसास से आदि हो, हर अनुभव को उसमें जगह देने का न्यौता हो जिसमें कई भिन्न-भिन्न छवियाँ अपने रूपों के साथ में जुड़ाव बना सके।

हर चाहत के अनुसार किताब में चीज़ों का आना मुश्किल होता है। लेकिन उसके साथ-साथ उसमें चेहरों, जगहों और नये अथवा विभिन्न माहौल की तलाश हमेशा चलती रहती है। इस तलाश में किताब का नया आकार उभरता है।

लख्मी

Saturday, May 8, 2010

शूरूआत हो जाती है।









राकेश

माहौल को सोचना

घर को किसी सफ़र की तरह देखकर देखे तो हमे क्या नजर आता है?जरा इस घर के ढ़ाँचा से दूरी
बनाकर प्रवृतीयो मे हम जा गीरतें है ।
जो याद और अभी के समय का रिश्ता आने वालें कल सें बनाते हैं।



















राकेश

Friday, April 30, 2010

जीवनी का विवरण

हमारे आसपास क्या है? टेडी-मेडी सपाट सतहें। उनके साथ बने कुछ कोने जो किसी न किसी से जुड़े रहते हैं। ये कोने स्थिर होकर भी स्थिर नहीं होते। किसी याद या ठहरे विचार को हरकत में ले जाते हैं।




ये बहुत दूर भी ले जाते हैं और आँखों के सामने एक जीवनी का विवरण भी कर जाते हैं। हम अपनी याद का कोई महफूज पल, दिन या सफ़र वापस किसी कोने और अवसर के दौरान जी पाते हैं जिसके साथ जीवन के आने वाले कल की सूचना मिल जाती है।




जिसको सुनकर हैरानी नहीं होने चाहिये। क्योंकि जो हो रहा है उसका कारण है। इसके अलावा हम भी किसी वज़ह या बे-वज़ह से जुड़े होने के बाद भी हम कहाँ है ये देखने की कोशिश करते हैं। हम जहाँ हैं हम वहीं हैं और इसके साथ जो हो रहा है वो कसौटी है, सिच्यूवेशन है। जिसमें शरीर किसी उर्जा की तरह काम करता है।





राकेश

हमारे सामने बनी एक रूपरेखा



जो रोज़ मिलता है और मिलकर कहीं खो जाता है। उसे कैसे अपने रूटीन में रखेगें?

हमारी कल्पना हमारे साथ चलती है। बस, जगह बदलने से हम उस कल्पना का पुर्नआभास नहीं कर पाते। कैसे देख सकते हैं उस द्वृश्य को जो हमारे सोचने की वज़ह है? क्या उसका फैलाव है? या हमारे देखने का नज़रिया? जिसके माध्यम से हमारे सामने बनी एक रूपरेखा दिलो-दिमाग पर अदा सी छोड़ जाती है।

वो मिलने की चाहत। वो पाने की लालसा। जो ले आती है हमें कई रफ्तारों के बीच जिसमें हमारी भी इक रफ्तार होती है। पहले हम जगह को समझने के लिये समय को अपने लिये रोक लेते हैं फिर समझ आने के बाद उस रफ्तार में गिर जाते हैं। ये क्या? क्या ये कोई प्रणाली है या जाँच? या फिर कोई प्रयोगनात्मक समझ है।

हर जगह ऐसी होती है?






राकेश

मिटना ही जीवन है



कुछ ही समय के बाद देखने में लगा जैसे वो मिट रहा है। मगर फिर भी उसपर कुछ बनाने का लगातार मन कर रहा था।

राकेश

Sunday, April 25, 2010

100 रू जूर्माना देना पडेगा ।



हम बीयरबार में बैठे थे। गर्मी से राहत पाने के लिये बीयर एक मात्र झुगाड़ था। न्यू गाजियाबाद में देशी बीयरबार है। जहाँ पर ब्राण्ड तो विदेशी है मगर उस अड्डे का रहन-सहन बिलकुल दैहाती है। न्यू गाजियाबाद दिल्ली की सिमाओ से सटा है। इसलिये दिल्ली शहर के पहनावों और अदाओं का यहाँ अभी आग़ाज हो रहा है।

शहर आबादी जैसे कट के यहाँ आ गई हो। वहाँ के माहौल की गुणवत्ता ये थी गाँव जैसा मज़ा वहा बैठने से आ रहा था। पेड़ों के शरारती हवा अन्दर की गर्मी को मात दे रही थी। पसीना पारे की तरह उतरा रहा था। छत में गाडर लगे मरे-मराये पंखे की हालत किसी चूसे हुये आम जैसी हो रही थी। बीयरबार मे दिवारों पर विदेशी शराब और ब्राण्डों का विज्ञापन बडे-बडे पोस्टर के रूप में छपा था। जिसको देखकर जगह में उत्तेजना पैदा होती थी। बाहर से हल्की रोशनी नाइंटीन डिग्री का कोण बना रही थी।


प्लास्टिक के ग्लासों मे बुलबुले छोड़ती ठन्डी बीयर पसीने को उडन छूं कर रही थी। बड़े साधारण कुर्सी-टेबल पर हम कोहनियों को टेककर बाहर की गर्मी को चैन की सासों से दूर कर रहे थे। वक़्त शाम का ही था अभी बार में लोगों का आना शुरू हो रहा था। कांउटर से बीयर लेकर लोग हॉल के अन्दर आकर चौगड़ी मारकर बैठ जाते।

हमारे पास बीयर पीने के अलावा और कुछ नहीं था। गले की तराई जो करनी थी। सौ खाली बीयर ही मजा दे रही थी पर कुछ देर तक उसके बाद तो लगा की खाने को कम से कम नमकिन ही मिल जाये। पसीना अभी सूखा नहीं था। पंखा तो मानो हम पर एहसान कर रहा हो "जनाब अपनी रफ्तार तो तेज करो।" मेरे साथी ने गौर फरमाया।

पास की टेबल पर चार आदमी और बैठे थे। उसकी नाफरमानी बता रही थी की वो टल्ली हो चुके है। तभी तो अपने ही साथी का कॉलर पकड़ के महाशय मर्दानगी दिखा रहे थे। उनके बीच गाली-गलोच भी हो रहा था। इतने में जिसने अपने सामने वाले का कॉलर पकड़ रख था। उसके मोबाइल फोन की घण्टी बजी, उसने फोरन मोबाईल फोन उठाया और एक दम सीधा हो गया।

"जी मैम ओके मैम, येस मैम" कुर्सी छोड़कर उठा। लगा किसी के आगे गिड़-गिड़ा रहा हैं। हमारे आँखो करंट लगा कमाल है अभी उजाड़-गंवार की तरह ये एक-दूसरे से पेशा रहे थे। अब अचानक क्या हुआ? बाहर बहुत गर्मी है। इस लिये इस माहौल की ठंडक ने शरीर में दबा के शूरूर भर दिया था।

हर किसी की जेब को बचाने लायक बीयर ही तो पीनी होती है। उसका शूरूर ही तो मजा देता है फिर चाह वो रंगीनियत और चमक-धमक भरा माहौल हो या फिर सादा वातावर्ण। दो घूंट उतरते ही कोई पॉवर सी सीर चढ जाती है।

गर्म फुंकारों को गले से छोड़ते हुये हम उस जगह को अपना नया अनुभव कह कर बातचीत करने लगे।
"सब कुशल मंगल है।" इस जूमले ने मोके रौनक को बड़ा दिया।

आनंद ने बीयर के घूंट मार कर आह! भरी आवाज निकाली और करते भी क्या घूंट मारने के बाद जब डकार आती तो बाहर छोडने के लिये दाँय-बाँय देखना पड़ रहा था। हमारे चेहरों पर राहत से पहले किसी धूप के मारे इंसान को जैसे पेड़ की छांया मिल जाती है। वैसी हो गई थी।
हम कम बोल रहे थे। बोलने से स्वाद कम महसूस हो रहा था। इस लिये इक-दूजे को तसल्ली भरी निगांहो से देख रहे थे। उनके बार-बार मुस्कुराने के अंदाज से माहौल जैसे किसी नई उर्जा को ला रहा था।

उनकी हंसती हुंई आँखे धीरे-धीरे हम तीनों के भीतर तक जा रही थी। उन्हे रोकना नामूमकिन सा था। आनंद पैरो को हिलाकर कुछ कहने का साहस जुटा रहा था। वो और राजू निगाहों से बातें कर रहे थे। हमारे हाथ बीयर की बोतलों को इधर-उधर घसीट रहे थे। ये क्रिया हमारे मन की व्यथा को प्रकट करने के लिये काफी थी। टेबल पर ग्लास और टेबल के नीचे पैरों का एक-दूजे से भिड़ाना। क्या चल रहा था। काम की थकावट से चूर शरीर बीयर के दो ठन्डे घूट को झिल समझ कर उसमे गोता मार गया। अब कान कुछ सुन नहीं पा रहे थे। आँखों को सब अलग दिख रहा था। मगर होश में है ये जताना भी जरूरी था वरना अगली बार यहाँ का चक्कर भूल जाओ। मन में कई अजीब सी बातें बिरयानी की तरह पक रही थी।

पैग पर पैग और कुछ नई-पुरानी बातें जो हर कोई करता है शायद इस चीज के साथ इसी लिये हर कोई बैठता है।

राकेश

जीवन एक है फिर सब बराबर क्यो नही होता ?

ये तेरा घर ये मेरा घर, किसी की लगे न इसे नज़र। क्या घर को किसी प्रयोग और अभ्यास की जगह बनाया जा सकता है। घर में हम क्यों वो नहीं कर पाते जो बाहर तलाशते हैं। घर क्या है? और हम जहाँ ज़्यादा समय बिताते हैं, वो जगह क्या है?




जीवन एक है फिर सब बराबर क्यों नहीं होता? सब के बीच क्या दूरी है? ये दूरी ये जगह जो अपने किसी संतुलन को बनाये रखने के लिये बनाई जा रही है। इसकी परख क्या होती है?





राकेश...

दिवारें बोलती है ।

कभी चंचल हिरण तो कभी चमकाधडों की तरह उजाले से डर कर किन्ही सतहों से चिपके रहना।



दिवारें भी बोलती हैं। इन्हे भी हमारी तरह बदलाव में जीने की आदत है। दिवारें कभी अपनी जगह नहीं छोड़ती मगर वो किसी का झरोखा बनकर स्वप्न में ले जाती है।





राकेश

Friday, April 23, 2010

उजाला , अंधेरा और सभी वस्तूओ का स्पर्श ।

प्रकाश जहाँ होता है। उसके साथ छाँया भी जन्म लेती है। प्रकाश और छाँया जीवन के दो रूप जिनके अनुसार हम किसी अक्स की कल्पना करते हैं। वो अक्स जो हमारी रोजमर्रा को सुनने वाला, देखने वाला एक अवतार है। जो समय के प्रभाव से दिखता और खो जाता है। कोई उसे उभारने की कोशिश करता है। तो वो खुद भी कभी बाहर आ जाता है।

वो कौन सी आँख है जो इसे बना रही है? वो कौन से हाथ है जो इस अक्स को उठा रहे हैं। हम गढ़ने में है इस अक्स के सफ़र को अपने सफ़र में। कुछ हाथों से छूट ना जाये इस लिये सब बटोरने की इच्छा है।





ये अक्स के बीच में जो हमारा जीवन है वो खुद भी अपना चेहरा बनाना है। जिससे की समय के निरंतर बहती धाराओं में हम कहाँ है ये समझ सकें। चीजें, आवाजें, इंसान, माहौल, ढ़ाचाँ जिसमें किसी के होने और न होने के अहसास को ले सकें। रात और दिन के स्रोत अतिव्यापक समय का प्रभाव जिसमें रंग, चीजें, उजाला, अंधेरा सभी वस्तुओं का स्पर्श जो शरीर को कहीं ले जाता है। कभी सुनकर तो कभी देखने से कभी दोनों के गायब हो जाने के बाद भी वास्तविकता से और काल्पनिकता से। किसी चीज से दूरी और किसी चीज से नजदिकी का फांसला जो बीच को फर्क लाता है। वो किसी को दिखने का नजरिया ही एक आँख है और अपने अलावा दूसरे के नजरिये से भी देखने का तरीका है।





राकेश

Thursday, April 22, 2010

पिरोने और उधेड़ने के साथ

वो चार दोस्त हर रोज़ मिलते हैं कई सारी बातें करते हैं, ऐसा लगता है जैसे वो कभी नहीं थकेगें और न ही कभी उनकी बातें खत्म होगीं। बड़े -बड़े फैसलो मे जब भी उनमें से कोई फँस जाता है तो इतने बड़े और गहरे आइडियें दे डालते हैं कि उनकी जीवन की ये ही सबसे बड़ी बात है अगर इसे ज़िंदगी से बेदखल कर दिया तो न जाने क्या होगा।

लेकिन, सबसे मजे की बात ये है कि यही फैसले जब खुद के ऊपर आते हैं तो कभी ये सब नहीं निकल पाता क्यों?

असल में, वो एक ऐसी जगह से वास्ता रखते हैं जो बिना शर्तों और निजित्ता होने से दूर रही है तो उसमें घुलना और उसी मे घुले रहना उनका अभिव्यक़्ति भी बनाता रहा है और उनका तोड़ भी। जो किसी के अकेले होने और जुदा होने से बैर रखता है।

कल उनके बीच मे एक और साथी आया। उसने कहा वो कहीं पर जाना चाहता है। वहाँ पर जहाँ पर वो किसी और के जीवन के साथ खुद को जोड पाये। किसी और के साथ बहस कर पाये। वे अपने घर और काम के साथ इतना सख्त हो गया है कि उसको हमेशा ये सोचने मे वक़्त लगता रहा है कि वे खुद के साथ क्या जोड पा रहा है या क्या है जिससे दूर जाना चाहता है।

वे बोलता गया और यहाँ पर सभी ऐसे खुश होते गये जैसे आज सबसे महीम तार जिसको छूने से डर जाते थे वे मिल गई। उस तार का डर, गम और खुशी तीनों का एक अनोखा संगम बन रहा था। जिसको जिसनें देखा और महसूस किया वे खुद को खुशनसीब समझने मे कोई कसर नहीं छोड़ रहा था।

लेकिन सभी को जितनी खुशी थी उतना ही कुछ रूकावट भी महसूस होती जा रही थी। कि आखिर मे ये बताना है या पूछना। वो पूछ क्यों रहा है? अगर जाने की इच्छा है तो डर किस चीज़ का? इच्छा और चाहत को अगर कोई चीज़ दूविधा मे डाल देती है वो क्या है?

धीरे - धीरे सभी खमोश होते गये। कोई बस इतना कहता, “अगर चाहत है कुछ पाने की तो पा लो।" तो कोई कहता, “अगर कुछ डर है तो फैसला मत लो।"

लेकिन बात का कोई हल नहीं निकला। बात तो वहीं की वहीं पर रूकी रह जाती। इस माहौल के बीच मे बैठा मैं यही सोचे जा रहा था। किसी चीज के छूट जाने पर हम खुद मे कमी महसूस करते हैं? क्या कुछ छूटना भी जीवन मे आगे की तरफ मे बड़ाता है या पीछे के लिये कुछ गड्ढे खोद जाता है?

यहाँ पर किसी जगह के, साथ के, आदत के छूट जाने का डर नहीं था बल्कि कुछ बीच मे ऐसे तार भी हैं जिसको छोड़ना नहीं चाहते। ये तार पिछले कई सालों की चुभन और ताकत से बने हैं। जिनमे कई यादें, वादें और चाहतें पिरोई गई हैं। उस पिरोने के उधड़ जाने का भय होता है। ये भय खुद का नहीं है और ना ही किसी और के जीवन मे उछल जाने का।

न जाने कितने और फैसले जीवन के इन्ही बिसात पर धरे रह जाते हैं। हम रिश्तों और काम से थोड़ा मुँह जोर बनकर रहे तो कुछ ऐसी अभिव्यक़्ति की तलाश कर पाते हैं जिसको पाना खुद के लिये भी चौंकना बन जाता है। लेकिन क्या हमें पता है हमारे रिश्तों का शरीर क्या है? वो किस वेशभूषा मे है? और काम की तार क्या है? वो किस रफ़्तार मे हैं? इस शरीर और तार को हमें बस, सोचना पड़ता है।

खाली किसी नई जगह, संदर्भ और खेल की मांग जीवन मे नहीं होती वे कुछ पिछला भी चाहता है। जिसमें कुछ पिरोया गया था। जिसे उधेड़ा जा सकता है लेकिन काटा नहीं जा सकता। यहाँ पर भी बातें कुछ ऐसे ही मोड़ पर जा रूकी थीं।

लख्मी

Wednesday, April 21, 2010

सफ़र के चिन्हित रूप














एकान्त में बहुत दूर तक देखा जा सकता है। वो ख्याल जो अपने को किसी कल्पना में ले जाती है उसकी रचना एकान्त में होती है।



















जहाँ पर आकर अपनी यादें फिर से लौट कर आती हैं, समय फिर एक रफ़्तार रोक लेता है ये क्या है?














रात का समय है और सवेरा खड़ा है दहलीज पर, बिखरे हुए अफ़सानों का कोई सफ़र पास है।


राकेश

Saturday, April 17, 2010

रंगो का क्या खेल है?

रात, परछाई और छाया इनके रंग क्या है? क्या रात परछाई से जुदा है? या रात और परछाई के मिलन से छाया बनती है? इनको एक साथ मे सोचना और इनके एक साथ मे चलने को हम किन और शब्दों से सोच पाते हैं?

पिछले दिन कुछ दोस्तों से बात करते हुये ये तीन शब्दों को बहुत नजदीक से देखने और सोचने की कोशिश की। ऐसा नहीं था कि सोचना मेरी खुद की कल्पना से दूर था या ऐसा भी नहीं था की इन शब्दों से ही सोचना और कल्पना मेरी हकीकत और सपनों की दुनिया को एक साथ पिरो रही थी। ये खाली किसी रंग के साथ बहने की कोशिश थी।

परछाई क्या है?

प्रतिबिम्ब, अक्श या फिर कुछ और – इन सभी मे कुछ तलाशने और तराशने की पूरी निपूर्ण कोशिश सभी को अपनी कुछ ऐसी कहानियों के अन्दर ले जा रही थी जिन्हे सुनाना कोई गज़ब अहसास नहीं बनाता हाँ, बस माहौल को बहने का इतना गहरा मौका दे देता है जिससे कई और अन्य ज़िन्दगियों को अपने साथ ले जाया जा सकता है। मगर कहानियाँ सुनाना कोई बड़ा काम नहीं था। यहाँ पर सबके दिमाग था की कैसे इन तीन अलग-अलग स्थितियों और रूपों को एक साथ समझा जा सकें?

परछाई, अपने शरीर के नृत्य से मिलने का एक खास अहसास को बनाती है जिसमें हम हमारे खुद के नृत्य से मिलते हैं और उसके साथ बनाने वाले खुद के नातों हम अपने उस पल भर और क्षणिक अहसासों से भरते जाते हैं। हर परछाई का दूसरा अंग उसके छाया होने को भी जी भरकर जीता है। इसमें किसी दूसरे शख़्स के होने का अहसास होता है। परछाई – इसका जीवन खुद की पहचान को खोकर भी जीवित रखता है। किसी भीड़ मे खड़े इंसान की कोई पहचान जरूर होती है लेकिन परछाइयों की भीड़ मे किसी परछाई की कोई पहचान नहीं होती। वे तो खुद के नृत्य से जानी और सम्भोदित होती है।

पहचान और परिचय से बाहर होकर जीना जहाँ शरीर को फँसाये रखता है वहीं पर परछाई इन दोनों रूटों को तोड़कर कभी भी जी लेती है। जिसमे शरीर खाली एक ऐसे ठोस धातू की भांति बन जाता है जो कभी भी अपने को तोड़ेगा औ कभी भी मोड़ेगा लेकिन परछाई उसको अपने आगोश में लेगी। जिसमें रोशनी का नाता खाली उसके साथ डांस मे साथ देने के अलावा कुछ नहीं रहता।

यहाँ पर रात को भी सोचते समय लगा की किसी बहुत बड़े आकार की ऐसी परछाई है जिसे किसी खास पहचान से जाना और दर्शाया जाता है जिसमें खास जीवन जी उठता है और जीता है।

ये रात और परछाई के अन्दर जीना क्या है? इनको छाया बनने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन जरूरत का होना या न होना खाली मतलबी दुनिया का चेहरा ही नहीं दिखाता बल्कि किन्ही ऐसे अन्य जीवनों और सफ़रों को साथ मे खड़ा करना भी होता है जिन्हे साथ मे उड़ने और चलने की कशक हो गई होती है। इनको अपने जीवन मे किस तरह से सोचा जाता है?

अगर हम परछाई मे शरीर, रात में से समय और छाया मे वस्तू को निकाल देते तो इनको समझने के इशारे क्या है?

बात यहाँ से सफ़र की ओर बड़ती है -

लख्मी

Wednesday, April 14, 2010

कोई परछाई हमें देखती है ,सूनती है।

इस मे हम कहाँ है।



कोई है जो हमेशा साथ है और होकर भी अद्विश्य है।



आवाज देती परछाई।



हमें सूनती और देखती है।



साथ रहती है ।



सामने तो कभी पिछे ।



हर वक़्त



किसी जगह में



अपने साथ भी


कभी दिख जाती है और कभी हाथ ही नही आती है।



राकेश