दूर से ही देख रही थी वो बांस की मजबूत कुर्सी और उसके बगल मे रखी वो टेबल जिसके ऊपर अगर हाथ रखकर कोई खड़ा भी हो जाये तो टूटकर नीचे ही गिर जायेगी। लेकिन अभी कुछ देर के बाद मे वहाँ पर भीड़ ऐसे टूट कर पड़ेगी के उसको रोकना यहाँ किसी के बस का नहीं होगा।
वो वहीं पर उस टेबल से कुछ ही मीटर की दूरी पर बैठे थे। ये उनका काम नहीं था लेकिन उनके पास इस काम के अलावा इस समय कुछ और करने को ही नहीं था इसलिये रोज़ सुबह निकल पड़ते और कईओ की दुआये लेते हुये उस जगह पर बैठ जाते। उनके हाथ दुख जाते मगर यहाँ पर बोल खत्म होने का नाम ही नहीं लेते थे और उनका काम था उन बोलों को शब्दों मे उतारना। कुछ इस तरह उतारना की पढ़ने वाले को उनके अन्दर दबे दर्द का बखूबी अहसास हो जाये और जिसके लिये उन बोलों को शब्दों के जरिये शहर में उतारा जा रहा है वो नंगे पाँव बस होता चला जाये।
उनके नाम के बिना ही उनको लोग जानने लगे थे और वो भी नाम के साथ किसी को नहीं जानते थे। ये इस वक़्त मे बनने वाले ऐसे रिश्ते थे जो लम्बे बहुत रहेगें लेकिन कभी एक - दूसरे पर जोर नहीं डालेगें। एक - दूसरे को खोजेगें जरूर लेकिन खोने से घबरायेगें भी नहीं। दूर हो जाने से उदास जरूर होगें लेकिन हताश नहीं हो जायेगें। यहाँ चेहरे की पहचान बिना नाम जाने थी और नाम की पहचान बिना चेहरे के। फिर भी इनकी उम्र इतनी थी के जगह को अपनी उम्र देकर उसकी जिन्दगी बड़ा देती।
रिश्ते, कितने मीठे और सूईदार होते हैं? ये हम वियोग या योग मे कह भी दे तो उसमें बहस करने की कोई बात नहीं है। ये तो सम्पर्ण करने के सामन होता है। जिसके करीब उतना ही मीठा और जिसके बहुत करीब उतना ही सूईदार। जिससे दूर जाना उतना ही मीठेपन का अहसास कराता और उससे बेहद दूर जाना उतना ही सूईदार। कोई अगर ये कह दे तो क्या उससे लड़ने जाया जा सकता है? ये तो वे अहसास से जो बिना माने या मानने से इंकार भी किये सफ़र कर ही जाता है। इसमे "मेरी" "तेरी" की भी लड़ाई हो सकती है और लड़ाई हो भी क्यों भला? ये जीवन की वे लाइने हैं जिसमें दोनों ओर से न्यौता खुला होता है। बिलकुल फिल्मों के उन गानों की तरह जो न तो किसी हिरोइन के लिये गाये जाते हैं और न ही किसी हीरो के लिये। मतलब वे गाने फिल्म के किसी क़िरदार के लिये नहीं होते। वे तो जीवन का कोई हिस्सा पकड़कर उसके मर्म के लिये गाये जाते हैं। उसका अहसास गाने वाले के लिये भी होता है, गाने पर अदाकारी करने वाले के लिये भी, गाना लिखने वाले के लिये भी और गाना सुनने वालों के लिये भी।
वो वहीं पर उस टेबल से कुछ ही मीटर की दूरी पर बैठे थे। ये उनका काम नहीं था लेकिन उनके पास इस काम के अलावा इस समय कुछ और करने को ही नहीं था इसलिये रोज़ सुबह निकल पड़ते और कईओ की दुआये लेते हुये उस जगह पर बैठ जाते। उनके हाथ दुख जाते मगर यहाँ पर बोल खत्म होने का नाम ही नहीं लेते थे और उनका काम था उन बोलों को शब्दों मे उतारना। कुछ इस तरह उतारना की पढ़ने वाले को उनके अन्दर दबे दर्द का बखूबी अहसास हो जाये और जिसके लिये उन बोलों को शब्दों के जरिये शहर में उतारा जा रहा है वो नंगे पाँव बस होता चला जाये।
उनके नाम के बिना ही उनको लोग जानने लगे थे और वो भी नाम के साथ किसी को नहीं जानते थे। ये इस वक़्त मे बनने वाले ऐसे रिश्ते थे जो लम्बे बहुत रहेगें लेकिन कभी एक - दूसरे पर जोर नहीं डालेगें। एक - दूसरे को खोजेगें जरूर लेकिन खोने से घबरायेगें भी नहीं। दूर हो जाने से उदास जरूर होगें लेकिन हताश नहीं हो जायेगें। यहाँ चेहरे की पहचान बिना नाम जाने थी और नाम की पहचान बिना चेहरे के। फिर भी इनकी उम्र इतनी थी के जगह को अपनी उम्र देकर उसकी जिन्दगी बड़ा देती।
रिश्ते, कितने मीठे और सूईदार होते हैं? ये हम वियोग या योग मे कह भी दे तो उसमें बहस करने की कोई बात नहीं है। ये तो सम्पर्ण करने के सामन होता है। जिसके करीब उतना ही मीठा और जिसके बहुत करीब उतना ही सूईदार। जिससे दूर जाना उतना ही मीठेपन का अहसास कराता और उससे बेहद दूर जाना उतना ही सूईदार। कोई अगर ये कह दे तो क्या उससे लड़ने जाया जा सकता है? ये तो वे अहसास से जो बिना माने या मानने से इंकार भी किये सफ़र कर ही जाता है। इसमे "मेरी" "तेरी" की भी लड़ाई हो सकती है और लड़ाई हो भी क्यों भला? ये जीवन की वे लाइने हैं जिसमें दोनों ओर से न्यौता खुला होता है। बिलकुल फिल्मों के उन गानों की तरह जो न तो किसी हिरोइन के लिये गाये जाते हैं और न ही किसी हीरो के लिये। मतलब वे गाने फिल्म के किसी क़िरदार के लिये नहीं होते। वे तो जीवन का कोई हिस्सा पकड़कर उसके मर्म के लिये गाये जाते हैं। उसका अहसास गाने वाले के लिये भी होता है, गाने पर अदाकारी करने वाले के लिये भी, गाना लिखने वाले के लिये भी और गाना सुनने वालों के लिये भी।
उनके पास इतने पेपर पड़े होते जितने की उस टेबल पर नहीं होते थे। वे लगातार लिख रहे थे। क्या लिख रहे थे उन्हे ये मालुम था लेकिन सो मे से कितने अलग है वे नहीं। विषय एक जैसा होता, मगर उसके नीचे बनी वे चार लाइने कहीं भी ले जाने का दम भरती थी। इन कागजो को भरने की कोई किमत नहीं थी और न ही कोई ये किमत अदा कर सकता था। वे कागज और उनपर लिखी वे चार लाइनें उन भेदों को भी खुलेआम खोलकर रख देती जो कई समय से दिल के अंदर बसी मीलों का सफर कर रही थी। कई जगहें बदलकर यहाँ तक आई थी और न जाने कितनी और आगे जायेगीं। कोन कहाँ से क्या लाया है और कोन किसके साथ क्यों आया है? कोन कैसे यहाँ आया है और कोन किसको कहाँ लेकर जायेगा? ये सब भरा हुआ था। इसको अगर यहाँ आज खोल दिया तो इसकी मौत निश्चित है फिर मरे हुए के सामने हम रोने के अलावा क्या कर सकते हैं? या उसे कुछ देर दोहराकर भूल जाने के लिये तैयार हो जाते हैं और अगर दोहराकर भूलकर जाने के लिये ये सब दोहराया जायेगा तो इसका जिन्दा रहना जरूरी है। इसलिये इसको इतना ही गाया जाये तो ठीक है नहीं तो मिलने की मिठास खत्म हो जायेगी।
पुछताछ की मार से सभी यहाँ अच्छी तरह से वाकिफ हो गये थे। सबको अंदाजा हो गया था की यहाँ कोन कब आकर क्या पूछेगा? और हमें किन बातों और जवाबों के लिये तैयार रहना है। इसी को यहाँ पर सभी ने खेल बना लिया था। हर कोई जैसे मसखरी करने के लिये कोई रूप धारण करना चाहता था। जहाँ पर सभी किसी मोहर के नीचे दब जाने का खौफ पालते थे वहीं पर वो सभी मे उसका लुफ्त बाँट रही थी। वे अपनी गली की सबसे मसखरी औरत थी। मजा तो जैसे उनके शरीर का ही हिस्सा था। हर कोई उनको जानता था मगर कोई ये नहीं जानता था की आज और कल के बीच मे उनके खुरापाती दिमाग मे कोनसी छेड़खानी जन्म ले लेगी और वो उस दिमाग को हमेशा खाली और शांत रखती जिससे उनको खेलना है। सारे कागजात लेकर जब सारे मर्द लोग जमीन और जगह के लिये निकल जाते तो उनका खेल शुरू होता।
वो बिना किसी को बताये तैयार हो रही थी। आज खास बात ये थी के आज वो अपने घर मे नहीं थी। उनके घर मे तो उनको कोई न कोई पूछने जरूर चला आयेगा ये वो भली भांति जानती थी तो आज उन्होने पड़ोस वाले घर की छत को चुना। वहाँ पर उनके ऊपर वाले कमरे मे कोई नहीं आता था। गर्मी मे वो छोटा सा छप्पर वाला कमरा किसी भट्टी के जैसा जो हो जाता था। इसलिये उस कमरे को तपने के लिये अकेला छोड दिया जाता। लेकिन इन्होने उस ताप को अपने तैयारी का सबसे मजबूत अंग समझा।
कोई शीसा नहीं था और न ही कोई मेकप। वे सादगी से खेलना और उसी से खेल को ताजा रखना जानती थी। एक बहुत बड़ी कमर वाली पेंट को पहनने की कोशिश कर रही थी। साथ मे उनकी वही पड़ोसन जो उन्हे वो पेंट पहने मे मदद करती। सब कुछ ठीक था लेकिन कमर का कोई हल नहीं था। लम्बाई को मोड़कर अन्दर की तरफ मे कर लिया था। वहीं मोडने के बाद मे एक पीन लगाकर उसे मजबूती दे दी थी। लम्बाई तो बिलकुल कस गई थी। लेकिन कमर का क्या करे? वे पेंट को कसते हुये आपस मे कुछ न कुछ बोले जा रही थी। कभी पेंट को गाली बकती तो कभी मजे मे कुछ भी बोल जाती। पेंट को उन्होने छोड़ पहले कमीज पहनने की सोची। मियाँ की कमीज भी ले आई थी वे साथ मे। पहले तो उनकी पडोसन ने आज के बारे मे जब उनसे पूछा कि आज क्या करने वाली है तो वो कुछ बोली नहीं लेकिन बस, मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने का इशारा किया और साथ देने को हाथ बड़ा दिया।
इनके हाथ मे पेंट और कमीज देखकर वो कुछ समझ तो गई थी लेकिन कुछ ज्यादा नहीं। कमीज और पेंट उनके मियाँ के कम्पनी की वर्दी की थी। जिसे पहनने की ये कोशिश कर रही थी। कमीज तो उनपर ठीकठाक आ गई। बस, पेंट को कसना बाकी रह गया था। वे पेंट की कमर को दोनों हाथो मे पकड़ते और मोडते हुये बोली, “मर्दों की भांड़ी बहुत चौडी हो जाती है पता नहीं क्या उसे पीटते रहते हैं क्या हर वक़्त।"
उनकी पडोसन बोली, “जी-जी पीटते तो हमारी हैं मगर चौडी सुसरों की हो जाती है।"
इतना कहकर दोनों की दोनों जोर से हँसने लगी। दोहपर का समय और गर्म होता जा रहा था। पसीनों मे दोनों की दोनों तर हो गई थी। मगर मस्ती के आगे ये सब कोन देखता है। पेंट मे उन्होनें रस्सी बाँधकर उसके कस लिया। कमीज को अंदर डाला और हाथों मे लिया एक पन्ना, साथ मे पडोसन ने लिया एक डंडा और दोनों की दोनों तैयार हो गई गली के अंदर उतरने के लिये। दोनों पहले तो खूब मुस्कुराई, एक दूसरे को देखती और हँसती जाती।
उनको देखकर पडोसन बोली, “जी-जी तुम तो विलायती मेम लग रही हो, कहीं कोई विलायती न पकड़ले तुम्हे?”
वे बोली, “अब क्या करेगा पकड़ के, सब कुछ तो फुक गया। अब तो राख बची है।"
दोनों के अंदर उनकी नियत का कोई दायरा नहीं था। आज कुछ होने वाला था शायद। गली मे इस वक़्त खाली औरतों के अलावा कोई नहीं होता था। तो वे इस वक़्त को जीना चाहती थी। ये दिन उनका आज का पहला या आखिरी भी नहीं था। उनका तो ये रोज का खेल था। जिसे वे बड़े मस्तभरे अंदाज से करती थी। जिसमें उनको कोई छू नहीं सकता था। ये उनको अंदर से और ऊपर से मिला कोई निहायती खूबसूरत तोहफा था। जब गली गली नहीं थी, काम काम नहीं था, समय न भरा और न खाली था, सरकारी आदमी भी नहीं आते थे। तब इस वक़्त के साथ क्या किया जाये? क्या इसे खाली छोड दिया जाये मरने के लिये या इसे जिया जाये? क्या इसे भी सोकर बिता दिया जाये या रात की तरह इसे भी जगाया जाये? न जाने क्या-क्या तमन्नाएँ होगी उनके दिल में तब ये दिन और रात उनके आँचल के इशारे पर चलते थे।
वे बीच वाले एक घर के दरवाजे पर गई और दरवाजे मे बहुत जोरों से हाथ मारते हुए एक कसी हुई आवाज़ मे बोली, “हाँ, रे कोन है अन्दर? बाहर निकलों, सरकारी आदमी आये है?”
उनकी पहली आवाज़ मे कोई बाहर नहीं आया। वे दोबारा से बोली, “अरे बाहर आते हो या हम घर को तोड़ दे?”
इस आवाज़ को सुनकर एक औरत बाहर आई और आते ही हँसने लगी। वे उनको हँसते देखकर बोली, “अरे हमारे चेहरे पर क्या रंग पुता है जो देखकर हँस रही है। बता तेरे खसम का नाम क्या है और वो करते क्या है?”
वो औरत भी उनकी मस्ती मे घुलते हुए बोली, “जी हम अपने मर्द का नाम नहीं ले सकते। क्योंकि हमारे मर्द मे कोई अच्छी बात न है।"
वे बोली, “अरी बात न है तो क्या वो तेरा खसम नहीं रहेगा क्या?”
वो औरत अपने सीने पर हाथ रखते हुए बोली, “हाए, तुम ही ले जाओ अपने साथ कलेक्टर बाबू।"
वे उस औरत के हँसने और आहें भरने को देखते हुए दूसरे दरवाजे पर खिसक गई। दूसरे दरवाजे पर जाकर बोली, “कोई है घर मे तो बाहर आओ, सरकारी बाबू आये हैं। घर का पता बताओ और मर्द का नाम बताओ।"
अंदर से एक औरत निकली और बोली, “अरे कलेक्टर बाबू क्या बात है हर रोज़ दोहपर मे चले आते हो हम सबके मर्दों के जाने के बाद क्या बात है। कहीं कुछ लुटने के इरादे तो नहीं है तुम्हारे।"
इस बात के बाद तो जैसे पूरे माहौल मे हँसी की गूंज फैल जाती औ हर दरवाजा तुरंत ही खुल जाता। सबके मन मे इनके इस मौज़ का अहसास बखूबी रंग लाता। ये अपने इस मर्दाना मुद्रा के बल पर सभी औरतों को अपनी बाहों मे भरती और कोई गीत छेड़ देती। फिर तो जैसे नाच और गीतों की ऐसी धून छिड़ती के उसके दोपहर का ये वक़्त किसी ऐसी रात मे बदल जाता जिसको कोई छू नहीं सकता और जिसमे कोई किसी का कोई खास रिश्तेदार नहीं होता। वे बस, छुपकर और खुलकर खेलने और झूमने के बनी होती है।
वे बीच गली मे खड़ी हो जाती है और हर दरवाजे से एक और पूरा मुँह ढककर उनके करीब आती और उनकी बाहों मे गिर जाती। ये भी उनको इस तरह से अपने सीने से लगाती है जैसे कोई फिल्म का हीरो अपनी महबूबा को अपने गले से लगा रहा हो। कोई औरत उनके हाथ से डंडा छीनकर नाचती तो कोई उनकी कमीज के बटन खोलकर उनको सताती। लेकिन कुछ वक़्त के लिये ये गली उस मंच की भांति बन जाती जिसमें कोन क्या करेगा ये किसी को पता नहीं होता था। लग रहा था जैसे बारात के जाने के बाद मे उस रात का जन्म हो गया है जो और दूल्हा और दूल्हन बनकर सुहागरात के किस्सो को दोहराती है। वे कहानियाँ और दुनिया उभरने लगती हैं जिसमें रात के वे सभी किस्से जो कहीं सिकुड़ी चादरों और सलवटों मे दबे रहते हैं। ये पल उन्हे जमीन की ताप और जिस्म की ठंडक मे लाकर परोस देता है और कुछ पल की ये मस्ती याद मे रहने के बाद भी सब कुछ भूल जाने को जिद् करती है।
यहाँ पर हर रोज कोई कलेक्टर बन जाती तो कोई सिनेमा दिखाने वाली लेकिन ये किसी खास से सामने नाचने या किसी खास मौके की तालश मे रहने के समान नहीं होता था। वैसे अगर पलों को जीना है तो किसी बड़ी खुशी के इंतजार मे छोटी खुशियाँ का गला नहीं दबाया जाता। आसपास छोटी-छोटी खुशियों की भरमार है उनकी मौत भी बड़ी खुशी के इंतजार को बड़ा देती है। ये पल उन छोटी-छोटी खुशियों से पिरोये जा रहे थे जिनको शायद किसी बड़ी याद मे रहने की जगह न मिले मगर इस याद का दम और वज़न उस तमाम यादों से भारी और दमदार होगा जो बड़ी खुशी से बनी होगी। जब जगह मे नये-नये चेहरे और शख़्श दबादब आते जा रहे थे तब उनके काम को भी इन खुशियों का हिस्सा बनाया जा रहा था। ऐसा कोई नहीं था जो इन माहोलों से अंजान और बेगुनाह था।
जैसे - जैसे दिन और रात अंधेरे और उजाले से जाने जाते थे वैसे ही पलो और जगह के लिये ये महज़ इस बँटवारे से नहीं थे। यहाँ पर तो जैसे समा और मौज़ दोनों की शादी ही हो गई थी। ऐसी शादी जिसको एक छत, एक कमरे और एक बिस्तर की जरूरत नहीं थी और ना ही ऐसे रिश्तों की जिनसे बाहर रास्ता दिखना बंद हो जाता है। ये तो उस नाते की बात थी जिसमे खाली छुअन का अहसास ही उस रिश्ते की नाज़ुकता को ज़िन्दा रख पाता था।
यहाँ पर ये समझना बेहद मुश्किल था की रात किसके लिये है और दिन किसके लिये। लेकिन हर जिस्म दिन की थकावट से जूझकर जब जमीन पर कदम रखता तो असल मे पाँव जमीन मे रखने के जैसे नहीं हो सकते थे। यहाँ पर काम और थकावट से शरीर इतना दूर हो जाता था की मुँह से निकली बात कुछ इस तरह की बन जाती जैसे शरीर और ज़िन्दगी को चीर कर बाहर निकलना चाहती है। हर रात का जन्म होता, “साला रात तो अपनी है।" और कुछ अंधेरा होता फिर चमक। एकदम उस नशवॉक के नशे की तरह जिसमे अगर ज़िंदगी का कुछ ही समय भी मिले जीने के लिये तो भी चमक के अहसास मे जीया जाये। नशा उनकी जान ले लेगा ये किसी को सोचना नहीं था और न ही जीने के लिये कितना समय मिला है वे भी। बस, वे हर रात मे उस नशवॉक के नशे को चख रहे थे। उनको उसी मे मज़ा आता था। इस दौरान गली के अन्दर का हिस्सा तो था लेकिन गली के बाहर का कोई कोना नहीं था। क्योंकि कोने का मकान कोनसा है ये किसी को नहीं पता था तो गली का कोना असल मे कोना नहीं किसी खुले मैदान की तरह से था।
जमीन को गर्म कर दिया गया था। आग की जरूरत नहीं थी लेकिन इस गर्मी के मौसम मे आग खाली जमीन से उस भवक को निकालने का काम करती जो यहाँ पर आये लोगों के अंदर भी उतनी ही जमा थी। हर रात की तरह से आज की रात भी लोगों से लबालब हो गई। आज कोन कहाँ से आया है ये भी किसी को पता नहीं था। वैसे ये जानने की यहाँ पर किसी को कोई जरूरत भी नहीं थी।
किसी के हाथ मे चिमटा था तो किसी के हाथ मे मंजीरे और कोई घुटनों के नीचे ढोलक दबाये बैठा था तो कोई हाथ मे चम्मचों को थामे था। कुछ ही देर मे यहाँ पर एक ऐसा संगीत बजने वाला है जिससे काम मिलना, नहीं मिलना, काम छोड़कर आना या कोई भी समाजिक दुनिया उसकी विदाई हो जायेगी।
तभी कोई घागरा और चोली पहने उनके बीच मे कूद गया और नाचना शुरू कर दिया। उनके नाचने के काफी देर के बाद मे वहाँ पर ढोलक और चिमटों की आवाज़ गूंजी। तब तक वो घागरा चोली वाला शरीर अपने नशे मे घुल चुका था। वे घूमते-घूमते उन सारे लोगों के बीच मे से निकलता तो कभी अकेले कहीं पर गायब हो जाता। लेकिन झटके से ऐसे कूद पड़ता जैसे उन बैठे लोगों को चकमा दे रहा हो। शुरू के कुछ पलो तक तो यहाँ असलियत मे ये नहीं पता था की ये घागरा चोली मे जो नाच रहा है वे कोई औरत है या मर्द। यहाँ पर पहली बार आये जनों को तो ये पता लगाना बेहद मुश्किल होगा। बस, जान तो वो लोग गये होगें जो यहाँ के रोज़ के बाशिदें है।
उनका ठुमकना और उनका कमर को बलखाना। ऐसा मालुम होता जैसे अनेकों मुद्राओं को वो अभी आसमान मे से चुराकर लाया है और यहाँ पर बिखेर दी हैं ताकि यहाँ पर माहौल भी गुनाहगार हो जाये। मगर इस गुनाह से कोन पीछे भागना चाहता है?
हर रात ये अपनी औरत की कोई सबसे खूबसूरत पौशाक चोरी छुपे उठा लाते और उसे पहनकर यहाँ पर रंग जमाते। दिन और रात जैसे सब नितियाँ बदल रही थी। हर कोई एक दूसरे का अक्श बनकर घूम रहा था। ये चुराकर कुछ जीने की मुहीम जहाँ दिन मे उस कलेक्टर बाबू का जन्म करवाती वहीं पर ये रात मे उस दुनिया मे चले जाते जिसको दोहराना उनके लिये उतना ही मजाकी जिन्दगी के करीब ले जाता जितना की उसे याद के किसी कोने मे रखना। मगर वो ऐसे किसी अहसास से नहीं घबराते थे जिनसे जीने के रास्ते मे खलल आये।
लेकिन, उनका नाच और ये नोटकीं सिर्फ उस माहौल तक ही सीमित है ये सोचना उनके लिये शर्म से दूर रखने के समान होता होगा। यहाँ पर हर कोई जानता और खूब अच्छी तरह से पहचानता था की उस पौशाक के पीछे कोन है जो रात को याद रखने के लिये जी रहा है। सारी औरतें एक दूसरे को उस तरफ मे खींचने का काम करती और मर्द उस खिंचाव से जोश मे आते और रात उस आलम को एक साथ जीती।
कोई भी किसी के साथ एक पल के लिये ऐसे झूम सकता था जैसे माहौल और पल उनके किसी पल का इंतजार कर रही था। कुछ ही समय के पास यहाँ पर छोड़ जाने के लिये शायद कुछ न रहता हो मगर यहाँ से ले जाने के लिये बहुत कुछ होता। कल का इंतजार लेकिन उस कल का नहीं जिसको शरीर की जरूरत पड़ती है बल्कि उस कल का इंतजार जिसको आत्मा की जरूरत होती है।
कल के दिन कोन वो कलेक्टर बनेगा और रात मे कोन पौशाक चुराकर लेकर आयेगा ये न्यौता खुला रहता मगर जमीन उसी रूप मे जिन्दा रहती और अपनी गर्माहट को ताजा रखती।
लख्मी
पुछताछ की मार से सभी यहाँ अच्छी तरह से वाकिफ हो गये थे। सबको अंदाजा हो गया था की यहाँ कोन कब आकर क्या पूछेगा? और हमें किन बातों और जवाबों के लिये तैयार रहना है। इसी को यहाँ पर सभी ने खेल बना लिया था। हर कोई जैसे मसखरी करने के लिये कोई रूप धारण करना चाहता था। जहाँ पर सभी किसी मोहर के नीचे दब जाने का खौफ पालते थे वहीं पर वो सभी मे उसका लुफ्त बाँट रही थी। वे अपनी गली की सबसे मसखरी औरत थी। मजा तो जैसे उनके शरीर का ही हिस्सा था। हर कोई उनको जानता था मगर कोई ये नहीं जानता था की आज और कल के बीच मे उनके खुरापाती दिमाग मे कोनसी छेड़खानी जन्म ले लेगी और वो उस दिमाग को हमेशा खाली और शांत रखती जिससे उनको खेलना है। सारे कागजात लेकर जब सारे मर्द लोग जमीन और जगह के लिये निकल जाते तो उनका खेल शुरू होता।
वो बिना किसी को बताये तैयार हो रही थी। आज खास बात ये थी के आज वो अपने घर मे नहीं थी। उनके घर मे तो उनको कोई न कोई पूछने जरूर चला आयेगा ये वो भली भांति जानती थी तो आज उन्होने पड़ोस वाले घर की छत को चुना। वहाँ पर उनके ऊपर वाले कमरे मे कोई नहीं आता था। गर्मी मे वो छोटा सा छप्पर वाला कमरा किसी भट्टी के जैसा जो हो जाता था। इसलिये उस कमरे को तपने के लिये अकेला छोड दिया जाता। लेकिन इन्होने उस ताप को अपने तैयारी का सबसे मजबूत अंग समझा।
कोई शीसा नहीं था और न ही कोई मेकप। वे सादगी से खेलना और उसी से खेल को ताजा रखना जानती थी। एक बहुत बड़ी कमर वाली पेंट को पहनने की कोशिश कर रही थी। साथ मे उनकी वही पड़ोसन जो उन्हे वो पेंट पहने मे मदद करती। सब कुछ ठीक था लेकिन कमर का कोई हल नहीं था। लम्बाई को मोड़कर अन्दर की तरफ मे कर लिया था। वहीं मोडने के बाद मे एक पीन लगाकर उसे मजबूती दे दी थी। लम्बाई तो बिलकुल कस गई थी। लेकिन कमर का क्या करे? वे पेंट को कसते हुये आपस मे कुछ न कुछ बोले जा रही थी। कभी पेंट को गाली बकती तो कभी मजे मे कुछ भी बोल जाती। पेंट को उन्होने छोड़ पहले कमीज पहनने की सोची। मियाँ की कमीज भी ले आई थी वे साथ मे। पहले तो उनकी पडोसन ने आज के बारे मे जब उनसे पूछा कि आज क्या करने वाली है तो वो कुछ बोली नहीं लेकिन बस, मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने का इशारा किया और साथ देने को हाथ बड़ा दिया।
इनके हाथ मे पेंट और कमीज देखकर वो कुछ समझ तो गई थी लेकिन कुछ ज्यादा नहीं। कमीज और पेंट उनके मियाँ के कम्पनी की वर्दी की थी। जिसे पहनने की ये कोशिश कर रही थी। कमीज तो उनपर ठीकठाक आ गई। बस, पेंट को कसना बाकी रह गया था। वे पेंट की कमर को दोनों हाथो मे पकड़ते और मोडते हुये बोली, “मर्दों की भांड़ी बहुत चौडी हो जाती है पता नहीं क्या उसे पीटते रहते हैं क्या हर वक़्त।"
उनकी पडोसन बोली, “जी-जी पीटते तो हमारी हैं मगर चौडी सुसरों की हो जाती है।"
इतना कहकर दोनों की दोनों जोर से हँसने लगी। दोहपर का समय और गर्म होता जा रहा था। पसीनों मे दोनों की दोनों तर हो गई थी। मगर मस्ती के आगे ये सब कोन देखता है। पेंट मे उन्होनें रस्सी बाँधकर उसके कस लिया। कमीज को अंदर डाला और हाथों मे लिया एक पन्ना, साथ मे पडोसन ने लिया एक डंडा और दोनों की दोनों तैयार हो गई गली के अंदर उतरने के लिये। दोनों पहले तो खूब मुस्कुराई, एक दूसरे को देखती और हँसती जाती।
उनको देखकर पडोसन बोली, “जी-जी तुम तो विलायती मेम लग रही हो, कहीं कोई विलायती न पकड़ले तुम्हे?”
वे बोली, “अब क्या करेगा पकड़ के, सब कुछ तो फुक गया। अब तो राख बची है।"
दोनों के अंदर उनकी नियत का कोई दायरा नहीं था। आज कुछ होने वाला था शायद। गली मे इस वक़्त खाली औरतों के अलावा कोई नहीं होता था। तो वे इस वक़्त को जीना चाहती थी। ये दिन उनका आज का पहला या आखिरी भी नहीं था। उनका तो ये रोज का खेल था। जिसे वे बड़े मस्तभरे अंदाज से करती थी। जिसमें उनको कोई छू नहीं सकता था। ये उनको अंदर से और ऊपर से मिला कोई निहायती खूबसूरत तोहफा था। जब गली गली नहीं थी, काम काम नहीं था, समय न भरा और न खाली था, सरकारी आदमी भी नहीं आते थे। तब इस वक़्त के साथ क्या किया जाये? क्या इसे खाली छोड दिया जाये मरने के लिये या इसे जिया जाये? क्या इसे भी सोकर बिता दिया जाये या रात की तरह इसे भी जगाया जाये? न जाने क्या-क्या तमन्नाएँ होगी उनके दिल में तब ये दिन और रात उनके आँचल के इशारे पर चलते थे।
वे बीच वाले एक घर के दरवाजे पर गई और दरवाजे मे बहुत जोरों से हाथ मारते हुए एक कसी हुई आवाज़ मे बोली, “हाँ, रे कोन है अन्दर? बाहर निकलों, सरकारी आदमी आये है?”
उनकी पहली आवाज़ मे कोई बाहर नहीं आया। वे दोबारा से बोली, “अरे बाहर आते हो या हम घर को तोड़ दे?”
इस आवाज़ को सुनकर एक औरत बाहर आई और आते ही हँसने लगी। वे उनको हँसते देखकर बोली, “अरे हमारे चेहरे पर क्या रंग पुता है जो देखकर हँस रही है। बता तेरे खसम का नाम क्या है और वो करते क्या है?”
वो औरत भी उनकी मस्ती मे घुलते हुए बोली, “जी हम अपने मर्द का नाम नहीं ले सकते। क्योंकि हमारे मर्द मे कोई अच्छी बात न है।"
वे बोली, “अरी बात न है तो क्या वो तेरा खसम नहीं रहेगा क्या?”
वो औरत अपने सीने पर हाथ रखते हुए बोली, “हाए, तुम ही ले जाओ अपने साथ कलेक्टर बाबू।"
वे उस औरत के हँसने और आहें भरने को देखते हुए दूसरे दरवाजे पर खिसक गई। दूसरे दरवाजे पर जाकर बोली, “कोई है घर मे तो बाहर आओ, सरकारी बाबू आये हैं। घर का पता बताओ और मर्द का नाम बताओ।"
अंदर से एक औरत निकली और बोली, “अरे कलेक्टर बाबू क्या बात है हर रोज़ दोहपर मे चले आते हो हम सबके मर्दों के जाने के बाद क्या बात है। कहीं कुछ लुटने के इरादे तो नहीं है तुम्हारे।"
इस बात के बाद तो जैसे पूरे माहौल मे हँसी की गूंज फैल जाती औ हर दरवाजा तुरंत ही खुल जाता। सबके मन मे इनके इस मौज़ का अहसास बखूबी रंग लाता। ये अपने इस मर्दाना मुद्रा के बल पर सभी औरतों को अपनी बाहों मे भरती और कोई गीत छेड़ देती। फिर तो जैसे नाच और गीतों की ऐसी धून छिड़ती के उसके दोपहर का ये वक़्त किसी ऐसी रात मे बदल जाता जिसको कोई छू नहीं सकता और जिसमे कोई किसी का कोई खास रिश्तेदार नहीं होता। वे बस, छुपकर और खुलकर खेलने और झूमने के बनी होती है।
वे बीच गली मे खड़ी हो जाती है और हर दरवाजे से एक और पूरा मुँह ढककर उनके करीब आती और उनकी बाहों मे गिर जाती। ये भी उनको इस तरह से अपने सीने से लगाती है जैसे कोई फिल्म का हीरो अपनी महबूबा को अपने गले से लगा रहा हो। कोई औरत उनके हाथ से डंडा छीनकर नाचती तो कोई उनकी कमीज के बटन खोलकर उनको सताती। लेकिन कुछ वक़्त के लिये ये गली उस मंच की भांति बन जाती जिसमें कोन क्या करेगा ये किसी को पता नहीं होता था। लग रहा था जैसे बारात के जाने के बाद मे उस रात का जन्म हो गया है जो और दूल्हा और दूल्हन बनकर सुहागरात के किस्सो को दोहराती है। वे कहानियाँ और दुनिया उभरने लगती हैं जिसमें रात के वे सभी किस्से जो कहीं सिकुड़ी चादरों और सलवटों मे दबे रहते हैं। ये पल उन्हे जमीन की ताप और जिस्म की ठंडक मे लाकर परोस देता है और कुछ पल की ये मस्ती याद मे रहने के बाद भी सब कुछ भूल जाने को जिद् करती है।
यहाँ पर हर रोज कोई कलेक्टर बन जाती तो कोई सिनेमा दिखाने वाली लेकिन ये किसी खास से सामने नाचने या किसी खास मौके की तालश मे रहने के समान नहीं होता था। वैसे अगर पलों को जीना है तो किसी बड़ी खुशी के इंतजार मे छोटी खुशियाँ का गला नहीं दबाया जाता। आसपास छोटी-छोटी खुशियों की भरमार है उनकी मौत भी बड़ी खुशी के इंतजार को बड़ा देती है। ये पल उन छोटी-छोटी खुशियों से पिरोये जा रहे थे जिनको शायद किसी बड़ी याद मे रहने की जगह न मिले मगर इस याद का दम और वज़न उस तमाम यादों से भारी और दमदार होगा जो बड़ी खुशी से बनी होगी। जब जगह मे नये-नये चेहरे और शख़्श दबादब आते जा रहे थे तब उनके काम को भी इन खुशियों का हिस्सा बनाया जा रहा था। ऐसा कोई नहीं था जो इन माहोलों से अंजान और बेगुनाह था।
जैसे - जैसे दिन और रात अंधेरे और उजाले से जाने जाते थे वैसे ही पलो और जगह के लिये ये महज़ इस बँटवारे से नहीं थे। यहाँ पर तो जैसे समा और मौज़ दोनों की शादी ही हो गई थी। ऐसी शादी जिसको एक छत, एक कमरे और एक बिस्तर की जरूरत नहीं थी और ना ही ऐसे रिश्तों की जिनसे बाहर रास्ता दिखना बंद हो जाता है। ये तो उस नाते की बात थी जिसमे खाली छुअन का अहसास ही उस रिश्ते की नाज़ुकता को ज़िन्दा रख पाता था।
यहाँ पर ये समझना बेहद मुश्किल था की रात किसके लिये है और दिन किसके लिये। लेकिन हर जिस्म दिन की थकावट से जूझकर जब जमीन पर कदम रखता तो असल मे पाँव जमीन मे रखने के जैसे नहीं हो सकते थे। यहाँ पर काम और थकावट से शरीर इतना दूर हो जाता था की मुँह से निकली बात कुछ इस तरह की बन जाती जैसे शरीर और ज़िन्दगी को चीर कर बाहर निकलना चाहती है। हर रात का जन्म होता, “साला रात तो अपनी है।" और कुछ अंधेरा होता फिर चमक। एकदम उस नशवॉक के नशे की तरह जिसमे अगर ज़िंदगी का कुछ ही समय भी मिले जीने के लिये तो भी चमक के अहसास मे जीया जाये। नशा उनकी जान ले लेगा ये किसी को सोचना नहीं था और न ही जीने के लिये कितना समय मिला है वे भी। बस, वे हर रात मे उस नशवॉक के नशे को चख रहे थे। उनको उसी मे मज़ा आता था। इस दौरान गली के अन्दर का हिस्सा तो था लेकिन गली के बाहर का कोई कोना नहीं था। क्योंकि कोने का मकान कोनसा है ये किसी को नहीं पता था तो गली का कोना असल मे कोना नहीं किसी खुले मैदान की तरह से था।
जमीन को गर्म कर दिया गया था। आग की जरूरत नहीं थी लेकिन इस गर्मी के मौसम मे आग खाली जमीन से उस भवक को निकालने का काम करती जो यहाँ पर आये लोगों के अंदर भी उतनी ही जमा थी। हर रात की तरह से आज की रात भी लोगों से लबालब हो गई। आज कोन कहाँ से आया है ये भी किसी को पता नहीं था। वैसे ये जानने की यहाँ पर किसी को कोई जरूरत भी नहीं थी।
किसी के हाथ मे चिमटा था तो किसी के हाथ मे मंजीरे और कोई घुटनों के नीचे ढोलक दबाये बैठा था तो कोई हाथ मे चम्मचों को थामे था। कुछ ही देर मे यहाँ पर एक ऐसा संगीत बजने वाला है जिससे काम मिलना, नहीं मिलना, काम छोड़कर आना या कोई भी समाजिक दुनिया उसकी विदाई हो जायेगी।
तभी कोई घागरा और चोली पहने उनके बीच मे कूद गया और नाचना शुरू कर दिया। उनके नाचने के काफी देर के बाद मे वहाँ पर ढोलक और चिमटों की आवाज़ गूंजी। तब तक वो घागरा चोली वाला शरीर अपने नशे मे घुल चुका था। वे घूमते-घूमते उन सारे लोगों के बीच मे से निकलता तो कभी अकेले कहीं पर गायब हो जाता। लेकिन झटके से ऐसे कूद पड़ता जैसे उन बैठे लोगों को चकमा दे रहा हो। शुरू के कुछ पलो तक तो यहाँ असलियत मे ये नहीं पता था की ये घागरा चोली मे जो नाच रहा है वे कोई औरत है या मर्द। यहाँ पर पहली बार आये जनों को तो ये पता लगाना बेहद मुश्किल होगा। बस, जान तो वो लोग गये होगें जो यहाँ के रोज़ के बाशिदें है।
उनका ठुमकना और उनका कमर को बलखाना। ऐसा मालुम होता जैसे अनेकों मुद्राओं को वो अभी आसमान मे से चुराकर लाया है और यहाँ पर बिखेर दी हैं ताकि यहाँ पर माहौल भी गुनाहगार हो जाये। मगर इस गुनाह से कोन पीछे भागना चाहता है?
हर रात ये अपनी औरत की कोई सबसे खूबसूरत पौशाक चोरी छुपे उठा लाते और उसे पहनकर यहाँ पर रंग जमाते। दिन और रात जैसे सब नितियाँ बदल रही थी। हर कोई एक दूसरे का अक्श बनकर घूम रहा था। ये चुराकर कुछ जीने की मुहीम जहाँ दिन मे उस कलेक्टर बाबू का जन्म करवाती वहीं पर ये रात मे उस दुनिया मे चले जाते जिसको दोहराना उनके लिये उतना ही मजाकी जिन्दगी के करीब ले जाता जितना की उसे याद के किसी कोने मे रखना। मगर वो ऐसे किसी अहसास से नहीं घबराते थे जिनसे जीने के रास्ते मे खलल आये।
लेकिन, उनका नाच और ये नोटकीं सिर्फ उस माहौल तक ही सीमित है ये सोचना उनके लिये शर्म से दूर रखने के समान होता होगा। यहाँ पर हर कोई जानता और खूब अच्छी तरह से पहचानता था की उस पौशाक के पीछे कोन है जो रात को याद रखने के लिये जी रहा है। सारी औरतें एक दूसरे को उस तरफ मे खींचने का काम करती और मर्द उस खिंचाव से जोश मे आते और रात उस आलम को एक साथ जीती।
कोई भी किसी के साथ एक पल के लिये ऐसे झूम सकता था जैसे माहौल और पल उनके किसी पल का इंतजार कर रही था। कुछ ही समय के पास यहाँ पर छोड़ जाने के लिये शायद कुछ न रहता हो मगर यहाँ से ले जाने के लिये बहुत कुछ होता। कल का इंतजार लेकिन उस कल का नहीं जिसको शरीर की जरूरत पड़ती है बल्कि उस कल का इंतजार जिसको आत्मा की जरूरत होती है।
कल के दिन कोन वो कलेक्टर बनेगा और रात मे कोन पौशाक चुराकर लेकर आयेगा ये न्यौता खुला रहता मगर जमीन उसी रूप मे जिन्दा रहती और अपनी गर्माहट को ताजा रखती।
लख्मी
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