Monday, December 19, 2011

Friday, December 16, 2011

लिखने की जूस्तजू

- खुद के बाहर जाकर लिखना
- खुद को छोड़कर लिखना
- खुद को तोड़कर लिखना।
- खुद को किनारे पर खड़ा करके लिखना
- खुद से लड़ते हुये लिखना
- अपने को भावनात्मकता से बारह ले जाकर लिखना
- नैतिक और पहचान से बाहर होकर लिखना
- “मन" के वश मे आये हुए लिखना
- नियमित्ता से टकराते हुये लिखना
- खुद को भीड़ मे रखकर लिखना
- अपने को एंकात मे महसूस करके लिखना
- हकीकी जीवन ब्योरे से बाहर होकर लिखना
- लाइव टेलिकास्ट होकर लिखना
- अंजान और परिचय से बाहर होकर लिखना
- "कारण" के बिना लिखना
- सवालों से लिखना
- बिना सवालों के लिखना
- खोज़ करते हुये लिखना
- बिना सवाल जवाब के बातचीत लिखना
- खुद को सवाल करते हुये लिखना
- खुद को गायब करके लिखना
- खुद को छुपा कर लिखना
- किसी मे दाखिल होकर लिखना
- बिना सहमति के लिखना
- खुद को और आसपास सुनकर लिखना
- जीवन कोमेंट्री करते हुये लिखना
- बिना कहानी के लिखना
- अपने को समझाते हुये लिखना
- “कहाँ" की कल्पना करते हुये लिखना
- काल्पनिक किरदार को बनाते हुये लिखना
- अतीत और याद के बाहर होकर लिखना
- जगह को पहेली की तरह महसूस करते हुये लिखना
- चीज़ों से लिखना
- बेजान चीज़ों के बीच मे बातचीत कराते हुए लिखना
- दृश्य को दर्शन बनाकर लिखना
- बिना किसी निर्णय के लिखना
- खुद को चोट पहुँचाकर लिखना
- खुद के दायरे से टकराते हुये लिखना
- अपने मे किसी और के अहसास से लिखना
- अपने से अजनबी बनकर लिखना
- बिना पारिवारिक और काम के घेरे मे जाये लिखना
- बिना किसी स्टॉप के लिखना
- खुद को लिखना, बिना कोई परिचय दिये
- स्वयं के साथ बातचीत करके लिखना
- काम और रिश्तों के बाहर जाकर बातचीत करके लिखना
- खुद को वास्तविक्ता से बाहर ले जाकर लिखना
- खुद की उम्र कम करके लिखना।
- खुद के बने - बनाये तरीके से हट कर लिखना
- नये ढाँचे बनाते हुये लिखना
- जगह को रहस्य बनाकर लिखना

"प्रभाव"

हम लिबास, छवि, रूप और नकाब को सोचते हैं। इनसे बहस करते हैं, बदलते हैं, लड़ते हैं और संधि भी करते हैं लेकिन ये क्या है? और इनके बीच में क्या है? पिछली रात – "अंत के बिना" एक प्रफोमेंस देखा। कुछ ऐसा लगा की ये इनके बीच में हैं - ये एक पिरोया हुआ संवाद है जो एक दूसरे के गुथे होने से तैयार होता है।

"अंत के बिना" का एक दृश्य :
एक लड़की अपने चेहरे पर रंग ही रंग चड़ाती है बिना पहले किया हुआ रंग मिटाये बिना। कभी लाल, कभी सफेद, कभी हरा, कभी पीला, कभी नीला तो कभी काला। लगाती जाती है - लगाती जाती है। फिर उन्हे एक सफेद कपड़े से पोंछती है। तो रंग साफ नहीं होते बल्कि एक ऐसा रंग चेहरे पर चड़ जाता है जो उसने मला नहीं था।

प्रफोमेंस :
अपने पूरे शरीर पर काला रंग चड़ाये वे कमरे से बाहर आता है। कई काले रंग के कुर्ते पहने हुए। एक – एक कर वे अपने सभी कुर्ते पब्लिक में बैठे लोगों को पहना देता है। फिर एक शरीर जो अपने रंग से निजी रंग से पुता हुआ था वे भी किन्ही हिस्सों से किसी और रंग मे चला जाता है। जिन लोगों को उसने अपने कुर्ते पहनाये थे बिना उतारे हुए उनके भीतर भी वे उस रंग की कसक डाल देता है।

इनमें हम अभिव्यक़्तियों, नकाब और लिबास को किन सवालों के थ्रू सोच सकते हैं? जबकि ये इस अवधारणा को तोड़ता है की जीवन कई रूप मे जीता है। जो एक से निकलकर दूसरे मे जाना है। शायद एक – दूसरे के बीच में कई सवाल है जो इन्हे जुदा करते हैं। एक दूसरे के विपरित खड़ा करते हैं। हर छवि एक दूसरे से भिन्न होती है लेकिन क्या वे एक दूसरे से बिना है?

लिबास क्या है? किसी को धारण करना है या कुछ और है? "वक़्त" इस सवाल को पूछता है - बेहद गहरी चुप्पी के साथ। मुझे लगा की "चुप्पी" ही इसका जवाब है लेकिन ऐसा नहीं है। "चुप्पी" उस लिबास की वो आवाज़ है जो चीखती है - मौजूद रहती है।

छवि, रूप, लिबास या नकाब – ये "पिछला छोड़ना" और "किसी दूसरे" में जाना नहीं है। वे रीले करता है। किन्ही चेहरों को, सफ़र को - जो जीवनंता के अहसास से बनी होती है। ये लड़ाका नहीं होती - ये रोमांचक है। वे जो अपना रोमांच चुनती नहीं है - खोजती है। ये एक - दूसरे के भीतर से निकलकर जीने वाली आकृतियाँ है। कुछ भी बाहर का नहीं है या ये सब अंदर का नहीं था। ये अंदर बना था बाहर से और बाहर गुथा है अंदर से। "पिछले की कग़ार" जो अगले को बनाती हो।

बेहद रोमांचक है -
बिना रूके उस ओर ले जाता है जिसका छोर नहीं है। गुथा हुआ, पिरोया हुआ और धारण करना के मौलिक ढाँचों से सीधा टकराता है उसे तोड़ता है। फिर बात करता है। बहुत अच्छी रात रही -

लख्मी

Thursday, December 1, 2011

ख्याब़ों जो बिना आवाज़ के हैं



एक स्नेह फिसलकर निकली हाथो की पकड़ से, कहीं दूर... कहीं दूर.....

उसका कोई चेहरा नहीं,
उसकी कोई आवाज नहीं,
उसका कोई शरीर नहीं,
उसकी कोई महक नहीं,
उसका कोई छुअन नहीं,
उसका अहसास नहीं,
उसका कोई चुभन नहीं,
उसका कोई दर्द नहीं,
उसकी कोई खुशी नहीं,
उसकी कोई याद नहीं,
उसकी कोई कल नहीं,

पर उसकी धड़कन है जो मेरी सांसो से बात करती है - कुछ कहती है, बंद आंखो में आकर कुछ लकीरें खींचती है और फिर कहती है मुझे पहचान - अपनी धड़कन से....

राकेश

Tuesday, November 8, 2011

बहुरूपिये



कई बार देखा
पलट कर देखा
मुड़कर देखा
रूककर देखा
चलते हुए देखा
हर शय से देखा
हर फ्रेम से देखा
हर आकार से देखा
हर रूप से देखा
हर तरफ से देखा
हर मुड से देखा

एक शरीर मगर रूप अनेक
रूप एक तो छवियां अनेक
छवि एक तो भाषा अनेक
भाषा एक तो जुबान अनेक
जुबान एक तो शब्द अनेक
शब्द एक तो कहानी अनेक
कहानी एक तो किरदार अनेक
किरदार एक तो श्रोता अनेक
श्रोता एक तो कदरदान अनेक
कदरदान एक तो कल्पनाएं अनेक

उनमें कई लोग, जब भी देखा बदलते देखा

राकेश

Saturday, November 5, 2011

चुम्बकों के बीच में

जमीन पर बहुत गहरी छाया थी। उसके नीचे एक रेहडी खड़ी थी। आसपास मे कोई नहीं था। वे छाया नियमित हिल रही थी। कभी जमीन के उसी हिस्से पर छाया बड़ी हो जाती तो कभी अपना ठिकाना बदल लेती लेकिन वे जगह चुनी जा चुकी थी। सामने एक खिड़की के भीतर से कोई लाइट चमक रही थी। ज्यादा तेज नहीं थी लेकिन उसका लगातार आना इस जमीन पर गिरी छाया मे हरकत ले आता। फिर एक जोरदार आवाज़ और वॉयव्रेशन के जैसा पूरी जगह का कांप जाना। आवाज़ के क्षण भर बाद में फिर से वही।

छाया बड़ी हो रही है - रेहडी को पूरी तरह से ढक लिया है। खिड़की से एक बार फिर से लाइट का इशारा हुआ और एक जोरदार आवाज़ - दीवार पर पड़ता वार उसे हिला देता। पहली और दूसरी मंजिल को एक ही रूप मे बना दिया गया है। वे छाया जब भी उस लाइट की तरफ मे जाती तो दीवार से टकरा जाती और फिर शुरू होता वार का होना।

एक बड़ी सी चैन जमीन पर गिरने लगी - वही चैन जो छोटी होने पर ताले मे लगने से चीज की बंदिश हो जाती है। उसका आकार 100 गूना था। सांप की तरह वे जब गिरती चली जा रही थी। साथ ही वे छाया जो अब तक जमीन पर पड़ी थी वे वहां से अपनी जगह बदल रही थी। खिडकी के इतनी पास हो गई थी के खिड़की को देखना मुश्किल हो गया था। वे कभी दूर होती तो कभी खिडकी पर वार करती और किसी पोटली को वहाँ से निकाल लाती।

लख्मी

आसमान की ओर मुँह किये सभी लेट गये

कोई विशाल वाइपर अंधेरे पड़ें आसमान में नाच रहा है। रोशनी जमीन तक आने से कतरा रही है। अपने पांव के नीचे की जमीन को देखना भारी हो रहा है। कोई उसे देखने को निकला जो आँखों में समा जाने से लड़ता है। हैरानी है समय में कि आँख की कोशिश इतनी मुलायम और तीव्र भी हो सकती है। सब नशे में है - ऐसा नशा जो जगह से हिलने नहीं देता मगर आँखों को दूर फैंकने की हिम्मत दे डालता है। ये उस रोशनी का एक खेल है जिसके पीछे नाच रहे है सब।

वो कहीं जा नहीं रही, मंडरा रही है - खेल रही है। किसी ऐसे विशाल रूप में जिसमें उसकी दूरी को सब पकडने के लिये उत्सुक हैं। ये क्या है? और ये कहाँ से आ रही है? सवाल हर कोई अपने भीतर दबाये हुए उसे निहार रहा है। हर किसी के सिर पर वे सवार है। बिना किसी डर के और बिना किसी ठोस आकार के। और कुछ नहीं है जिसे देखा जा सकता है। इसके पीछे जाने की इच्छा बेहद तीव्र है। मगर जाया कहाँ जाये? “लगता है कोई जहाज है", कोई टॉर्च मार रहा है।" अंदाजे चल निकले हैं। मगर बिना किसी सिर पैर के।

उसमें किसी और हरकत को देखे जाने की इच्छा परवान चड़ चुकी है। आसमान की ओर मुँह किये सभी लेट गये हैं। दाँय से बाँय होती उस रोशनी के साथ गर्दन हिला रहे हैं। वे विशाल हो रही है - बादलों को एक चमक देते हुए वे घूम रही है। जैसे जैसे उसका आकार विशालता में फैलता जा रहा है। पैंरो के नीचे की जमीन पर परछाईयाँ बनती जा रही हैं। परछाइयाँ गहरी हो चली हैं। एक दूसरे मे गुथी परछाइयाँ, एक दूसरे पर चड़ी परछाइयाँ - वे दूर जा रही है और कुछ बन रही है। कभी डरावनी शक़्स मे तबदील हो जाती तो कभी लगता की मेरे लिये बन रही है। मगर मेरी नहीं है। उसके बहने और विशाल होने में तमाम शक़्ले समाई हुई थी। इतने मे उन्होनें खत के ऊपर रखे उस पेपर वेट को हटाया और खत पढ़ना शुरू किया।

लख्मी

अदृश्य हाथ



राकेश

Wednesday, October 19, 2011

उल्टी पड़ती लहरें



कुछ आवाज़ें उन चेहरों की तरह होती है जिन्हे याद रखने के लिये कभी ख्यालों मे नहीं रखा जाता।

भिन्न होती आवाजें उस ओर जाने के लिये तैयार थी जहां का उन्हे रास्ता नहीं पता था
मेरी उलझने मुझे उन रास्तों का कहती है।
मेरे हर पल जो बितते हुए पलों से टकराते चलते थे
वो उन चेहरों मे बदलने लगे जिन्होनें उन रास्तों का कभी खुद को माना नहीं।

छोटे कागजों के टुकड़े इधर से उधर हवा मे तैर रहे हैं
कभी हवा उन्हे एक ही जगह पर रोक लेती है और कभी अपनी पूरी ताकत के साथ किसी और दिशा मे फैंक देती है।
मैं उन सभी कागज़ों को बीच मे खड़ा हूँ
ये देखने की कोशिश मे की, वे कब तक किसी एक ही जगह पर टिके रहते हैं।

राकेश

मेरी थकान

एक दिन मेरी थकान मुझसे बोली, तू मुझे लेकर जायेगा कहां?
मैं थोड़ा हिचकिचाया, थोड़ा हैरान हुआ - मेरी थकान मुझसे बात कैसे कर सकती है। क्या वो भी बोल सकती है। कुछ पल की शांति ने शायद ये किया होगा? शायद मेरे कान बज रहे होगें। वो तो मुझे मारती है, मेरे शरीर से उसकी दुश्मनी है, उससे मेरी रोज लड़ाई होती है। पर मैंने कभी उसे जीतने नहीं दिया। और अंत में मैं उसका कातिल बन गया।

पर वो तो मरती ही नहीं, बस शांत हो जाती है। आज वो बोली, "तू मुझसे जीतने का घमंड करता है। फिर भी तू रोज डरता है। तु सिर्फ इतना बता की क्या तू अपनी थकान को खुद चुनता है?"

मैं कहां सुस्ताऊंगा को चुनता हूँ,
मैं कहां ताजा होऊंगा वो चुनता हूँ
मैं कहां खो जाऊंगा वो चुनता हूँ
मैं कहां मिल पाऊंगा वो चुनता हूँ।

ऐसा क्या है जो मैंने छोड़ दिया, इस सवाल ने इन सबका रास्ता मोड़ दिया,

लख्मी

Tuesday, October 4, 2011

ये कोई अनोखी दुनिया नहीं है

पांचवा दिन - ओखला

डब्बा फेक्ट्री जो ओखला में है, वहां पर सुरेश नाम का एक शख़्स फैक्ट्री मे मोटे तौर पर मजदूर के ऊपर काम करता है। उनका दिल्ली मे आने का एक खास तरह का मक्सद था, पर वो उस मक्सद मे कामयाब नहीं हो सका लेकिन उसके बाद उन्होने कोशिस करना नहीं छोड़ा, काम की तलाश मे उनको ओखला में उनके जिले का एक शख़्स मिला। उसने ओखला मे काम करने वालो के बारे मे बताया और कहा की आप को मैं कहीं फिट कराऊगां। यहां पर वही जमता है जो जो कुछ कलाकारी जानता हो, यानी कोई ज्ञान होना जरूरी है। उसने सुरेश को अपने जीजा के साथ डब्बा बनाने की जगह मे भेज दिया जहां पर हर रोज छोटे और बड़े गत्ते कि डब्बे बनते थे। डब्बे बनाना सुरे को आता नहीं था। शुरूवात मे वो कारीगर के साथ उसकी मदद करने के काम मे लगा, जिसे हेल्पर कहते हैं।

500 किलो के कुछ पेपर को रोज मशीनो मे डालकर काटा जाता था। फिर पेस्टिंग कर उन्हे गोंध से चिपकाने के बाद कटिंग की जाती। तरह तरह कि मशीनो के सातह उसको रहने की आदत सी पड़ गई। वो रोज ओखला से, संगविहार जाता और अकेला ही वो अपने गांव से यहां संगमविहार मे रहता था। मगर उसका सारा धचयान अपनी मशीनो मे लगा रहता। 12 घंटे के काम के बाद भी उसका मन नहीं भरता था। उसका लगता था की वो घर आने के बाद भी वहीं उन्ही मशीनों मे है। सिखने के इस दौर मे और कमाई के सफर में उसके सपने तक बदल गये थे। शहर और उसकी आवाजों के साथ मशीन का शरीर और आवाज उसके कान मे हमेशा गूंजती रहती।

शुरू मे जब वो मशीनो मे रहता था तो उसका कैंद्र मशीनो के पुरजों पर छाया रहता था। वो उन्हे काटने और बनाने के काम को देखता रहता था। मशीन कैसे चलती है और काम कैसे करती है वो इसको बडी ध्यान से देखता और जब मालिक चला जाता तो मशीनो को स्टार्ट करके उन पर काम करने की कोशिश करता। ओखना वो साइकिल से ही जाया करता। अब बस में चड़ना - उतरना उसे परेशानी देने वाला सफर लगता। लेकिन बाकी मजदूरों के साथ काम करते करते उसे इसकी आदत हो गई थी। वो जब यहां आया था तो उके रहने का कोई इंतजाम नहीं था। और फैक्ट्री के मालिक को कोई ऐसा बंदा चाहिये था जो दिन मे काम भी करे और रात को फैक्ट्री मे रूक कर रात मे भी काम करवाना हो तो कारीगरों को कंपनी मिल जाये। ये काम भी हो जाये। सो सुरेश को काम की सारी शर्ते मंजूर हो गई थी।


सुरेश नया था मगर उसके काम करने का जूनून बहुत पहले का था। काम चाहे जो भी हो वो कोशिस करने से क्या नहीं हो सकता। वो इसे मानकर जीता था। वो ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। मगर सेंटीमिटर, स्क्यर, मेप का उसे आइडिया भी हो गया था। उसके बाद फैक्ट्री मे एक शख़्स काम करने के आया। वो था मंगलू जो कभी गलियों में कबाड़ जमा करता था और गोदाम मे बेच आता था। मंगलू का अपनी अदा है। वो अपने काम को खुद करता है। नियम है कि कब क्या करना है और मोबाइल पर गाने सुनने का सुख बस इस मे अपनी दुनिया बनाया है और उसे बेशक जीता है। वो स्टींग मशीन पर ज्यादा काम करता है। जो मेप, द्वारा बनाई गये गत्तों को सही करती है। इस तरह की कुछ और भी मशीने है। जैसे लॉटरी पेटींग कटिंग, चैन लौटाल जिस पर सारे मजदूर काम करते हैं। घंटो का काम मिंटो मे होता है।

ये कोई अनोखी दुनिया नहीं है, असल मे कोई दुनिया अनोखी नहीं होती, उसे अनोखा बनाया जाता है। जो सुरेश, मंगलू और उनके साथ रहने वाले वो लोग जो किस दुनिया से आये है को कोई नहीं पूछता, बस जो सामने है उसे देखकर हंसते हैं जिन्दगी को।

राकेश

उनको पकी नज़रों से नहीं देखा जा सकता

15 ब्लॉक मार्किट – एक कमरा जहाँ पर सितारे बिखरे पड़े थे और कोई नहीं था। आशा वेदप्रकाश जिनसे मैं मिला। ये अभी बीए पास कोर्स कर रही हैं। उम्र ज्यादा नहीं है, मगर हर बार पढ़ाई छूट जाती है लेकिन इस बार इन्होने छूटने नहीं दिया। पीस बनाती हैं, घर-घर देकर आती है, काम के लिये औरतों को कनवेंश करती है और उनके साथ काम करती है। हर रोज़ पीस लेने ये सुबह निकलती है और साथ ही जो हर दिन के हिसाब से काम करते हैं उनका पैसा लाती है और जो महीने के हिसास से काम करती है उनका हिसास लिखवाकर लाती है। हर रोज़ सबके कहने के अनुसार ये काम लाती है।

पूछने वाला, "हमें कब लगता है कि अपने समय को अब हमें खुद से बांधना होगा?”
आशा वेदप्रकाश, “ जब लग रहा हो की अपने लिये कुछ भी निकालना नहीं हो पा रहा है। कितना भी कोशिश करलो लेकिन निकालना मुश्किल हो रहा हो तब मन किलसता है- गुस्सा भी आता है मगर इसी के अन्दर कोई काम अच्छा हो रहा हो तो लगता है कि अपने लिये टाइम क्यों चाहिये? पर हर वक़्त तो नहीं ऐसा नहीं चाहिये। कुछ पाने की खुशी ही सब कुछ नहीं होती है ना! अगर यूंही समय को नहीं खुद से बांधा गया तो एक ही चीज़ को करने में रह जायेगें आगे कुछ नहीं होगा।"

पूछने वाला, "समय के बंधन के बाद मे खुद की कल्पना किस रूप या प्रकार मे करने की कोशिश उभरती है?”
आशा वेदप्रकाश, “मैं ये सोचती हूँ की मेरी क्या पहचान होगी? मुझे लोग कैसे जान पायेगें? मैं चाहती हूँ कुछ करूँ, कुछ ऐसा जो मैंने किया हो। मेरे परिवार मे किसी ने ना किया हो। अभी मालूम नहीं है मगर करना चाहती हूँ। जब हम समय के बंधन से बाहर है या समय को खुद बांध रहे हैं तो ख्याल उड़ने लगते हैं। तब तो आप कहीं भी जा सकते हो। इन्ही के बीच में मैं कल्पना करती हूँ कि लोग मेरे पास आये मुझसे बात करने और मैं लोगों के पास जाऊँ। बस मेरे आसपास माजमा जमा हो।"

पूछने वाला, "कब हम किन स्थितियों से अपने आपको एकांत और असंख्य में देख पाते है? उस एकांत में होना या असंख्य में होना क्या होता है?”
आशा वेदप्रकाश, “मैं हर रोज़ के झमेलों से दूर जाना चाहती हूँ लेकिन इनमें मुझे रहना पड़ेगा। मुझे एकांत पसंद नहीं है, अगर वे खमोशी मे जाये तो। इतना शोर है आसपास में क्यों मैं दबी सी रहूँ। क्यों ना बातें करूँ, दूसरों की सुनूँ। लेकिन कभी लगता है कि जब हमें इन्ही झमेलों से, घरेलू कामों से और इसकी बंदिशों से नफरत होने लगती है तब लगता है कि एकांत हो। इनसे बाहर निकला जाये। किसी ऐसी जगह पर जाया जाये तो इन सबसे बाहर हो, इतनी बाहर नहीं की वापस ना आया जाये लेकिन बाहर हो। थोड़ी दूरी पर।"

पूछने वाला, "हमारे लिये कोई जगह बनाकर देगा तब हम जीना तय करेगें या हम भी कभी बनाने वाले बनेगें? कब ये सोच आती है कि अब हमें बनाने वाला बनना है?”
आशा वेदप्रकाश, “अब तक तो ऐसा होता आया है कि हमारे लिये किसी ने जगह बनाई है। घर मा-पिता ने बनाया और बाकि सब सरकार ने बनाया। लेकिन एक जगह है जो किसी ने नहीं बनाई बस बन गई। जैसे मेरी मां का घर, वे किसी को बुलावा नहीं देकर आई फिर भी हर रोज़ घर में कई औरतें आकर बैठती है और फिर शुरू होता है दिन। वे सब ऐसे बातें करती हैं जैसे फिर कभी नहीं मिलेगी। अगर किसी ने बात शुरू करदी तो आज ही खत्म करके जायेगी चाहें कितनी ही देर उसे हो जाये। और मेरी मां भी इसी मे खुश रहती है।"

पूछने वाला, "कब लगता है कि हमें अपने याद और अतीत के बाहर जाकर जीना होगा?”
आशा वेदप्रकाश, “हम अपने बारे मे कब तक बता सकते हैं? हर वक़्त तो यह नहीं किया जा सकता। जब तक हम यह नहीं समझ सकते तो क्या अपने आने वाले समय को सोच पायेगें? बिलकुल नहीं। जब मैं अपने बीते समय को सोचती हूँ कुछ नज़र नहीं आता। लगता है जैसे आँखों से मिट गया है। जब उससे बाहर निकलकर देखती हूँ तो कुछ साफ तो नहीं दिखता लेकिन फिर भी लगता है जैसे अब जाया जा सकता है।"

पूछने वाला, "इसमें "तलाश" क्या है? तलाश को किस तरह समझे? उसमें कितनी जगहों का असर मौजूद रहता है?”
आशा वेदप्रकाश, “तलाश तो होती है, बिना तलाश के तो कुछ नहीं है। कौन जितना वो कर पाया है उसमें खुश रहता है? मैं तो खुश नहीं रहती है। तलाश तो हमें एक्टिव रखती है। ऐसा लगता है कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है। महज़ अपने लिये ही नहीं बल्कि अपने साथ कई औरों के लिये। तलाश दो चीज़ों से तो बनी होती है - पहली : अपने लिये और दूसरा : अपने से किसी और के लिये।"

पूछने वाला, “अगर किसी चीज़ का अंत का पता न हो तो वे जीवन में जिन्दा कैसे रहती है?”
आशा वेदप्रकाश, “तभी तो वो जिन्दा है, अगर अंत हो गया तो समझो वो गई। वो जिन्दा रहती है ऐसे की उसे कुछ और नहीं चाहिये। वे हर रोज़ आपके सामने आकर खड़ी हो जायेगी। लगेगा जैसे कुछ बोल रही है। लेकिन शायद हमें समझ मे नहीं आता। रोज़ उससे मिलकर जाओगे, शाम को आकर मिलोगे, अपने साथ लेकर जाओगे और वापस भी लेकर आ जाओगें मगर वो मरेगी नहीं।"

लख्मी

Wednesday, September 28, 2011

बातचीत टूकड़ों में जीती है

SMS - एक आदमी चौराहे पर जाकर खड़ा हो गया।
SMS - वो खड़ा है या कुछ सोच रहा है?
SMS - वो इधर – उधर कुछ देखता रहा।
SMS - वो किसी का इंतजार कर रहा है क्या?
SMS - वो कहीं पर जाना चाहता है।
SMS - उसके हाथों में कुछ है क्या?
SMS – नहीं, मगर उसकी मुट्ठी बन्द है।
SMS – क्या वो इस जगह में पहली बार आया है?
SMS - पूरी जगह को वो ताक रहा है।
SMS - शायद वो कुछ याद करने की कोशिश में हैं।


वो शख़्सियतें कौन सी होती हैं जिनकी गढ़ना नहीं होती?

SMS – एक आदमी भरे कोहरे में अपने नाख़ून ब्लेड से काट रहा है।
SMS – लोग उसे कैसे देख रहे हैं?
SMS – उसके नाखूनों में से खून निकल रहा है। जिसके बारे में उसे पता है लेकिन उसका अहसास नहीं।
SMS – क्या लोग उसे देखकर कुछ कह रहे हैं?
SMS – उसके हाथ और पाँव देखने से लगते हैं जैसे बहुत सुन्न पड़ गए हैं।
SMS – क्या उसकी नज़र किसी को नहीं देख रही?
SMS – वो कुछ देर के लिये थम गया।


यही जीवन है। - यही जीवन है?

SMS – लाउडस्पीकर पर एलान था की बस्ती 3 महीने में टूट जायेगी।
SMS – ये ख़बर उनके पास कहाँ से आई?
SMS – किसी ने तो दी होगी? एलान वालों के पास तो नेता लोग बोलते हैं।
SMS – क्या उससे पहले कोई नोटिस दिया जायेगा?
SMS – ये जो एलान हो रहा है इसे ही नोटिस समझो।

बातचीत टूकड़ों में जीती है। देखने में दोहराना, निकालना उठाना, रिवांइड में जाना, चुनिन्दा चीज़ों को पेश करना {रुप बदल जाना}, इसे पेश करने में नमी का अहसास, बहुत बड़ी चीज़ का अहसास होना पर टुकड़ो में, उस प्रक्रिया के बाद कि तरगें।

सोच और कल्पना को हम ज़िन्दगी में सोचते हैं। रफ़्तार को सोचते हैं, जिसमें कई छोटे-छोटे सफ़र हर रोज़ साँस लेते और धड़कते हैं। इन ज़िन्दगियों को रोज़ सुबह अपनी जैब में कुछ जरूरत, दिल में कुछ सपने और दिमाग में कोई ना कोई प्लान लिये अपने दरवाज़े से निकालते हैं और उसके हवाले कर देते हैं जो हमारी कल्पना मे हमारे जैसा है - हमशक़्ल नहीं है, हमारे स्वरूप में है।

लख्मी

Tuesday, September 27, 2011

दुनिया तो हमेशा से ही मूवमेंट है



अपने एग्ज़िस्टेन्स से भी ज़्यादा की दुनिया तो हमेशा से ही मूवमेंट है, यह देखना होता है की आप्पर ग्रॅविटी का असर कितना है। जैसे कोई उर्दू का महाशय अपनी कविता सुना रहा है, या ऐसा जैसे कोई हलचल मेरे करीब से निकल रही है, या ऐसा जैसे कोई खनक सी बजी हो, या ऐसा जैसे कंपन सी उठी हो, या ऐसा जैसे कोई रिद्दम किसी तैराक की तरह तैरकर मेरे आगे से आहिस्ता आहिस्ता गुजर रही है, मुझे अपनी ओर ले जाने के लिए, जैसे कोई बेहद खूबसूरत लड़की अपने जिस्म को बारिश की हल्की बूँदों में हिला रही है, या फिर वो शांत खड़ी है और मुझे उसका जिस्म हिलता महसूस हो रहा है। वो अब आहिस्ता आहिस्ता से अपने चुस्त पड़ते कपड़ों को अपने बदन से हटाने की कोशिस कर रही है और मेरी आँखें उसके बदन की कंपकपी में खोया सा हुआ है। वो थिरकन जो अपने साथ हर वस्तू, चीज़, लोहा, मिट्टी, पानी, शरीर को अपने रंग में रंगती जा रही है और मैं नकारा सा खड़ा बस ये देख रहा हूँ। थोड़ा घबरा रहा हूँ, थोड़ा ललचा भी रह हूँ, थोड़ा बहक भी रहा हूँ और थोड़ा डर भी रहा हूँ। कई घंटो से एक ही जगह पर खड़े उससे बच रहा हूँ फिर सोचता हूँ की छोड़ दूं ये सब और उसके अंदर तैर जाऊँ, मगर.......

राकेश

Saturday, September 17, 2011

चौथा दिन - ओखला

वो शहर लेकर जाते हैं अपने साथ :

फैक्ट्री से माल लेकर जाने वाले दो आदमी जो इस वक़्त माल लोड कर रहे हैं। उनके साथ चैकिंग करने वाला एक गार्ड भी खडा है। वो माल भरते समय आसपास की निगरानी कर रहा है। फैक्ट्री के भीतर एक हॉल में बैठे सेंकड़ो लोग जो अपने काम में व्यस्त हैं। बाहर से चाय वाला हाथ में केतली लेकर अन्दर फाटक खट-खटा कर आता है।चाय देख कर मजदूरों को दूगनी शक़्ति आ जाती है। चाय तो इनकी चेली है जिसके आते ही रंग छा जाता है।

दूसरी साथ वाली फैक्ट्री में भी यही हाल है लगातार वहा से हाईड्रोजन और थीनर की बू आ रही होती है प्रीटिंग प्रेस मे यही बू 24 घण्टे रहती है। कभी-कभी तो कैमीकल दिमाग पर भी चड़ जाता है।

वहां साथ में गेट के पास एक छोटा गोदाम बना है जिसमें फैक्ट्री से निकला कबाड़ जमा है।। कच्चे माल से बचने के बाद फिर वो उनके किसी काम का नहीं होता। उपलब्ध माल जो जरूरत में आयेगा उसे ही तैय्यार किया जा रहा है। बचे गये माल कि भी जगह है वो खुद उस बची सामाग्री को /काबड़ की तरह बेच डालते हैं।

क्रेन के बड़े बड़े पार्ट इस फैक्ट्री मे रिसाकिल किये जा रहे हैं। हर पार्ट अपने मे मजबूत और बड़ा है। मजदूरो के हाथ वैसे तो पूरा इन पुर्जो को पकड़ नहीं पा रहे थे मगर औजारों से इन्हे सही तरह से बनाने का काम किया जा रहा है।

इंसान और मशीन दोनों के कल के भविष्य की कल्पना को पूरा करने की कोशिश मे लगे हैं। मशीन इंसान के दिमाग की उपज नहीं है वो शैतान की उपज है जो इंसान होने के बीज नष्ट करती जा रही है। हम मशीनो के गुलाम नहीं बनना चाहते इसलिये मशीनों को भी सोचना होगा की वो किस के सातह जीना चाहती है, अकेले उनका जीवन शून्य है।

अगर जीवन मे मशीन अपना काम करना बंद कर दे तो जीवन की कल्पना क्या होगी? मशीन के साथ हमारे क्या सम्बंध है? मशीन कैसे हमारे जीवन को बनाने मे समर्थ है? मशीन कहां पर हमे निश्चिंत करती है?

अगर हम आज औजारो पर निर्भर करते है तो मशीन का खुद अपने आप से सवाल बनता है। कल और आज और आने वाले कल का आधार मशीन से जुड़ा है जिसके बिना आज के युग की कल्पना भी नहीं कि जा सकती। हर मशीन मे पुर्जें होत है। जो मावन की तरह ही शक़्ति रखते है। मगर मानव नहीं होते। तो क्या फर्क है मानव और मशीन मे? सब से पहला साया जब मानव ने औजार बनाया और इस्तमाल किया। उसे तभी से ही मशीन की कल्पना की होगी। यकीनन औजारों से ही मानव ने अपने लिये मशीन सोची होगी। मशीन के पुर्जे जो पूरी मशीन मे काम करते हैं उनका एक वास्तविक रूप है जो हमारे ही आसपास के माहौल से उपजें है। चीजों और जगहों का वज़ूद आज मशीन को भी दिखता है।


क्रैन भी एक पूरा बड़ा औजार है जो तरह तरह के काम के मुताबिक इस्तमाल की जाती है। जहां ये मशीन आज मजदूर को आयाम और आसानी से ज्यादा काम देती है वही आज इंसान के इंसान होने आसार कम करती है। जो मशीन आज हमारे आदान – प्रदान का पहलू बन गई है उसके बिना शायद कोई जीवन की कल्पना सोच कैसे सकते हैं?

मशीन और उसके औजार हम इंसान के बिना चला सकते हैं जिसमें मशीन अपना एक नियमित कंट्रोल बना कर रखती है। मशीन अपने आप चलती रहती है एक बार अगर इन्हे चला दिया जाये तो स्वचलित रूप से किसी के बिना रोके बस चलती जाती है। सही मायने मे इंसान और मशीन के बीच मे बंटवारे वाली भाषा से जीवन को नहीं देखा जा सकता। वे उनके बीच मे उतार चड़ाव को बोलने की जुबान बन जाता है। हम जिस ठोस चीज से खुद की कल्पना कर रहे हैं वो हमे किस ओर ले जा रही है को सोचने के जैसा है ये सवाल। इसके विपरित और विरोध मे सोचना इस दुनियावी कल्पना के सामने खड़े होने से दूर जाना है।

समान लोड हो चुका है। तकरीबन 27 ट्रक भर दिये गये हैं। सुबह के 6 बजे हैं और इनकी आवाज़ पूरे इलाके मे गूंज रही है। सभी एक दूसरे पर गुर्रा रहे हैं। किसी ने खूंटियों से बांधा हुआ हो जैसे। अभी एक थाप लगेगी और ये नंगी पड़ी जमीन पर दौड जायेगे। अपने अक्स और खूशबू बिखरते हुये।

राकेश

Monday, September 12, 2011

वो हर वक़्त कुछ कुरेदते रहे हैं।

शिवराम जी, शमसानघाट से बाहर निकलते समय कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते लेकिन जब शमसानघाट मे दाखिल होते हैं तो पीछे मुड़कर जरूर देखते हैं। वे कहते थे कि मैं जब यहाँ पर आता हूँ तो उसे जरूर देखता हूँ की मेरे पीछे कोन आ रहा है लेकिन जब यहाँ से बाहर जाता हूँ तो पीछे मुड़कर नहीं देखता क्योंकि मुझे लगता है कि मेरे साथ बहुत सारे लोग चलकर आये हैं।

उनका दिन यहाँ पर किसी ऐसी रात से कम नहीं था जिसे वे जीना चाहते हैं। जो बिना दायरे के और बिना समाजिकता के चल सकता है। जब हम उनसे कोई पूछता था की तुम ये काम क्यों करते हो?, ये तो हमारे खानदान मे किसी ने नहीं किया और जो समाज नहीं चाहता, उसे कोई नहीं कर सकता। तो वे अच्छी तरह से समझते थे कि उनसे क्या पूछा जा रहा है। मगर वे कहते थे कि बिना समाज के और बिना रिश्तेदारी के भी एक जगह है जो चल सकती है, जिन्दा रह सकती है। वे ये है।

इसलिये वे यहाँ से पीछे मुड़कर नहीं देख सकते थे और जब घर से यहाँ आते तो देखते थे।

उनके साथ बातचीत :

राजन ने पूछा, "आप अपनी थकान कैसे चुनते हैं? वो जो जिसे आप कोसना नहीं चाहते।”
शिवराम जी शमसानघाट में अस्थी की राख के ढेर में कुछ कुरेदते हुए बोले, “मैं पूरा दिन यहाँ आती भीड़ के भीतर अकेले महसूस होते हुए नहीं थकना चाहता।, राख मे कुछ कुरेदते हुये नहीं थकना चाहता, लोग आते हैं, कुछ देर बैठते और फिर चले जाते हैं ये मुझे बेहद अच्छा लगता है। मैं उनका फिर देखने के इंतजार मे नहीं थकना चाहता। मैं अखबार पढ़ते हुये और नये काम की सोचने मे नहीं थकना चाहता। यहाँ पर जब लोग आते हैं तो लगता है कि सारा रोना - धोना घर छोड़ आये हैं या वो जो जा रहा है वो इन सबके आंसू अपने साथ लेकर जा रहा है। मैं इन बातों मे रहकर मस्त रहता हूँ। इन्ही में रहना चाहता हूँ, इनको रात मे याद करते हुये कभी जिन्दगी मे थकना नहीं चाहता।"

राजन ने पूछा, “कब लगता है - मुझे अब अपने जीने के तरीके पर सोचना होगा?”
शिवराम जी अब भी उसी राख में से कुछ निकाल रहे थे - कुछ चुनते हुये बोले, “कई बार लगता है कि अपने आप को बदल लो, मगर वो सब नुकशान या मुनाफे के भीतर होता है। पर मुझे यहाँ पर आने के बाद मे लगा की ये जगह हमें ये सोचने के लिये नहीं कहती। लगता है कि यहाँ पर जीवन बहुत बदल गया है। खासकर उस जीवन से जो मुनाफे और नुकशान के जवाब मांगता है। मैं कहता हूँ की अगर मुनाफा और नुकशान से डरकर अगर आप अपने जीने के तरीके को बदलोगे तो ये तुमने थोड़ी बदला। ये बदलना पड़ा। मजा तो तब है जब बिना वज़ह के जीने का तरीका बदलना हो। जिसमें हमें जीने का जो तरीका है उसके बदलाव का पता हो ना कि उसके कारण का।"

राजन ने पूछा, “जीवन के वो कौन से पल या दर्शन हैं जो आपको अपनी छवि यानि जो अब हम हैं उससे खिसका देते हैं?”

शिवराम जी बोले, “मैं क्या हूँ और मैं क्या था, दिन में ज्यादा बार सोचा नहीं जा सकता। मैं इस जगह में जो करता हूँ उसे करते समय मैं खुद से पूछूँ की मैं तो ये पहले कभी नहीं करता था तो ये सब कुछ मेरी बेबसी की कहानी बन जायेगी। तब लगता है कि सारी खाल उतार दूं जो मैंने पहन रखी है। बहुत कुछ होता है एक ही दिन में जो पूछता है कि "तू कौन है"

राजन ने पूछा, “जीवन में कब "कहाँ" का ख्याल आता है?”
शिवराम जी अस्थियों वाले कमरे मे घुसते हुए बोले, “यहाँ पर आने के बाद मे लगता है कि "अब कहाँ" मैं यहाँ पर काफी काफी देर तक खड़ा रहता हूँ। कभी-कभी तो बातें तक करता हूँ यहाँ पर बैठकर। खुद को सोचता हूँ की मैं भी यहीं इन्ही के बीच मे कहीं पर लटका हूँ और कभी लगता है कि ये मेरे बस का नहीं है। मैं तो ये कगरा कितना शांत है, लगता है कि यहाँ पर लटकी हर थैली बात करती है। मैं कहाँ जा सकता हूँ यहाँ से? इन सबके अब ना तो कोई रिश्ते है और ना ही कोई काम, ये तो अपने कहाँ पर पहुँच गये हैं लेकिन मुझसे कह रहे हैं कि शिवराम तू आपको नहीं लगता ऐसा?“

राजन ने पूछा, “ये लौटना क्या है? हम कब "वापसी" को सोचते हैं?“
शिवराम जी बोले, “लौटना वो है जब आपके हाथ मे कुछ हो। लेकिन वापसी वो है जब आपके हाथ मे कुछ ना हो लेकिन आपके साथ कोई हो। मैं जब कुछ समान नहीं लेकर घर जाता था तो मेरी बीवी बहुत बातें मुझे सुनाती थी। लेकिन जब मैं कुछ समान अपने साथ लेकर जाने लगा तो वो उस समान को अन्दर ही नहीं लेती। मगर मैं दोनों हालात में घर के अन्दर दाखिल हो जाता था। मैं ये सोचता था कि मेरी बीवी को चाहिये क्या? वापसी क्या इनकी तरह नहीं हो सकती। जैसे यहाँ पर कोई वापसी नहीं करता। लेकिन यहाँ से वापसी करता है। मैं भी यहीं से वापसी करता हूँ।"

"वापसी" भीतर से सोचते हुये महसूस हुआ की जीवन में वापसी का अहसास अपने से बाहर लेकर जाने की कोशिश है ना की अपने भीतर ही लौटना है। शिवराम जी के साथ बातचीत में लगा की उनका घर लौटना और शमसान के मे वापस आना ही उनका जीवन के "कहाँ" के सवाल यहाँ आकर एक ठहराव लगा। मेरे उनसे बातें करने की कोशिश में। और बेकारगी के बिना जीवन की कल्पना करने की इच्छा उन्हे इस जगह से जोड़े रहती है। हमें “मेरी जिन्दगी में सब बदला कैसे मैं नहीं जानता लेकिन मैं बदलाव में कैसे बदला को मैं कई बार सोचा हूँ"

लख्मी

तीसरा दिन : ओखला

यहां से बाइबास होकर निकलना होगा...

ये ओखला सड़क जहाँ से दो तरफ को बड़े-बड़े रास्ते निकल रहे हैं। एक जो वापस साऊथ दिल्ली में, गोविन्दपुरी को जाता है और दूसरा जो बदरपुर बोर्डर इलाके को जम्प करके नोएडा कालिन्दीकुंज के लिये प्लान किया गया है। ये रास्ता अन्डरग्राउण्ड होगा, अभी खुदाई का काम चल है।

ये जगह अपने उद्योग के नाम से और बड़ी निजी उद्योगपति के नाम से जाने जाती है। ये यहाँ बाईपास बन है। जो क्रॉउन होटल से नोएडा जाने में मदद करेगा। इस बाईपास को आईएसबीटी कश्मीरीगेट से जोड़ दिया जायेगा यानी शहर में होने वाले बड़े कन्टेनरों के वाहक ट्रक और क्रेन वगैहरा शहर के बाहर से होकर निकलें। जाम लगने का एक कारण ये भी होता है। जहाँ आबादी के हल्के वाहन अपनी सुबह शाम की जिन्दगी जीते हैं उनका रास्ता साफ हो जायेगा।

मौसम गर्म, हवा और पानी सड़क पर फैला हुआ। सड़क में छोटे-छोटे गढ्डे दिखाई पड़ रहे थे। जिनमें पानी भरा हुआ था। वहाँ एक कुत्ता हाफ़ता हुआ आया और गढ्ढे के पानी को पीने लगा। उसका हाफ़ना बता रहा था कि वो बहुत देर से प्यासा है। यहाँ की कुछ क्या सारी सड़कें टूटी और खराब हैं पैदल चलना भी मुश्किल है। वैसे तो सड़के ही बता देती हैं कि उनके ऊपर से निकलने वाला हर रोज का वाहन किस रूप और आकार का है। सड़कों पर फैला मलवा जिसको एमसीडी के लोग एक कोने में जमा कर देते हैं फिर उनमें से वहाँ के मलवा बैचने वाले पीन्नियाँ, थरमाकोल, प्लास्टिक छाँट कर ले जाते हैं। जो सामने फैक्ट्रियों में से आता है। उसकी पैकिंग का वो माल जिसे गन्दगी कहा जाता है। वहीं दूसरी ओर पैकेजिंग उद्योगों, प्रिटिंग प्रेस, मशिनरी निर्माता, कॉल सेंटर, बहुराष्ट्रिय कंपनियों के कार्यालय, बैंक और अन्य लोगों जैसे तैयार किया निर्यात को और उद्योग के अन्य क्षेत्रों के अलावा चमड़े के निर्यात कों में शामिल कंपनियों, कॉल सेंटर, शोहरूम और मीडिया समूह आप्रेशनों का भी कार्यस्थल है।

औद्योगिक क्षेत्र मुख्य दक्षिण दिल्ली में ओखला क्षेत्र ग्राम, के नाम पर है, साथ आसपास के इलाकों के रूप में अब जाकिर नगर, जाकिर बाग, जामिया नगर, अबुलफजल एंक्लेव, शाहीन बाग, कालिंदी कालोनी और कालिंदी कालका जी एक्सटेशन डी.डी ए, गोवीन्दपोरी, डीडीए, जेजे कॉलोनी, बदरपुर तुगलकाबाद जैसे इलाकों से घिरा है।

(भाषाई साक्षरता) के तौर पर मुझे यहाँ कई तरह के लोग मिले जो भारत की अलग-अलग स्टेट से आये हैं। जो काम भी अलग-अलग करते हैं कुछ अपने साथ कोई हुनर लेकर आये थे और कुछ ने यहाँ की मौजूदा स्थितियों से सीखा। सब के जीने के ढ़ग में कई तरह के संसार की छवियाँ दिखी जो अपने वज़ूद के साथ रहकर हासिल होती है। फैक्ट्रियों के पीछे सर्वेन्ट क्वार्टस बने हैं और कहीं तिरपालों में रहने का ठिकाना बनाया गया है। जो भी चीज़ सामान फैक्ट्रियों से रिजेक्ट हुआ उसे फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों ने अपने जीवन में ढ़ाल लिया है। कभी छत के रूप मे कभी दिवार के रूप में तो कभी, अपने आराम फरमाने की जरूरत के रूप में। वैसे मलवे के रूप में मुझे कई तरह का मटेरिअल्स देखने को मिला, जिसमें पुरानी पैकिंग की पन्नियां, कागज व गत्ते के डिब्बे, थर्माकोल के नामूने को खाँचे। जिनको किसी तरह किसी भी फैक्ट्री में काम करने वाला मजदूर अपने उयोग में ले लेता है। यहाँ के हर मजदूर को रहते हुए 50 सो साल हो गये हैं। यहाँ आकर काम करने वाले लोग की संख्या बहुत है।

राकेश

Monday, September 5, 2011

दीवार के पीछे से




एक दीवार जिसके पीछे जाने से पहले उसके सामने खड़े होना मुश्किल होता है। वे जो कुछ सुनने से पहले कुछ दबा ले जाने की ताकत के साथ खुद को इतना पुख्ता करती जाती है जिसके पार जाना खुद को तरल बनाने के जैसा है।



राकेश

Monday, August 29, 2011

एक बार घर लौटा


"एक बार घर लौटा, ऐसा लगा की हर रोज़ ही घर लौट रहा हूँ।" जहाँ मैं पिछले मे जाना नहीं चाहता हूँ और आगे को बांधा हुआ नहीं है तो रोज़ घर लौटकर जाना मेरे लिये क्यों है?

क्या ये थकावट है? है, लेकिन वो मेरे शरीर का होता है। मैं शरीर से थकने को मेरे थकने का नाम नहीं देना चाहता। जब मैं थकने को सोचता हूँ तो मेरे दिमाग में एक शख़्स का चेहरा आता है। जो मेरे पास साइकिल से 8 किलोमीटर का सफ़र तय करके आते थे अपना कुछ सुनाने के लिये और जब मैं उनके सुनाने के बाद मे उनसे कुछ सवाल करता या चुप भी रहता तो वे मुझे देखते रहते। कभी अगर कुछ लिखने को कहता तो तभी तुंरत लिखने बैठ जाते। तब लगता है थकान शरीर से ही है शायद, लेकिन उसमे रंग किसी और अहसास का भरा जा सकता है।

फिर आना - जाना, रास्ते लम्बे होने के अहसास से भी दूर हो जाता है। मैं सोचता हूँ कि मैं अपने जीवन के किन हिस्सों मे जाऊं जो मुझे इस तरह की थकावट मे ले जाये? मगर उसमें मुझे वे नज़र आता है जो मेरे मन लगे काम से जुड़ा है। इससे बाहर नहीं है, पर विनोद जी लगते है जैसे मन और बेमन से बाहर किसी खोज़ मे है। जो मुझे अपने साथ खींच ले जाते हैं।

मेरे पिताजी अक्सर कहते थे अपने काम करने के समय में की "मैं कभी घर पर बैठूगां नहीं - अगर बैठा तो अपने काम से लेकिन अपनी उम्र से नहीं" आज ये बात सोच पा रहा हूँ। मेरे साथी ने एक बार कामग़ार शख़्स के बारे कहा, “कोई शख़्स अपने काम से वापस लौटता है - थका हुआ लेकिन दूसरे दिन फिर से तैयार हो जाता है उसी शहर मे जाने के लिये।"

ये दोनों बाते एक दूसरे के लिये बिलकुल भिन्नता में है। पिताजी जब वापस आने को बोलते हैं तो वापस आना उनके लिये घर लौटना नहीं है। बल्कि वे वापस जाने को भी सोचने की कोशिश करते हैं। और मेरा साथी - वापस जाने को सोचा है आने को नहीं। घर लौटना उसको तैयारी देता है अगले दिन की। उस चिड़िया की तरह है जो उड़ाने भरकर टहनी पर बैठी है। सुस्ताने के लिये नहीं बल्कि कहीं जाने के लिये। पर उसका टहनी चुनना, समय चुनना, आसपास चुनना, थकान चुनना उसके वहाँ पर आने मे निहित है। वे लौटती नहीं है -

वापस आने में परिवार उनके लिये बहाना नहीं है। काम उन्हे वहाँ पर फैंकने के लिये नहीं है। शरीर के लिये कोई आरामदायक जगह नहीं है। वापस आना मतलब उनके लिये उस रूप मे आना है जो इन सब बेरिकेडो से बनकर लोहा लेता है जीने का। बहस से बना है, जीने की जिद्द से बना है -

मैं जब ये सोच पाता हूँ तो उनका घर आते ही बाहर निकल जाना समझ मे आता है या कभी ना आना, देर से आना, किसी के साथ आना ये समझ मे आने की कोशिश करता है।

मैं क्या कर रहा हूँ और मेरे करने में क्या है? मैं जो कर रहा हूँ उसमें कौन है? क्या वे मुझसे ताल्लुक रखता है तो उसमें मेरे इर्द-गिर्द का क्या रोल है और अगर इसमे मेरा इर्द-गिर्द है तो मेरे होने का क्या रोल है। परिवार हमेशा कहता रहा है, “हमारे लिये कुछ मत कर लेकिन खुद के बारे मे सोच" मगर ये खुद मे कौन-कौन है?

मैं चले जा रहा हूँ किसी तलाश में - रोज निकलता रहा हूँ लेकिन शायद कोई देखे - जाने हुए पते को ढूँढने। ये तरीका मुझे कहाँ ले जायेगा? से मुझे डर रहता है। मैं उसी जगह पर पहुँच जाऊंगा जहाँ के बारे मे मेरे पहले कई लोग जानते आये।

एक बार मैनें अपने एक दोस्त ने पूछा, “तुने कभी अपने लेकर सोचा है?”
वो बोला था हाँ सोचता हूँ लेकिन वैसे नहीं जैसे तुने अपने को लेकर सोचा है। मैं अगर तुझसे ना मिलूँ, तेरे घर ना आऊँ, तेरी बातें ना करूँ और अपने घर पर भी कभी न लौटूँ, दिन को बाहर निकलो और शाम मे वापस आ जाओ।क्या ये जिन्दगी होती है? इससे तो अपने को सोचूँ ही नहीं तभी अच्छा है।

जब वे ऐसे बोलता था तो लगता था कि कोई बड़ी कल्पना लेकर जीने की बात करता है। वे अपने बारे मे नहीं, उस तरीके के बारे मे बोल रहा था जो मैं और वो साथ और एक तरह से जीते हैं। ये वाक्या मुझे सोचने पर मजबूर किया की मैं अपने शरीर को किस लिबास के थ्रू देखने कि कोशिश मे हूँ।

मैं कई लोगों के साथ कहीं से चलकर आया हूँ। जो शायद कहीं चले गये हैं - ये कहीं उन्होनें खुद से तय किया होगा। मगर अब सोचता हूँ ऐसी जगह पर जाकर खड़ा हो जाऊँ जहाँ पर मेरे जैसा कोई है या नहीं का कोई टेंशन नहीं हो दिमाग में। वहाँ पर बहुत भीड़ है, हर कोई एक दूसरे को देख रहा है, कुछ पूछने की कोशिश कर रहा‌ है। कोई किसी को नहीं जानता मगर फिर भी मिलने की कोशिश मे हैं। लगता है जैसे वे सभी मेरे साथ ही आये हैं उन्हे मैं ही लेकर आया हूँ। मगर अब आकर मैं उनके साथ मे अनुभव बाटूँगा नहीं, अपने यहाँ तक आने की कहानी नहीं सुनाऊँगा। वहाँ कई रास्ते निकले हुए दिख रहे हैं -

लख्मी

Wednesday, August 24, 2011

कुछ देर का साथ

मैं उस रास्ते से गुजरा आज बरसो के बाद
जो मेरा नहीं था, मेरा कभी हो नहीं सकता था, मेरा होता नहीं था और मेरा उससे कोई वासता ही नहीं था
आज जब वहां से गुजरा तो वो मुझसे कुछ सवाल कर रहा था।
वे सवाल जो मेरे से थे, मेरे लिये थे, मेरे पर थे मगर मैं उनमे अकेला नहीं था।

मैदान के बंद गेट की जाली मे से वो कुछ देखने की कोशिश मे था।
वो क्या देख रहा है, ये नहीं देखा जा सकता था,
बस उसकी कोशिश को देखा जा सकता था।

एक और शख्स उसके पास गया और वही करने लगा
वो दोनों क्या कर रहे हैं को नहीं समझा जा सकता था मगर दोनों के साथ को समझा जा सकता था।

कुछ देर के बाद वो दोनो मुडे और चल दिये
उनके चले जाने को जाना नहीं जा सकता था
मगर उनके साथ चलने को जाना जा सकता था

लख्मी

नृत्य

Thursday, August 11, 2011

प्रतिलिपियाँ, जो किसी की नहीं हैं



मेरे भीतर से निकलती वे सारी आकर्तियाँ जो मेरी नहीं है, मगर मेरे होने से निरंतर बनती हैं. कुछ तो मेरी हो सकती है, ये तब लगता है जब मैं खुद को भूल कर देखता हूँ उन्हें. कुछ मेरी तब बन जाती है जब मैं खुद को याद करने के लिए देखता हूँ.
मैं "मैं" को कभी ठोस नहीं कर पाया, पर मेरे अंदर से निकलने वाली अकर्तियों ने मुझे मेरे "ठोस मैं" से समझने की कोशिश की. जो मैं कभी नहीं बन पाऊंगा.

अपने "मैं" को हमेशा उसके समक्ष रखना जो "मैं" से लड़ाई में होता है.... ये "मैं" के साथ चैलेन्ज नहीं है?

राकेश

Monday, August 8, 2011

दूसरा दिन: ओखला

“अम्मा तुम जल्दी चाय दिया करो,रोज़ की तरह देर लगाती हो।"

आज सुबह चाय की गर्माई के साथ अख़बारों का खुलना शुरु हुआ और मजदूरों ने अपने हाथों में अख़बार लेकर उनमें खो जाना पसंद किया। चाय की महक अब तक के माहौल को महका चुकी थी। इतने में एक बुजुर्ग औरत आई और अपने हथेली में 10-20 चाय के ग्लासों को चबूतरे पर लाकर रख दिया।


आज के दिन वहां आए लोग किसी बडे काम की चर्चा में लगे थे। सेवाराम ने अपनी जेब से पुराने विजीटिंगस कार्ड को निकाला और किसी का मोबाईल नम्बर खोजने लगा। चाय अब अम्मा ला चुकी थी। जरा चाय का जायका लेने के बाद सेवाराम ने अपने राजमिस्त्री को किसी काम के बारे में समझाना शुरू किया। बीच में खान भाई जोर से हंसे,”कमाल है भाई यार हमारी बीवी ठीक हुई तो सेवाराम की बीवी बिमार पड़ गई। साला मौसम भी मजाक करता है।" दोनों ठहका मार के हसें।

फिर गम्भीर होकर सेवाराम ने कहा, "सुन जरा गमले बनाने का काम कर लेगा अच्छा पैसा मिल जायगा।"
सेवाराम के सामने बेठा राजमिस्री सोच में पड़ गया।

"पथर के टुकडों को एक साथ लगा कर रख देना बस, काम हो जायेगा।"
"ना बाबा ना मेरा काम इतना बड़ा नहीं है, अरे कोई हैल्पर ले लियो। फिर चलता काम कर देना।

बबलू उनके पास से चाय खाली ग्लास उठाकर दूकान के अन्दर चला गया। उसकी दुकान ज़्यादा बड़ी नहीं थी मगर आराम से एक बारी में लगभग 20 लोगों से भर जाती। दोपहर 4 बजे का टाईम मजदूरों के आने - जाने को देखते बीत गया। सब अपनी थकान उतारने यहां आते हैं। पसीना यहां की हवा से सूखता है। ये बबलू बोला।

फिर चाय के बर्तन में पानी भरने लगा उसे बात करने की फुर्सत नहीं होती मगर पता नहीं क्यों वो मेरे से बात कर रहा था। मैनें इस का कारण पुछा तो वो बोला, "आप की बोली हमारे नजदीक वालों की लगती है। इसलिये बिना कुछ जाने बात करना अच्छा लगा।" मेरे पास जबाब देही नहीं थी। बबलू मेरी बोली को कैसे भाप गया। वो बिहार का मैं यूपी का रहने वाला। शायद कोई मेल मिल गया हो। वो ये बता रहा था की शहर में आय उसे 40 साल हुए वो अपने पिताजी के साथ सिर्फ घूमने आया यहां की हवा उसे अच्छी लगी। तब ओखला पर जमीन नापी जारी थी। कुछ हद तक 1970-75 के दौरान की बात। यह अच्छी तरह से उसे कुछ याद आ रहा था। सड़क और रेल से तब से ये ऐरिया जुड़ा हुआ है। जब यहां पास में हवाई अड्डा बनाने की बात भी सुन्ने में आई थी। मगर ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के केंद्र में स्थित माना जाता था। नेहरू प्लेस जैसे व्यापार जिलों और कनॉट प्लेस इस से दूर नहीं हुआ करते थे और यहां तक बाहर देशों से आये अंतर्देशिय कंटेनर निगम भी स्थापित हुआ। कंटेनर टर्मिनल भी है।

चाय की दुकान पर अब मुझे लगा की जर्नलनॉलेज की बात हो रही है। मेरे दिमाग में ये 5 किमी में फैला ऐरिया घूमने लगा।

सितम्बर 2010 के अंत तक, ओखला भी दिल्ली मेट्रो नेटवर्क के में आ जायेगा। ये घोषणा बहुत पहले सोची गई थी। पूरे औद्योगिक क्षेत्र फेज़ -1, 2 में मूल रूप से उद्योग के हैं लेकिन हाल ही में डीएलएफ, इंडियाबुल्स सनसिटी और आज जैसे कुछ निजी बिल्डरों ने कई क्षेत्र में परियोजना शुरू की है। दक्षिण बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारण ये दिल्ली के एक प्रमुख इलाकों में माना जाता है। इस क्षेत्र में बहुतों की रुची है। जहां अपनी उद्दोगिक जगह का अपना एक जीवनशैली है। जहस से कान करके वापस मजदूर अपनी जीवन के खास समय को यहां जीते हैं। चाहे वो किसी चाय की दुकान में बैठकर गप्पे मारना हो या ख्याली अन्दाज। ये मानने में कोई हर्ज नहीं वो सोचते हैं अपने और अपने जीवन के बारे में।

राकेश

Friday, August 5, 2011

पहला दिन : ओखला

मैं आज ओखला फेस -2, मे गया शुरुआत एक अंजान जगह से की। सड़क के किनारे वो मैं जगह जिसे वहाँ पर गोल चक्कर के नाम से जाना जाता है। गोल चक्कर जो चारों तरफ के सेंटर पॉइंट में बना है और जिसे 3 फिट ऊंची दीवारों से गोलाकार में बनाया गया है। पैड़ - पौधे और उसमें घांस भी लगी है। वहाँ से मैनें आगे बढ़ना शुरू किया। स्टार्टिंग में एक सीएनजी पम्प है। जिसके साथ में एक बड़ी उँची बिल्डिंग खड़ी है। यहाँ कार, ट्रक, क्रैन, बुलडोज़र और कंटेनर से ट्रक ज़्यादा आते -जाते दिखाई देते हैं

बिजली के बड़े खंबे जो आसमान को चूमते मालूम होते है। उनके साथ मे मोटे तार जो एक खंबे से दूसरे खंबे तक जा मिलते है। चलने के लिए यहाँ फुटपाथ बहुत है। खाली पड़ा रहता है। सड़को पर जाम नाम की कोई चीज़ नही है, ना ही ट्राफ़्फिक का सॉयरन है। यहां का सन्नाटा कानों में चुभ रही थी। मुझे फैक्टरी एरिया में जाना था बिना किसी नाम पाते के कैसे किसी जगह में है। ये तो बहुत मुश्किल लग रहा था।

क्या कारों 15 मिनट पैदल चलने के बाद भी कुछ सूझा नहीं प्यास भी लग आई ना पानी ना कोल्ड ड्रिंक है। कुछ दूर चलने पर एक ट्रक खड़ा दिखा। शायद खराब है, इसके नीचे तो जैक भी लगा है और ट्रक चलाने वाला भी नीचे लेट कर काम कर रहा है पहिया पंचर हो गया है उसका।

इसके पीछे से एक मोड़ दिखा जो इंडस्ट्रियल एरिया की तरफ जाता है। लोहे का गेट गार्ड खड़े हैं। पान का एक मैला सा खोका जहां पानी फैला है और वहाँ लोग पत्थरों को बिछाकर बैठे हैं।

वहाँ एक बड़े से गेट पर बोर्ड पर हिन्दी में लिखा था, श्री दयानंद टक्कर द्वारे। उसके साथ में चाकू तेज करने वाला खड़ा था।

मैं उन्हे थोड़ा देख कर आगे चला। मुझसे बस दो कदम की दूरी पर एक ढाबा दिखा जिसमें खाना पीना चल रहा था। किसी पार्टी की तरह। सब एक दूसरे से बाते शेयर कर रहे थे जैसे सब आपस में एक-दूजे को जानते हो, दो बड़ी टेबल पर लग-भग 25 लोग एक साथ खाना खा रहे थे।

एक छोटा सा चौक जिस के सड़क के किनारे पर एक महिला बोरी बिछा कर नीचे बैठी थी। पान सिगरेट की दूकान लगा रखी थी। मैं उसके करीब से फोटो खींचने के बहाने से उसके पास पड़े पाइप के साथ खड़ा हुआ “यहाँ पानी कहाँ मिलेगा?” उसने मेरी तरफ साधारण तरीके से देखा, “पीछे फैक्टरी है उसके पास है”। इतने में मैनें फोटो ले लिया था, वहाँ से मैं ये सोचता हुआ चल पड़ा की अब कहाँ जाऊंगा? वहाँ एक गली में जो बहुत छोड़ी थी, एक बड़ा सा ट्रक उसमें आ-जा सकता है। उस गली में कागज के गत्ते के बॉक्स बनाए जा रहे थे और उन्हे धूप में सूखने के लिए रखा हुआ था। अभी उनमे गम की बू आ रही थी। मैं वहाँ किसी फैक्टरी में लिखा नाम पता खोज रहा था ताकि कोई पहचान तो बता सकूं की मै यहाँ भी आया, वैसे भी आज-कल का माहौल ऐसा है की किसी अजनबी को देख लोग शक करने लगते है।

डब्ल्यू-35 फैक्टरी नंबर है, जिस के फ्रेंट पर लिखा था की "बाल श्रम अपराध है" और उस जगह से किसी मशीन की तेज आवाज़ आ रही थी ।

मैं थोड़ा उचक कर देखा की अंदर दो लोग प्रिंटिंग की मशीन को हेंडल कर रहे थे एक बड़ा बल्ब मशीन के उपर टंगा हुआ था पर वहाँ कोल्ड ड्रिंक की फैक्टरी थी जिस के बाहर खाली बोतलें क्रैटो में रखी थी। काग़ज़ के बॉक्स, प्रिंटिंग मशीन, पेपर कटिंग्स की मशीन एक्ट।

लोग काम से फ्री हो, यहाँ के हर मोड़ और कॉर्नेर पर बनी चाये की दूकान व ढाबा में जाकर बातचीत कर रहे थे। कुछ काम के लिए आए, लोग अपने किसी ना किसी के बदले पर यहाँ कम करने आए थे, वो बिढ़ियाँ पीते और अख़बाब हाथ में लेकर वो टाइम पास करते। फैक्टरियों से काटने पीटने की आवाज़ आती मगर कोई परेशानी नही होती।

वहाँ शांति से कुछ पढ़ा या बनाया जा सकता था। मंगलू वहां पर टी स्टाल लगता है, ये दुकान गप मारने की दुकान है, एक दूसरे को मजाको में मा-बहने भी करते है। कोई अंजान या मामूली बंदा यहाँ इनकी ये कान फाड़ देने वाले डायलॉग नहीं बर्दाश्त कर सकता। लोगों को यहां पहचाना मुस्किल था, सब आपस में एक ही तरह के अंदाज़ में बोल रहे थे। फैक्टरी में से निकलते ही मजदूर अपने मस्तियां करते गले में हाथ डालते कम मे हाथ डालते। डब्ल्यू-34 के सामने एक बंदा ढेला लेकर खड़ा, सिगरेट और बीड़ी माचिस बेच रहा था मगर किसी से छूपकर। \

राकेश

Wednesday, August 3, 2011

जवाब 'हाँ' और 'न' से बाहर थे

यहाँ पर सवालों की मानयिता उतनी ही थी जितना की जवाबों की। लेकिन हर जवाब अपने साथ एक ऐसी दुनिया लेकर आता जिसमें सवालों को खोजना बेबकूफी के समान होता और कभी सवाल अपने अन्दर कई दर्शन लिये चलता है जिसमें किसी एक जवाब से संतुष्ट हो जाना एक बड़ी और असमान्य बेवकुफी के समान होगा।

शहर में एक सवाल को लेकर घूमने की तैयारी दी जा रही थी। इस तैयारी में सबको पिरोने और भिन्नता में रखना था। लेकिन किस तरह की भिन्नता?

क्या बँटवारे की? क्या खास की? क्या विरोध की? शायद नहीं, इस भिन्नता में था सीधे और साफ लब्ज़ों में बँटवारा। दो तरह की दुनिया की कल्पना एक जो सज्जन रूपी जीवन और दूसरा बाघी रूपी जीवन। इसके अंदर शहर को आंकने की तैयारी बिलकुल अपने शब्द की भांति एक दम कठोर और ठोस थी।

तैयारी का मतलब क्या?

निपूर्ण हो जाना?, जवाबों से ऊपर रहना?, दुनिया से पूछने वाले बनना या फिर जवाबों में घूम न जाने वाले? शायद इसमें जो एक सबसे ठोस बात थी वे ये की सुनने वाले बन जाना। एक ऐसा सुनने वाला जिसे जवाब पहले से ही ज्ञात है।

हाथ में एक फोर्म पकड़ाया गया जिसमें कई सवाल थे। लेकिन उनके नीचे थे दो ही मार्क, जिसके सामने टिक लगाकर अपना जवाब भरना था। जिसको लेकर सिखाया जा रहा था।

सिखाने वाले ने तेज़ आवाज़ में कहा, “सबके जवाब "हाँ या "न" में होने चाहिये।
किसी ट्रेनिंग लेने वाले ने पूछा, “और अगर सर जवाब न "हाँ" हो और ना ही "ना" में तो?

ट्रनिंग कुछ समय के लिये टल गई।

लख्मी

Friday, July 29, 2011

नंगा सा किस्सा

ये एक छोटा सा कमरा था जहाँ कोई भी आता और अपना कोना या जगह पकड़कर बैठ जाता। यहाँ पर सबसे ज्यादा बच्चे थे। शायद ये उन्ही का कमरा था जिसमें बड़ो का कोई काम नहीं था। सारे बच्चे एक लाइन मे बैठे थे। अपनी-अपनी कॉपी निकाले। वहीं पर उनके सामने एक औरत बैठी थी जो इन सबकी टीचर थी। इतने मे वहाँ पर एक और बच्चा आया जो एक दम नंगा था। वो आया और उन्ही बच्चों मे आकर बैठ गया। उसके पास कुछ भी नहीं था। सभी बच्चे उसे देखकर हँसने लगे। टीचर सबको शांत करते हुये बोली, “बेटा इतनी गर्मी पड़ रही है और तुम नंगे घूम रहे हो। लू लग गई तो बिमार पड़ जाओगें। जाओ कुछ पहनकर आओ।"

वो बच्चा बस, हँसे जा रहा था। अपने हाथों को अपने टांगों के बीच मे रखकर वो मुस्कुराता जाता।
“बेटा जाओ और कुछ पहनकर आओ। मम्मी को बोलो कुछ पहना दे।"

वो दूसरे की किताब मे लग गया। उसे नहीं कुछ लेना था की वो कहाँ पर बैठा है और यहाँ पर आने के लिये उसे क्या करना चाहिये? वो दीवार से टेग लगाकर बैठ गया और सबको वहीं से देखने लगा।

“अगर तुम हमारे साथ घूमने जाओगे तो चलों जल्दी से जाओ और कपड़े पहनकर आओ।"

“नहीं टीचर जी मुझे अभी काम पर जाना है। मैं मटकापीर के पास मे खड़ा होकर लोगों से दुआ माँगता हूँ। मैं तो रोज़ वहाँ पर ऐसे ही जाता हूँ। मेरी माँ और मैं वहाँ पर जाते हैं।"
“दुआ मांगते हो लोगों से मतलब?”
“मतलब लोगों से पैसे मांगता हूँ। 100 रूपये मांगकर लाता हूँ। सारे पैसे अपनी माँ को दे देता हूँ। तब मेरी माँ मुझे पाँच रूपये देती है। उसकी मैं खूब चीज़ खाता हूँ। ये अपने दोस्त को भी खिलाता हूँ।"

इसके बाद मे सारे सवाल या तो बंद हो जाते हैं या फिर वो सवाल पैदा होते हैं जिनका इस दुनिया में कोई काम नहीं होता। टीचर जी के पास कहने और सुनने को कुछ नहीं था। वे क्या कहती? जब कुछ नहीं बचा कहने तो पूछा, “क्या तुम स्कूल नहीं जाते?”

लख्मी

सुबह का चलना

हवा काफी तेज़ थी। दिया जलता और भवक कर बूझ जाता। माचिस मे तीली भी कम ही थी। उसने बहुत ओट बनाकर दिया जलाने की कोशिश की मगर दिया जलने का नाम ही नहीं ले रहा था। गलती से आज वो सुबह चार बजे की बजाये तीन बजे ही उठ गया था। सुबह – सुबह उसको पूरी तरह से आदत हो गई थी के चार बजे अपने आप आँख खुल जायेगी और वो रात के खत्म हो देख पायेगा। उसी मे उसका दिया जलाने का काम भी निबट जायेगा।

अपने कलोनी से वो काफी दूर आ गया था तो वापस जाकर माचिस लाना उसके बस का नहीं था और दिया भी उजाला होने से पहले ही जलाना था। वो यहाँ से वहाँ देखता रहा। ताकि कोई दिख जाये तो वे माचिस मांगले। लेकिन इस वक़्त मे कोई नहीं दिख रहा था।

अचानक से उसे दूर कहीं रोशनी मे कोई आता दिखाई दिया। यहाँ पर बस, एक ही दुकान के बोर्ड की लाइट पूरी जगह मे चकम रही थी। जैसे ही कोई उसके दायरे मे आता तो चमक उठता नहीं तो वो ऐसे गायब होता जैसे परछाई अंधेरे मे। हर कोई उस अंधेरे मे जाकर परछाई बन जाता।

ये कोई शख़्स था जो आता दिखाई दिया। उसने सोचा की इन्ही से माचिक मांग लेगा। वो शख़्स जैसे ही इनके करीब आया इसने आवाज़ मारनी शुरू की। "भाई साहब, भाई साहब" मगर वो तो सीधा चलता चला गया। ये कैसे हो सकता था की उनको न तो इसकी आवाज़ सुनाई दी और न ही ये दिखाई दिया। वो शख़्स पहाड़ी की तरफ मे चला गया और थोड़ी ही देर मे गायब हो गया। ये इधर -उधर फिर से नजरें घुमाने लगा। इतने मे इसे महसूस हुआ की इसके पीछे कोई खड़ा है। लेकिन ये पीछे मुड़कर नहीं देख पा रहा था। किसी के सांसे लेने की बहुत जोरो से आवाज़ आ रही थी। ये चाहकर भी पीछे नहीं देख पा रहा था। ऐसा लगा जैसे कोई इसके पीछे से इसकी कमर को पकड़ रहा है। इसने इस बार झटके से पीछे मुड़कर देखा। वही आदमी था जो अभी यहाँ से गुज़रा था। ये उस आदमी को देखता रहा। वो भी कुछ नहीं बोला और ये भी बस, उसे देखता रहा।


लख्मी

Wednesday, July 27, 2011

दो मिनट शहर के

मैं भी :
मैं क्या कर रहा हूँ और मेरे करने में क्या है? मैं जो कर रहा हूँ उसमें कौन है? क्या वे मुझसे ताल्लुक रखता है तो उसमें मेरे इर्द-गिर्द का क्या रोल है और अगर इसमे मेरा इर्द-गिर्द है तो मेरे होने का क्या रोल है। परिवार हमेशा कहता रहा है, “हमारे लिये कुछ मत कर लेकिन खुद के बारे में सोच" मगर ये खुद में कौन-कौन है?

मैं चले जा रहा हूँ किसी तलाश में - रोज निकलता रहा हूँ लेकिन शायद कोई देखे - जाने हुए पते को ढूँढने। ये तरीका मुझे कहाँ ले जायेगा? से मुझे डर रहता है। मैं उसी जगह पर पहुँच जाऊंगा जहाँ के बारे में मेरे पहले कई लोग जानते आये।

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एक शख़्स :
एक बार मैनें अपने एक दोस्त ने पूछा, “तुने कभी अपने को लेकर सोचा है?”
वो बोला था "हाँ" सोचता हूँ लेकिन वैसे नहीं जैसे तुने अपने को लेकर सोचा है। मैं अगर तुझसे ना मिलूँ, तेरे घर ना आऊँ, तेरी बातें ना करूँ और अपने घर पर भी कभी न लौटूँ, दिन को बाहर निकलो और शाम में वापस आ जाओ।क्या ये जिन्दगी होती है? इससे तो अपने को सोचूँ ही नहीं तभी अच्छा है।

जब वे ऐसे बोलता था तो लगता था कि कोई बड़ी कल्पना लेकर जीने की बात करता है। वे अपने बारे में नहीं, उस तरीके के बारे में बोल रहा था जो "मैं" और "वो" साथ और एक तरह से जीते हैं। ये वाक्या मुझे सोचने पर मजबूर किया की मैं अपने शरीर को किस लिबास के थ्रू देखने कि कोशिश में हूँ।

******

कब लगता है हम वापसी पर है? मैं हमेशा सोचता रहा की आखिर में वापसी" के मायने क्या होते हैं? वो वापसी जो काम और रिश्तों से बाहर होती है। जो लौटना नहीं होती। जो समय के गठबंधन से बाहर नहीं होती। 'वापसी' घर आना या सोच मे जाना। अधूरे को पूरा करना या अधूरे से नया बनाना।

दो मिनट शहर के

एक शख़्स :
मेरे पिताजी अक्सर कहते हैं अपने काम करने के समय से, "मैं कभी घर पर बैठूगां नहीं - अगर बैठा तो अपने काम से लेकिन अपनी उम्र से नहीं" आज ये बात सोच पा रहा हूँ। मेरे साथी ने एक बार कामग़ार शख़्स के बारे कहा, “कोई शख़्स अपने काम से वापस लौटता है - थका हुआ लेकिन दूसरे दिन फिर से तैयार हो जाता है उसी शहर में जाने के लिये।"

ये दोनों बाते एक दूसरे के लिये बिलकुल भिन्नता में है। पिताजी जब वापस आने को बोलते हैं तो वापस आना उनके लिये घर लौटना नहीं है। बल्कि वे वापस जाने को भी सोचने की कोशिश करते हैं। और मेरा साथी - वापस जाने को सोचा है आने को नहीं। घर लौटना उसको तैयारी देता है अगले दिन की। उस चिड़िया की तरह है जो उड़ान भरकर टहनी पर बैठी है। सुस्ताने के लिये नहीं बल्कि कहीं जाने के लिये। पर उसका टहनी चुनना, समय चुनना, आसपास चुनना, थकान चुनना उसके वहाँ पर आने मे निहित है। वे लौटती नहीं है -

वापस आने में परिवार उनके लिये बहाना नहीं है। काम उन्हे वहाँ पर फैंकने के लिये नहीं है। शरीर के लिये कोई आरामदायक जगह नहीं है। वापस आना मतलब उनके लिये उस रूप मे आना है जो इन सब बेरिकेडो से बनकर लोहा लेता है जीने का। बहस से बना है, जीने की जिद्द से बना है -

मैं जब ये सोच पाता हूँ तो उनका घर आते ही बाहर निकल जाना समझ मे आता है या कभी ना आना, देर से आना, किसी के साथ आना ये समझ मे आने की कोशिश करता है।

******

एक और शख़्स :
मेरे लिये थकना बहुत जल्दी हो जाता है। मगर वो मेरे शरीर का होता है। मैं शरीर से थकने को मेरे थकने का नाम नहीं देना चाहता। जब मैं थकने को सोचता हूँ तो मेरे दिमाग में एक शख़्स का चेहरा आता है। जो मेरे पास साइकिल से 8 किलोमीटर का सफ़र तय करके आते हैं अपना कुछ सुनाने के लिये और जब मैं उनके सुनाने के बाद में उनसे कुछ सवाल करता या चुप भी रहता तो वे मुझे देखते रहते। कभी अगर कुछ लिखने को कहता तो तभी तुंरत लिखने बैठ जाते। तब लगता है थकान शरीर से ही है शायद, लेकिन उसमे रंग किसी और अहसास का भरा जा सकता है।

फिर आना - जाना, रास्ते लम्बे होने के अहसास से भी दूर हो जाता है। मैं सोचता हूँ कि मैं अपने जीवन के किन हिस्सों मे जाऊं जो मुझे इस तरह की थकावट में ले जाये? मगर उसमें मुझे वे नज़र आता है जो मेरे मन लगे काम से जुड़ा है। इससे बाहर नहीं है।

लख्मी

Tuesday, July 26, 2011

दो मिनट शहर के

सबमे कहीं जाने की होड़ सी लगी है। हर कोई किसी न किसी सफ़र में खुद को जबरदस्ती घुसा दे रहा है और कहीं निकल जा रहा है। सब लगते जैसे सबसे दूर और अलग जाना चाह रहे हैं। हर रोज़ एक गाडी आती जो शहर घुमाने के लिये लेकर जाती। सब तैयार होकर उसमे बैठने के लिये मारामारी करते। मगर किसी - किसी को ही उसमे सीट मिलती। मैं भी हर रोज़ उसकी लाइन में खड़ा होता हूँ अपना सबसे अच्छा और खूबसूरत कपड़ा पहनकर। एक दिन उसमें सीट मिल ही गई।


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रंगीन छत के सड़क के बीच में आते ही सबकी नज़र उसके वश में हो गई।
एक शीसे से बना मकान फुटपाथ पर खड़ा है।
बीस हजार पन्नों की किताब बस स्टेंड पर रखी है।
80 मीटर लम्बा पेन रेड लाइट के नीचे पड़ा है।
500 लीटर का मटका सड़क के किनारे रखा है और लोग उसमे से पानी पी रहे हैं।
एक पारदर्शी दिवार है जिसमे अनगिनत किताबें रखी हैं।
200 फिट बड़ा स्पीकर लगा है जिसमें से ढेहरों आवाज़ें लगातार आ रही हैं।
एक हैंड बेग जिसमें 350 जेबें हैं।
एक बस जिसमे दरवाजे ही दरवाजे हैं।
सड़क के किनारे बना शौचालय जो शीसो से बना है।

जो शहर दिख रहा है उसे एक बार और देखने के लिये आंख बनानी होगी।

लख्मी

Monday, July 25, 2011

दो मिनट शहर के - पर किसके लिये?

तेज आंधी थी। कोई भी चीज़ जमीन पर नहीं थी। दीवारों पर चिपके पोस्टर फड़फड़ा रहे थे। कोई उन्हे फिर से चिपकाने वाला नहीं था। लुढ़कती चीजें अपने से भारी सहारे से टकराकर वहीं पर जम जाती। कोई गा रहा है। उसकी तेज आवाज़ आंधी के साथ बह रही है। कभी लगता है जैसे वे बहस कर रही है। आंधी को अपने काबू मे कर रही है। आंधी के बीच से निकलते कई लोग उस आवाज़ तक जाने के लिये भटक रहे हैं। हर किसी को जैसे उसके पास जाने की तलब है। वे कभी अपने अलाप पर होती तो कभी उस नमी मे जैसे वे आंधी को पी गई है। हर कोई उसके साथ अब गाने लगा है। आंधी से लड़ने के बहाने के जैसा। कोई किसी को देख नहीं सकता। सब जहां खड़े हैं वहीं पर रूक गये हैं। वहीं से उस आवाज़ के साथ अपनी आवाज़ को भिड़ा रहे हैं। कभी कोरस बन जाते हैं तो कभी जुगलबंदक। समा में आवाज़ें नहीं है, किसी एक तार मे खो गई हैं। एक हो गई है। आंधी की धूल छटने लगी है। पूरा शहर एक ही जगह पर खड़ा है। मगर बिना किसी को पहचाने की कोशिश मे।


******

एक हूजूम सड़क से निकल रहा है। किसी मदमस्त हाथियों के झुण्ड की तरह। हर किसी के पास एक तस्वीर है। हर तस्वीर मे कोई नहीं है। जैसे जगह उनके साथ उठकर कहीं जा रही है।

कोई छूट गया मगर लगता नहीं है कि छूटा है। वो यहां रह गया मगर लगता नहीं है कि रह गया।
वे यहां का हो गया मगर लगता नहीं है कि वे यहां का हो गया।
वे यहां कुछ देर रूकेगा मगर लगता नहीं है कि कुछ देर रूकेगा।
वे यहां बसेगा मगर लगता नहीं है कि वे यहां बसेगा।
वे खत्म होगा मगर लगता नहीं है कि वे यहां समाप्त होगा।

वे समाप्ति से बाहर होकर आया है। वे कहीं भी जा सकता है।

हूजूम अपने साथ जो लेकर गया है उसे कहीं ज्यादा वे छोड़कर गया है।


*******

बंद बोरे सड़क के किनारे किसी एक जगह पर पड़े। जिन्हे खोलकर देखना किसी के बस का नहीं है। हर रोज़ वहाँ पर कभी तीन तो कभी दर्जनों के हिसाब से छोटे बड़े बोरे कोई न कोई फैंक ही जातान जा रहा है।

लख्मी

Saturday, July 23, 2011

दो मिनट शहर के - पर किसके लिये?

मीलों का सफ़र करके घर लौटा, मैं जहां लौटा वो घर नहीं था।
वापस उसी रास्ते पर गया, मैं जिस रास्ते को लौटा वो रास्ता नहीं था।

मैं कुछ देर चला, मैं कुछ देर रूका, मैं कुछ देर ठहरा, मैं कुछ देर अटका, मैं कुछ देर भटका
फिर मैं घर को लौटा, मैं जहां लौटा वो घर था

मगर मैं "मैं" नहीं था।

*****

कुछ भगदड़ मची थी। लोग एक दूसरे से टकराने के लिये तैयार थे। हर किसी को टकराने के अहसास था। पर, टकराने वाले से अंजान थे। भीड़ मे होने के बाद भी भीड़ से कोसों दूर थे।

कोई सड़क के बीच मे खड़ा पैगाम बांट रहा था। किसी के पास उसे सुनने के वक़्त नहीं था। मगर पैगामों के मनचले भागमभाग मे वे सब फंसे थे।

वो हर चक्कर पर अपने हाथों से एक पन्ना उड़ा देता। कई पन्ने पूरी सड़क पर बिखर रहे थे। उन पन्नों को पकड़ने की कोई कोशिश भी नहीं कर रहा था पर वे जानता था कि सब अपने नाम का पन्ना तलाश रहे हैं।

कुछ देर वो यूंही पन्ने लुटाता रहा। फिर कई कोरे पन्नें सकड़ पर ही चिपका कर चला गया।

*****

बेइंतिहा धूंआ छाया है। रोशनी कभी उसे छेद देती तो कभी उसके पीछे किसी आशिकी जोड़े की भांति गुपचुप कुछ कहती। अचानक से कोई उसमे से निकल आता। कोई गा रहा है, कौन है ये पता नहीं। मगर उसकी आवाज़ में धूंएँ के पीछे जाने की लरक पैदा की हुई है। हाथ डालकर कुछ निकालने की तड़प ने धूंए को खतरनाक पौशाक से बाहर कर दिया है।

“मैंने अपने जीवन से कुछ नहीं दिया तुम्हे। तुम ही मेरे से हमेशा कुछ मांगते रहे। जब तुम जिद् करते थे तो मैं डर जाया करता था। मैं छोड़े जा रहा हूँ वो सब डर और उनमे छुपे वो तमाम किस्से जो तुम्हे तुम्हारी मांगी हुई चीज ना देकर कोई बात बता दिया करता था। वो तुम्हे फिर से शायद वही दर्द देगीं लेकिन मेरे उस डर का अहसास जरूर करवा पायेगीं जो मैंने हमेशा महसूस किया है।"

धुंआ बहुत बड़ गया है।

लख्मी

Friday, July 15, 2011

दो मिनट शहर के - पर किसके लिये?

****
सड़के किनारे खड़ा वह शख़्स जिसे हर रोज़ वहाँ से गुजरने वाला देखता होगा। मगर शायद ही उसे कोई पहचानता होगा। उससे मुलाकात हर बार पहली बार की ही बनकर रह जाती है और वो मेरी याद में नहीं बनती। मैं उसे देखता हूँ, मैं उससे मिला हूँ मगर पहचान नहीं सकता। कभी सोचता हूँ उसकी तस्वीर खींचलू मगर वो पल में गुम हो जाता है। रेडलाइट की भीड़ में वो गायब हो जाने वाला चेहरा नहीं है मगर फिर भी खो जाता है। चेहरे पर हर मुलाकात मे वे नई दाड़ी मूँछ लगाये घूमता है - नई कोई ड्रेस में, नई किसी टोपी में - हाथों में पन्नी लिये आवाज़ नहीं मारता बस सीटी बजाता है। दाड़ी मूँछ नकली होती है मगर वो असली है। उसके लिये शहर के ये दो मिनट ही उस आठ घंटे की तरह है जिसमें वो उस झलक से कितनों के जहन पर अपनी ओर खींचता है। लेकिन हम दोनों का मिलन शहर मे खो जाने के बाद का है।



***
एक आसान सा रास्ता - मेरा नहीं है मगर मैं उसका जरूर हूँ। वो मेरे वक़्त है मगर मेरे वक़्त का उसके ऊपर कोई जोर नहीं है। कोई खामोश निगाह नियमित घूर रही है। वो किसी की नहीं है। मगर सब उसके घेरे मे है। वे बदलती है और बदल सकती है। किसी खास लिबास मे नहीं है। वे गायब होना भी जानती है। कोई दूर खड़ा सोचता है ये निगाह मेरी है - और मैं पास मे खड़ा कल्पना करता हूँ ये निगाह उसकी है। हर कोई एक दूसरे की निगाह का कर्जदार बना है।



***
रोशनी तीर सी जमीन पर गिर रही है। सब उसमें हैं - कोई बच नहीं सकता। कोई बचना भी नहीं चाहता। हर तीर उन नातों सी बनी है जो किसी को एक दूसरे का नहीं बनाती मगर एक दूसरे को बिना देखे जाने नहीं देती।

रेडलाइट पर गाड़ियाँ - रूकने हैं, ठहराव मे नहीं। समय के भीतर है जो गठ दिया गया है। पर ये कहने वाला कौन है? कहाँ है, किस रूप में है, किस लिबास में है? जो उस जगह को, रूकने को, गाड़ियों को एक साथ देख सकता है। जो शायद उसमें नहीं है - मगर शायद उससे दूर भी नहीं है। वे उसके साथ भी है लेकिन उसके भीतर नहीं है।

सफ़र मे है . . . .

Monday, June 27, 2011

इसकी कोई आकृति नहीं है








इसकी कोई आकृति नहीं मगर फिर भी किसी संगीत की तरह इसके भीतर अनेकों तार एक दूसरे से हमेशा टकराते रहते है, रहे हैं।

इन बेजोड़ तारों के साथ बजने वाला संगीत इस कठोर ढांचे की उन कग़ारों को छू जाता है जिसका रूप बिना चेहरे के है। किस कण से इसके भीतर की जमीन को महसूस किया जा सकता है। संगीत से, हलचल से, गूंजल होती दृष्टि से, रफ्तार से, ट्रांसफर होती तीव्रता से।

मैं उन सभी दिशाहीन रूपों से खुद को कभी उलझा तो कभी दूर पाता रहा हूँ। कभी बिना किसी शौर के तो कभी बिना किसी शांति के। ये हर दम मेरे अन्दर के किसी हिस्से को सक्रिये बनाता रहा है। ये मेरे से बाहर है, मगर मेरे अन्दर को बनाता रहा है नियमित। ये मेरा रूप नहीं है मगर मेरी छवि इसकी रहनवाज़ है।

समय के बिना और समय के पुनर्चित मे :

लख्मी

Thursday, June 9, 2011

क्या डर होता है





शहर के बीच ही किन्ही स्पर्श को टटोलटी सांसे अपने ही शरीर की गिरफ़्त में है। ये आजादी नहीं मांगती इनकी मदहोशी किसी सीने में बसे दर्द की आवाज़ से जान सकते हैं।

चीजों को अपनी कल्पनाएँ करने दों वो भी किसी के पुर्ण:निर्माण में जाने की मांग करती हैं। जीवन उनके लिये भी स्पेस चुनता है। चीजों का क्या डर होता है? डर होता क्या है? जिसे जीने के रूप विभिन्न है।


राकेश

जिन्दगीं मे बसा किसी का स्वरुप



धुंधली रेखाएं

शहर आज क्या है जिसमें शामिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात होती है? जो चुम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खींचती है। उसकी हर सुबह उन्नत वर्तमान के परीवेश में होती है।

कई चीजों का आँचल आँखो के सामने होता है। किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा में धुंधली रेखाएं माहौल में विराजमान रहती हैं। मन की चैष्टायें धूप की तरह अस्तिव में बिख़र जाती हैं। कोई शायद धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। उसकी जिन्दगी में बसा किसी का स्वरूप भीतर से बाहर का निकास करता है। पूर्ण क्षमताओं से टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिलाकर बातें करती हैं।

घूंघट से देखती वो (बदमाश ) नजरें जो किसी के रूप को चुरा लेने की फिराक में रहती हैं या किसी कलाकारी में व्यस्त हाथ जो किसी के शक़्ल-सूरत को गढ़ने के साथ, अपना वज़ूद गढ़ते चले जाते हैं। ये इशारों की वो रेखाएं है जो हमारे चारों तरफ खिंची हैं और इसके बीचो-बीच हम हैं जिनमें हम अपने निजी के दायरे को जीते हैं।

उसे साझा करने के लिये शहर में निकल पड़ने की जिद्द को लिये समाज के बँटवारे को बिना काटे हम अपनी कतारों से बाहर झांक कर देखें की कौन-कौन हमारे संम्पर्क में है।

हम निजी जब लाते हैं तो क्या दिखता है शहर में? ये सवाल ही अपने को किसी तत्व से बिल्ट कराता है। अपनी तस्वीर, अपनों के साथ अपनी आवाज़ें, आँधी मे आने वाली रातें जो सुबह का इंतजार नहीं करती। वो शिद्दत करती हैं उस विराट मौज़ूदगी की जो शहर के किसी कोने से उठती हैं और ख़बरिया चैनलों की भांती अपनी छवि लोगों से मुखातिव करवाती हैं।

बताने वाला और सुनने वाला दोनों शहर में कहां का स्पेस तलाश रहे हैं। शहर जो नक्शोवाला गुच्छा है और उसमें कई अदखुली गुत्थियाँ हैं जिसमें कोई आवाज़ लिपटी हैं और कोई सड़क तो कोई चीजों का अपने वज़ूद के साथ होने का अहसास करवटें ले रहा है।


राकेश

उस मेरे मैं की मिठास




मैं अधिक रूपों से खेल रहा हूँ। मैं कारणों में खुद को सुनिश्चित नहीं करता हूँ।

5 साल तक केबल लाईन अन्तराल में रहे है। कभी कम्पलेन्ट को कम्पलेन्ट नहीं समझा उसे रिलेश्नसिप समझते हुये सोचा। वो एक रचनात्मक शख़्स को प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित रहते हैं। "मेरे स्वंय के भीतर भी कोई है।"

पैदल घूमने का अनुभव ज़्यादा करता हूँ। जगह के वहां के बदलाव संबद्धित चीजों से परिचित है। "केबल के काम से मुझे बहुत प्रेम है।" तभी अपना हुनर अपने आप से बनाया और आसपास के लोगों से समझा है। फिर उसे सोचा की वो खुद के लिये क्या जगह बनाता है। अपनी तैयारी खुद की, कि किस तरह और किस आधार को लेकर जीवन जीना है। तैयारी जीवन में रफ़्तार लाती है। ठीक उस वक़्त की तरह जो अपनी बटोरी गई ढेरों इंद्रधनूषी रंगो में ढली परछाई को विराजमान देखता है।

ये बात आसानी से मान ली, सोचा चलों इस बहाने बाहर निकल जाने का मौका मिलेगा और अपने से कुछ कर सकुंगा। मुझे पहले केबल के ओफिस में सफाई करने को कहां गया मैंने कमरे की मशीनो की 3-4 महिनों कस के सफाई की।

जहाँ मैं था। उस जगह में मुझे अब नये जीने के मौकों की तलाश थी वो मिलने लगे। वहाँ सीखने को बहुत कम था मगर मेरे पास तो वही एक अधूरी मुर्ती थी जिसे मैं अपनी छवि कह सकता था। जिसपर जीवन उकेरने का मौका मेरे खाली वक़्त में निकलता था। वो खाली वक़्त जो कोरे पन्ने के समान होता..जिसपे अगर ठीक से लिखा नहीं जाता पर कभी पैन की शाही से अद्धबनें शब्दों को देख कागज पर पैन झटकने से शाही की छीटे पड़ जाती और उस पर आकृति का भी मतलब बना होता।


मेरा रूटीन अब बदल गया था एक नया सफर की तरफ। जहां मशीनों के बीच जीवन की शुरूआत होती। वहां से मुश्किलों का संमुद्र भी दिखता था। रूटीन वक़्त के पहिये की तरह चलता रहता...।

सुबह सात बजे भगवान की आरती और फिल्मी गाने। तब से लेकर नौ बजे से नई या पुरानी फिल्में। बारह बजे तक रिमिक्स गाने। उसके बाद, दोपहर के दो बजे से फिल्म 4:30 तक चलती

जहां वक़्त कभी अपने आप ही किसी कमरे में आकर ठहर जाता और कभी कुछ रोशनियों के टूट जाने पर फिर नयी रोशनियों के पैदा हो जाने पर जगह रोमांचक मोड़ ले लेती जिसमें कोई लिमिट नहीं नजर आती वो बस किसी सिरे तक झुका हुआ नक्काशिदार सजना नजर आता फिर कहीं से उपर उठा हुआ दिखता।

ये दो घंटे जो 8:30 से एक नयी रात का कथन कर देते और रात की फिल्म के शुरू होते ही इस बहाने बैठे हम अपने विचारों की गुथ्थम गुथ्था मे लिपट जाते। हम वहां होते भी और वहां कभी खुद को पाना भी कठीन होता कि हम किस बुनाई में हमारे सपनों को बसाने की कोशिश कर रहे है?

वक़्त का घेरा हमें रोक लेता ठहरा देता। लेकिन यहां कभी तो मैं अब मेरे लिए एक मिठास, एक खुशी है और एक प्रकाश है। मैं पहले अनुभवी कभी नहीं था। इसका अनुभव किया? तो जैसे किसी कमरे मे जल रहे मिट्टी के तेल वाले स्टोब में पम्प भरते जाना लगातार। ताकी उसकी बनी भवक मे शरीर से छूटते पसीनों से बनी तराई मालूम होती है।

उस मेरे मैं की मिठास, खूशी ने जन्म लिया। उस वक़्त। मेरा रोजाना का त्याग होता घर से, काम से, समाज के बोझ से तब कहीं मेरे चेहरे पर मुसकुरहाट के दो-चार बल पड़ जाते। असल में अपने आप को जानना वहीं था, जब भीड़ में स्वंय की रचना करके। वहाँ कई-कई बार मैं हुँ। शायद कि मैं नहीं। बल्कि खुद को सुनने के लिए सुन पाने से रिश्ता निभाना भी मेरे लिये जरूरी रहा है। दूसरों के लिये एक द्वार ( दवाजें-खिड़की -निकास ) को बनाया जाना। मेरे लिए एक कल्पना भी है और रोमांचक बात है।


राकेश...

Monday, June 6, 2011

कुछ निगल रहा है



भूलना और याद से लड़ना दोनों के बीच में से निकलते हम इसी कशमकश में है कि कब जीवन के अदृश्यता को सोचने का मौका मिलेगा?

अपने दोस्त का इंतजार करते हुये जब इस ओर देखा तो लगा की, किसी और कहाँ की तलाश मे कुछ गायब है वे क्या है उसका अहसास मेरे दिमाग में ओझल होते समय की शक़्ति का था। ऐसा लगता जैसे सब कुछ हाथों से छूट रहा है, कुछ भी ठोस और मजबूत नहीं है, कुछ उसे निगल रहा है। हम उस निगलने मे जा रहे हैं, हर रोज़, हर समय, हर भाव से उसमे जाते हैं और वे किसी अहसास को निगल जाता है।

ये पल इस निगलने को मुलायम बना रहा था।

लख्मी
(शायद इसका अहसास सब मे निहित है )

Monday, May 23, 2011

रूकावट के लिये खेद नहीं है - नई किताब

http://www.sarai.net/publications/occasional/no-apologies





शहर की दुनिया‌‌ओं और शहर को बनाने वाले उपकरणों के बीच चलता जीवन अपने अंदर क्या सवाल रखते हैं? क्षमता सबमें है। किस तरह की क्षमता है हमारे भीतर, उसकी पहचान से हम अपने और दूसरों के बीच एक जुड़ाव बनाते हैं। दुनिया की रचना में होने के अवसर तय्यार करते हैं, दुनिया को अपने अंदर लेते हैं।

हमारे आसपास, हमारे बाहर अनेकों कृतियाँ और ढ़ाँचे हैं। जब हम ख़ुद आकृतियों और ढ़ाचो को जन्म देकर उन्हें तराशते हैं तो नए जीवन के उभार, स्वप्निलता और भिडंत में रहने की इच्छाएं बनती हैं। जहाँ निराशवाद को सोच से दूर करते हैं और ख़ुद को चैलेंज में बोलते हैं कि, "यह मैं कर सकता हूँ," वहाँ नए रास्ते खुलते जाते हैं।

सत्ता नियमों में बाँधती है, उपकरण तय्यार करती है इन संभवनाओं और बौद्धिक रचनात्मकताओं को नियंत्रण में रखने के लिए। लेकिन जिवन्तता इनके भीतर से भी अपने स्वप्निल रास्तों पर आपारता में बहती है। ऊर्जाएँ एक शरीर से दूसरे में ट्रान्सफ़र होती हैं, हर माहौल विभिन्न माहौलों को तय्यार करता है।

"रुकावट के लिए खेद नहीं है" इन्हीं सवालों, कल्पनाओं, और भिडंत की अभिव्यक्ति है।

( हमारी "नई किताब" संवाद के लिये तैयार है : जरूर पढ़ें )

Thursday, May 19, 2011

वश़ से बाहर



देखते हुए महसूस हुआ की मैं उस ओर जा रहा हूँ जहाँ पर मेरे होने का गहरा असर है। लेकिन कोई इस असर को निढाल कर रहा है। मुझे मेरे ताकतवर, मेरे होने के अहसास से दूर ले जा रहा है।

मैं सोच नहीं पा रहा था - फिर सोचा इसे देख लिया जाये।
पूरा देखा : कोई रूप जो आपके भीतर ही है, मगर आपके बाहर दिखने वाले रूप जैसा नहीं है। अन्दर जो है वे बाहर वाले हिस्से को खींचकर ले जा रहा है। लेकिन जैसे पूरी ताकत बाहर वाले के पास है। ये कब ढीला पड़ता है? और कब कोई रूप बाहर आकर अपने होने को बताता है और जिससे बाहर दिखता रूप अपने गायब होने को जीवन मान लेता है।

लख्मी
देखने के बाद से मुझे कहीं और जाना है :

Friday, May 13, 2011

किसको क्या चाहिये :

अजनबी ने कहा, "हमें कब लगता है कि किसी जगह को अब बनना चाहिये?”
राजमिस्त्री जी ने कहा, "हम नई जगह जो बना रहे है उसमें लोग अपना समय खुद से देगें और चुनेगें जो की उनकी अपनी शर्तो के साथ होगा। कुछ काम होगा, कला होगी, हुनर होगा, इनको एक सूत्रधार में डालते हुये बनाना होगा। एक – दूसरे से अगर कुछ बन पाया तो समझो की जगह बन गई।"

अजनबी ने पूछा, "नियमित्ता होनी चाहिये ये कब महसूस होता है?”
राजमिस्त्री जी ने कहा, "नियमित तौर पर जो माहौल होगा तो हम उसके मुताबिक जगह में रख सकते हैं। हमें एक मार्किट बनाना होगा नियमित्ता को बनाने के लिये। लोग हमारे पास आयेगें कैसे। के लिये मार्किट बनानी होती है। इसने हमारे बारे मे लोगों पता तो हो, चाहे वे आये नहीं।"

अजनबी ने कहा, "किसी जगह में आजादी के क्या मायने होते है और इसे कैसे जीना चाहिये?”
राजमिस्त्री जी ने कहा, "आजादी का मतलब कई जिन्दगी में बहुत सारे काम है। उस चीज को लाने के लिये हम अपने से अपना एक रुप, ढंग और तरीके से निकलकर ही कर पाते हैं अन्यथा वे तो मनमर्जी हो गया। अब आजादी और मनमर्जी मे फर्क होता है ये कैसे समझाओगे लोगों को आप?

अजबनी ने पूछा, "किसी जगह या समुह में नियम या शर्ते लागु करने से क्या होता है?”
राजमिस्त्री जी ने कहा, "जगह में नियम से जगह निरंतर तो हो जाती है लेकिन शर्ते और नियम मे फर्क है। जैसे हम अपनी शर्ते रखकर काम करते हैं अगर अपने नियम बनाये ले तो काम मिलेगा लेकिन फिर काम, सिर्फ काम होगा। उसमे ये नहीं हो पायेगा की हमें लगे की सामने वाले काम कल तक लटका दिया तो खराब हो जायेगा। तो हम उसे खींचकर आज मे खत्म करते हैं। इसमे शर्ते हो सकती है, लेकिन नियम मे प्यार – प्रेम वाली बात नहीं रहती।"

अजनबी ने पूछा, "अपनी जगह को बनाये रखने के लिये अपनी क्या भुमिका होनी चाहिये?”
राजमिस्त्री जी ने क हा, “ हमें अपने को सब चीज़ों से ऊपर करना होता है, अगर जिद् पर अड़े रहे तो काम खराब, मनमर्जी रहे तो काम खराब, तो इनके बीच मे रहकर काम सोचना होता है। ऐसा आदमी जो बुरा लगने, गुस्सा होने से हटकर, लोगों के साथ मे रहकर कुछ कर पाये।"

अजनबी ने पूछा, "किसी कल्पना की नींव रखने से पहले कौन-कौन सी बातें ध्यान में रखनी जरुरी है?”
राजमिस्त्री जी ने कहा, "हकिकत को समझो, चाहे मानो मत, सही मानो मे तो विकास को सोचों, स्वचलित रहो अपना-अपना मत करो, कला को मदद की नज़र रखते हुए और एक – दूसरे मे देते हुये।"

अजनबी ने पूछा, "जगह में होते बदलावों से आप क्या समझते हो?”
राजमिस्त्री जी ने कहा, "बदलाव ये है की, एक तरीके से आगे बड़ रहा है। जगह का अपनाना और उन लोगों की के बारे मे सोचना (कल्पना) होना है जिनको मैं जानता भी नहीं तो क्या हुआ पर वो मेरे अपने है। अपने देखने को कैसे अपना सकते है। जगह तो हर दिन बदलती है जैसे कैलेन्डर माहिने मे एक बार नहीं बल्कि हर दिन एक नया और ताजा सोच लेकर उतरती है।

अजनबी ने कहा, "जगह अपने आप को परिभाषित करे ये कैसे मुमकिन है?”
राजमिस्त्री जी ने कहा, "कोई चीज़ नहीं करती ऐसा, जगह को पहले आप चाहिये उसके बाद जगह को आप चाहते हैं। जब हम दोनों को ये चाहिये होती है तब कोई जगह बनती है। जैसे मैं अपने को बताऊ तो हम मिस्त्री क्यों बनाये गये क्यों जमीन को हम चाहिये थे। उसके बाद हमे जमीन चाहने लगी। तब जब जगह बोलती है।"

लख्मी

Tuesday, May 10, 2011

खुद से एक मुलाकात : जगह की कल्पना

मैं ने पूछा, "किसी ऐसी जगह की कल्पना करना जो काम और रिश्तो के बिना हो तो उसके मायने क्या है?”

स्वयं ने कहा, "बिना काम, रिश्तो के अलावा जो जगह एक उडान में होती है। वो उडान जो किसी दायरे में नहीं है। जगहें जब काम और रिश्तों से बाहर होती है तो एक खास लिमिटेशन अपना लेती है। अगर इस लिमिटेशन को तोड़ दिया जाये तो किस जगह की कल्पना उभरेगी। जहां पर कई और लोग भी शामिल है।"

मैं ने पूछा, "किसी जगह के लंबे दौर की कल्पना करने के लिए हमें किन-किन स्रोतो को सोचना पड़ता है?”
स्वयं ने कहा, "समाज पर लोगों की अपनी भाषा है। कोई भी जगह को अगर हम उससे हटकर रखते है तो लोग उसे समझते नहीं। उनके अपने अधिकार है और हमें उनके अधिकार में रहकर ही किसी जगह को देखना होता है। मैं कहता हूँ की मुझे देखना नहीं आता मगर मैं देखना चाहता हूँ तो मैं उनकी आंखो से देखता हूँ। कोई जगह जब फैलाव में होती है तो उसमे नजरिये जुड़ते है। वो फिर बैठने और देखने के नजरियो में बहने लगती है।"

मैं ने पूछा, "उस जगह की छवि हम किस तरह उतारते हैं खुद मे और सामाजिक तौर पर उसका आधार क्या है?”
स्वयं ने कहा, "ग्रुप के साथ के मायने बहुत गहरे और जिम्मेदारी के होते है। कोन होगा जो जगह को रचेगा और उसकी कल्पना में जो लोग है वो कोन है? जो जब कोई आये तो भी और ना आये तो भी माहौल को बनाये रखता है। इसी से किसी आधार की रचना होती है। अगर बाहर हमसे कोई कहे कि आपका कोई आधार नहीं है तो आप बहस कर सकते हैं। ग्रुप की एक छवि होती है जो तैयारी में होती है। किसी जगह का आधार यह होता है की उसका बैलेन्स हो। ग्रुप का होना एक तालमेल का होना होता है। कहते हैं ग्रुप खाली बैठना या कई अलग चेहरे से या लोगों से ही नहीं होता। वो तालमेल जिम्मेदारी और बैलेन्स से होता है। ग्रुप का होना जरूरी होता है। वो जगह को फैलने का और असिमता में ले जाने की एक राह देता है।"

मैं ने पूछा, "कोई जगह ग्रुप के साथ और ग्रुप के बिना कैसे जीती है? ग्रुप के होने और ग्रुप के ना होने के मायने क्या है?”
स्वयं ने कहा, "किसी जगह को लम्बा देखने या सोचने के लिये उसकी खाली छवि का ही आकार से नहीं बनता। उसमे धैर्य और विश्वास का महत्वपुर्ण अभिनय होता है। जिसमें अगर कोई लोग आ रहे है तो उसमे सबकी अपनी सोच और कला है। अलग-अलग सोच और कलाओ का अदान-प्रदान ही जगह को लम्बा दिखाता है। एक-दूसरे के प्रति सुनने और देखने की उदारता होना जरूरी है। जैसे, एक ढोलक है जिसकी दो तरफ़ की साइड होती है। उसके एक तरफ़ को बजाने मे सिर्फ एक ताल ही होती है मगर दोनों साइड को बजाने मे संगीत बनता है। अलग-अलग आवाज है। यही रियाज़ होता है दोनों तरफ़ को संगीत बनाने का। सुनना बेहद जरूरी होता है जो सुनना होता है। वही बोलना भी है और माहौल में रिश्तो को अपनाना जो दूसरों की कलाओ से पनपता है।"

मैं ने पूछा, "किन-किन साधनो और चीजो से उस जगह मे संतुष्टी पाते हैं हम या कैसे अपनाते हैं?”
स्वयं ने कहा, "कोई भी अगर उस जगह में दाखिल होता है तो वो अपनी रचना और कल्पना से। हम जैसे उस कमरे की कल्पना अपने हाथों से कर सकते है पर उस कमरे में नर्मी और रचनायें आने वालो से ही होगीं। कोई भी शख्स भी यहां पर आता है और अपनी इच्छा से कहीं किसी दिवार पर कुछ बनाना चाहता है या कल वो उस दिवार पर कील ठोक कर कुछ बाधंना चाहता है तो हमें उस चाहत को समझना होगा। हर शख़्स अपनी कल्पना और इन्ट्रश्ट से आता है। वो चाहे रिश्ते हो या फिर चाहत। हमे बस उसके छूने को देखना होता है मान लिजिये एक ही दिवार है:- जिसमें कुछ बना सकते है, कुछ ठोक सकते है या कुछ टांग सकते है। ये ही लोगों को स्पेश देता है। ये सन्तुष्टी होती है। एक ही स्पेश पर एक खुलेपन और अपनेपन में होता है या लोग उसे वैसे देखने लगते है। हर शख़्स अपनी फोर्स और आजादी से किसी जगह में उतारता है। वो अपनी एक नियमित्ता में हाजिर होता है।"

मैं ने पूछा, "कोई जगह किसी की उम्मीद या चाहत को कैसे संजो पाएगी और कैसे वापस करती है?”
स्वयं ने कहा, "हर शख़्स को एक उम्मीद और चाहत तो होती ही एक वापस नजर की। किसी जगह पर जाना, वहां पर अपना टाइम देना और अपने हाथों से बनी कुछ निशानियां छोड़ देना। ये अपने आप ने एक उम्मीद जगा देता है उसमे वापसी की नजर का अन्देशा नजर आने लगता है। जैसे किसी चीज को छूने के तरीके अपनेपन में होते हैं। तो लगता है की इस जगह ने स्वयं ही मेरे टाइम को समझा है और कुछ लौटाया है।"

मैं ने पूछा, "वही वापस हुआ है ये पता कैसे चलता है?”
स्वयं ने कहा, "वो अपनी तस्वीर अगर देख लेता है। जैसे मैं यहां पर आकर पढ़ता हूँ या सुनता हूँ। वो अहसास अगर उसमें आता जा रहा है तो उसके अन्दर एक तसल्ली होने लगती है। उसमे रिस्पोन्स का होना एक खास और ज्यादा अभिनय निभाता है। रिस्पोन्स किसी फोम्स के जरिये ही नहीं होता। वो एक-दूसरे से परिचय से भी होता है। इससे मान-सम्मान का एक रिश्ता बनता है। एक उसका अभिनय भी बता दिया जाये तो वो और गहरा हो जाता है।"

मैं ने पूछा, "क्या आपको लगता है की किसी जगह ने आपको कुछ वापस लैटाया है? उसका अहसास कैसे हुआ ओर अपने मे क्या परिवर्तन देखते है?”
स्वयं ने कहा, "मैं अपना लोगों के साथ में जीना बताता हूँ। जब हम किसी लाईब्रेरी में जाते हैं। अक्सर हम अपने में खूब बातें करते हैं, बहस करते हैं। दस बातें हो जाती हैं चलो कोई बात नहीं। मगर बाहर ऐसा नहीं होता। बाहर में किसी से दो बातें करदो तो वो लड़ने लगते हैं। काट करते हैं। यहां पर लोगों मेरे अन्तरदृद्ध को भी बढ़ावा देते हैं। लेवल दिखाते हैं कि यहां पर तू खुलकर बोलता है। ये सोचना, यहां बहकता है। यहां खुशी होती है और काम के मामले में ये रिर्टन गिफ्ट मिल ही जाते हैं।"

मैं ने पूछा, "कब पता लगने लगता है की जगह अपनी है और अपने जैसा अहसास है?”
स्वयं ने कहा, "लम्बे समय के बाद या शुरुवात में?”

मैं ने पूछा, "शुरुवात के माहौल में ही?”
स्वयं ने कहा, "मान लिजिये कि किसी जगह में बहुत कुछ भरा हुआ है। तो वहां पर किसी भी चीज को छूने में पता चलता है। किसी पुतले को वहां पर रख दो और देखो कि उस पुतले को वहां पर लोग कैसे देखते है, बहुत से छूते है। तीन-चार दिन के बाद में आने के अहसास छूने मे पता लगने लगता है। अपने मे लगता है की मैं छू पाया हूँ और सोच भी पाया हूँ। ये अहसास आपको कोई दिला नहीं पाता ये अहसास खुद में होना होता है। वो होता है आपके शामिल होने से।"

मैं ने पूछा, "अपनी कला दिखाना, शांत बैठना या बाते करना ये सब किस तरह की कल्पना देता है किसी जगह को?”
स्वयं ने कहा, "इन चीजों को लेकर ही हम अगर किसी सपाट जगह में भी देखे तो वो चित्र ही अपने आपने में इतना गहरा बन जाता है की वहां से गुजरने वाला भी उस चित्र भरे माहौल मे अपने आप कैद होने लगता है। एक अदभूद तरीका या अन्दाज़ लगने लगता है। अपने काम धन्धे से, समाज से, अपनी रोजाना की जिन्दगी से लोग कट कर ये जगह बना रहे है। ये देखना भी जरूरी होता है कि यहां आसपास में लोग किन चीजों से कटे हैं? जगह ना मिलना, सुनने वाला ना मिलना। इनको अगर कहीं दूर भेज दे तो ये कैद भी एक सुकून भरा और आजादी भरा स्थान लगता है। ये दृश्य को देखकर ये नही कहा जा सकता है कि ये लोग अपना टाइम बिता रहे है और ना ही पैशे और शौक के नापतोल में फँसा जा सकता है। जैसे, गिटार में अलग-अलग तरह की स्पिरिन्ग होती हैं और उसमे से अलग-अलग तरह के सुर निकलते हैं। ये कह सकते हैं इन्हे। तो उसमे सरगम एक ही है पर ध्वनि अलग-अलग है। वो ही आपको कल्पना की दुनिया में भेज देता है।"

मैं ने पूछा, "किसी जगह में अपनी मर्जी से आना और अपनी मर्जी से जाना ये क्या तस्वीर देता है उस जगह को?”
स्वयं ने कहा, "पहला तो होता ही लोग अपने मन के अन्दर ये बना लेते है की यहां कभी भी आना और कभी जाना। वो बहुत तेजी से होने लगता है। दूसरा, सब लोग जैसे जीते है अपनी जिन्दगी को। ये खुले तौर पर एक प्लान और आकार देता है। जिसमें चार चीजें जरूरी होता है। जैसे, व्यवहार, वैचारिक और चिन्तन। जैसे की घर का मुखिया है। उसे हम कह दे की 'तुम चिन्ता मत करो घर की, आपका घर चल जायेगा।' और अगर वो इस मुद्रा में आ जाये तो उसका घर किस दिशा में दौड़ना शुरु कर देगा। जगह तो बढ़ने लगती है आजादी से पर ये ज्ञात नहीं होगा की वो कहां जा रही है। रोकनामें है या बढ़ने में है। बस कुछ करने में है।"

मैं ने पूछा, "किसी जगह को नियमित चलाना क्या है और क्यों है उस जगह को जिसे खुला स्पेस बोला जाता है?”
स्वयं ने कहा, "एक दिक्कत तो यहां पर साफ ही होती है कि हम जगह को खुली भी बोल रहे हैं और उसे नियमित भी चलायेगें। वो सभी जगह है। हर शख़्स रोज सुबह ये ही सोचकर निकलता है की वो अपनी नियमितता को बचाये। जिसमें वो भागता है, दौड़ता है, कहीं जम्प करता है और उसके साथ कुछ ऐक्सीडेन्ट भी होता है। अक्सर किसी भी जगह के आने के और जाने के वक़्त को सोचा जाता है। जिस वक़्त में तेजी और जल्दी होती है मगर उसके बीच के वक़्त को नहीं देखा जाता। नियमित्ता वो है। सबकी अपनी एक लय है और उसकी अपनी नियमित्ता मगर जहां वो जाकर गिरेगा वहां उस जगह की अपनी नियमित्ता होगी तो उसकी जगह के साथ संधी होनी बेहद महत्वपुर्ण हो जाती है। किसी भी जगह को बनाने के साथ-साथ चलाने तेजी या जल्दी में नहीं होता। उसका वही टाइम तो एक लय में पिरोना होता है।"

मैं ने पूछा, "लोग जो आ रहे है उनकी अपनी जिन्दगी का उथल-पुथल है तो उसको कैसे ला रहे है यहां?”
स्वयं ने कहा, "कोई भी अपनी जिन्दगी के रोजाना कि लय में से कुछ हटकर जो वक़्त बनाते हैं उसमे कुछ पिरोने की तलाश करते हैं। जो उस जगह में नहीं होता जहां वो रहते हैं। तो बाहर जाते हैं। जगह को अपने शब्द और नियमों को लाना होता हैं। यहां आने वाला अपने आपको किसी छत का आसरा दे पाये। नहीं तो लोग खुली जगह को बहुत सस्ते मे लेते हैं।"

मैं ने पूछा, "किसी जगह की अपनी क्या अपेक्षाए होती हैं आने वालो से?”
स्वयं ने कहा, "मान लिजिये:- इस दुनिया में कोई भी जगह ऐसी नहीं है जहां खुलकर बोला जाये। जहां कहते है वहां है। वो वहां भी इसके मायने कुछ ओर ही होगें। ये मायने बनाने होते हैं। शब्दों के आने और जाने के और बैठने और बोलने के। तभी कोई जगह तेजी और गर्मी पकड़ती है और अपने साथ मे कई और कल्पनाओ को उडान देती है।"

मैं ने पूछा, "कोई शख्स जो शाम में घर लौटता है और अपने कपड़े बदलकर गली के कोने मे खड़ा हो जाता है, घंटो खड़ा होता है आसपास देखता रहता है ये अगर उस जगह मे आ जाए तो, और कोई शख्स है जो काम मे व्यस्त रहते हैं कभी कभी शाम मे अपनी लिखी हुई कोई चीज सुना देते हैं अगर ये दोनो शख्सियतें उस जगह मे आ जाती है तो उस जगह की कल्पना क्या रहती है?”
स्वयं ने कहा, "जगह हमने सोची है हर तरह की कल को उभारे। किसी नई चीज को जन्म दे। अपना उपजाऊ माहौल लेकर जी रही हो और किसी का उपजाऊ माहौल को लेकर आगे बढ़े। हमारे आसापस ऐसे कई लोग हैं जो किसी सीट की तलाश में है। अपने अन्दर कई तरह की कलाओ को लेकर कहीं खडे, घूमे या बैठे है। अगर ये जगह उनको कोई सीट दे पाती है तो वो इसे बहुत अभिवादन की नजर से देखने लगता है। अपने अनूभव का हिस्सा बनाता है। जहां जगह के कुछ नियम होगें जो सारी कलाओ को किसी ठहराव मे लायेगे। हर शख्स मे अपना कोई बेकाबूपन और आग होती है। जो एक-दूसरे के समीप खडी होती है। उसे समा पाने की ताकत जुटानी होती है। यही बेकाबूपन और आग इस जगह की ज्योती बनेगी। किसी जगह की असीमता मे कई बेकाबूपन के परर लगे होते है। जिनके साथ लगाम का साथ होना जरूरी होता है।"

मैं ने पूछा, "इन्ही बेकाबूपन और शख्सियतो को सोचते हुये शुरुआती दौर मे किस तरह के माहौल की रचना करनी होती है या किस किस तरह के माहौलो की रचना को सोचते हुए चलना होता है? इनके बीच के रिश्तो को हम उभार पाये।"
स्वयं ने कहा, "पहला - तालमेल होने जरूरी लगता है। दूसरा - बराबरी जो कला और आर्ट के साथ मे होगा। तीसरा - उडान जो समय के साथ ‌और अनूकूल होगा। चौथा - यहां पर एक भाषा को बनाना होगा। जो इन चिजों को एकत्रित कर पाये। क्योंकि बाहर वो भाषा नही होती लोगो के पास तो वो कहीं ठहरते नही है। आगे चलकर वो धीरे-धीरे कंडीशन बन जाती है। हमें उस कंडीशन पर पकड़ देखनी होती है। जैसे-जैसे मिलना-जुलना होने लगेगा उसकी भी तस्वीर साफ़ होने लगेगी।"

मैं ने पूछा, "किसी जगह पर लोग कैसे आते है? उनके आने को और उनके रुक जाने को वो कैसे सोचती है?”
स्वयं ने कहा, "किसी भी नये बन रहे उपजाऊ माहौल का पहला इम्प्रेशन यही होता है की कोई भी जब आकर बैठता है तो उसके साथ मे साझेदारी क्या होनी चाहिये। पहला ये की माहौल सुनना और सुनाना यही बहुत होता है आज के दौर मे। फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ना शुरु होता है। चीजो तक कैसे जाया जाये। जो आकर बैठ गया है उसके आगे क्या रखा जाये। कमरे का डिजाइन, थीम इन चीजों से उसको एक ठहराव देना होगा।"

मैं ने पूछा, "वहां पर लोग आयेगें कैसे?”
स्वयं ने कहा, "कमरे की रूपसज्जा को लेकर शुरुवात मे लोगो मे जाना होगा। ये लेकर जब हम जाते है तो मान लिजिये कि हाथ पकड़कर लाना होता है। वो हाथ हमे बनाना होगा। आने वाले के हाथो मे क्या है? कई चाहते होती है जो किसी बाहर के खुले माहौल मे जमी होती है। उनको रगींन दिवारो और किसी छत के नीचे अगर लाया जायेगा तो क्या माहौल उनके आगे रखा जायेगा ये सोचना बेहद जरूरी होगा। उस कमरे मे कुछ क्रिटिकल चीजे होनी चाहिये। जो बाहर की फोर्स, चकाचौंद, तेजी को यहां पर ला सके और फिर हम उसे बाहर कैसे दिखा पायेगे। जैसे, इसमे जुड़ते है अन्य शब्द:- इन्तजार, बैचेनी, तेजी और टाइमपास इनको उस कमरे की कल्पना मे फिर हमे लाना होगा।"

मैं ने पूछा, "किसी जगह कि कल्पना मे तीन चीजें कौन सी हो सकती है जो उसके लिये घातक होगी?”
स्वयं ने कहा, "शायद पहला - अपनी आग (जो अपने इगो से बनती है हमने देखना होगा कि हम कितने भी आग बबूला हो जाये पर उस जगह कि अहमियत को समझना होगा।) दूसरा - अपने अभिनय को खुला नही छोड़ सकते। तीसरा - समाज और दुनिया मे हम देखते है तो अक्सर उसी चश्मे से हम दुनिया को देखने लगते है अपने रिश्तो को अपने कामो को और ऐसी खुली जगहो को। हमे उस चश्मे से बहस मे रहना है।"

मैं ने पूछा, "किसी जगह की कल्पना ने तीन चीजें जो बेहद जरूरी है वो होनी ही चाहिये?” ।
स्वयं ने कहा, "पहला - प्रयोग जो वहां आने सभी को ठहराव देगा। दूसरा - परिचय जो रिश्तो को भी अपने नामो मे जोड़ेगा और जगह को सामाजिक तस्वीर देगा। तीसरा - हमारा अभीनय जो रचनात्मक को हकिकत कि छवि देगा।"

राकेश

सवाल सामुहिक नहीं हो पायेगें

समय बहुत बदला है। अब की दुनिया में कई तरह के कलाकारों का अलगाव है। किसी न किसी रूप में काम करती या रमी ज़िन्दगी अपने कदम बढ़ाती रहती है। किसी जगह में किसी का परफोर्म और किसी का सत्य दोनों अलग है। और ये क्या है? क्या किसी को दिखाने और किसी में शामिल होने वाले दोनों रूपों का अमेल रूप किसी जगह की कल्पना करता है? अगर हाँ, तो पागल शब्द क्या इसका पीछा करने पर क्या दिखाता है?

सतपाल मूझे आज भी मिलता है। वो अपनी समान्य ज़िन्दगी जीता है। कुछ संतूलन करने, बनाने में अपने को व्यस्त रखता है। जब वो कहीं किसी जगह में जाता है तो उसे कुछ अलग महसूस नहीं तो शायद। शामिल होने की स्वयं की भूख क्या है? जो निश्चितता के सामने सत्ता के विरूध भी खड़ी हो जाती है। अपनी शैली का व्यापक नामूना लेकर।

कोई अपनी छवि के लिये कैसे लड़ता है? समाज में ये आबादी का उदाहरण मिलता है। आबादी सभी के लिये एक तरह का दुनिया बनाती है। जिसे भीड़ या झूंड़ भी कहा जा सकता है। भीड़ का एक सम्भव क्षेत्र जिसका सामान्य और असामान्य रूप है।

हम इसका एक हिस्सा है जिसमें खुद को दूसरे मानवों की तरह देखना चाहते हैं। जिसमें सब का अपना जीवन जीने का खास तरीका है। मान ले की कुशल ढ़ंग और जो कभी सहमती बनता है और कभी असहमती। सतपाल तो किसी से सहमत नहीं होता वो घर, बाहर अपनी सोच के बहाव को जारी रखता है। दो रास्तों से अलग उसकी राहें कहीं ओर ही जाती है। दो ज़ुबान तो हर वक्त सामने रहती है पर तीसरी ज़ुबान कहां है जो विपरीत में ले जाती है?

अगर जीवन में जो है, होना ही है को मान के चले तो क्या वे नियम है या जो सत्य जिसे बचपन से देखा जिसे दिमाग ने समझा, आंखो ने देखा और शरीर ने महसूस किया उसे ही आधार बना ले?

मेरा मानना है की ये अपनी ही सोच के साथ नाइंसाफी होगी। शरीर के जख़्म बदल जाते हैं मगर दर्द वही होता है। दर्द की ज़ुबां को भाषा कहाँ से मिलती है? किसी से डर भी ऐसी ही कन्डीशन से पैदा होता है जिसे न तो दूर किया जा सकता है और न खुद के पास रखा जा सकता है। फिर इसका होता क्या है? जीवन में आयोजित होने वाली दैनिकता जिसमे हर पल का हिसाब-किताब होता है इसमें हम अपने लिये केसी सम्भावनाएँ सींचते है? ये खुद से सोचना होता है।

रात और दिन का रिश्ता जैसे गहरा है और उनके साथ परछाई और रोश्नी दो रूप है। जो एक-दूसरे से टकराते है। ये हमारा अनुरूप है। जिसे हम शामिलता में जीते हैं। किसी को इसमें लाने के लिये हमारे पास क्या होता है और देने के लिये क्या? ये सोचना जरूरी है।

कभी - कभी लगता है कि जीवन मे कई सवाल कहीं बसे हुए है, उनको एक साथ बाहर निकाल दिया जाये। मगर सोचता हूँ की वे सवाल किसके लिये है? क्या अगर सवाल के भीतर ये "किसका" जुड़ा होगा तभी वे बाहर आ पायेगें? मैं अपने से पूछने वाले सवालो को अपने से बेदखल करके बाहर नहीं निकाल सकता।

मेरे "मैं" से मेरे "स्वयं" का रिश्ता अगर टूट जाये तो क्या सवाल सामुहिक नहीं हो जायेगे?

राकेश

Saturday, April 23, 2011

उनके कमरे की सफाई

पिछले दिन मेरे पिताजी अपने उस कौने की सफाई कर रहे थे जो कभी कभी लगता है जैसे ये कौना उनके घर का हिस्सा नहीं है और कभी लगता है कि ये कौना ही उनका घर है। इन दोनों के बीच मे वे कभी इधर खिसकते हैं तो कभी उधर।

समय जैसे चमक रहा था उसके ढकने में।
समय ज़ंग खाया था ऊपर-नीचे के तलवे में।
समय सूखा था मोहर की पड़ी महरूम सी डब्बी में।
समय उछल रहा था छोटे काग़जो के टुकड़ो में।
समय चिपका था तले से लगे पेपरों में।


उन्हे अपने ही कौने के भीतर से कुछ पाया। कितना अजीब सा लगता है कि जब अपने ही घर मे कुछ अपने से बिछड़ा हुआ मिल जाये तो हम उसे पाया बोल देते हैं। जैसे वो मेरा नहीं था बस, मुझे पा गया है। इस पाने मे शायद कुछ और भी अहसास है। जैसे है मेरा मगर आज लगा है जैसे मुझे पहली बार मिला है। वे अपने हाथों के गिलास को अपने बगल मे छुपाते हुए उस पन्ने को बीनने लगे जो शायद कई सालों से बिखरा पड़ा था। छिदरा सा वे आज अपने पूरे होने का अहसास करने वाला हो जैसे - वे खुश हो रहा हो जैसे। वे उस बिखरे हुए को बीनने कर किसी बच्चे की लग गये उसे मिलाने जैसे उनका ही पौता अपने पज़लगेम के बिखरे हुए टूकड़ों को मिलाता है। फिर बिखेरता है, फिर मिलाता है - यही वे तब तक करता जाता है जब की सही अनुमान न हो जाये की अब हुआ पूरा। वे भी आज इसी रिद्धम में जुट गये।

समय अकड़ा था फाइलों में अड़े काग़जो में।
समय अटका था गुड़मुड़ी पड़े काले कार्बन पेपरों में।
समय रंगा था स्टेम्प की ख़ुरदरी लाइनों में।
समय टिका था टिकट पर पड़े अँगूठाई निशानों में।
समय ठुसा था नीली सी पन्नी में भरी बिलबुको में


कई टूकड़े तो अब भी नही मिले थे -
"आज बिशन ने वो पैसे दे दिये जो उसे लिये थे। पर मुझे लग रहा है कि उसने मुझे ज्यादा पैसे दिये है कल उससे मिलना है। रामा अपनी रकम ले गया है। मैंने सबका कर्जा उतार दिया है।"

कई ऐसी लाइने उसमें बिखरी पड़ी थी। ये खत्म होने वाला सिलसिला नहीं था जैसे। पूरी अटेची को बहुत जोर लगाकर खींचा और उसके एक – एक बिखरे हुए पन्नों को समेटने लगे। एक – एक चीज को ऐसे देखते जैसे कोई सुनार अपनी अलमारी साफ करते हुए चमकीली को भी मीढ़ कर देखता है कि ये क्या है? वे आज किसी बहुत बड़े जौहरी की भांति थे।

समय छन गया था चूहों की कुतरी पनशनी, कागज़ों के छेदो में।
समय सम्भाला था रजिस्टरों और फाइलों के ऊपर बधीं छोटी-छोटी डोरियों में।
समय गूँज रहा था फाइलों और रजिस्टरों में लिखे अलग-अलग नामों में।
समय धूँधलाया था गत्तों के कवरपेज पर लिखे नामों से उड़ती गाढ़ेपन कि चकम में।


एक और पन्ने को पढ़ने की कोशिश हो रही है।
“500 रूपये 3 टका पर लिये हैं - जिसे शादी पर देना है। “........." तारीख में। “......” , “.....” उससे लेने हैं।"

उनका कोई अपना ठिकाना नहीं है और न ही वे किन्ही से दूर जाना चाहते। वे लड़ाका नहीं है, वे रोमांच मे जीना पसंद करते हैं। शायद जहाँ पर रोमांच न हो वे उसे बनाने की कोशिश मे हो। कुछ तलाशना या अपने ही कौने मे कुछ मिल जाने को वो पाना कहकर उसे ऐसे नवाज़ते हैं जैसे वो बरसों से कहीं खोया हुआ था लेकिन अब पाकर उसने खुद को नहीं लौटाया है बल्कि उस अवधि को दिखाने की कोशिश की है जो उससे बना है उसका नहीं है शायद।

समय फैला था बिलबुक से काटी गई पर्चियों में।
समय ख़ुद को दोहराया सा था कुछ सरकारी महकमों के दस्तावेजों में।
समय बेबसा सा था रजिस्टरों से आज़ाद होती बाईडिगों में।
समय जिज्ञासू था अलग-अलग पन्नों पर लिखी अर्जियों में।


उनका अपना लिखा हुआ :
“मैंने खुद से लिया हुआ पैसा किसी को नहीं दिया है। मगर मैं आपकी दी हुई वो अधिकारी छोड़ रहा हूँ जो आप सबने मुझे अपने भरोसे पर दी थी। जितना भी जिसका निकलता है वो मैं दे दूगाँ लेकिन अभी मेरे पास नहीं है।"
अपनी उस जगह से दूर वो चल दिये। अब हर रोज़ जाते हैं, वहाँ नहीं जहाँ शायद उन्हे बुलाया जाता है। बल्कि उस "वहाँ" जिसे वो खुद चुनते हैं। वहाँ की हर चीज़ यहाँ तक की हवा और रोशनी को भी।

समय मान था उधार चुकाते शब्दों में।
समय पाबंद था उनमें पड़ी तारीखों में।
समय भीड़ था कई अलग-अलग पन्नों में छपे हस्ताक्षरों के प्रतिबिम्बों में।
समय ताकत था अन्दर कई नामों के अन्तराल बने रिश्ते में।
समय ज़िद था कई जाने-पहचाने नियमों में।
समय जिम्मेदारी था इसमे समय को महफूज़ रखने में।
समय कल्पना से भरा था उन ख़तों मे लिखे शब्दों में।


“हर बार पैसा चाय की केतली में रखा होता था। जिसके बारे में घर मे सबको पता था। सबके हाथ उसमें जाते थे। लेकिन ये नहीं मालूम था की उन हाथों में हरकत क्या थी।"

वो यहीं है, यहीं रहते हैं, यहीं काम करते हैं, यहीं खाना हैं लेकिन यहाँ पर आराम नहीं करते। यहाँ को सोचते हैं मगर जीते नहीं हैं। "वहाँ" को रचते हैं और "वहाँ" मे खो जाते हैं।

लख्मी

Wednesday, March 30, 2011

Tuesday, March 15, 2011

एक खामोश चुप्पी



कई आवाज़ें मेरे बाहर हैं और मैं उनके अन्दर हूँ। उनके अन्दर जाने पर मैं अपनी आवाज़ों के बाहर हो जाता हूँ।
लख्मी