Tuesday, June 25, 2013

कब कोई पहचाना जाता है


किसी जगह के "इतना करीब" आ जाना कि जिससे बाहर निकलना खुद के वश से भी बाहर हो जाये। उस अजनबी स्थान के जैसा जो अपने साथ कई छवियों की गुंजाइशे लिये चलते हैं। जैसे एक खुली तस्वीर हो और उसमें समय की छुअन को महसूस करने की आजादी हो। अजनबी कहां मिलते हैं? और जहां मिलते हैं वहां उनके सामने मैं क्या हूँ

एक रास्ता जो भीड़ से लदालद है, कोई उसमें से अपने लिये कुछ खींच रहा है। वे क्या खींच रहा है वो अस्पष्ट है मगर वो नियमित किसी खींचने मे उसका आभाव समतल नहीं है। किसी विस्तार होती ध्वनि के सामने खड़े हुये खुद को पाने की कोशिश के समान। खुद को विभिन्नता लिये रूपों के बीच मे खोने के जैसा या खुद को उस खोने के भीतर संभालने के जैसा। वे निगाह को तलाश रहा है। वे जो उसकी ओर आयेगी। वे जो उसकी निगाह से टकरायेगी। वे जो उसके लिये होगी। मगर इस समय के बहाव मे रूपों की तेजी उसे अपनी ओर खींच ले रही है। वे कई निगाहों से टकरा रहा है। वे कुछ झणिक पलों मे किसी के लिये उसका बन जाता है और फिर एक ही पल में फिर से वही बन जाता है जिससे लिबास मे वो आया है। ये नियमित चलता है। रूपों के मेले मे किसी ऐसे किरदार की तरह जो कहीं चलते हुये रूक गया है।

कोशिश की पोटली मे छिटक कर गिरा व बचा हुआ समय जो किसी को मिलने के निकला है।

लकीरें खीची हैं, एक दूसरे पर चड़ी हैं, कहीं जा रही हैं, मिट्टी है तो कहीं पर गाढ़ी हो रही है। उसके पीछे कई पेरों की छापें दौड़ में है। बिना किसी आवाज़ व ध्वनि के वे किसी के होने के अहसास को जिन्दा बनाये रखे हैं। सुनाई देती है, कुछ कहती है। मगर वे किसकी है वे अहसास नहीं लगाया जा सकता। मगर उसके पीछे खुद को लपेटे हुये चला जा सकता है। 

बेमूरत होती चीजें अपनी मौजूदा छवियो से बिफर गई है। विरोध मे हो गई हैं। कोई बड़ी मूरत नहीं है। बस, आड़ी तेड़ी, धूंधली गाढ़ी लकीरें हैं। जो किसी हूजूम को खुद मे बसाये हुये है।
चीजें खुद ब खुद समेट लेने की चाह में उन लकीरें में बस गई हैं। वे जो छाटने मे नहीं है और ना ही अपने वश मे करने मे हैं। वे उस चुनाव की चौखट पर खड़ी है जहां से चीजें अपने से दूर की नहीं होती। वे कोई धातू नहीं है। वे खुद को व्यक़्त करने की चाह में शक़्ल लेती है। कोई अपनाने मे है मगर इस अंधविश्वास के तहत की ये अपनाना अपना बनाने से बाहर है।

अनगिनत छाप किसी अनछुये अहसास की तरह किसी राह की रहनवाज होती हैं। जो उस न्यौतेगार की तरह है जिसमें बिना किसी रिश्ते के जिया जा सकता है। कोई यहां आने वाला है और सब यहां से जा‌ने वाले है के बीच है अभी यह समय और जगह। ये बीच की धारा वापसी के लिये नहीं बनी। मगर फिर भी कुछ खोना - गायब हो जाने से बेहतर है। नक्शे मे नज़र आती उन तेड़ीमेड़ी राहों की तरह जिनके साथ चला जाये तो कब किस मोड़ पर चले जायेगे का अहसास जिंदा रहता है। वे राहें एक दूसरे को काट रही है या हम उस कटने के भीतर होकर उसे सिर्फ एक राह समझ रहे हैं में दुविधा है मगर फिर भी जीवंत है।

कब कोई पहचाना जाता है? शायद पहचाने जाने से पहले वो खोया हुआ है।

हर कोई कुछ खोता जा रहा है और खुद उस खोये हुये तालशने मे खोया है। दोनों के बीच मे बसी दुनिया उसे अपने मे समेट लेने के लिये है। मगर वो दुनिया जो छिद्रित और छोटे दृश्यों मे दिखती है उसका पूर्ण रूप गायब होकर भी अस्पष्ट है।

लख्मी

भाषा कहाँ की ओर ले जाती है


समाजिक और साधारणता के बीच में उभरते दृश्य को बोला कैसे जाये? भाषा बोल नहीं देती। वे साधन बनाती है - चीजो को अभिव्यक़्त करने मे जाती है उतना ही आधार को पुर्नरचित करने में भी जीती है। दोहरा दिया, बोल दिया, दर्ज कर दिया से दूर वे उस बहस के बीच मे खड़ा कर देती है जिसमें स्वयं से निकल जाने की राह है।

वे जो किसी खास व निजी अनुभव को नहीं कहते। समाजिक छवियों से होते हुये सफ़र तक आना - साधारणता के रहस्य के साथ जूझना हुआ। वे जो दिख रहा है या वे जो मौजूद है से दर्ज नहीं बल्कि उसे लिखित रूप मे लाने वाली भाषा उसे किस तरह देख रही है से बयां होती है। छवि वो नहीं है जो दिख रही है - छवि वे है जो देखने वाला दिखा रहा है।

भीड़ के बीच मे रहना :

छवियों को लिखना या आसपास मे अजनबी से दिखते दृश्य को किसी समाजिक छवि मे उतारते हुये जीना जमीनी है। जो तिलिस्म तो बनाता है मगर लिखने वाले व दर्ज करने वाले के स्वयं के साथ टकराव में नहीं रहता। इस दौरान सोच व कल्पना का वास "मेरे से बाहर है" का होकर रहा। इसमें समय, अंशिया जीवनी, क्षणिक दृश्य किसी कथनी की भांति, लघू कहानियों से उभरते और विभिन्नता को बुनने मे चले जाते।

स्वयं के साथ उसका कोई नाता नहीं है - से होकर लिखना भरपूर होता रहा लेकिन समय की छोटी छोटी बुनाइयां विभिन्नता को विशाल बनाकर किसी अदृश्य जमीन को बनाने मे रही। वे जमीन किसकी थी, किसका अंग बनी, किसके बोल रहे जैसे सभी किरदार एक दूसरे से बनते और एक दूसरे को बनाते चले जाते। लिखना असल में खुद की देखी दुनिया का एक ब्यौरा देने के समान रहा। किसी खास केटवॉक की तरह। जिसमें खुद के चलने के लिये जमीन तय कि गई है लेकिन उसके महीन होने के अहसास से। शायद, भीड़ के बीच मे रहना इसके लिये सांस के समान बनकर रहा। कहानियां असल मे कहानियां नहीं, किन्ही सोच व सवाल को सोचने के उदाहरण की तरह थी।

भाषा जहां खुद को व्यक़्त करने के लिये है उतना ही वे बेस लाइन को भी पुर्नरचित में ले जाती है। भाषा देखने को जुबान नहीं देती बल्कि देखने को शब्द दे उसको किसी एक के रूप से बाहर ले जाती है। एक दूसरे से टकराव का खेल खेलती है।

Wednesday, June 19, 2013

अदला-बदली के ओफर

हफ्ते मे शायद ही कोई ऐसा दिन होता होगा जिस दिन बिमला जी घर में कुछ खोज ना रही हो। अक्सर पलंग के अंदर से चावलो के कट्टे में रखे बर्तनो को निकालकर वे घण्टा भर उन्हे देखती व खकोकरती रहती हैं। कटोरियां अलग, गिलास अगल, चम्मचे अलग, थालियां, लोटे सब अलग। सा‌थ ही पीतल, सिलवर और स्टील अलग। उनके थैले में बर्तनों के साथ साथ चुम्मबकों के कई छोटे छोटे पीस पड़े रहते हैं। वे सबके अलग अलग चिट्ठे बनाकर उन्हे गिनती रहती है। अपने कोई हिसाब लगाकर उसे वापस उसी बोरी मे बड़ी सहजता से रख देती है। मगर यह देखा और खकोरना यहीं पर नहीं थमता। यहां से शुरू होता है। हर वक़्त उनके कान उस आवाज़ को सुनने की लालसा करते हैं जिसमें कुछ अदला-बदली के ओफर हो। कुछ लिया जाये और कुछ दिया जाये। वो इस बात पर हमेशा कहती है, “यह सारे बर्त बेटी की शादी में काम आयेगें। उसके कन्यादान देने के लिये।" उनके घर मे सारे बर्तन ऐसे ही किन्ही नाम से रखे गये हैं। सबके घरों मे गुल्लके होती है मगर बिमला जी के घर मे यह चावलों के कट्टे ही उनकी गुल्लके थी। जिसमें पैसे नहीं बर्तन थे।

आज बी कुछ ऐसा ही दिन थास। होली चली गई है। पर कई ऐसी चीजें छोड़ गई है जिनका उपयोग किया जा सकता है। उनके घर मे कुछ भी बेकार नहीं है। डिब्बे, प्लास्टिक, लोहा और यहां तक की कपड़े। एक भी होली खेला कपड़ा ऐसा नहीं था जो बेकार हो। सुबह ही उन्होने एक एक कपड़ा एक कोने मे जमा कर दिया था। कमीज़, पेन्ट, सूट, साड़ी, टीशर्ट, पजामा, बनियान, कच्छे और टोपिया यहां तक की जूते भी। अलमारी खोलकर सारे कपड़ो को बाहर निकाल कर उनमे कुछ तलाश रही है। तलाशते तलाशते बात भी ऐसी कहति है कि किसी को बुना ना लगे। "चलो भई आज अलमारी मे से गर्म कपड़े बाहर निकाल दिये जाये और पतले कपड़ों की जगह बनाई जाये।"

कई तो ऐसे कपड़े है जो पहने नहीं जाते मगर फिर भी रख रखे है। इनका क्या होगा? एक एक कपडा हाथ मे उठाती और कहती, “यह नीली पेन्ट पहनता है कोई?” पहले इस तरह की आवाज़ मारी जाती। एक बार, दो बार, तीन बार और अगर कोई नहीं सुनता तो वो पेन्ट या कपड़ा घर से विदा करने की सूची में डाल दिया जाता।

उन्होनें जैसे ही यह आवाज़ लगाई तो छत पर से उतरते श्याम लाल जी बोले, “उसे रख दे अभी, वो सही है।"
यह सुनकर वे बोली, “पहनते तो कभी देखा आपको मैंने?” क्योंकि कपड़े में वो बात है कि एक पतीला ले सकता है।
यह सुनकर एक दम से श्याम लाल जी बोले, “तेरे को पता है, कुछ कपड़े खास मौके के लिये बने होते हैं। इसका मौका नहीं आया है अभी।"

वे पेंट को उलटते पलटते बोली, “पता नहीं यह खास मौका होता क्या है?”
श्याम लाल जी चहक कर बोले, “तू अपनी साड़ी क्यों नहीं देती?”
गुस्से में उनकी ओर देखती हुई बिमला जी बोली, “बस, जब देखो मेरी साड़ियों के पीछे पड़े रहते हो। साड़ियां तो कभी भी घर की किसी भी लड़की को दी जा सकती है।"

यह कहती हुई बिमला जी किन्ही और कपड़ो को छाटने लगी। यह लडाई तो घर मे अक्सर चलती है। पर जिन कपड़ो को घर से विदा होना होता है वो तो होकर ही रहते हैं। तभी गली में से गिलासों को टकराने की आवाज़ आई। यह वही बर्तन वाले हैं जो आजकल आवाज़ नहीं मारते बस कांच के गिलासों को आपस मे टकराकर आवाज़ करते हैं।

ओ भइया बर्तन वाले रूकयो जरा।" बिमला जी कमरे के अंदर से ही चिल्लाई।
एक आवाज़ दूसरी आवाज़ से चाहे कितना ही शोर क्यों ना हो एक दम से कनेक्ट हो जाती है। सुनना तो आखिरकार सुनना ही है। दरवाजे पर ही उसने अपने कपड़ो से लदी पोटली को कांधो से उतार कर रख दिया। साथ ही सिर पर से बर्तनों कि टोकरी को भी। हाथ मे पकड़े बाल्टी और टब को भी उनके सामने दरवाजे पर ही रख दिया। वहीं उसकी छोटी सी दुकान अब लग चुकी है।

बिमला जी ने कहा, “कितने कपड़ों मे दोगे भइया यह बर्तन?”
बर्तन वाला बोला, “कपड़े तो दिखाईये बहन जी।"
बिमला जी बोली, “पहले बताओ तो सही भइया तभी तो निकालूगी ना कपड़े तो।"
बर्तन वाला बोला, “टब तो 7 कपड़ो मे दूंगा बहन जी, बाल्टी 6 मे, छोटे बर्तन 2 कपड़ो में एक और कढ़ाई 5 कपड़ो में। अगर फटे - वटे ना हो तो।"
बिमला जी अंदर जाते जाते थोड़ा गुस्से के अंदाज मे बोली, “हम क्या पागल है भइया जो आपको फटे कपड़े देगें।"

बस बिमला जी ने सारे होली के कपड़े उसके आगे लाकर पटक कर वहीं बैठ गई। वो अग एक एक कपड़े को उठाता और पूरी नज़र भरता। जेब, जिप, मोहरी, पीछे का भाग, फॉल, बटन, हुक, सिलाई, बाजू, पट्टी, रंग, कपड़ा सब का सब एक एक करके छूकर देखता और पूरी गुंजाइश करके बोला, “सारे होली के कपड़े है बहन जी?”

बिमला जी उसकी तरफ मे नजर गड़ाकर बोली, “हां भइया वो तो है। अब नये तो दे नहीं सकते ना।"

वो फिर से कपड़ों मे हाथ फिराता हुआ बोला, “कोई साफ कपड़ा नहीं होगा बहन जी? इनपर से तो रंग भी नहीं उतरेगा और रंग अंदर तक गया हुआ है। इसे तो उल्टा करके भी नहीं बनाया जा सकता।"

"अब मुझे तो पता नहीं भईया। मेरे जो था वो मैंने दे दिया आपको। जो पहले पुराने कपड़े थे उसकी मैंने दरी बनवाली। अब तो यही है इनमे देना है तो दे दो भइया।" वो बोली।

वो एक बार फिर से कपड़ो मे हाथ घुसाता हुआ बोला, “इनमे टब तो नहीं दूंगा मैं बहन जी गिलास ले लो।"

बिमला जी का मन टब मे ही अटका था वो बोली, “नहीं नहीं भइया चाहिये तो टब ही।"

वो बोला, “तो एक दो कपड़े और हो या कोई साफ एक पेंट ही ले आइये।"

ये सुनकर वो बोली, “अरे भइया 8 कपड़े दे चुकी हूँ तुमको।"

बर्तन वाला बोला, “हां जी पर सारे के सारे रंग मे हो रखे है। एक दो कपड़े तो साफ हो ना।"

बिमला जी बोली, “ठीक है भइया देखती हूँ।"

वो अपने और बाकी के कपडों की गठरी की तरफ चली गई। उन्हे मालूम होता है कि ये बर्तन वाले हमेशा ऐसे ही करते हैं तो वे हमेशा कुछ कपड़ो को पहले ही छुपा देती है। ताकी बाद मे उनमे से ला सके। पहले अगर देगी तो वो उन्हे देखकर और मांगेगे। उन्होने उन्ही कपडो से एक पेंट निकाली और उसे लाकर दी। और सौदा पक्का हुआ। बर्तन वाले ने टब उनकी तरफ खिसकाया और सारे कपड़े बांधने लगा।

तब तक बिमला जी का ध्यान बाकी के बर्तनों पर जम गया। लोहे की कढ़ाई चाहिये उस लड़की के लिये, फ्राइफेन चाहिये इस लड़की के लिये, टीफिन चाहिये लड़के के लिये, बाहरह कटोरियां चाहिये उसके लिये, पतीले चाहिये इस मौके के लिये, पांच बर्तन सेट चाहिये इसके लिये। उनका दिमाग ना जाने कहां कहां घूम रहा था।

उस बर्तन वाले ने जैसे ही अपना टोकरा अपने सिर पर रखा तभी बिमला जी बोली, “भईया यह बाल्टी कितने कपड़ों मे दोगें?”

खेल दोबारा से शुरू हुआ। पोटलियां फिर से खुलने लगी। 

लख्मी 

Wednesday, June 12, 2013

आखिर विद्यार्थी रूके कैसे?

एक बार एक प्राइमरी स्कूल के टीचर जी बोले, “आप यहां बच्चों के साथ क्या करवाना चाहेगें? यह तो यहां स्कूल में रूकते ही नहीं।"
"ये स्कूल से भागकर जाते कहां है" हमने पूछा।
उन्होने कहा, “बाहर नुक्कड़ पर खड़े रहते हैं, वीडियों गेम की दुकान मे चले जाते हैं, पास में एक पार्क है वहां पर खेलते रहते हैं और वहां पर दीवार पर कुछ ना कुछ लिखते रहते हैं। वहां के लोगों की कम्पलेंट आई थी हमारे पास?”
हमने पूछा, “क्या इन्हे रोका नहीं जा सकता।"
उन्होने कहा, “कब तक रोके, ये रूकने वाले नहीं है।"
हमने पूछा,  “आप इन्हे रोकने के लिये कोई खास इंतजाम करते हैं?”
उन्होने कहा, “इंतजाम क्या करना? ये लातों के भूत है। हम तो इतना जानते हैं।
हमने पूछा, “फिर भी कुछ तो करते होगें?”
उन्होने कहा, “हम गेट पर हमेशा ताला लगाकर रखते हैं। साथ ही एक चौकीदार भी हमेशा रहता है।"
हमने कहा, “अरे सर। हमारा मतलब यह नहीं है। हम यह पूछ रहे हैं कि क्या वो सभी जगहें जिसकी तलाश में ये बच्चे स्कूल से भागते हैं अगर उन जगहों को ही स्कूल के भीतर बनवा दिया जाये तो?”
उन्होने कहा, “ये होने पोसिबल नहीं है। ये तो स्कूल से एक दम अलग ही जगह हो जायेगी।"
हमने कहा, “ये स्कूल से ही नहीं बल्कि घर से भी अलग जगह हो जायेगी। बच्चे ऐसी जगह की उम्मीद मे तो भागते हैं जो घर और स्कूल से अलग हो। यह खेलने नहीं जाते बल्कि उस जगह की खोज करने जाते हैं जहां पर वो खिल पाये, अपना कुछ जोड़ पाये, कुछ नया सीख पाये, एक दूसरे को सुन व देख पाये। ऐसी जगह की कल्पना कर दिजिये बच्चों का स्कूल से भागना बंद हो जायेगा।"


अच्छी शिक्षा क्या होती है? वैसे ही जैसे एक अच्छी किताब क्या होती है?

लख्मी

Tuesday, June 11, 2013