Tuesday, October 13, 2009

दुनिया गोल है

ये मैंने आठवीं कक्षा में पढ़ा था। तब उतना समझ नहीं आता था। बस, जवाब देना जरुरी होता था। सिद्धांत प्रेक्टिकल है ये मुझे पता नहीं था। बहुत कुछ आज खुद पर जाँचकर पता चला है कि जितना सोचने में वक़्त लगता है उससे कहीं ज़्यादा अपने सामने किसी संम्भावना में इच्छा अनुसार जीने में लगता है सब गोल है।

इंसान जहाँ से चलता है एक न एक दिन उसी धरातल पर आ जाता है। वो जब अपनी यादों को झिंजोरना आरम्भ करता है तो उसे अतीत की मौज़ूदगी नज़र आती है की वो तब कहा था क्या था? और फिर वो वर्तमान को समझता है तो उसे सब पहले जैसा ही मालूम होता है क्यों ? इसान समय के कई पहलूओ में फँसकर जीता है। समय छलिया है जो तरह-तरह की लिलायें रचता और करता है जिसके प्रभाव से इसान कभी लाचार हो जाता है कभी उसे आसमान भी कम पड़ जाता है। कभी वो खुशी महसूस करता है और कभी दुख ज़िन्दगी कभी मौत से जीत जाती है कभी मौत ज़िन्दगी से।

कई रीति-रिवाजों में संकृतियों में समाज एक सामूहिक रूप से अपने स्नेह और भावनात्मकता को लेकर इंसान को स्वतंत्रत और परिस्थितियाँ पुर्ण जीवन जीने का आधिकार देता है। जो इंसान के अपने हाथों जीना होता है। वो खुद से अपने जीवन को जी सकता है। मगर उसे समाज के साथ चलता ही पड़ता है क्योंकि समाज करवा के जैसा है जिसकी भीड़ से अगर कोई निकल गया या पीछे छूठ गया तो समाज उसे भूल जायेगा और समाज से ही बने सारे रिश्ते-नाते भी वह शख़्स को विसरा (भूला) देंगे। फिर चाहें वो अपने जीवन के किसी भी आधार को क्यों न घसीटता फिरे अगर वापस समाज को पाना है तो समाज की शर्तो और उसकी न्यूनत्मता में अपने बनाना होगा। अगर समाज का दामन थामे चलोगें तो आवश्य ही जीवन का उद्दार हो जायेगा। क्यों सरकार जो मार्ग दर्शन देगी उसी मे जीवन के सारे काम जिम्मेंदारी और नैतिक स्वार्थ भी पूरा होगा। सरकार समाज के ही बीच का हिस्सा है जिसे कल्याण के लिए जीवन-शैली, में रहन-सहन और कार्य-व्यवहार में भी बदलाव लाने के लिए बनाया जाता है जिस को चलाने वाला नेता या चौधरी होता है। सब हुआ पर आम जीवन का सूर्य उदय नहीं हो पाया। आम जीवन पर और उसके चरित्र पर कई साहित्य और कथाएँ है।

कई लोगों ने जीवन की इस भूमि को अपने खून से सींचा। आन्दोलन भरे कई दौर आये और गए लोग जीए और वो किसी तारे की तरह चमके फिर बादलों में छीप गए। पर इस जीवन धरातल के ऊपर कोई पक्की बुनियाद ही नहीं बनी। जिसके ज़ोर से किसी इंसान को उसका अस्तित्व प्राप्त हो पाता फिर भी सहास लेकर इंसान अपने को हर तरह के समय के मुताबिक ढालने की कोशिश करता है। वो किसी की ज़िन्दगी में अपने मौज़ूदगी के निशान बनाता है। समाज में रहकर उसे ज़िन्दगी को एक ढ़ंग मिलता है। लेकिन इस ढ़ंग को वो आत्मनिर्भता से जीना चाहता है। जिससे सब रिश्तों और समाजिक जिम्मेदारियों में रहकर वो अपने जीवन के ऐसे मूल अनूभव जोड़ सकें जो उसके स्वरूप से ज़िन्दा हुए है। उसके ही जगाये हुए हैं।

राकेश

कोई कुछ भी कहे

ऐ गिट्टी....ऐ गिट्टी.. , वही जानी पहचानी आवाजें कानों में पड़ती जिनके लिए पीछे मुड़ना शायद जरुरी नहीं था और ना ही उन्हे सुनना। आज फूलजहाँ से छोटी उसकी बहन भाभी का भी रिश्ता तय होने वाला था। मगर उसके चेहरे पर खुशी ही नहीं बल्की खूब खिलखिलाती हसीं थी। जिसको देखकर उसके सारे रिश्तेदार उसकी बलाईयाँ ले लेते और शायद यही एक काम रह गया था उनके पास। फूलों सुबह से अपनी अम्मी के ट्रंक में से उनकी नई साड़ी पहनने की बात भी कर चुकी थी और "पूरा शिगांर करुगीं...पूरा शिगांर करुगी" की रट भी लगा चुकी थी।

एक तरफ घर में पुलाव की महक घूम रही थी लगभग पच्चीस-तीस आदमियों का खाना तो बनाना पड़ेगा "ये ले आओ...ये ले आओ" के नारे फैले थे। आज तो वैसे भी किसी के पास वक़्त नहीं था शाम की तैयारी थी। उसमें फूलों भी सुबह से चार बार साड़ी पहनती और खोलती लगा रही थी। खिलखिलाई सी वो आज सबसे खूबसूरत बनने की तैयारी में थी। बड़ी बहन की शादी में तो सुध ही नहीं थी तैयार होने की तो अब अपनी छोटी बहन कि शादी में क्यों कसर छोडे?

"अरी फूलों कहां है किसी को खबर है?” ( नीचे से किसी ने आवाज लगाई)
"अरे वो रही ऊपर साडी बाधं रही है आज तो सजकर ही नीचे उतरेगी ये।" ( किसी में ताना कसते हुए कहा)

"क्यों ना सजे मेरी बच्ची उसकी छोटी बहन की रिश्तेदारी हो रही है। मैं बधंवाऊगीं मेरी बच्ची की साड़ी।"


कुछ देर के बाद फूलों रेशमी सतंरगी साड़ी में बाहर आई एक लम्बा सा घूँघट और अम्मी साथ में। सीढियाँ थोड़ी छोटी थी तो अम्मी उसे संम्भाल कर नीचे ला रही थी।
"बेटा घूँघट तो ऊपर कर ले गिर जायेगी।"
पर हमारी फूलों अपनी बातों में किसी को जगह देती ही कहाँ थी। पता है वो क्या बोली?
"नहीं-नहीं अम्मी में घूँघट में ही जाउँगी बड़ी बहन ने भी तो किया था शादी में मैं भी करुगीं"
और फिर हँसती हुई नीचे उतरती पर अम्मी का ध्यान उसके पैरों पर ही था की कहीं ये फिसलकर गिर ना जाये तो उसको एक-एक सीढ़ी बोल-बोलकर उतार रही थी। अम्मी ने उसे नीचे उतारते हुए कहा था हर कोई वैसे उसको ना जाने किन-किन बातों से खुश रखने की ही सोचता रहता था।

वो बोली थी, "देखा कितनी खूबसूरत लग रही है हमारी फूलों हटो मैं अपनी बच्ची की नज़र उतारुँ।"

सारे के सारे आये रिश्तेदार उसकी तरफ में एक टुक लगाये देख रहे थे घूँघट में जो है वो क्या फूलों ही है या कोई और सीधी खड़ी है। ना कोई का जोश, ना कपड़ों का चबाना!!!

उनमें से एक ने प्यार भरे स्वर में कहा, “अरे ये घूँघट में हमारी गिट्टी है क्या?”

इस आवाज में वो लहज़ा नहीं था जो वो अक्सर गली में सुना करती थी उसने फौरन अपना घूँघट ऊपर किया आँखों में सुरमा, गालों पर लाली और होठों पर लिपिस्टीक!

वो तुरन्त बोली, “मामू जान! मामू मैं कैसी लग रही हूँ लग रही हूँ ना बिलकुल बड़ी दीदी जैसी?”

उनके पास में "हां" के अलावा कोई और शब्द ही नहीं था। अब वो भी अब बाकी के लोगों के साथ मे बैठ गई। जानती हो आसपास में बैठे सभी गली के लोग का तो जैसे ध्यान ही बट गया था। कभी तो वो रिश्तेदारों के ऊपर देखते तो कभी साड़ी में बैठी उस लड़की को। ना जाने क्या देख रहे थे जैसे सब कुछ गुमा था। अब मुझे सगाई के लिए जाना था तो मुझे सभी अपने साथ में बैठाकर सारे इंतजाम कराने के लिए कह दिया। अब सगाई की रसमें पूरी करानी थी तो सभी के कह दिया था की हम सारी रसमें फूलों से ही पूरी करायेगें। मैं रिश्तेदारो के बीच में बैठी थी और फूलों को कह दिया था की वो सारे समानों को मेरे हाथ में रखती जाये। तो वो एक-एक समान को देखती रही और मेरे हाथों में रखती गई वो एक-एक समान को ऐसे देख रही थी की जैसे वो ना जाने क्या हो? पर उसका मन लग गया था उन रसमों में और अपनी कभी ना रुकने वाली नज़रों को घूमाती वो खिलखिलाती उन रसमों को निभाती गई वो खूब जोर-जोर से हँसनें लगी थी।

"मैं तो सब कबूल कर लू बस, मेरी फूलो का कहीं कुछ हो जाये पता नहीं क्या होगा इसका?”

अम्मी उसको देख-देखकर बोले जा रही थी। बस वो तो चारों तरफ में देखकर हँसे चले जा रही थी ये नया काम लग रहा था उसको जो वो किये जा रही थी। वो आज बहुत खूश थी अपने नये रूप में बस अपनी साड़ी और कगंना को देखती और उसे घूमाती रहती बड़ी झूम रही थी। बस, जब सब कुछ हो गया तो वो सारे लोगो से दूर अपनी उसी ख़ाट पर जाकर बैठ गई जिसपर वो हमेशा बैठकर सबके साथ में खेलती और बातें बनाती थी। उस दिन वो इतना अलग लग रही थी ना के सभी उसको देखकर वो रोज का उसका थूकना और उसकी चिपचिपाहट को जैसे भूल चुके थे। भाभी भले ही आज बहुत सारे कामों को करते हुए अपने ये दिन दोहरा रही थी पर आज तो उनके कामों पर कुछ भी ध्यान नहीं जा रहा था बस, उबकी बातों के ऊपर ही सब कुछ था। वो तो बिलकुल खो ही गई थी। आज ऐसा लग रहा था जैसे की वो आज अपने रिश्ते को बड़े नजदीक से देखकर बता रही हो वो अपनी बहन के बारे में नहीं पर अपनी गली में बैठी उस लड़की के बारे में बता रही थी जो ख़ाट पर बैठी सब पर थूकती थी या सबको टोकती थी पर आज उसी ख़ाट पर वो कुछ और ही थी। उसे कैसे यादों में दोहरा रही थी? भाभी!!

लख्मी

यहाँ मोड़ बहुत हैं

( रोज़गार विभाग )

बात कुछ खास नहीं है।
ये ऐसी जगह है जो ज़िन्दगी मे कोई बदलाव तो नहीं लाती लेकिन फिर भी कहीं न कहीं हर किसी के साथ जुड़ी रहती है जिसमे दर्ज हो जाना एक संटुष्टी ला देता है कि "चलो हो गया" अब इंतजार की दुनिया शुरू।

एक वक़्त को मान लेते हैं जैसे इसकी लाइन मे लगे रहना ही ज़िन्दगी है। जिसमे हमें ये पता नहीं होता की हमारे आगे कौन लगा है और हमारे पीछे कौन? वोकोई लड़की है या लड़की? उसकी उम्र क्या होगी? खैर, 18 साल से तो ऊपर ही होगी। वो दिल्ली के कौन सी जगह मे रहता होगा? देखा जाये तो पूरी की पूरी लाइन अदृश्य ही बनी रहती है। बस, अपने नम्बर और अपने से आगे के नम्बर को सोचा जा सकता है लेकिन अपने से पीछे के नम्बर और उसकी ज़िन्दगी की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। हर कोई यहाँ पर अपने नम्बर से इस लाइन का सबसे आखिर का नम्बर है।

अभी थोड़ी ही देर मे एक और लाइन लगने वाली है।


उसने दरवाजे को जोर से धकेला। बारिश पड़ जाने के कारण बहुत जल्दी थी अन्दर घुसने की, कि कहीं सारे डॉकोमेन्ट न भीग जाये। वैसे तो सभी कागज़ो को उसने पन्नी मे अच्छी तरह से लपेटा हुआ था और सामने ही तो वो खिड़की थी जहाँ पर उसे पहुँचना था। वो जल्दी - जल्दी चलते हुये बोला, “लगता है बारिश की कारण कोई नहीं आया।"
वो सीधा खिड़की के पास मे पहुँच गया। जैसे ही उसने खिड़की पर पहुँचकर अपने सारे कागज़ निकाले की पीछे से कई सारी आवाज़ों ने उसे घेर लिया।
“ओ भइये यहाँ - कहाँ, तेरे को ये लाइन नहीं दिखी? चल पीछे से आ।"

पूरी की पूरी लाइन दिवार से चिपकी हुई थी। ग्राउंड के बाहर लगे पेड़ों की झाड़ियों की ओटक मे सभी खुद को और कागज़ों को बचाये खड़े थे। जो बारिश मे जल्दी पहुँचने की फिराक ने दिख नहीं पाई। जो दरवाजे तक ही जाती थी लगभत 30 से 35 लोग तो होगें। वो लाइन को देखते - देखते सबसे आखिर मे जाकर खड़ा हो गया। उस समय सभी की नज़र उसी पर थी। लाइन के शुरू मे ही दो पुलिसकर्मी भी खड़े हुए थे। जो सभी के कागज़ों मे लगी तस्वीर से चेहरा मिला रहे थे। उसके साथ – साथ कुछ पूछ भी रहे थे।

तेज हवा और बारिश की बौछारों के कारण शख़्स बिना बोले ही शौर कर रहा था। सभी के हाथों मे लगी पन्नियाँ काफी हल्ला मचा रही थी। हवा के साथ लड़ रही थी। सभी ने अपने कागज़ सीधे हाथ की तरफ मे पकड़ रखे थे। जो हाथ दिवार की ओट मे था। आज खुद को बचाना जरूरी नहीं जितना की कागज़ों को बचाना मायने रखता था। अभी खिड़की पर काम थोड़ा सुस्त था। इतने सभी अपने - अपने फोर्म भरने की बातें कर रहे थे।

पीछे खड़े शख़्स ने पूछा, “ भाई साहब आप कब आये?”

उसने लाइन को लम्बा हुये जो मन मे आया बोल दिया, “भाई साहब मैं तो अभी आया हूँ तभी तो आपके आगे खड़ा हूँ अगर पहले आया होता तो आपसे चार आदमी आगे खड़ा होता। क्यों भाई साहब?”

वो बस, “सही बात है भाई" कहकर चुप हो गया।

आज यहाँ पर देखकर लग रहा था जैसे आज कुछ पंगा है। नहीं तो रोज़गार विभाग मे पुलिस वालो का खड़ा होना कोई मतलब नहीं बनता है। एक – एक कागज़ को चैक करना और सवाल करना। ये क्या कोई नया नियम लागू हो गया था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उससे आगे वाले शख़्स बता रहे थे की आजकल लोग बहुत शातिर हो गये हैं। काम तो मिलता नहीं है तो जो लोग अपने लिये कुछ नहीं कर पाते तो उन्हे अपने साथ मे ले आते हैं और उनके कागज़ दिखाकर यहाँ पर नाम दर्ज करवा लेते हैं और रोज़गार की मांग कर जाते हैं फिर अगर रोज़गार मिल जाता है तो जिसके कागज़ लेकर आये थे उसे उसी मे नौकरी दे देते हैं। तन्खुया उन्हे देते हैं और मुनाफा खुद से कमाते हैं।

वो कुछ देर सोचने के बाद मे बोला, "औ यानि नाम आपका और पैसा मेरा अच्छी पार्टनरसीप है।"
उसने इस बात को कहकर अपने दिमाग से ऐसे निकाल दिया जैसे स्कूल की हिन्दी किताब की कहानियों में कोई लाला अपने दूग्ध में से मक्खी को निकालता था।

"कहीं ऐसा भी कभी होता है भला?

लाइन में लोग बढ़े चले जा रहे थे । कभी कुछ ही लोग आगे बड़ जाते और कभी पूरी लाइन एक – दूसरे को धक्का मारने पर मजबूर हो जाती। लेकिन जिस कारण धक्का लगता। वे थी बारिश और उसी से बचने के लिये आगे कोई साधन नहीं था तो लोग अपना-अपना नम्बर लगाकर कहीं किसी ओटक में छुपकर खड़े हो जाते। लोग पूरे ग्राउंड में घूमते नज़र आ रहे थे।

उन्ही आते लोग में से एक शख़्स घूमता हुआ आया। वो सभी से कुछ पूछ रहा था। वो आया और पैंसिल को हाथ पर चलाते हुए बोला, "भाई साहब क्या मैं पैंसिल से फोर्म भर सकता हूँ?”

उसने इन साहब की तरफ नज़रे की , सफेद कमीज़, नीली पैन्ट और आँखों में पर सफेद नज़रों का चश्मा।, “भाई साहब आप कितने पढ़े-लिखें है?”
वो बोला, “मैं बीए कर रहा हूँ।"
“तो भाई साहब जब पैंसिल हाथ पर नहीं चल रही तो पेपर पर क्या चलेगी? बारिश का मौसम है पैंसिल धुल जायेगी पैन से भरिये।" वो ताना कसता हुआ बोल पड़ा।

ये सुनकर वो हँसते हुए चला गया और ये भी हँसने लगा। "बताओ इतने पढ़े -लिखे लोग पैंसिल को हाथ पर चला रहे हैं क्या यार।"

इसी को सोचते-सोचते वो हँसे जा रहा था। बारिश तेज होने की वज़ह से लाइन के आगे की जगह में पानी भर गया था। अब तो सभी को उसी में से गुज़रना पड़ रहा था और लोगों की रफ़्तार में भी थोड़ा हल्कापन आ गया था। लाइन में खड़े-खड़े पाँव दर्द करने लगे थे पर यहाँ पर तो किसी को यह भी नहीं कह सकते थे की हैंडीकैप हूँ पैर में दर्द हो रहा है। क्या मैं आगे जा सकता हूँ?" यहाँ पर लाइन मे लगने वाले सभी हैन्डीकैप ही थे। किसको बोलते? मगर इतना तो तय था की लंच से पहले नम्बर आ ही जायेगा। जमीन में पानी अब कुछ ज़्यादा ही भर गया था। उसके आगे वाला शख़्स बोलकर गया, “भाई ज़रा मेरी जगह देखना मैं अभी आता हूँ।" अब नम्बर आने वाला था उस शख़्स का। थोड़ी ही देर में वो वापस आया उसने अपनी पीठ में एक लड़की को बैठाया हुआ था। उस लड़की ने अपने हाथों में एक पन्नी पकड़ी हुई थी और सभी को देखते हुए कुछ बातें कर रही थी । बातें करते - करते वो खूब हँस रही थी। उसकी उम्र से तो वो बीस साल की ही लग रही थी। सभी लोग उन्ही दो जनों को देखकर रहे थे। उस लड़की की खिलखिलाती हँसी बेहद अच्छी लग रही थी। वो आदमी जिसने उस लड़की को पीठ पर बैठाया हुआ था वो भी उसी बातों का जवाब दे रहा था। दोनों बातें करते हुए खिड़की पर आ गए थे। उस लड़की खिड़की पर आते ही खुद को संभाला । वो अपना दुप्पटा ठीक करते हुए खिड़की के अन्दर झाँकने लगी। वो खिड़की की ऊँचाई तक तो आ ही गई थी। उसने रोज़गार विभाग मे नाम दर्ज कराने के साथ – साथ एक मोबाइल साइकिल वाली एस.टी.डी का भी अप्लाई किया था। जिसके लिए उस लड़की ने फोर्म भरा था। वो जैसे ही वहाँ पर पहुँचे तभी एक पुलीष वाले ने उन्हे रोका और उनसे पूछा, “ये कौन है तेरा?”

वो मुस्कुराते हुए बोली, “ये मेरा बड़ा भाई है।"

उसने इतना कहा और वो अन्दर चली गई। थोड़ी देर के बाद में एक शख़्स आया, जो बोल नहीं सकता था। उसने हर चीज़ को एक पेपर पर लिख रखा था। वो कौन है?, कहाँ रहता है?, उसका विक्लांग के प्रमाणपत्र पर कितना परसेंट लिखा है? सब कुछ था। वो बस, अपने साथ मे किसी को ले जाना चाहता था की कोई अगर कुछ ऐसा पूछ ले जो उसने पेपर मे नहीं लिखा है तो वो उसे समझा सके। क्योंकि सरकारी आदमी पर तो इतना वक़्त होगा नहीं की उसको समझने में अपना समय दे। वो पूरे मे घूम रहा था। मगर यहाँ पर ऐसा माहौल था की जैसे हर किसी की दिक्कत एक- दूसरे से बड़ी है। वो अपनी संभाले या किसी और की। वो ऐसे ही घूमता हुआ यहाँ पर आया। उसने अपनी डायरी और एक अलबम सोनू के हाथ मे पकड़ा दी। वो बस, उसकी अलबम को देखता रहा। वो एक गायक है, तस्वीरों मे तो ऐसा ही लग रहा था। कई सारे स्टेजशोह मे वो गा रहा था और नेता लोग उसे तोहफे भी भेंट कर रहे थे। रामलीला थी, किसी की पार्टी थी, जागरण था। जिन्हे लोग आधी रात के गायक कहते हैं।

उसके साथ मे, एक पुलीस वाला चला गया। बाकि सब उसके बारे मे बातें करने मे लग गए थे। ऐसा लग रहा था जैसे कोई यहाँ से जाने की सोच ही नहीं रहा है। एक – दूसरे को देखने के बाद सोनू का भी नम्बर आ ही गया। वो अपनी पन्नी में कागज़ निकालता हुआ खिड़की पर दाखिल हुआ । वही पुलिष वाले के दो सवाल फिर अन्दर दाखिल। अन्दर में घुसते ही उसने सारे पेपर वहाँ पर बैठे एक शख़्स के आगे रख दिये। उसने उन पेपरों से पहले फोर्म को देखा, “अच्छा तो तुम्हे भी एस.टी.डी चाहिये?"

अब उसकी नज़र अलग काग़जों पर गई। उसने पूछा, “आप हो सोनू? पर आपका तो एक पाँव खराब है और आपके सार्टिविकेट पर लिखा है बोथ ऑफ लैग।"
पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। ऐसा तो हो नहीं सकता। उसने उन पेपरों को अपने हाथ मे लिया और देखा। बोथ आफ लैग का क्या मतलब होता है वो उसे पता नहीं था। आज जब पता चला तो बस, उसके दिमाग में बाहर खड़ा पुलिष वाला और उसका डंडा ही नज़र आने लगा। आज से पहले सार्टिविकेट में ये लिखा है ध्यान क्यों नहीं दिया? इतने पढ़े लिखे लोगों ने देखा उन्होने क्यों नहीं बताया। आज गली के सारे पढ़े लिखे लोगों को बताऊँगा। मगर बेटा आज तो गया तू।" फोटो लगी है ये तो ये मानेगा नहीं और डाक्टर ने गलती की है । ये तो ये मान ही नहीं सकता। अब क्या करें?

वो वहीं पर खड़ा उस शख़्स की सूरत देखता रहा और थोड़ी देर के बाद बोला, “सर लगता है मैं गलती से अपने साथ वाले का पेपर ले आया हूँ । हम अभी बाहर में एक-दूसरे का सार्टिविकेट देख रहे थे ना ! इसलिये। मैं अभी ले आता हूँ।"

बस, दिमाग मे इतना था कि कैसे ना कैसे यहाँ से निकल जाऊँ फिर देखूगाँ। उसने उन काग़जों को एक बार भी नहीं देखा और बस जितनी तेज वो चल सकता था उतनी तेज चलता वो बाहर आ गया। बाहर आकर सोचने लगा की अगर एक गलती होती तो चलता भी यहाँ तो बोथ ऑफ लैग लिखा था। यानि के दोनों पैर ख़राब। ये कैसे हो गया? सार्टिविकेट को बने भी सात साल हो चुके हैं। अब तो बदल भी नहीं सकता और इसी को देखकर रेल का पास, बस का पास और आईकार्ड बने हैं। तब तो किसी ने नहीं देखा या कहा। आज ये क्या हो गया। बस, अब हो तो कुछ नहीं सकता था पर वो अपने पर बहुत हँसा और हँसतें हुए अपने माथे पर हाथ मारते हुए वो बोला, “साला किश्मत ही ख़राब है।"

लख्मी

Tuesday, October 6, 2009

एक जगह पड़ा रहकर तो पत्थर भी भारी पड़ जाता है

एक शख़्स रोज़ाना अपने घर से चार रोटियाँ अचार के साथ बाँधकर चलता था। वो लेबर चौक़ पर जाकर 7 बजे ही बैठ जाया करता था। वहाँ उसके जैसे कई आदमी रास्ते के किनारे कतार लगाकर बैठा करते थे। घर में बीवी बच्चे और बूढ़े बाप का ख़र्चा वो ही अकेला उठाया करता था। वो हर दिन चौक़ से किसी के साथ 150 रुपये दिहाड़ी पर चला जाया करता था। उसे कुछ कला या हुनर नहीं आता था। बस, वो पत्थर तोड़ना जानता था। जब कभी पैसों की ज़्यादा ज़रूरत होती तो वो ठेकेदार से बात करके किसी बड़ी जगह या शहर में जहाँ कहीं सड़कों का निर्माण होता वहाँ अपनी बीवी को भी ले जाता था। पत्थरों पर हथौड़े बजाने से बेहतर उसे कोई और काम नहीं आता था। सारा दिन वो इसी तरह व्यतीत करता था। उसके साथ के लोग भी उसी तरह दिन बिता देते थे।


शाम तक उसका शरीर थककर कमजोर पड़ जाता था। कितनी बार उसकी बीवी उससे कहती, "आप इससे अच्छा कोई और काम सीख लो। आधी ज़िन्दगी पत्थरों में बिता दी अब तो कुछ तरक्की करो।"

वो हँसकर कहता, "कोई बात नहीं, मैं इसी में खुश हूँ। कम से कम मैं पत्थरों में रहकर पत्थर तो नहीं बना। ये काम करते-करते समझ गया हूँ कि पत्थर भी टूटते वक़्त दर्द महसूस करता है। उसकी भी आवाज होती है।"

उसकी बीवी कहती, "आप हमारी आवाज़ों को तो इतनी ग़ौर से कभी बयाँ नहीं करते, न कभी ज़िक्र करते?”

इसका उसके पास कोई जवाब नहीं होता पर वो इस वज़ह को लेकर कभी-कभार ज़रूर सोचता रहता, चिंतन-मनन में डूबा रहता। रोज रात को पति-पत्नी इसी तरह की बातों में जीवन के कई अनुभवों को अपने बीच बाँटते रहते।


"एक जगह पड़ा रहकर तो पत्थर भी भारी पड़ जाता है।" दीनू ये कहकर अपनी बीवी को समझा देता। उसकी ये बात ज़िन्दगी के हर हालात
से टकरा जाती, इसलिये वो निराश नहीं होता था। 40 साल की उम्र में वो ज़िंदादिली के साथ अपने काम में लीन रहता और अपने शरीर की थकान दूर करता।


दोस्तों, काम के बारे में हमने पहले भी कई बार सोचा है और नया काम खोला है पर ये शब्द ज़िन्दगी के हर मोड़ और हर समय में मिल जाता है। हम इसे जी तो लेते हैं पर इसको लेकर जूझने से समझौता कर लेते हैं जिससे हमारी रफ़्तार से चलती ज़िन्दगी में कभी कोई ठहराव नहीं आ पाता। इसलिये हम अतीत में जी हुई हर चीज को वर्तमान यानी आज में बदलने या बनाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। दीनू ऐसा नहीं करता। वो अपने आज को खुद बनाता है, अतीत पर रोता या प्रश्चाताप नहीं करता। वो आज के वज़न को जीता है। क्या आज का काम अतीत के लिए है? उसे फिर से सोचने के लिए है, या क्या नहीं हो पाया, क्यों नहीं हो पाया - इससे कुछ सीखने के लिए है, ताकि आगे कोई चूक न हो या फिर एक ज़िन्दगी को सोचकर जो चला गया वो किसी वक़्त की रचना में अपनी मौजूदगी को बनाने का निर्णय है।

दीनू आज़ादी से जीता है। हम युगों से बदलते आए हैं या नये युगों ने हमें बदल दिया है। हर बार क्या मानव की रचना किसी अलग सिरे से होती है या हम सत्ता के नियम या नीतियों से बनी योजनाओं की बनावट का एक हिस्सा हैं जिसमें हमारा समाज हमें ही काटता और संवारता है।

समाज है तो दीनू जैसा शख़्स क्यों पत्थरों मे दिल लगाता है? अपना कोई साथी और जीने का ढ़ंग ढूंढता है? सत्ता समाज को बरकरार या टिके रहने की शक़्ति देता है जिसके राज में सब अपने को सुरक्षित समझते हैं। पर जो शख़्स इससे बाहर है उसका जीवन क्या है, किस
के लिए है - इसका जवाब कौन देगा? कौन बतायेगा कि अपनी स्वतंत्रता और संतुलित जीवन की रचनाओं का मूल्य क्या है? जो किसी निजी संबंध के बंधन में नहीं वो तो अजय और अमर है।


राकेश

यह विशिष्ट दृश्य

वक़्त की शाखाओं को पकड़े बिजली की एकाग्रता सीमा के बीच मैं खड़ा धूल और मिट्टी के मोटे कणों को चेहरे कि परतों से हटा रहा था। तभी यह विशिष्ट दृश्य मेरी एक प्रवृत्ति में चल पड़ा। मैं खड़ा था। भीड़ की विवेकशीलता चल रही थी। काली परछाईयाँ मेरे सिर पर मंडरा रही थी। संतुलन असंतुलन के बीच बड़ा फर्क था। कई आलोचको की आवाजें निडियंत में ही नहीं थी। भीड़ का प्रतिनिधित्व करने के लिए मेरे मन का ख़्याल मुझमें कुलबुला रहा था। रात जंगल मे रहने वाले किट-पतंगों की गूंज दिव्यमा न थी। पानी की बाल्टी में मैली पतलून पहने एक बुझा-बुझा सा शख़्स थकी आँखों से रात मे घूमते गश्तगरों से सलाम करता। दूर से चिमनियों सी चमकती बल्ब और रंगीन ट्यूबलाईट की लुपलुपाती रोशनी जिसके घेरे में भीड़ में व्यस्त डिजीटल मीडीया अपनी छटा बिखेर रहा था। कई अन्य रूपों के माध्यम से जिसमें समाये थे।


पानी की छोटी सी बाल्टी में उसने कई पोलीथिन पैकेट रखे हुए थे। वो पोलीथिन पैक पानी था।जिसको बेचने के लिये वो शख़्स अपनी एक जगह बनाये खड़ा था। जो होंठो से धीरे-धीरे प्यास को वितरित करता अपने पास बुलाता। वहां अपने चेहरे पर कोई लड़का मुखौटा लगाये भीड़ को देख रहा था। मनमाने ढंग से उसकी आँखें चल रही थी। पोलीथिन पैक पानी को उसने हाथों में लेकर हवा में घुमाना शुरु कर दिया। बस, फिर क्या था सब की आँखें वहाँ देखने लगी। शाखारूपी वक़्त ने जैसे सबको अपनी ग्रफ्त में ले लिया।

राकेश