Tuesday, November 8, 2011

बहुरूपिये



कई बार देखा
पलट कर देखा
मुड़कर देखा
रूककर देखा
चलते हुए देखा
हर शय से देखा
हर फ्रेम से देखा
हर आकार से देखा
हर रूप से देखा
हर तरफ से देखा
हर मुड से देखा

एक शरीर मगर रूप अनेक
रूप एक तो छवियां अनेक
छवि एक तो भाषा अनेक
भाषा एक तो जुबान अनेक
जुबान एक तो शब्द अनेक
शब्द एक तो कहानी अनेक
कहानी एक तो किरदार अनेक
किरदार एक तो श्रोता अनेक
श्रोता एक तो कदरदान अनेक
कदरदान एक तो कल्पनाएं अनेक

उनमें कई लोग, जब भी देखा बदलते देखा

राकेश

Saturday, November 5, 2011

चुम्बकों के बीच में

जमीन पर बहुत गहरी छाया थी। उसके नीचे एक रेहडी खड़ी थी। आसपास मे कोई नहीं था। वे छाया नियमित हिल रही थी। कभी जमीन के उसी हिस्से पर छाया बड़ी हो जाती तो कभी अपना ठिकाना बदल लेती लेकिन वे जगह चुनी जा चुकी थी। सामने एक खिड़की के भीतर से कोई लाइट चमक रही थी। ज्यादा तेज नहीं थी लेकिन उसका लगातार आना इस जमीन पर गिरी छाया मे हरकत ले आता। फिर एक जोरदार आवाज़ और वॉयव्रेशन के जैसा पूरी जगह का कांप जाना। आवाज़ के क्षण भर बाद में फिर से वही।

छाया बड़ी हो रही है - रेहडी को पूरी तरह से ढक लिया है। खिड़की से एक बार फिर से लाइट का इशारा हुआ और एक जोरदार आवाज़ - दीवार पर पड़ता वार उसे हिला देता। पहली और दूसरी मंजिल को एक ही रूप मे बना दिया गया है। वे छाया जब भी उस लाइट की तरफ मे जाती तो दीवार से टकरा जाती और फिर शुरू होता वार का होना।

एक बड़ी सी चैन जमीन पर गिरने लगी - वही चैन जो छोटी होने पर ताले मे लगने से चीज की बंदिश हो जाती है। उसका आकार 100 गूना था। सांप की तरह वे जब गिरती चली जा रही थी। साथ ही वे छाया जो अब तक जमीन पर पड़ी थी वे वहां से अपनी जगह बदल रही थी। खिडकी के इतनी पास हो गई थी के खिड़की को देखना मुश्किल हो गया था। वे कभी दूर होती तो कभी खिडकी पर वार करती और किसी पोटली को वहाँ से निकाल लाती।

लख्मी

आसमान की ओर मुँह किये सभी लेट गये

कोई विशाल वाइपर अंधेरे पड़ें आसमान में नाच रहा है। रोशनी जमीन तक आने से कतरा रही है। अपने पांव के नीचे की जमीन को देखना भारी हो रहा है। कोई उसे देखने को निकला जो आँखों में समा जाने से लड़ता है। हैरानी है समय में कि आँख की कोशिश इतनी मुलायम और तीव्र भी हो सकती है। सब नशे में है - ऐसा नशा जो जगह से हिलने नहीं देता मगर आँखों को दूर फैंकने की हिम्मत दे डालता है। ये उस रोशनी का एक खेल है जिसके पीछे नाच रहे है सब।

वो कहीं जा नहीं रही, मंडरा रही है - खेल रही है। किसी ऐसे विशाल रूप में जिसमें उसकी दूरी को सब पकडने के लिये उत्सुक हैं। ये क्या है? और ये कहाँ से आ रही है? सवाल हर कोई अपने भीतर दबाये हुए उसे निहार रहा है। हर किसी के सिर पर वे सवार है। बिना किसी डर के और बिना किसी ठोस आकार के। और कुछ नहीं है जिसे देखा जा सकता है। इसके पीछे जाने की इच्छा बेहद तीव्र है। मगर जाया कहाँ जाये? “लगता है कोई जहाज है", कोई टॉर्च मार रहा है।" अंदाजे चल निकले हैं। मगर बिना किसी सिर पैर के।

उसमें किसी और हरकत को देखे जाने की इच्छा परवान चड़ चुकी है। आसमान की ओर मुँह किये सभी लेट गये हैं। दाँय से बाँय होती उस रोशनी के साथ गर्दन हिला रहे हैं। वे विशाल हो रही है - बादलों को एक चमक देते हुए वे घूम रही है। जैसे जैसे उसका आकार विशालता में फैलता जा रहा है। पैंरो के नीचे की जमीन पर परछाईयाँ बनती जा रही हैं। परछाइयाँ गहरी हो चली हैं। एक दूसरे मे गुथी परछाइयाँ, एक दूसरे पर चड़ी परछाइयाँ - वे दूर जा रही है और कुछ बन रही है। कभी डरावनी शक़्स मे तबदील हो जाती तो कभी लगता की मेरे लिये बन रही है। मगर मेरी नहीं है। उसके बहने और विशाल होने में तमाम शक़्ले समाई हुई थी। इतने मे उन्होनें खत के ऊपर रखे उस पेपर वेट को हटाया और खत पढ़ना शुरू किया।

लख्मी

अदृश्य हाथ



राकेश