Friday, December 27, 2013

कोमेंटिये माहौल


काफी हफ्ते बाद मुझे इस शुक्रवार अपने बीच कई तरह की बहस और बातचीतों को समझने में मज़ा आया। उसमें ये मैं अपने साथी के एक लेख से सुनाई गई "बस की खिड़की" लेख पर कुछ कहुंगा।

एक लड़की बस की खिड़की से बाहर होता कुछ देखती है। जो उसे चुभन का एहसास करवाता है। वो अपनी लाइफ में जैसे एक ओर्डर ( लय ) से कुछ करना चाहती है। वैसे लेख पर सबने कुछ ना कुछ कहा होगा। उसे कोमेन्ट भी दिये होगें। उस बीच लगा की लेख में बाहर से आता सवाल और समझ के विरूद टकराव है।

मैं क्या होता है? मैं ये कर देता अगर मेरे हाथ में होता तो बदल देता।

ये सिर्फ कहने का फोर्स सा लगता है। जो सिच्वेशन में एक जीता हुआ एक अंकुरित सोचने का उछाल देता है। जैसे अपने देखने के बाहर को एक फ्रेम से देखते हैं तो वहां जो दिखा वो मेरी कही हुई समझ से अलग है।

एक फ्रेम जब दूसरे किसी फ्रेम से बात करता है तो उसमें दो आपसी सांसो का मेल होता है। जो मिलकर एक दूसरे को छुकर निकलती है। एक खिड़की से बना फ्रेम है। जब हम कह कर निकलते है तो जीने को सोचते है। जिससे हम एक छोटे पैमाने पर अपने स्वंम की ही कल्पना करते हैं। तो फिर उसे कोई अपने कौमेन्ट से उसकी इस कल्पना से हटा कैसे सकता है?

चलों मान लिया के आप उसके देखे फ्रेम से पूछते हैं कि "खिड़की में कुछ और क्या?” तो उसे क्या देखने को कहते हैं?

क्या उसके देखे को झुठला रहे हैं? उसके सुने हुए को तोल रहे हैं? उसकी बनावट को फिका कह रहे हैं? हम गर सोचे की जैसे - सोचे गई जगह, समय,सबजेक्ट और ओबजेक्ट मिलकर क्या बना रहे हैं? तो हमारी चाहत का रूख क्या होगा?

मैं और मेरे अनुभव, समझ का जुडा कनैक्शन है। पर अब आया की आप लिखने वाले, शौद्ध करने वाले को एक नया आईडिया या तरीका दे रहे हैं उसका पहले लिखा से बाहर जाकर क्यो?

लिखने वाले की कोशिश से लिखने वाला ही महरुम होता जाता है। जिससे वो सब के कौमेन्ट लेकर अपने सुने को लाये हुये को दोबारा नहीं सोच पाता फिर वो अगला कोई टोपिक व स्पेस को तलाशने लगता है। यानी अपने लिखे पर दोबारा का एक एक्शन नहीं होता जब की हर निगाह को दोबारा एक्शन का तलबगार रहता है। एक जगह में कही बैठ कर कुछ किया काम, सुनी आवाज या एहसास लेना है तो वो क्या है?  खासतोर से कोमेन्ट समझाया जाता है जो बोल रहा है उसे बोला जा रहा है? सौंपा जा रहा है की ये ले लों। ऐसे कर सकते हैं। ऐसे न करों एक्ट। इन पर से अलग हट कर सोचो।



मुझे लगता है एक फ्रेम या निगाह हो सकती है। कि बाहर एक निगाह -निगाह से टकराती है अपना अपना संकुचित जानकारी लेकर जिसमें तरह तरह के चेहरों की संम्भावनाएं ,चुनौतियां और मांपदण्ड़ होते हैं तो कहीं आप इस पर टिकी निगाह को किसी तराजू से तो नहीं देख रहे?  और कहीं पारदर्शी तो कहीं आपके पास वापस टकराती है एक साउण्ड़ वोलियम की गुंजन की तरह तब हम क्या सुन पाते हैं?

लिखने वाला और सुनने वाले के बीच में एक महीन सी तार होती है। जिसका कोमन साधन होता है वो चीज जो लिखने वाला लेकर आया है। लिखने वाले के लिये वो साधन उसका खुद का इजात किया हुआ होता है तो सुनने वाले के लिये उसमे क्या होता है? सवाल किसके लिये होते हैं?

बातचीत में हर कोई एक सवाल दे रहा था। लगता था की सारे सवाल लिखे हुए पर है। सुनने वाला जब बोलने वाला बन जाता है तो उसकी तलाश क्या होती है? यह गायब हो जाता है। मजेदार माहौल था।

राकेश

कुछ हल्का सा दिखा

दूर से ही देख रही थी वो बांस की मजबूत कुर्सी और उसके बगल मे रखी वो टेबल जिसके ऊपर अगर हाथ रखकर कोई खड़ा भी हो जाये तो टूटकर नीचे ही गिर जायेगी। लेकिन अभी कुछ देर के बाद मे वहाँ पर भीड़ ऐसे टूट कर पड़ेगी के उसको रोकना यहाँ किसी के बस का नहीं होगा।

वो वहीं पर उस टेबल से कुछ ही मीटर की दूरी पर बैठे थे। ये उनका काम नहीं था लेकिन उनके पास इस काम के अलावा इस समय कुछ और करने को ही नहीं था इसलिये रोज़ सुबह निकल पड़ते और कईओ की दुआये लेते हुये उस जगह पर बैठ जाते। उनके हाथ दुख जाते मगर यहाँ पर बोल खत्म होने का नाम ही नहीं लेते थे और उनका काम था उन बोलों को शब्दों मे उतारना। कुछ इस तरह उतारना की पढ़ने वाले को उनके अन्दर दबे दर्द का बखूबी अहसास हो जाये और जिसके लिये उन बोलों को शब्दों के जरिये शहर में उतारा जा रहा है वो नंगे पाँव बस होता चला जाये।

उनके नाम के बिना ही उनको लोग जानने लगे थे और वो भी नाम के साथ किसी को नहीं जानते थे। ये इस वक़्त मे बनने वाले ऐसे रिश्ते थे जो लम्बे बहुत रहेगें लेकिन कभी एक - दूसरे पर जोर नहीं डालेगें। एक - दूसरे को खोजेगें जरूर लेकिन खोने से घबरायेगें भी नहीं। दूर हो जाने से उदास जरूर होगें लेकिन हताश नहीं हो जायेगें। यहाँ चेहरे की पहचान बिना नाम जाने थी और नाम की पहचान बिना चेहरे के। फिर भी इनकी उम्र इतनी थी के जगह को अपनी उम्र देकर उसकी जिन्दगी बड़ा देती।

रिश्ते, कितने मीठे और सूईदार होते हैं? ये हम वियोग या योग मे कह भी दे तो उसमें बहस करने की कोई बात नहीं है। ये तो सम्पर्ण करने के सामन होता है। जिसके करीब उतना ही मीठा और जिसके बहुत करीब उतना ही सूईदार। जिससे दूर जाना उतना ही मीठेपन का अहसास कराता और उससे बेहद दूर जाना उतना ही सूईदार। कोई अगर ये कह दे तो क्या उससे लड़ने  जाया जा सकता है? ये तो वे अहसास से जो बिना माने या मानने से इंकार भी किये सफ़र कर ही जाता है। इसमे "मेरी" "तेरी" की भी लड़ाई हो सकती है और लड़ाई हो भी क्यों भला? ये जीवन की वे लाइने हैं जिसमें दोनों ओर से न्यौता खुला होता है। बिलकुल फिल्मों के उन गानों की तरह जो न तो किसी हिरोइन के लिये गाये जाते हैं और न ही किसी हीरो के लिये। मतलब वे गाने फिल्म के किसी क़िरदार के लिये नहीं होते। वे तो जीवन का कोई हिस्सा पकड़कर उसके मर्म के लिये गाये जाते हैं। उसका अहसास गाने वाले के लिये भी होता है, गाने पर अदाकारी करने वाले के लिये भी, गाना लिखने वाले के लिये भी और गाना सुनने वालों के लिये भी।

Thursday, December 5, 2013

लाइलाज़ नज़ारें

बारिश अभी रुकी नहीं थी और लगता था की ये पूरे कनागत बरसने वाला है। चार दिन तो हो गये थे बसरते - बरसते। इन दिनों कहानियाँ का बिखरना थोड़ा कम है। एक – दूसर से मिलना जितना दुर्लभ है उतना ही इन मिठी और खमोश कहानियाँ का एक – दूसरे के मुँहजोरी करना भी।

लेकिन क्या सारी कहानियाँ मुलाकात पर निर्भर होती है?, नहीं - हर कहानी नहीं। कहानियों के पर लगे होते हैं जो खुद ही कहीं से भी कहीं उड़कर पहुँच जाती हैं। फिर उनको देखकर मुस्कुराती हैं जो मुलाकातों के ऊपर आर्क्षित होते हैं। कहानियों का एक खास बिछोना भी होता है जिसपर कोई भी कुछ देर सुस्ताकर जा सकता है और तकीये पर अपनी कोई निशानी छोड़ भी सकता है। क्या वो निशानी महज़ निशानी ही बनकर दम तोड़ देती है?

पूरा नाला पानी से भर गया था। काला - काला पानी किचड़ समेत सड़क पर निकलकर आने की कोशिश मे था। कुछ ही देर के बाद मे यहाँ पर जाम बस, लग ही जायेगा। जाम लगने का सबको पता होता लेकिन सरकार को कोसने और गाली देने के अलावा किसी को जरा सी भी फुरसत नहीं थी कि इससे आगे कुछ किया जाये। सबसे पहले तो नाले के गन्दे पानी की महक पूरे मे अपना नाम करती। उसके बाद मे पानी। नाले के साथ मे लगी दुकानों को चाहे इससे कोई फर्क पड़े या न पड़े लेकिन इन दुकानों से समान खरीदने आये ग्राहको को जरूर दिक्कत होने वाली थी। ऊपर से बारिश का पानी और नीचे से काला पानी दोनों रिस रहे थे। नाला टापना बहुत मुश्किल था तो लोगों ने इस पार से उस पार जाने के लिये कई सरकारी खम्बों का पुल बनाया हुआ था। सुबह और शाम मे यहाँ से पूरा का पूरा हुजूम गुज़रता है। इस नाले की कोई दिनचर्या हो या न हो लेकिन ये अनगिनत दिनचर्याओ का हिस्सेदार जरूर है।

सुबह के आठ बजकर तीस मिनट हो चुके हैं। सड़क पूरी लोगों से भरी है। नाले पर बने सारे पुल लोगों से भरे हुए हैं। नाले मे देखने और झाँकने की जिद्द सबकी तारतार है। ऐसा लगता है जैसे किसी मौत के कुएँ मे कोई खरतनाक शोह चल रहा है। जितने झाँकने वाले ज्यादा है उतने ही दूर से देखने वालों की भीड़ भी कम नहीं है। एक नाला आज कई कहानियाँ का बसेरा लगता है। गर्मागर्म नांद की तरह से हर कहानी पककर निकल रही है। दूर से देखने मे बस, एक यही खामी है तो मज़ा भी है। जो भी वहाँ उस भीड़ से बाहर निकलता है उसी के पास एक कहानी होती। न जाने उसमे क्या था और वो क्या बनकर बाहर आ रहा था।

नाले के एक दम साथ मे दीवार के नीचे एक औरत लम्बा सा घूंघट करके रोये चले जा रही थी। कोई भी उसका चेहरा नहीं देख सकता था। वो शायद अकेली भी थी। उसको रोता देखकर लोग उसे कुछ ऐसी निगाहों से देखते जैसे नाले के अन्दर बहती कहानी उसी से जुड़ी है। बारिश काफी तेज हो चुकी थी। वहाँ पर खड़े सभी तितर-बितर होने की कोशिश मे थे लेकिन उस औरत का रोना और वहाँ उस जगह से उठना तय नहीं था। नाले मे भी कुछ लोग कूद गये। कहीं जिसके कारण ये सब घटा है वो ही कहीं बह न जाये। नाले के पानी का बहाव काफी जोरो से था आज। नहीं तो हमेशा ये रूका रहता है। कुछ न कुछ कूड़ा इसमे अटका रहता है लेकिन आज तो इसकी रफ़्तार देखने लायक थी। न जाने किसका साथ दे रहा था।

नाले के चारों तरफ लोग रैलिंगों पर चड़े खड़े थे। ये देखने की कोशिश मे की आखिर मे उसमे से निकलेगा क्या? वो नाले के अन्दर कूदने वालें लोगों के हाथों मे कुछ था। जो बेहद सफेद था। उन्होनें उसको छुपाया हुआ था अपने कपड़ो से लेकिन कुछ भाग अगर दिख जाता तो लोग ऐसे कहानियाँ बुन लेते जैसे हर चीज़ उनके हाथों से होकर निकली है।

कमीज़ के नीचे से कुछ भाग नजर आ रहा था। दिखने वाला हिस्सा किसी गीली और गली हुई रोटी की भांति था। सफेद रंग मे लिपटा वो हिस्सा कितने वक़्त पानी के चपेट मे रहा होगा उसका अन्दाजा कर रहा था। किसी को कुछ कहने या सुनने की जरूरत भी नहीं थी। लगता था जैसे वो हिस्सा खुद से कुछ बयाँ कर रहा है। उन लोगों ने उसे वहीं पर आईस्क्रीम की रेहड़ी पर रख दिया। कमीज़ मे लपेटा हुआ। लोग उसे देखना चाहते थे लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी की उसको पूर्ण रूप से देखा भी जाये। ये कोई दो या तीन महीने का बच्चा था। जो पानी से फूलकर डबल रोटी की तरह से हो गया था। अगर कोई उसको छूता भी तो भी खाली पाँव की उंगलियों पर ही हाथ लगाते बाकि का हिस्सा तो ऐसा लग रहा था जैसे उंगली लगाते ही वो फूट पड़ेगा।

वहाँ कई सारी आवाज़ों के बीच मे उस औरत के रोने की आवाज़ भी सभी के लिये सुनने का एक हिस्सा बनी हुई थी। नज़रें दोनों की तरफ मे कुछ इस तरह से घूमती जैसे गली मे कोई चिड़ी-बल्ले का खेल खेल रहा हो और देखने वालों की भीड़ लगी हो।
रोने की आवाज़ काफी तेज थी और ताना कसने वालो की भी। कोई उसको पाप का लेबल लगाता तो कोई कुर्क्रमो का ताना देता। कोई पूरी औरत कोम पर गाली देता तो कोई रात को काली कहता। मगर इससे क्या फर्क पड़ने वाला था ये किसी को नहीं पता था। सब कुछ वैसे का वैसे ही चलने वाला था। हाँ, कुछ देर तक लोग उसको ताना देगें। फिर घूरेगें उसके बाद मे उसको छोड़ जायेगे वहीं पर बैठे रहने के लिये। रात होने तक तो ये कहानियाँ ऐसे फैल जायेगी जैसे जगंल मे कोई आग फैलती है।

वो वहीं पर रोती रही, उसका रोना यहाँ पर सभी को खल रहा था। उसको इस पाप का भागीदार मान लिया गया था। उसका चेहरा किसी को देखना हो या न देखना हो लेकिन उसको वो कह दिया गया था जो चेहरा देखने के बाद मे थप्पड़ मारने के समान था। रोते - रोते वो औरत वहीं पर गिर गई। नाले के पानी मे पड़ी वो औरत किसी को कोई अहसास नहीं कर पा रही थी। वहाँ पर खड़े सभी ने उस बच्चे को उस औरत के बगल मे रखा और दूर खड़े हो गये। कुछ देर तक वो वहीं पर पड़ी - पड़ी रोती रही लेकिन कुछ समय के बाद मे आवाज़ें आना बन्द हो गया। फिर कुछ नहीं बचा, खाली पड़ी सड़क और कुछ दो - चार गाड़ियाँ, जिनपर लिखा था आपकी अपनी सहूलियत के लिये हमेशा।

लख्मी

Tuesday, December 3, 2013

खामोशी

कहते हैं रात दिनभर की सारी आवाज़ों को अपनी खामोशी में छुपा लेती है। पर क्या सच में रात खामोश होती है? तकरीबन रात के पोने एक का टाइम है। मैं अभी अभी अपने काम पर से घर में दाखिल हुआ हूँ। पूरा कमरा गर्म भाप से भरा हुआ। दरवाजा खोलते ही लगा जैसे दिनभर की खामोशी अब टूट जायेगी। एक पल में लगा की यहां, बंद दरवाजें के पीछे कई आवाज़ों की गूंज पहले से ही शामिल है। सब कुछ बोल रहा है। दिवारें, दिवार पर लटकी घड़ियां, घड़ियों में लंगड़ाकर चलती सुइयां, तस्वीरें, उनमें छुपी यादें, कमरें की कुर्सियां, उनकी गद्दियां, पलंग और उसपर रखे तकिये। सभी कुछ मुझसे बातें करने की कोशिश में है। कुछ भी शांत नहीं है। दरवाजें आपस में अड़ंगी देकर एक दूसरे को अपने से अलग कर रहे हैं और कमरे के भीतर खेलती हवा सबको छेड़ रही है और हवा की अपनी कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती मगर वो जिसको भी छू लेती वहीं बोल पड़ने की फिराक में है और छिंगूरों की गूंज किसी को पुकार  रही है और तेज हो रही है और शोर मचा रही है और तेज और तेज बस, जैसे उसमे अपने कंठ को पूरी तरह से विशाल कर लिया है। लगता है जैसे वो मेरे आने से पूरी तरह से नराज़ है। मुझे डरा रही है। जैसे कोई भूतिया फिल्म का बैचेन भूत मुझे मेरे ही घर से निकाल रहा हो।   

आधे कमरे में उजाला है और आधे में नहीं है। कान बहुत कुछ सुनना चाह रहे हैं। कोई ऐसी आवाज़ जिसे वो पहचानते हो। सुन चुके हो। समझ सकते हैं। कमरे की सारी चीजें अपनी ही चीख पुकार में लगी है। कमरे का पंखा "करर...करर..करर" कर रहा है जैसे कोई घर का बुर्जुग अपनी बिमारी में कर्राह रहा हो। तो घड़ी की सुइयां टिक..टिक...टिक..टिक..टिक... उन आवाज़ को छुपाने की कोशिश कर रही है। लेकिन फिर भी वो पंखे की कर्राहने की आवाज़ को ज्यादा अपना रहे हैं ये थके हुए कान।

रात की सारी बाहरी आवाज़ें बदल चुकी है। वे सभी अपनी ही आवाज़ों ( वॉलयम ) की ताल को सुर में लाने की कोशिश कर रही है। और अंदर की आवाज़ों को बदमाशी करने का मौका मिल गया है। अअअ भट, भट, भट, अअअ भट.भट.भट करती खिड़की कमरे में कोई संगीत तो बजाती है मगर बाहर के मौसम को अंदर आने का भी न्यौता दे डालती है। कभी कभी महसूस होती ठंडी हवा कानों को थकावट को थोड़ी सी ताजगी देती मगर फिर उसी जगह पर लाकर छोड़ जाती।

कानों ने आज से पहले यह सभी आवाज़ें कभी नहीं सुनी थी। शायद इन आवाज़ों को सुनने के लिये कानों के स्थिर होने का इंतजार करना होता है। मेज पर रखी किताब के पन्ने फड़..फड़...फड़ कर रहे हैं जैसे वहीं पर वापस आने के लिये लड़ रहे हो जहां पर पिताजी ने इन्हे आज शाम में छोड़ा होगा। साथ में रखे लेम्प में लटके छोटे छोटे घूंघरू छनछन.....छन....छन... कर उनकी लड़ाई को देखकर नाच रहे हैं। गर्दन हर किसी छोटी से छोटी आवाज पर ही यहां से वहां घूम जा रही है। डर लग रहा है। घबराहट हो रही है। आवाज़ों में कोई डरावनी बात नहीं है। लेकिन फिर भी कान को बंद करके मैं कुछ देर के लिये बैठ गया। बहुत जोरों से मैंने कानों को अपने दोनों हाथों की हथेलियों से भींच लिया। हवा तक को आने का रास्ता जैसे बंद कर लिया। कुछ देर के लिये सभी आवाज़ें बंद हो गई। मैंने आहिस्ता आहिस्ता अपने कानों को खोलना शुरू किया जिस तरह से किसी की आंखो के ओपरेशन के बाद में उसे देखने को कहा जाता है। फिर से वही आवाज़ें आनी शुरू हुई। अब की बात बर्तनों के खिसकने की आवाज़ बेहद जोरों से आई। मैं झट से वहां पर उठकर गया। देखा तो दो चार छोटी चूहिया वहां से भाग रही है। टिरर.....टिरर.....टिरर  की आवाज़ ने मेरे कानों को अपनी ओर खींचा।

कान जरूरत से ज्यादा जैसे सुनने की कोशिश कर रहे हो। आवाज़ों को सुनकर उन्हे समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है। आंखे रोशनी से डर रही है तो कान खामोशी से। किसको क्या चाहिये इसका कुछ भी अहसास नहीं हो रहा है। कूलर अपने पूरे जोश में चल रहा है। उसके पीछे यह महसूस होता कि जैसे कई सारी औरतें जोरो से लड़ रही है। बार – बार मैं कूलर को बंद करता और उन आवाज़ों को सुनने की कोशिश करता। मगर लगता था कि शायद मेरे कानों को अभी दिन और रात के बारे में ज्ञात नहीं हो पाया है।

कुछ ही क्षण के बाद, चीखने की आवाज़ कमरे के भीतर गूंजी। लगा जैसे कोई व्यथा में किसी को पुकार रहा है। एक पैनी सुई सी वो बीच बीच में उठती और फिर अचानक ही खमोशी में बदल जाती। लगता नहीं था कि वो आवाज़ कहीं बाहर से आ रही है। मैं यहां से वहां उस आवाज़ की गर्मी को पहचानने की कोशिश करता। कभी दरवाजे पर जाता, कभी छत पर तो कभी बालकनी में। हर जगह से उस आवाज़ को सुनने की कोशिश करता। मगर वो कभी दायं तो कभी बायं नाचती। कुछ देर के बाद में कमरे में वापस चला आया।

बीच कमरे में खमोश खड़ा रहा और अपनी पूरी कोशिश से उस आवाज़ के कमरे में दाखिल होने का इंतजार करता रहा। वो आती - सुई सी पतली "इइइइइइ-आई" कभी लगता की कोई औरत दर्द में चिल्ला रही है तो कभी लगता वही औरत मुझे डरा रही है तो कभी लगता कि कोई जानवर व्यथा में है। वे आवाज़ यहां से वहां कमरे में घूमती। मैंने अपना बिस्तर खोला और तकियों के भीतर अपने कानों को दबोज लिया। आवाज़ का पतलापन तो खत्म हो गया लेकिन उसका आना बंद नहीं हुआ। मैं उसी अवस्था में पड़ा रहा। काफी देर बीत जाने के बाद में मैं उस बिस्तर से बाहर निकला और महसूस किया कि वे आवाज़ कहीं नहीं है मगर फिर भी मेरे कान उसको सुन पा रहे हैं। पूरी गली शांत सो रही है। जानवर भी गली में टहल रहे हैं। मगर मेरे कानों में वही गूंज घूम रही है।

लगता था कि जैसे उस आवाज़ ने मेरे कानों में घर कर लिया है।


लख्मी

Friday, November 8, 2013

समय के बहाव

समय के बहाव के समाने खड़ी परछाई इस सोच में है कि इसके बहाव को किस तरह चीरती हुई निकलूं, किस तरह इसके बहाव से अपने बहाव की तेजी मापू, इसके बहाव में बहे बिना कैसे इसके साथ रहूँ - गुजरता हुआ बहाव उसके अन्दर के समय को अपनी ओर खींच रहा है और वो भी अपने समय से उस बहाव के सम्मुख खड़ा है। एक जद्दोजहद में, वे इसकी गिरफ्त में नहीं है और न ही इसके विपरित, वे उस क्षणिक समय के गठन से खुद को ताज़ा किये है जो उसने खुद निकाला है, जो उसका है, जो उसे किसी ने नहीं दिया, उसने खुद चुना है। जो तेजी उसके सामने से गुरती हुई उसके लिये कुछ ठोस आहार तैयार करती जा रही है वे उसके लिये नहीं बना, वे बराबरी करता है।

समय की इस तेजी में वे कहीं खो ना जाये की भूख उसे मौजूद रखती है। जो वे खुद से चुनना चाहती है। मौजूदगी उसके होने से है, उसकी हरकत से है, उसके कंपन से है, उसकी कल्पना से है या उसके इस बहाव के सामने खड़े होने की जूस्तजू से है। चीज़ें घनी और बड़ी होने का उसे भी अहसास है, वो अपने को लपेटे जाने से वाकिफ है, समय के भीतर होकर खुद को पुर्नरचित में सोचने की कोशिश करती है, जो बहाव और नये गठन की मांग में है। समय को रचने वाला कोन होगा? वे खुद से पूछती है। बिलकुल उस शख्स की तरह जो अपने घर की खिड़की पर खड़ा शहर को देख रहा है। शहर की बनावट, घनत्वता और तीव्रता जो उसके सामने बन रही है वे उसकी सोच में भी उतनी ही तीव्रता लिये है। उसकी सोच और सामने बनता शहर दोनों अलग नहीं है।

लख्मी

Thursday, November 7, 2013

मेरा रूप

छवियों से निकलते समय को कहाँ से देखूँ? उसके ऊपर जाकर, उसके भीतर से, उसके साथ से या उसको अपने भीतर ही ले लूँ। मेरा उसको वश में करना या मेरे वश में हो जाने की कग़ार एक समतलिये जमीन सी लगती है, और उसी जमीन पर जीने लगी है जैसे - पर ये मेरी नहीं है, मेरे होने से इसका अक़्स बनता है जिससे मेरा रूप तैयार होता है।

ये वे रास्ता है जो कहाँ पर जाकर समाप्त होगा इसका कोई स्टोप नहीं है। छवियों के भीतर से निकलता समय रास्ते के साथ – साथ नहीं तैर सकता। कुछ समय के बाद में अचानक ही रास्ते से अलग हो जाता है और खुद को किसी घेरे में पाता है। फिर जो परत चड़ती है जीवन पर वे है भविष्यहीन दिशाओं की आफटरलाइफ। शहर इस कटघरे से पनपता हुआ अपना रूप ले रहा है।

क्या निकलना, अन्दर जाने के जैसा ही होता है या जगह हमें बाहर धकेलती है? बाहर आना और बाहर धकेलना! दोनों के साथ और दोनों के बाद।

लख्मी

परछाई ( shadow)




शरीर अभिग्य है, कपटी है, दलबदलू है, बहुरूपिया है, सेनिक है, डरपोक है और भूतिया भी है। वे कई छोटे व बड़े अभिग्य दृश्य का जोड़ा बनकर जीने की पूर्ण कोशिश में है। शरीर स्वयं की परछाई के भीतर रहते हुए कई अन्य और बेबाक परछाइयां बनाते हैं, परछाई बनते हैं, परछाई बनकर मिट जाते हैं और परछाई बनाकर भी मिट जाते हैं।

परछाइयां साचें बनी है। लिबास बनी है। मुखोटा बनी है। करावास बनी है। बेरूप है। डरावनी है। बेबाक हैं। तिलिस्मी है। हल्की है मगर घनी है। परछाई बेजोड़ है। शीशाई है। रोचक है। मौत है। यादों के जिन्दा होने की दास्तान है। परछाई खाचों की भांति है। अछूती आकृतियां है। भीड़ है। सत्ताई हैं। आजाद है। परछाई पहचान से बेदखली का आसरा है। जमीनी जंग है। भाग जाने की उमंग है। रोशनी से खिलवाड़ है। परछाई डरा देने वाला मज़ाक है। पावर का ढोंग है। नाटक करने के परमिट है। परछाई अनेकों में होने का अहसास है। खो जाने का चैलेंज है। पकड़ में ना आने की चुनौती है। परछाई ताबूत है। होने ना होने का जादू है। परछाई ट्रांसपेरेंट है। बिना इजाजत के छा जाने का दम लिये है।


मुझ से है, मुझ में है, मुझ पर है मगर सिर्फ मेरी नहीं है।

लख्मी

Saturday, October 19, 2013

कल्पना

कल्पना अपने में कई अलग व विभिन्न संसार लिये है जिसकी कग़ारें ज़िन्दगी को भव्यता का परिचय प्रदान करती हैं। कल्पना का फूहड़ सा अनाड़ी होना भी ज़िन्दगी को उसी के आम होने की दलदल से बाहर निकाल देता है। ऐसे झूठ की तरह जिसमें सच्चाई को उसकी अपनी पहुंच से बाहर धकेलने की ताकत होती है।

Friday, October 18, 2013

थकान

"थकान प्रभावों में नहीं आभाषों में है। जो ज़िन्दगी को बैचेनियां और रहस्यम बनाता है॥
जहां एकांत मिथक बैचेनियों की दुनिया है। हर दम एक नई आवाज़ में ध्वनित जो सीधा रास्ता नहीं अपनाना चाहती।"

सवाल के आजूबाजू

एक बार फिर से उसी किताब का रूख किया जिसने पहले भी मेरे कई सवालों का उत्तर दिया है। या कह सकते हैं कि उत्तर तो नहीं दिया लेकिन सवाल को सोचने पर जा पहुँचाया। सवाल पूछना आसान नहीं है। सवाल जब अपनी स्वयं की ज़िन्दगी से बाहर निकल रहा होता है तो हल्का जरूर हो सकता है लेकिन किसी और ज़िन्दगी में दाखिल होने के लिये बहुत मस्सकत करता है।


सोच और आंकने की समाजिक पद्धति के साथ में रहना और उसके भीतर अनुसाधनों को सोचना क्या है?

जिस तरह किसी जीवन और उसके भीतर बसे अनेकों शख़्सों के आंकड़ो और जीने के ढंक से जीवनशैली का ज्ञान बनाया जा सकता है वैसे ही उससे सीधा टकराने की कोशिश भी की जा सकती है। यह टकराना उसके खिलाफ जाना है और ना ही उसको तोड़ना है। बल्कि उसके भीतर ही रहकर उसके खिलाफ में रहना है।

वर्ग, पद, मनुष्य और जीवन – जहां इन्हे साथ और एक ही पौशाक में सोचने की जमी हुई कोशिश रहती है वहीं पर एक किताब 'सर्वहारा रातें'में कुछ हदतक जुदा करके सोचने की भी कोशिश दिखती है। ऐसे प्रतिबिम्ब सामने खड़े हो जाते हैं जिसमें सिर्फ किसी को जानकर ही अपना ज्ञान नहीं बनाया जा सकता।

“मैं जिस हाल में हूँ वो 'मैं" ही मुझे रास नहीं आ रहा॥
सिर्फ आइना बनकर जीने की कोशिश ही ताज्जुब लाती है ज़िन्दगी में।"

लख्मी

Wednesday, October 9, 2013

मैं

रिफ्लेक्शन व शहडोह जो कभी भी अपने से बाहर हो सकती है।
"मैं" अनेकता या विशालता का रूप है
स्वयं और लिबास के बीच हमेशा टकराव में रहता है।
अनेकों परतों का डेरा जैसा, अपने से बाहर के दृश्य को विविधत्ता मे ही सोचने पर जोर देता है।
मैं असल में, तरलता का ऐसा अहसास है जो जितना फैल सकता है उतना ही जमा भी रह सकता है।

Friday, October 4, 2013

पोशाक

पोशाक धूंधली रात में दिखने वाली एक रोशनी की तरह हैं। 
एक टोकरा की तरह जिसमें चूपके-चूपके दिमाग में कोई ख्याल बसा हो। 
दृश्य को अदृश्य भीड़ में कहीं खो देना। 
रोशनी का ऐसा नाकाब जिसे उतारने बिना शरीर नहीं दिखता। 
कोई ऐसी छवि जिसका वक़्त पर काबू ना रहे। छवि के जिन्दा होने के अहसास को उसकी मुमकिनताओं में जीने की ललक देता है।
रूप के अनेको किस्म जो अपने साथ सपनों का काफला लाते हैं।

पोशाक क्या शरीर ढकता है या उसे दिखाता है? ऐसी पोशाक जिसमें से कोई मुर्दा शरीर फिर से जिन्दा होकर बाहर आ गया हो। जिसमें शरीर से बाहर आकर एक आकृति दिखाई देती है जो नाच रही है।

काम

नियमित काम
खुद को शून्य में रखकर – असंख्य में देख पाना


बराबरी काम
"मैं" की अनेकता या विशालता का एक रूप


झुण्ड में काम
ऊर्जा के अनबैलेंस को बैलेंस में देखने का आभास

सौगात में काम
मौजूदा वक़्त को तैयारी में लाना कल और कहां के ख्याब के लिये


विभाजन में काम
परमपरागत जीने से विपरित दुनिया के स्वाद में ले जाना।


फीका काम
नियमित्ता के साथ टकराव


काम में अनेकता
गहनता में होना जो समय की विभिन्नताओं पर खड़ा है


काम के कारण
समय के गठन में वापसी जिसमें हर बार रूप बदलाव में होता है


काम का पूर्वआभाष
असंख्यता को पाने की अभिलाषा जिसमें भविष्य की लपेट नहीं है।


काम का किनारा
लघु ठहराव जो सुस्ताने से नहीं, तैयारी में देखा जा सकता है।


पारदर्शी काम
समय के रूपातरण होकर दृश्य अपनी मौजूदा छवि में नहीं है।

Wednesday, October 2, 2013

एक ऐसा एंकात भी

कभी पागल सी कोई नज़र मुझे छू ले। तो मैं गायब हो जाऊं। सब से हट कर मेरे मन में जब शरारत से भरी कोई धूली हुई सी बात आती है, तो लगता है अब थोड़ा बैठ जाना चाहिये।

क्योंकि ये चेहरा रोजाना के तीखे-फिके नक्शों को देखकर जब अपनी ताज़गी को समटने लगता है तो वो छाँटने लगता है अपने लिये राख मे से कुछ मुमकिन लम्हें। उसके बाद ही मेरी कल्पनाओं को टटोलती मेरी भूख इत्मिनान पाती है।

जब किसी कोने में अपने मन में बसे विचारों को जीने का समय मिलता है। काम से फ्री होकर पाबन्दी की  दुनिया से निजात पाकर। अपने लिये समय से फिर रिश्ता बनाना पड़ता है।

सिक्योरिटी के काम से एक ही ढ़ंग में खड़े-खड़े जीभ प्यास से सूखती है जब थकान हावी हो जाती है मगर उसमें भी नज़र चुराकर शरीर और दिमाग को सपनों से जोड़ना पड़ता है।

उसमें जब काम का समय पूरा हो जाता है और दुनिया की सवालिया नज़रो से हम दूर हो जाते हैं। तब एकान्त मिलता है जिसमें बैठकर खुद को भी सुनने में तखलीफ न हो।

राकेश

वक्त


समय के बहाव में हर चीज की भरपाई समाई होती है। बेआकार सा दिखता समय अपने से कई आकारों को बुनता चलता है। समय की कोई छाप नहीं है। समय को जीते हम अपने चिंहो को समय की छाप मानते हैं।

किताब, स्कूल और आसपास

किताब और जिन्दगी ये आपस में किस तरह टकराते है?

अनेकों रंगबिरंगी जीवनी घटनाओं का एक जत्था किसी एक शख़्स की ज़िन्दगी की कहानी कहता है। कभी सौगातें, कभी मुश्किलें, कभी फैसले तो कभी चाहतों के गट्ठर बनकर। हर शख़्स और रिश्तों के भीतर कई ऐसे कारणपस्त दृश्य छिपे हैं जो उदाहरण बने कईयो के जीवन में दखलअंदाजी करते हैं। एक दूसरे में ट्रांसफर होते ये दृश्य बनते एक जिन्दगी से हैं लेकिन फिर सबके हो जाते हैं। किताबी ज़ुबान इन सबके हो जाने से पिरोये जाते हैं। जिनमें हंसी, खुशी, चुनोतियां, परेशानियां और उनके निवारण, कामयाबी के चरण को बखूबी बुनियादी शब्दों में बांधकर एक पुल बनाया जाता है। किताब उस पुल को ध्यानपूर्वकता से पढ़ने और भविष्य की तस्वीर को गाढ़ा कर देने की फोर्स का एक नाम बनकर कैटेगिरियां बनाती चलती है।

उदाहरण के तौर पर हम बात करते हैं : जैसे स्कूल की किताब और उसके पाठ के आकार और पाठ के ज्ञान को उसके वज़न द्वारा किताबों में भरा जाता है। लेकिन इतने बेजोड़ जोड़ के बावजूद भी जब एक क्लास इनके बीच घूम रही होती है तब वे सभी वज़न आम जीवन की जमीन पर बिखर जाते हैं। जैसे किसी पाठ का जोरदार एक्सीडेंट जीवन के किसी पहाड़ से हो गया हो। पाठ कई हिस्सों में आम जीवन की जमीन को छूने लगता है। अणुओं की भांति रेंगता है। एक से दूसरे को धकेलता है। फिर मिलना व चिपकना शुरू करता है। जिसमें कई ऐसी जीवनिए घटनायें, शख़्स, भीड़, रिश्ते, कहानियां भी खिंच आती हैं जिनका स्कूली भाषा और जमीन को कोई जरूरत नहीं। एक क्लास में जैसे ही पाठ को छोटे पाठकों के सामने सुना दिया जाता है वे तभी किताब से निकल जाता है। आसपास से टकराता है और पाठकों के अनुभव का बन जाता है। क्लास का रूटीन और कसकसाती आवाज़ बेहद जोर लगाती है की आसपास से हटकर किताबी जुबान को बुना जाये लेकिन पाठक आसपास से कहानियां बीन लाते हैं। वो कसकसाती आवाज़ पाठ के सवालों से कहानी को फिर से दोहराती है लेकिन पाठक सवालों से पहले ही अपनी जीवनी कहानियों से उनके उत्तर दे डालते हैं। यहां पर किताब और आसपास हमेशा टकराते हैं। हम किस तरह सोच सकते हैं कि हमें किसी किताब की कहानी को जानना है या उस कहानी को बदल देना है? जैसे एक क्लास आसपास से गुथी व बुनी होती है। अनुभव, आसपास, रिश्ते, परिवार से सींचते, सीखते व मिलते बयान साथियों को बोलने के शब्द देते हैं। जहां स्कूल व पाठ उन्हे एक सतह यानि प्लेटफॉम देता है कि किसपर बोला या सोचा जायेगा वहीं आसपास उन्हे वे झलकियां प्रदान करता है कि उन्हे बोलना क्या है? उन्होने देखा क्या है और सुना क्या है। आसपास ये कहने, सुनने अथवा बोलने के लिये उदाहरण बन दृश्य देता है। 

ये आसपास क्या है? और क्यों पाठ के साथ होती बातचीत के दौरान उभर कर आने लगता है?

Tuesday, October 1, 2013

रफ़्तार

स्वयं से विपरित सोचने की कोशिश। विपरित घुमावदार या तीव्रता लिये हुए है। वे आगे जा रही है या वहीं है। अगर इसे मंजिल पर जल्दी पहुँच जाना से बाहर होकर सोचा जाये तो वे रास्ते की अवधारणा से परे होकर जीती है। अपनी मौजूद शारीरिक क्षमता से बाहर होकर जीने की कोशिश होती है। समय की सीमा धारा से बाहर होकर उससे रूबरू होने की राह और एक क्लैश जिसमें सम्पूर्णता अपने मौजूदा पल से भिंडत में हैं।

Thursday, September 26, 2013

बातों की तितलियां

वो बात जिसका जवाब उसमें नहीं होता -
वो सवाल है।

वो बात जिसके भीतर ही उसका जवाब होता है -
वो पहेली है।

वो बात जिसका जवाब होता नहीं पर फिर भी उसकी तलाश जारी रहती है -
वो रहस्य है।

वो बात जिसमें जवाब भी होता है और सवाल भी -
वो कहानी है।

वो बात जिसका जवाब किसी और के पास होता है -
वे बातचीत है।

वो बात जिसमें सिर्फ बातें होती है -
वो बिना सवाल जवाब के है।

वो बात जिसमें भाव जुड़ते हैं -
वो अनुभव है।

वो बात जिसमें समय की पाबंदी नहीं होती -
वो कल्पना है।

वो बात जिसमें दृश्य और कहानी मिली हो -
वो स्क्रिप्ट है।

वो बात जो कम शब्दों मे दुनिया बसाये होती है -
वो शायरी है।

वो बात जो लय मे होती है -
वो गाना है।

वो बात जिसमें कई जवाब छुपे होते हैं -
वो झूठ है।

वो बात जिसमें अनेको मोड होते है
वो दास्तान है।

वो बात जिसमें कोई जवाब नहीं होता  -
वो क्या है?







लख्मी

मौजूदगी

गैरमौजूदगी को मौजूद रहने के जिंदा अहसास

जीवन के जिन्देपन का एक रिले जिसके अनेको चेहरे है

किसी गैर समय की धारा में - खुद के होने विम्ब

Friday, September 20, 2013

हम

अनेकों "मैं" का बसेरा।
'एक' और 'अनेक' के बीच का एक ऐसा पुल जिसपर कभी भी यहां से वहां हुआ जा सकता है।
विभिन्न आवाज़ों से बनी एक गूंज।
"सब कुछ" की इच्छा से बना

उंगलियों के निशान

राकेश

कम आमदनी में जीना

हफ्ते में शायद ही कोई ऐसा दिन होता होगा जिस दिन बिमला जी घर में कुछ खोज ना रही हो। अक्सर पलंग के अंदर से चावलो के कट्टे में रखे बर्तनो को निकालकर वे घण्टा भर उन्हे देखती व खकोकरती रहती हैं। कटोरियां अलग, गिलास अगल, चम्मचे अलग, थालियां, लोटे सब अलग। सा‌थ ही पीतल, सिलवर और स्टील अलग। उनके थैले में बर्तनों के साथ साथ चुम्मबकों के कई छोटे छोटे पीस पड़े रहते हैं। वे सबके अलग अलग चिट्ठे बनाकर उन्हे गिनती रहती है। अपने कोई हिसाब लगाकर उसे वापस उसी बोरी मे बड़ी सहजता से रख देती है। मगर यह देखा और खकोरना यहीं पर नहीं थमता। यहां से शुरू होता है। हर वक़्त उनके कान उस आवाज़ को सुनने की लालसा करते हैं जिसमें कुछ अदला-बदली के ओफर हो। कुछ लिया जाये और कुछ दिया जाये। वो इस बात पर हमेशा कहती है, “यह सारे बर्त बेटी की शादी में काम आयेगें। उसके कन्यादान देने के लिये।" उनके घर मे सारे बर्तन ऐसे ही किन्ही नाम से रखे गये हैं। सबके घरों मे गुल्लके होती है मगर बिमला जी के घर मे यह चावलों के कट्टे ही उनकी गुल्लके थी। जिसमें पैसे नहीं बर्तन थे।

आज बी कुछ ऐसा ही दिन था। होली चली गई है। पर कई ऐसी चीजें छोड़ गई है जिनका उपयोग किया जा सकता है। उनके घर मे कुछ भी बेकार नहीं है। डिब्बे, प्लास्टिक, लोहा और यहां तक की कपड़े। एक भी होली खेला कपड़ा ऐसा नहीं था जो बेकार हो। सुबह ही उन्होने एक एक कपड़ा एक कोने मे जमा कर दिया था। कमीज़, पेन्ट, सूट, साड़ी, टीशर्ट, पजामा, बनियान, कच्छे और टोपिया यहां तक की जूते भी। अलमारी खोलकर सारे कपड़ो को बाहर निकाल कर उनमे कुछ तलाश रही है। तलाशते तलाशते बात भी ऐसी कहति है कि किसी को बुना ना लगे। "चलो भई आज अलमारी मे से गर्म कपड़े बाहर निकाल दिये जाये और पतले कपड़ों की जगह बनाई जाये।"

Saturday, August 17, 2013

मिट्टी के निशान

कौन कहता है की वक़्त चुटकी बजाते ही गुज़र जाता है? वक़्त कभी गुज़रता नहीं है। वो जमा रहा है कई अनगिनत चीज़ों मे और जरूरत की हर एक तस्वीर में। यहाँ इस घर मे भी वक़्त  जाने कितने समय से कहीं छुपा बैठा था। सबको दिखता था लेकिन शायद ही किसी की हिम्मत होती की उसको जाकर छेड़ा जाये। हर कोई उस वक़्त को हर रोज़ सलाम करता हुआ दरवाजे के बाहर हो जाता और शाम को उसी के कहे नक्शेकदम पर चलने की कोशिश करता। खाली यही नहीं था जो किया जाता। इस वक़्त को मौज़ूद रखने के लिये वक़्त को जिन्दा कहा जाता। उसके पीछे न जाने कितनो से लड़ना पड़ता। ऐसे ही दोहराने में क्या नहीं दोहराया जा सकता? वो भी दोहराया जा सकता है जिसकी कोई पहचान नहीं है और वो भी दोहराया जा सकता है जिसकी कोई याद नहीं है। हर चीज़ आज बिना कुछ बोले ही दोहराये जाने के लिये तैयार खड़ी थी।

गुज़रे दिन पुरानी तस्वीरों को देखकर ऐसा लगा जैसे इसमें छुपा और पीछे नज़र आता घर फिर कभी नहीं देख पायेगें। खुशी के साथ एक डर भी था। न जाने क्यों था? होना तो नहीं चाहिये था। घर का बनाना किसी के लिये कितना मायने रखता है? और अपने घर को बनते देखना शायद इस दुनिया का सबसे अनमोल तोहफा है।

Friday, August 2, 2013

परछाईयों से उपजी रूहें










एक तरलता जो किसी भी आकार में ढ़ल सकती है।
बहुध्वनियों से बना मैं।
मैं और हम के बीच बहुतायत।

राकेश

Monday, July 15, 2013

मेरी छत का पीपल

मेरी छत पर एक पीपल का छोटा सा पौधा ना जाने कहां से उग आया।
जो भी उसे देखता बस वही सकबकाया।

मां कहती है - इसे उखाड़कर फैंक दे वरना ये पूरे में फैल जायेगा।
तो पिताजी कहते हैं - तू चिंता मत कर तेरी पौधे उगाने की तमन्ना को पूरा कर जायेगा।
दादी कहती - ये भूतों का डेरा है ये तेरे घर को ही निगल जायेगा।
तो इस पर पिताजी फिर से कहते - चल इस छत के सूनेपन को खत्म तो कर जायेगा।

बच्चे कहते - पिताजी इसकी निम्बोरी को हम कंचे बनाकर खेलेगें।
तो कुछ दिनों के मेहमान कहते - भाई हमें तो छत पर बिस्तरा करदे हम तो यहीं रह लेगें।
पड़ोसी कहते - ये एक बार बड़ने लगा तो दिवारों को तोड़ देगा।
दूर से देखते लोग कहते - ये नींव तक जाकर उसकी ताकत को फोड़ देगा।
दादी फिर से कहती - बच्चों का छत पर आना बंद हो जायेगा।
ये सुनकर गली के लोग कहते - बूरी आत्माओं का रास्ता तुम्हारे के लिये खुल जायेगा।
पिताजी मगर किसी की ना सुनते "तुम सब पागल हो" बस यही लाइन हर बार बुनते।

पानी की टंकी चेकिंग करने आये सरकारी अधिकार उसे देख कुछ जरूर बोल जाते।
पानी मे काई जम रही है इससे, चालान करवाना नहीं है तो इसे यहां से हटा दे।

बारिश पड़ी तो उसकी हल्की कमजोर झड़ियां और भी हरी हो गई।
लगता था जैसे बिन मुराद के पैदा हुई लड़की बड़ी हो गई।
अब उसे जवान होने पर रोक लगाई जायेगी।
अगर वो बोलने वाले के मुताबिक नहीं रही तो वो उखाड़ दी जायेगी।

वो तो शुक्र है कि छोटा सा पेड़ अभी चार साखाओं पर ही खड़ा है।
नीले आसमान के नीचे चुल चुल पानी की लकीरों पर ही पड़ा है।

लख्मी

Tuesday, July 9, 2013

मेरे पापा की रिपोर्टकार्ड

बड़े भाई काफी दिनो से गाडी लेने की सोच रहे थे। जिसके लिये उन्हे अपनी महिने की तंख्या मे से कुछ-कुछ पैसा जोड़ना पड रहा था। अक्सर वो किसी मिंया-बीवी को मोटर साइकिल पर बैठे देखते तो एक चाहत सी अन्दर उमड़ पड़ती और कई सपने उसकी तरंगो मे पमपने लगते। लेकिन इतना पैसा होना शायद मुमकिन ही लग रहा था तो किसी से बात करके बैंक से लोन उठाने की कशकस मे लगे हुये थे। बड़े भाई साहब अपने सपनो को पालने के साथ-साथ एक अच्छे पिता भी है दो बच्चो के उनके प्रति वो बड़े सर्तक रहते है। अक्सर अपने बच्चो की जब भी रिर्पोटकार्ड हाथो मे आती है तो एक लम्बा भाषण बडे प्यार से दे डालते है। प्यार से भरे इन शब्दो मे इस चिकने लठ की मार शरीर पर तो नही लगती पर जहन मे और जमीर पर तो अपनी छाप जरुर छोड देती है। और लगे हाथ वो अपने बीते स्कूली दिनो की बातों और कहानियो को भी सुना डालते है। जो नसिहत के तौर पर होती है पर सुनने मे पता नही लगता कि आखिर मे क्या कहने की कोशिशे कर रहे है?  

बडे भाई साहब अपनी इन बातो मे बीते दिनो की हल्की हल्की कहानियों को चेहरे पर ला ही देते है। एक दिन बच्चो की रिर्पोट कार्ड हाथो मे लिये खड़े थे। बच्चे अपनी रिर्पोट लार्ड पर उनके हस्ताक्षर कराने के लिये लाये थे। लेकिन इन्हे खाली साइन ही नही करना था। थोडा नजर भी तो डालनी थी। ओर अगर कुछ बोला नही नम्बरो के बारे मे तो फिर पिता का रौब क्या रहा 

नम्बरो को देखते ही बोले, "ये क्या नम्बर है? बेटा अगर यही हाल रहा तो फाइनल पेपरो मे क्या हाल होगा? किसी भी पेपर मे 50 परसेन्ट से भी नम्बर नहीं है। मै क्या देखु इसे, और क्या साइन करु? अपनी मां से ही कराले। मालुम है तुम्हारी उम्र मे हम खेलने के अलावा पढाई पर भी ध्यान देते थे और मेरे नम्बर हमेशा 75 परसेन्ट से भी ज्यादा नम्बर आते थे। मेरा टीचर हमेशा मुझे आगे वाले डेक्स पर ही बिठाता था। और ये क्या है?"


इतना तो वो हमेशा कहते ही थे और हल्की सी झलक अपने बीते दिन की भी रख देते थे। मगर आज तो किसी और ही धून मे थे। जिससे  लोन की बात की थी उसने कल के लिये बुलाया था। शाम से ही अपने डोकोमेन्ट को इकठ्टा करने मे जुटे हुये थे। अपनी अटेची को जमीन पर रखे दोनो हाथो से उसमे कुछ खरोर रहे थे। उनकी बीवी भी अलमारी मे पुराने पर्स और लोकर मे लगी नीले रगं की पन्नी मे से कुछ पेपर निकाल कर देख रही थी।वहीं साथ ही बिखरे पेपरो मे बच्चे भी न जाने क्या क्या उठाकर देख रहे थे? ऐसे मे कुछ जरुरी कागजो मे कुछ वो कागज भी मिल जाते है जिनमे खाली यादें ही नही बल्की एक लम्बी जिन्दगी का हिस्सा बसा हो यानि के दस से पंद्रहा साल। सभी कागजो मे व्यसत हो रहे थे। तभी उनके लडके के हाथ बड़े भाई साहब की रिर्पोट कार्ड लग गई। वो उसे अपने हाथों मे लेकर पढने लगा पढते=पढते वो पुरे कमरे मे घूम रहा था।

हिन्दी मे 34, गाणित मे 2, अग्रेजी मे 23 जब वो इसे पढ रहा था तो सभी की नजर बडे भाई साहब पर थी और सभी हसं भी रहे थे। बड़े चाव से लडका बार-बार नम्बरो को दोहरा रहा था। मगर बड़े भाई साहब जान बूझ कर पेपरो मे खोये का नाटक कर रहे थे। इन नम्बरो और उनके चेहरे को देखकर सब सोच रहे थे कि उन बडी-बडी बातो, कहानियो ओर उन दिनो के पीछे कोन सा शख़्स था? ओर पेपरो मे खोने वाला, बाइक की चाहत रखने वाला, और इस समय रिर्पोट कार्ड के नम्बरो मे कोन सा शख़्स है?

तभी उनके लड़के ने कहा "पापा इतने कम नम्बर ये आपकी रिर्पोट कार्ड है? तो वो उससे छीनते हुये बोले, "अरे ये तो बहुत पुरानी है।।।


लख्मी