Saturday, November 5, 2011

आसमान की ओर मुँह किये सभी लेट गये

कोई विशाल वाइपर अंधेरे पड़ें आसमान में नाच रहा है। रोशनी जमीन तक आने से कतरा रही है। अपने पांव के नीचे की जमीन को देखना भारी हो रहा है। कोई उसे देखने को निकला जो आँखों में समा जाने से लड़ता है। हैरानी है समय में कि आँख की कोशिश इतनी मुलायम और तीव्र भी हो सकती है। सब नशे में है - ऐसा नशा जो जगह से हिलने नहीं देता मगर आँखों को दूर फैंकने की हिम्मत दे डालता है। ये उस रोशनी का एक खेल है जिसके पीछे नाच रहे है सब।

वो कहीं जा नहीं रही, मंडरा रही है - खेल रही है। किसी ऐसे विशाल रूप में जिसमें उसकी दूरी को सब पकडने के लिये उत्सुक हैं। ये क्या है? और ये कहाँ से आ रही है? सवाल हर कोई अपने भीतर दबाये हुए उसे निहार रहा है। हर किसी के सिर पर वे सवार है। बिना किसी डर के और बिना किसी ठोस आकार के। और कुछ नहीं है जिसे देखा जा सकता है। इसके पीछे जाने की इच्छा बेहद तीव्र है। मगर जाया कहाँ जाये? “लगता है कोई जहाज है", कोई टॉर्च मार रहा है।" अंदाजे चल निकले हैं। मगर बिना किसी सिर पैर के।

उसमें किसी और हरकत को देखे जाने की इच्छा परवान चड़ चुकी है। आसमान की ओर मुँह किये सभी लेट गये हैं। दाँय से बाँय होती उस रोशनी के साथ गर्दन हिला रहे हैं। वे विशाल हो रही है - बादलों को एक चमक देते हुए वे घूम रही है। जैसे जैसे उसका आकार विशालता में फैलता जा रहा है। पैंरो के नीचे की जमीन पर परछाईयाँ बनती जा रही हैं। परछाइयाँ गहरी हो चली हैं। एक दूसरे मे गुथी परछाइयाँ, एक दूसरे पर चड़ी परछाइयाँ - वे दूर जा रही है और कुछ बन रही है। कभी डरावनी शक़्स मे तबदील हो जाती तो कभी लगता की मेरे लिये बन रही है। मगर मेरी नहीं है। उसके बहने और विशाल होने में तमाम शक़्ले समाई हुई थी। इतने मे उन्होनें खत के ऊपर रखे उस पेपर वेट को हटाया और खत पढ़ना शुरू किया।

लख्मी

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