Monday, July 19, 2010

ये एक खुल्ला संवाद है

अगर किसी सवाल का कोई जवाब नहीं है तो क्या वो सवाल रहता है? अगर वो सवाल नहीं है तो फिर वो क्या है?

मेरे एक साथी ने कहा कि कुछ सवाल हमेशा जिन्दा रहते हैं? यानि जिनका जवाब नहीं होता वे जिन्दापन का अहसास लिये जीते हैं तो फिर इसका मतलब क्या है?

ये एक और सवाल था लेकिन किसी एक ऐसे सवाल को सोचना जिसका कोई जवाब नहीं होता तो क्या उसको शहर मे, जीवन मे, संदर्भ मे और बातचीत मे उतारने के लिये किन्ही और सवालों की जरूरत होती है?

क्या वे सवाल जिनके जवाब नहीं होते, वे सवाल जिनके जवाब हमेशा बदलते रहते हैं, वे सवाल जिनके जवाब है लेकिन तलाशे नहीं जाते, वे सवाल जिनके कई जवाब हैं।

कुछ चीज़ें हमेशा उधेड़बुन मे रखती है। जो कभी समाप्ती या निवारण तक नहीं ले जाती। वे किन परतों मे जीती है? और उनका बसेरा कहाँ होता है?

लख्मी

Thursday, July 15, 2010

एक चुन्नू सी दुनिया

वैसे तो कहते हैं कि ये दुनिया बहुत बड़ी है, विशाल है और बेआकार है। लेकिन उसके बाद भी मिलना - बिछड़ना लगा रहता है। साथ ही साथ ये भी कहते हैं कि हर कोई अपनी दुनिया अपने साथ लिये चलता है और एक वायव्रेश्न छोड़ता चलता है जो शहर मे एक चुम्बक की भांति काम करती है और उस दुनिया को विशालता मे बदलती चलती है। विशालता जो न जाने कितनी ऐसी सांसों और धड़कनों से बनी होती है जिसका रिश्ता और नाता क्या है वे तक नाममेट होता है। बेअसर होता है, बेनाम होता है और महीम होता है।

मगर एक असर जो मुझे अक्सर बहुत महसूस होता है की विशाल दुनिया जब हम कहते हैं तो असल में किसी एक दुनिया का जिक्र नहीं करते या करते हैं तो उसमे अनेकों दुनियाएँ जी रही होती है, पल रही होती है। हर कोई अपनी कोई विशालता तलाशने का जिम्मा उठाकर कहीं दूर जाना चाहता है। किन्ही और रिश्तों, चेहरों मे खो जाना चाहता है, किन्ही और दरवाजों पर दस्तक देना चाहता है। मगर क्या हम जानते हैं कि ये असलियत मे होता है?

पिछले दिनों अपनी एक दोस्त से बात कर रहा था। वे लिखती हैं, वे सपनों को भी अपनी प्ररोफाइल ( परिचय ) में जगह देना चाहती हैं और उन लोगों को देखना चाहती है जिनको सपनों मे जगह नहीं मिलती। यानि अपने मन को आजाद रखकर दोस्त बनाना चाहती है।

उसके साथ बातचीत में रोमांचक था की तलाश अपने अन्दर जाने की नहीं है बल्कि अपने से बाहर "किन्ही और" के बीच में उतर जाने की है।

क्या दुनिया वही होती है जो हमें मिलती है या दुनिया वो होती है जिसे हम बनाते हैं? ,मिलना और बनाना क्या है? एक वक़्त मे लगा जैसे मिलना हमें समाजिक नितियों मे ले जाता है लेकिन फिर भी उसमे एक उर्वर स्पेश होता है। कभी - कभी खुद बनाना भी उस चुनाव की तरह हो जाता है जो अपने बेहद नजदीक होता है। नजदीकी हर तरह की सूरत मे हो सकती है लेकिन बनाना और चुनाव दोनों एक साथ चलते हैं।


माना की इस दुनिया का तैराकी सफ़र बहुत रोमांचक होता है। लेकिन एक बात दिमाग में ठहरती जाती है - यहाँ पर हर कोई अपनी दुनिया को विशालता में ले जाना चाहता है लेकिन इसे विशाल करने की प्रक्टिक्स क्या है?, यानि अभ्यास क्या है?

लोग जो अपनी दुनिया बनाते हैं उसमें साथी चुनने का अभ्यास क्या है? एक बार तो लगता है कि जैसे चुनाव ही हमारी जिन्दगी का सबसे हसीन और सबसे खतरनाक अभ्यास भी है। इसमें बँटवारें का वो पहलू छुपा है जिसको हम अपने बेहद नजदीक लेकर जीते हैं।

अपनी दोस्त से बात करते हुये एक रोमांचक स्थिती पर पहुँचा - मैं उसके परिचय को पढ़ता हुआ उसकी तस्वीरों को भी देखने लगा। कुछ देर के बाद मे उसमे बहुत अटपटे सवाल किये।

उसने लिखा, “आप कौन है?”
मैनें लिखा, “मैं लख्मी हूँ"
उसने लिखा, “हाँ, ठीक है लेकिन आप है कौन?”
मैंने लिखा, “मैं एक लड़का हूँ।"
उसने लिखा, “वो तो ठीक है मगर आप है कौन?”
मैंने लिखा, “मैं एक लेखक हूँ दिल्ली मे रहता हूँ।"
उसने लिखा, “आप कौन है वो बताइये?”
मैंने लिखा, “मैं एक हिन्दी ब्लॉग चलाता हूँ अपने एक साथी के साथ।"
उसने लिखा, “ये सब तो ठीक है लेकिन आप कौन हैं?”
मैंने लिखा, “मैं फेसबुक में नये संवाद करता हूँ, दोस्तों की फोटो के साथ खेल करता हूँ।"
उसने लिखा, “तो मैं क्या करूँ, आप कौन है वो बताइये?”
मैंने लिखा, “मैं आपके फेसबुक के घर मे एक बिना किराये का पेइंगगेस्ट हूँ।”
उसने लिखा, “ आप मुझे जानते हैं?”
मैनें लिखा, “हाँ आपके लिखित परिचय से वाकिफ हूँ।"
उसने लिखा, “बिना रिश्तों के किसी के दरवाजे से अन्दर दाखिल नहीं होते।"
मैंने लिखा, “तो क्या बिना जान – पहचान के कोई रिश्ता नहीं होता?”
उसने लिखा, “नहीं, हम अपने को सोचते हुये अपना घर सजाते हैं।"

मैनें लिखा, "हम बिना चुनाव के अपनी दुनिया को बड़ा नहीं कर सकते? घर से बाहर आये मगर वहाँ पर भी दोस्त अपनी मनमर्जी के क्यों चुनते हैं?”
उसने लिखा, “उसी को तो हम अपने घर मे सोचेगें की जिसको जानते हैं, समझते हैं!”
मैंने लिखा, “पूरी दुनिया को सजाने का अहसास लिये हम अपना कोना क्यों तलाशते हैं? हर जगह आसरा क्यों चुनने लगते हैं?”
उसने लिखा, “अस्पताल में बेड बदलने वाला भी अपना सारा समान लेकर जाता है और वहीं पर रूकना है कुछ समय के लिये, ये सोचकर ही तो अपना ठिकाना तय करने लगता है!”
मैंने लिखा, “आप कौन हैं फिर ये सवाल क्यों पूछते हैं हम? मैं भी तो उसी अस्पताल का कोई शख़्स हूँ जो किसी लाइन, भीड़, पर्चे, रास्ते मे मिला होऊँगा आपको।"
उसने लिखा, “इट्रस्टिंग।"

बातचीत कुछ समय के लिये रूक गई, लेकिन अपना आसरा, अपना कोना और अपना चुनाव ये किस ओर ले जाता है? और उसके निश्कर्ष क्या है? अगर "साथी" उसका निश्कर्ष है तो उसमे संभावनाये क्या है और नकारात्मक चीज़ क्या है?

एक वक़्त मे लगा की हमें साथी, संवादक, पाठक और सलाहकार को दोबारा से सोचना होगा।

लख्मी

Tuesday, July 6, 2010

The Last Layer

बहुत इट्रस्टिंग है, दुनिया जिसे पाना या सुनने के लिये अकेला छोड़ा गया है असल में वे किन्ही ऐसी दुनियाएँ अपने साथ लिये जी रही हैं जिसका कोई अंग ही नहीं है फिर भी वे साथ रहने का अहसास देती है।

सुनना और कहना - इसके बीच में हमेशा एक द्वंध रहता है -
उन शब्दों और जीवन के पलों को एक साथ कहीं किसी दिशा मे ले जाकर सोचना बेहद मुश्किल हालात की व्याख़्या करने लगते हैं और जीवन की ओझल और नज़र आती आकृतियों के लिये मुनासिब नहीं होता।

विस्तार खाली यही नहीं है कि अपनी मुलाकात के कुछ हाथ मे पकड़ बनाने वाले अवशेषों से दुनिया को रचा जाये। एक मुलाकात याद आई – पिछले दिनों मैं पोढ़ी गड़वाल गया। वहाँ पर फरीदाबाद से आये हुये एक शख़्स से मुलाकात हुई। वे फरीदाबाद में मजदूर अखबार बनाते हैं। उनका नाम – शेर सिंह है। वे उम्र मे काफी सीमाये पा चुकें हैं। उन्होनें एक अखबार मुझे दिया और पढ़ने को कहा। उनके साथ बातचीत के दौरान वो अखबार मुद्दा नहीं था बल्कि वो नज़रिया या वो गेप था जो शहर के साथ मिलने और जूझने के लिये बनाया गया था।

शहर काफी था लेकिन वही शहर था जो बनाया और देखा जा रहा था। कुछ समय के बाद में लगा की जैसे उल्लास का होना जीवन में खाली फिल्म के बीच मे आने वाली उन मसूरी यानि एडवोटाज़िंग की तरह है जो शायद कुछ पल में चल जायेगी, जिसका टाइम फिक्स है और जो हर आधे घण्टे के बाद में आयेगी।

उनका अखबार पढ़ते समय कुछ सवाल दिमाग में घूमें तो खाना खाते समय बातचीत करने की इच्छा हुई।

मैं इन सवालों को सोच रहा था -
एक चेप्टर में कई जुबानें होने से क्या दुनिया बड़ी होती है या गहरी?
जुबानों को कोई जीवन ले रहा है या कोई कान? जुबानों को सुन कोन रहा है?


वे अपने अखबार को बोलते समय जो छोड़ रहे थे वे अखबार ही था। जो सुना रहे थे वे था वो जीवन जो अखबार से पहले का दर्शन था। लोग अपनी इच्छाओं से कुछ पैदा करते हैं जो उनके बड़ी मश्क्कत के बाद मे और मेहनत के बाद मे मिलने की एक राह दिखाई देती है लेकिन ये दिशा जब धीरे - धीरे मिटने या गायब होने लगती है तो वे सारी इच्छायें जाती कहाँ है?

डार्क दुनिया और गाढ़ी दुनिया : - इन दोनों के बीच में क्या फर्क है? इसका बीच का दृश्य क्या है?

जब वो बातचीत मे थे तो लगा जैसे जो सुना रहा है वे उस दुनिया का पात्र है जो अपनी सारी उलझनों को गाढ़ा करके दिखा पाने की क्षमता रखता है और उस क्षमता का विस्तार सुनने वाले के जीवन मे उस समानता की जिक्र करता है जो हर अवशेष मे, सफ़र मे और बैठकर मे बराबर है। वे नीजि होने से बाहर है। एक बेहद इन्ट्रस्टिगं बात लगी।

उन्होने कहा, “हम लिखते क्यों हैं?, अगर हम कहे की लिखना 99 प्रतिशत गुमराह करने के लिये होता है तो आप क्या कहेगें?"

मैं सोच रहा था इस बात से की, जब चीज़ें अपनी चरमसीमा पर होती है, अपने बहकने और अपने बनने पर होती है तब लिखना अपनी दुनिया किसी के बोलों और अपने मौजूदा शब्दों की रखवाली करने के लिये नहीं होता। वे रचना के उस शिखर पर होता है जिसको आज से पहले और अब से पहले उसे किसी ने नहीं चखा हो।

उनके जीवन की दिशा मे लेखन गुमराह करना इस सोच से नहीं था कि लोग जो लिख रहे हैं वे रोजगार में चला जाता है। यानि लेखन अगर रोज़गार है। वे अगर स्कील ( हूनर ) है तो ठीक है लेकिन अगर वो हूनर है फिर लिखने वाला किसी और की ज़िन्दगी को क्यों लिख रहा है अपनी से बाहर क्यों है?

ये बहस एक पोइंट पर ठीक लगती है लेकिन एक वक़्त के बाद मे लगता है जैसे जीवन को अपने खुद के चश्मे से देखने के समान है।

वे फरीदाबाद मे एक संदर्भ बनाये है जहाँ पर लोग आते हैं। वे लोग जो किसी न किसी रह के काम से जुड़े हैं जैसे फैक्टरी मे काम, हुनरमंदिदा काम वगेरह। वे वहाँ पर आकर बैठते हैं और बातें करते है। कोई कुछ लिखता नहीं है। अगर कोई किसी चीज के बारे मे सुनाना चाहता है तो सुना देता है। उसी को वे शब्दों मे ढालकर अखबार मे डाल देते हैं।

एक इंट्रस्टिंग बात – जो सुनाने मे आ जाता है या जो सुनाने मे नहीं आता खाली वही जीवन क्यों होता है? जो चाहते और कल्पनायें हैं वे कहाँ है? वे सारी जाती कहाँ हैं? एक वक़्त मे कहानियाँ जो सुनाई नहीं गई वे कहाँ चली गई का सवाल छोटा लगने लगता है लेकिन जो कल्पनाये और चाहते बोलों मे नहीं आई वे कहाँ चली गई? ये सवाल बहुत गहरा होने लगता है।

इस जीवन की धारा मे उल्लास पैदा करना होता है या उल्लास होता है उसे परखना होता है? अपने लिये परखना और अपने से बाहर परखना क्या होता है?

मेरे दोस्त लव ने उनसे एक सवाल किया, “ये अखबार कौन लिखता है?

तब उन्होने कहा, “इसे हम नहीं लिखते ये लोगों की जुबान है।"

एक ही पल मे ऐसा लगा जैसे किसी चीज़ से तुरंत ही दूर हो गये। कभी - कभी लगता है जैसे बोलना अपनी जिन्दगी में संदर्भ से बदल जाता है। वो बोल कहाँ पर रहा है? का अहसास भारी होता है। वो आपके संदर्भ मे कुछ सुनाने के लिये आया है तो क्यों? क्या उसे संदर्भ का पता है?, वे क्या सुनता है?, उसके कान कैसे है? इसका भार होता है।

एक अलग सोच : -

अंधेरा क्या होता है? क्या अंधेरा भारी होता है? क्या अंधेरा ठोस होता है? मुझे लगता है अंधेरा गहरा होता है लेकिन वो ठोस नहीं होता। अंधेरा तरल होता है। वे बहता नहीं है लेकिन उड़ता है। वे जमता नहीं है लेकिन रुकता है।

वे किसी को छुपा सकता है लेकिन किसी गायब नहीं कर सकता। वे कुछ दिखने से रोक सकता है लेकिन मिटा नहीं सकता। रीडिंग मे भी जो "कहाँ" का सवाल उत्पन्न होता है वे गहरा है लेकिन गाढ़ा नहीं है। यानि वे किसी खास दिशा मे है जिसका बाहर आना वाज़िब है लेकिन तय नहीं है। लोग जो कह रहे है, नियमित कह रहे हैं जो शायद उन्होनें जिया है लेकिन उसमे इतनी और संभावनाये हैं कि वे अनेकों उन कहानियों को भी सफ़र का हिस्सेदार बना सकते हैं जिनका होना तय नहीं था। यानि इस सफ़र मे समय का कोई गाढ़ापन नहीं होता। वे बहाव मे होता है।


पिछले दिनों रात और दिन को लेकर जब सोच रहा था तो लोगों की जुबान का अंदाजा हुआ। वे जुबान जो बदलती है, तब्दील होती है और गाढ़ी होती है। लेकिन निजी अवस्था से बाहर होने का अहसास करवाती है जिसमे पक्ष और विपक्ष का कोई बहाव नहीं होता। ये बिलकुल उन दोनों बहनो की दुनिया को समझने के समान है मेरे लिये जो कई जुबाने लिये जी रही हैं। वे समय का जमाव नहीं है बल्कि समय के बहाव का किनारा है। जो अनेकों आखिरी चीज़ों का अहसास करके जीने का स्वाद बनाती हैं। किसी जगह के उन अवशेषों की तरह जो कहने को लास्ट लेयर हैं लेकिन अपने साथ दुनिया को बदलने और नया आकार देने की तमन्ना रखते हैं।

सोचने को कुछ मिला -
लख्मी

Thursday, July 1, 2010

एक लेखिका का परिचय पढ़ा

एक लेखिका का परिचय पढ़ा, परिचय की ठोस रूपी जीवन से अत्यंत अलग महसूस हुआ। यही अलग और विभिन्न होने का अहसास अगर हम लेकर चलें तो आसमान भी छोटा पड़ेगा उड़ान के लिये।

परिचय अक्सर इतना मजबूत होता है कि उसमें शरीर के ऊपरी हिस्से की बेहद कड़ी जानकारी बसी होती है। यानि परिचय मे पाँव का कोई अभिवनय नहीं होता। परिचय में कोन का सवाल जितना सख़्त होता है उतना ही कहाँ से है का भी दबदबा रहता है। इसलिये पाँव का कोई मोल नहीं। अगर हम अपने परिचय में पाँव का मान देते हैं तो वे समाजिक नितियों से बाहर हो जाता है जिसका बौद्धिक जीवन यानि उड़ान वाले अहसास से जुड़ने लगता है। फिर वो अपने जीवन को उन पाठ्यक्रम मे देखने लगता है जैसे किसी फिल्म मे चलती कोई एड़वोटाज़िंग हो। समाजिक जीवन मे बौद्धिक जीवन इसी रिद्धम मे पहचाना जाता है। भला क्यों इसका अहसास इसको जीने वाला ही तोड़ सकता है। लेकिन अपने से बाहर जब वो देखता है तब क्या पैश होता है?

परिचय बौद्धिक होता है या समाजिक? परिचय बांधने के लिये होता है या खोलने के लिये? परिचय मिलन के लिये होता है या चुनने के लिये? परिचय की डोर क्या है? या परिचय की कोई डोर ही क्यों है?

ये सब सवाल तब पैदा होने लगते हैं जब किसी क़िरदार लिखा जाता है। लेकिन फिर भी क़िरदार मे और जीवन के मूल शरीर मे बहुत गेप होता है। क़िरदार ज़्यादा आजाद और घुलनशील होता है।

हम अनेकों जीवन की उड़ान से खुद को रचते चलते हैं लेकिन किसी एक वक़्त में ये भूला देते हैं कि हम कहीं उन्हीं मूलधाराओं में तो नहीं फँस रहे जिनको तरल और आसान बनाना है। अपनी उड़ान में इन अहसासों को बांधे।

परिचय को पढ़ने के बाद मे लगा की जैसे परिचय में सपनों की क्या जगह होती है? सपनें किसी परिचय में जब आ जाते हैं तो कुछ तरल हो जाता है।

लख्मी