Wednesday, December 30, 2009

अतीत की गाठों में आवाज़ होती हैं . .

बचपन में एक खिलौना हम खुद से बनाते थे। जो मेले में मिलने वाले और खिलौनों के जैसे शौर करने का एक ज़रिया बनता था। इस खिलौने को बनाने की विधि बहुत ही आसान होती। असल में इसमें बेकार हो जाने वाली चीज़ को कैसे खिलौने की तरह देखा जा सकता है वे था। जिसे आज हम हँसकर कह देते हैं - कबाड़ से जुगाड़।

पहले एक गिलास लो और एक फूटा हुआ गुब्बारा। गिलास के मुँह पर वो फटा गुब्बारा लगा लो। उसे कसकर खींचकर नीचे की तरफ से टाइट रब्बड़ से बाँध लो और फिर एक पतली सींक मे धागा बाँधकर उसे गुब्बारे में छेद करके गिलास में अटका दो। उसके बाद धागे में थोड़ी - थोड़ी दूरी पर गिठा बाँध दो। अब जब उस धागे को खींचते है तो हर गाँठ पर हाथ पड़ते ही आवाज़ बाहर निकल जाती।

कितना आसान है ना इस आवाज़ से खेलना और कितना आसान है किसी चीज़ को खींचना। बस, यादों में भी कई ऐसी गांठे हैं जिन्हे खींचने पर आवाज़ होती है। अपनी यादों को कसकर पकड़कर रखने वाले लोग दूसरों की यादों को सुनने की तमन्ना रखते हैं और अपनी गांठो को बिना छेड़े ही कई शौरों में शामिल होना चाहते हैं।

बीती यादों की छोटे-छोटे कंटे - फटे टूकड़ों से बने चित्र खुद को पूरा करने की कोशिश करते हैं जिनमें घूमते हैं वे तमाम सवाल जो रिश्तों की बंदिशों से बने हैं। रोज़ सुबह ताज़ा होकर घर से निकलने वाला इंसान। अपने कल को भूलकर आज को जीता है। बीते हुए कल की सारी उलझने और मुलाकातें उसके आज को मुकम्मल बनाती हैं। जिसमें वो खुद को हिम्मत वाला समझने से भी नहीं चूकता।

क्या चाहिये आखिर में इंसान को या पैंतरे क्या है उसके? वक़्त के हर हादसे को खींचकर लम्बा करने की उसकी बेइंतिहा कोशिश उसके हर घटते पल में तत्पर रहती है। हर हादसे उसके आज के हर समय को मजबूत करते जाते हैं। उसके अनुभव को और गहरा करते जाते हैं। उसके मुँह से निकलने वाले हर लव्ज़ को और पुख़्ता करते जाते हैं। इन सभी क्रियाओं से जब वे वापस लौटता है तो आज को दोहराने की सारी क्रियाएँ - कल पौशाक पहनकर जीती हैं। इसी रिद्दम को वो जीवन कहता है।

कल और आज की दहलीज़ पर खड़ा इंसान यादों की हर गांठ पर हँसने को जीने का सबब मानकर चलता है और अचम्भे की बात तो ये है कि इसे वो लगातार और नियमित ढंग से करता है।

लख्मी

एक कहानी - दो हँसों का जोड़ा

दो हँसो का जोड़ा एक बहुत ही गुम गाँव में रहता था। ये गाँव कई बड़े - बड़े गाँवो में जाने - आने के बीच के रास्ते में था। इसलिए लोग इसे जानते तो थे लेकिन कोई यहाँ रूकता नहीं था। हाँ, जब कभी किसी के घर पहुँचने के रास्ते में बारिश पड़ जाती या कोई रूकावट हो जाती तो लोग यहाँ पर किसी के आँगन में कुछ समय के लिए रूक जरूर जाते। मगर इसको जानने किसी के लिए जरूरी नहीं था।

गाँव के एकदम छोर पर एक घर था पूरा छप्पर का बना हुआ। वहाँ पर ये हँसों का जोड़ा रहता था। इनकी एक बेटी थी। ये दोनों बेहद बुर्ज़ुग थे। उसकी देखभाल ठीक तरह से नहीं कर सकते थे। मगर फिर भी वो उसी में अपना सारा दिन बिता देते। उसी के प्यार में दिन बितते गए और लड़की बड़ी हो चली। उनका काम इतना भी सही नहीं था की वे उसकी शादी के लिए धन-दहेज़ जुटा पाये। मगर गाँव के लोगों ने मिलकर उनकी लड़की की शादी करदी।

बिना लड़की के उनका दिन कटना बेहद मुश्किल हो चला था। उनक दोनों के पास में कुछ करने को नहीं था। जब दोपहर होती तो उनको लगता की वो अब क्या करें?

एक दिन उस बुर्ज़ुग औरत ने घर के बाहर एक चूल्हा लगाया और रोटियाँ सेकने लगी। उनका आँगन तो आने-जाने का रास्ता था ही तो जो भी वहाँ से गुज़रता वो उनको रोककर रोटी खिलाती। बदले में उनसे कुछ नहीं लेती। जो भी वहाँ पर उनके हाथ की रोटी खाता वो यही सोचता की ये औरत कुछ लेती क्यों नहीं है? सभी यही सोचते। देखते - देखते उनके यहाँ बहुत लोग आने लगे। बहुत देर बातें करते और रोटियाँ खाते। चले जाते - उनका दिन भी यूहीं कट जाता। बस, जो भी वहाँ से रोटी खाकर गुज़रता वो यही कहता, “अम्मा कभी हमारे गाँव से गुज़रों तो हमारे घर जरूर आना।"

एक दिन पिता का मन किया बेटी से मिलने का। लेकिन उनके घर खाली हाथ तो नहीं जा सकते थे। मगर कोई न कोई बहाना बनाकर जाने की सोच ही ली। उन बुर्ज़ुग औरत ने उनके लिए रोटी बनाई और पोटली में कुछ दालें, राज़मा और चने रख दिये। उन्होनें अपनी बुग्गी तैयार की और चल दिये। बस, उस अम्मा ने कहा था कि उस गाँव से निकलोगे तो वहाँ पर होते हुए जाना नहीं तो उन्हे बुरा लगेगा।

वो जिस किसी भी गाँव से निकलते तो किसी न किसी के घर जरूर जाते। वहाँ जाकर कहते, “मैं रोटी बनाने वाली अम्मा का पति हूँ। उन्होनें कहा था आपसे मिलकर जाऊँ।"

हर कोई उन्हे कुछ देर रुकने को कहता और उनकी बुग्गी में कुछ कुछ रख देता उन्हे बिना बताये। ऐसे ही वो कितनों के घर जाते और हर कोई ऐसे ही करता।

वो जब अपनी बेटी के यहाँ पहुँचे तो उन्हे बड़े प्यार से कहा, “बेटी से मिलने का मन था। जो बन पड़ा वो ले आये। बस, बेटी से दो - चार पल बात करले। खैर-ख़बर लेकर चले जायेगें। लेकिन जब उनकी बुग्गी को देखा तो वो समानों से भरी लदी पड़ी थी। सभी हैरान थे लेकिन उनको कुछ नहीं पता था।

यहाँ पर रूके हुए थे और वहाँ अम्मा और न जाने कितने राहगिरों को रोटियाँ खिला रही थी।
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ये कहानी यहीं पर ख़त्म हो जाती है लेकिन कहानी कुछ छोड़ जाती है। जब मैं ये कहानी सुन रहा था तो दिमाग में खुद को लेकर कई बातें घूम रही थी। मैं क्यों शहर में घूम रहे लोगों को अजनबी कहता हूँ?, ये अजनबी शब्द कहाँ से पैदा होता है? और क्यों होता है?
लोग एक – दूसरे में मिलते क्यों हैं?
लोग मिलने के बाद देकर क्या जाते हैं?
क्या मिलने के बाद मे कुछ देकर जाना जरूरी होता है?

ये रोटियाँ बनाना और रिश्ते का तार तैयार करना कितना आसान लगता है। जीवन के सही - गलत और जाना-पहचाना - अजनबी जैसे शब्दों को भूलकर तैरने का अहसास जगाता है। ये कोई प्रयोग नहीं था और ना ही कोई मूवमेंट। ये शहर के उस अन्जानी परत मे खुद के किसी खास तार को छोड़ देने की कसक थी। जिसे कोई भी कहीं भी कर सकता है।

लख्मी

आखिर और शुरूआत – एक विस्तार

हर वक़्त कुछ ख़त्म हो रहा है तो कुछ शुरु हो रहा होता है। लेकिन इस शुरु होने और ख़त्म होने के बीच में क्या है?

(Unknown) - अन्जानी खामोशी
कोई गुम (Beep) - धुन
कोई मद्धम सा अंधेरा
कुछ महीम सी लकीरें
फिसलन भरा वक़्त
तैरने लायक बातें
अस्पष्ट सी तस्वीरें
(Unknown Confidence) – अन्जान भरोसा
(Crash voice) – टूटी हुई आवाज़
क्षणिक पल
(Unknown vibration) – अन्जानी हलचल
(High Power) – तेज़ ताकत
(Creative Movement) – रचनात्मक पल
(Action) - टकराना

बस, किसी चीज के शुरु होते ही इन सभी की मौत हो जाती है। असल में इनकी उम्र कुछ नहीं होती। इनका जन्म लेना और टूटकर मर जाना ही इनके लिए जीवन है। एक ऐसा जीवन जिनको उन पगडंडियों पर चलना होता है जिनका कोई आधार नहीं है।

खत्म होने का दर्द और कुछ शुरू होने की खुशी मनाने वाला इंसान और इन दोनों मूवमेंट को बखूबी जानने वाला इंसान इन महीम परत से अंजान बनकर जीता है। खुद को धोका देना इंसान के लिए जीने की जड़ी बूटी साबित होता है। सांसे ले कहाँ रहा है इंसान सांसे खुद से धोका देकर छीन रहा है। लेकिन इस धोखाधड़ी में वे जिन चीजों को समीप करता है वे है उसके अतीत के वे भण्डार जिनको वे अकेले करना भी चाहें मगर अकेला नहीं कर सकता। यही उसकी बहुत बड़ी अपेक्षा है जीवन के परदों को संभालने की।

इन सबके बीच इतना तो तय है की एक बड़ी बात न जाने कितनी ही छोटी कहानियों की सांसो से पैदा होती है। उनकी आहूती से जन्म लेती है और तैयार रहती है उससे भी बड़ी बात को जन्म देने के लिए। ये सभी छोटी-छोटी दास्तानें इसी इंतजार में बैठी होती है की न जाने कब मरजाना पड़ें।

लख्मी

रुक जाने से दिखता है

कुछ देर अगर रूक जाये तो ठहराव बड़ता जाता है। लगता जैसे आपके साथ-साथ आसपास का भी सारा नज़ारा कुछ समय के लिए आहिस्तगीपन की देखरेख में जीने की लालसा रख रहा हो। फिर आहिस्ता - आहिस्ता से शरीर अपनी वापसी की मुद्रा में आने की मांग करता है। हल्की सी भी हलचल जैसे बहुत बड़ी उत्तेजना में रहती है। ठहराव के इर्द-गिर्द चल रही सारी तीव्रता अपनी नई पौशाक पहने आपके समीप आकर आपको कहीं खींच लेने की चाहत बना लेती है। फिर चाहें कितनी ही आनाकानी हो लेकिन उस तीव्र अहसास के साथ चलना ही पड़ता है। शायद यही कशमकश है - हमारी।


ऐसा मौका दिनभर में कई बार आता है। कभी इसे नकार दिया जाता है तो कभी इसे बिना पकड़ना चाहें तब भी ये शरीर की अनकही मांग पर चिपट ही जाता है।

आसपास चलते नज़ारे दिन के किसी न किसी वक़्त में अपनी रोज़ाना की चाल से जुदा होते हैं। इसका अहसास कब होता है? शायद तब जब हम खुद की रफ़्तार से उल्टा चलने लगते हैं

लख्मी

बंद कानों में भी सुनता है

कुछ देर कान बंद करके सुना, ऐसा लगा जैसे हर चीज़ आपको दबाने के लिए ज़ोर पकड़ रही हो। आँखों के सामने चलने वा‌ली हर चीज़ कई टनों का भार लिए हिल रही हो। हर कपकपाहट में गज़ब की तेजी हो। कुछ पल के लिए अगर ठहर जाये तो कोई बड़ा और घातक कदम उठाने का मौका तलाश रही हो जैसे।

हर मूवमेंट में कोई तलाश उत्पन्न होने लग जाती है और हर एक मूवमेंट में समय की कोई न कोई गहरी परत चड़ी होती है।

कोई पैनी सी आवाज़ अगर बंद कानों में चली थी आती तो उसके वज़न का अहसास होने लगता। वे अपने भाव के साथ बह जाने को कहती। न जाने आवाज़ भाव लिए होती है या खाली वे बस, आवाज़ ही होती है। बाकि सब तो हमारे कर्म हैं कि हम उसे क्या नाम देते हैं।

कानों को बंद करने के बाद में दिमाग और सराऊंड हो जाता है। खुद में आवाज़ का गोला बनाता है और उसे अपने भंवर में सफ़र करवाता है। कहीं किसी कोने में ठहरी कोई आवाज़ उस वक़्त शौर मचाने लगती है।

ये एक बंद कमरा है। बंद कमरे में बंद कान करने बैठना किसी बेरूखी की लड़ाई लड़ने से कम नहीं होता। जहाँ हर छोटी से छोटी आवाज़ किसी खतरनाक लड़ाकू विमान की भांति दिमाग से टकराने के लिए तैयार रहती है और वहाँ पर जमीं सारी परतों को ख़त्म करने के लिए ज़ोर ले रही होती है।

लख्मी

Tuesday, December 22, 2009

लम्बा जीने की चाहत

हर आदमी लम्बा जीना चाहता है। लम्बा जीने के लिए वो कई छोटे-छोटे पैमाने बनाता है। वे पैमाने क्या होते हैं? - दिन की दिनचर्या में आने और मिलने वाली कुछ समाजिक घटनायें, दोस्तों का मिलना, उनके बिछड़ने के बाद का गम, काम पर निकलने की जल्दी, किसी को छूने की कोशिश और इन अनेको पैमाने बन जाने के बाद वो खुद से पूछता है, “अपने लिए क्या करूँ?, लम्बा जीने के लिए राहें कैसे तैयार करूँ?”

बिन सवालों के जीना लगातार बेरूखी की ही तरह सही लेकिन उन्हे अपनाता जाता है। खुद से कुछ पूछ लेने के बाद – अपनी दौड़ को थोड़ा धीमा करने की चाहत में खुद से कुछ- कुछ मिलने की तमन्ना बनाने लगता है। बस, दो राहों को जीवन की गाड़ी बना लेता है। "काम और रिश्ते" ये दो पटरियाँ लम्बे जीवन की बुनाई करने में उसका सहयोग करने लगती है। "काम" – जो उसे मन्जिल-मन्जिल करवाते रटवाते कहीं दूर के अंधविश्वास में जीने चाहत देता है।

लम्बा जीवन खाली इसलिए ही नहीं होता जो उसे किसी चमक की तरफ आकृषित करता हो बल्की तंज़ तो इस बात का होता है कि मन्जिल पाने की जूनून में लम्बे अंधेरे को चीर कर उस पार जाया जाये। उस पार जाने की कोशिश मे वो कुछभी करने की चाहत बना लेता है। वो एक ऐसा पार है जिसे कोई नहीं देख पाया है आजतक – हाँ बस, अंदेशे लेकर जीना ख्याइशें बड़ा देता है।

लो - फिर तैयार हो गया लम्बे जीवन का उद्देश्य।

यहाँ इस दौर में आकर वो फिर से कुछ पूछता है, “खुद के लिए क्या जमा किया? कहीं खुद का आसपास अकेला तो नहीं रह गया?”

यहीं से होता है "तलाश" शब्द का जीवन में जन्म।
तलाश किसी अन्देखी शख़्सियत की
तलाश अपने विरोधी की
तलाश एक सहपाठी की
तलाश किसी सुनने वाले की।

लम्बे जीवन की कल्पना में 25% यानी खुद के जीवन का एक चौथाई भाग उस तलाश में खुद को झौंकने को उत्तेजित करता है।

लम्बे जीवन में नये पड़ावों का एक अंदरूनी झुकाव।

लख्मी

Wednesday, December 16, 2009

कुछ बन जाने से निज़ात

आदमी जो बन गया है उससे निज़ात पाना क्यों नहीं चाहता?

अपनी शख़्सियत को हर वक़्त गाढ़ा करके चलने वाला शख़्स हमेशा इस चालाकी में रहता है की कब खुद को नोसिखिया साबित कर और भरोसा पा सके। ये एक खास तरह का सूरतेहाल है, शहर की लगती लाइनों में कहीं जमने का हो या कहीं किसी भीड़ मे घुसने का या फिर काम और रिश्तों की आवाजाही में अपना कौना पकड़ने का।

हर रोज़ सुबह इस दावे के साथ चलने वाला शख़्स शाम होते - होते अपनी शख़्सियत के गाढ़ा हो जाने का दम भरता है। इसी सोच से आगे बड़ता है की जहाँ पर रुकना होगा वहाँ पर अपनी शख़्सियत को थोड़ा नाज़ुक और लचीलेपन में लाकर नये लोगों के बीच में दाखिल हो जायेगा।

एक लड़की ने एक तस्वीर को देखते हुए कहा, “कितना डर भरा है इसमें।"
उसके साथी ने उससे पूछा, “डर क्यों लग रहा है तुम्हे इसमें?”
वे बोली, “मेरी ज़िन्दगी के किसी पल को ये झिंजोर देता है।"

किसी एक वक़्त का पुलींदा बनाने में कई छोटे-छोटे पहलुओं का हाथ होता है। कोई वक़्त कभी अकेले कोई बड़ा और मजबूत रूप तभी ले सकता है। जब उन छोटे-छोटे वक़्त की परतों से न मिला हो। उन परतों की लड़ाई, उनका सहयोग, उनका टकराना और उनका साथ देना। उस पुलींदे को मजबूत बनाता जाता है।

लेकिन वो वक़्त का मजबूत पुलींदा आखिर में आते - आते बन क्या जाता है? क्या तस्वीरों को देखकर उन छोटे - छोटे पहलुओं की परत को चमकाने का काम करता है या टूटने के लिए छोड़ देना होता है?

ये समझना और समझाना थोड़ा मुश्किल हो जायेगा। इसे सिर्फ महसूस किया जा सकेगा।

उस साथी ने दोबारा से उस लड़की से पूछा, “तुम जो बन गई हो उसे गाढ़ा क्यों किये जाती हो?”

वे लड़की बोली, “या तो गाढ़ा करूँगी या फिर तोड़ूंगी मगर तोड़ने के बाद भी कुछ बनता ही है। वे भी तो गाढ़ा होता जाता है।"

लख्मी

कुछ घटा, पता नहीं

कुछ घटा, क्या घटा कुछ पता नहीं भरी सड़क जिसपर दौड़ लगाने, एक – दूसरे को धक्का मारने के साथ ही साथ एक – दूसरे के ऊपर चड़कर जाने को तैयार शहर हमेशा इस अचम्भे मे रहता है की क्या घटा?

घटना के बाद का एक्शन, घटना के बाद के नियम और उनपर कई समय तक चलना शहर की जिम्मेदारी है। बस, यूँही रास्ते बदलते जाते हैं। कुछ टूटा और नये नियम लागू हो जाते हैं। इसके साथ लड़ाई में रहने वाला शहर हमेशा तैयार रहता है।

घटना के बाद के चित्र देखकर घटना को कहानी की तरह सुनाना जोरों से होने लगता है। एक घटना कई ज़ुबानों और मोड़ों से शुरू होती है लेकिन कहानी का अंत एक ही जगह पर आकर रुक जाता है। कभी कहानी में भीड़ होती है तो कभी कहानी में सन्नाटा।

हर कोई कहानी के जरिये घटना का चश्मदीद गवाह बनकर शहर में घूमने लगता है।

कोई सबूत निकला, नहीं। कोई ज़िन्दा बचा - पता नहीं।

लेकिन इसके बावज़ूद भी कुछ रुक जाये ये तय नहीं होता। शहर की भागदौड़ के बीच में ये घटनायें गोल-गोल चक्की तरह से चलती हैं जिनसे निकलने वाले इंधन से शहर भागता है।

लख्मी

Saturday, December 5, 2009

एक कुत्ते को ताप कर चार लड़को ने रात काट दि ।

एक रात की बात है ।



अब हम कहाँ जाये ? ये बात उन्हे सताती रही।



हम चारों एक पेड़ के नीचे आकर खड़े हो गये ।जिसके पास से हमें गर्मी महसूस हो रही थी।
वो चारो वही थककर बैठ गयें ।



वहाँ जो आटे की बोरी का कट्टा पड़ा था उसमें से ही गर्मी नीकल रही थी वो वही हाथो
को फेला कर तापने लगें।
काली रात के सायें मे उन्हे दिन की धूप की गर्माई का अहसास हो रहा था।
शायद कुत्ता भी अपने को उनके बीच महफूज़ समझ रहा था।



तड़के ही कुत्ता उठ खड़ा हुआ और उनके बीच से नीकल भागा ......




राकेश

Monday, November 9, 2009

चार दोस्तों ने पूरी रात कुत्ते को तापकर गुजार दी....

आज की रात एक - दूसरे के हाथ पकड़कर चलने वाली रात थी। दिल्ली की आग कम थी जो यहाँ की हवाओ के बीच मे मरने चले आये थे। जगह के बनने मे ये भी करना जरूरी होता है। ये यहाँ की पहली शादी थी। बारात अपने छपे वक़्त से 2 घण्टा देरी से थी। रात मे बाजे - गाजे के साथ मे दो तीन घण्टे और बितने वाले थे। सभी कोशिश मे थे जल्दी से दावत मिल जाये तो कहीं पर सोने का जुगाड़ किया जाये।

जनमासा शादी के घर से एक किलोमीटर की दूरी पर था। सभी वहाँ पर बैठकर दावत के बुलावे का इंतजार कर रहे थे। कोई हाथो को बांधे यहाँ से वहाँ घूमता तो कोई किसी को तालशता फिरता। लेकिन इतना आसान नहीं था आज की रात मे किसी को आसानी से देखा जा सके। लोग जैसे दिखते वैसे ही धूएँ मे कहीं खो जाते। अचानक ही एक की जगह दो निकल आते तो कभी कोई भी नहीं दिखता मगर आसपास जैसे कई लोगों के होने का अहसास हर वक़्त घूमता रहता। कभी खाली आवाज़ आती तो कभी किसी की आहाट, दिल मे तभी एक खुशी सी महसूस हो जाती की कुछ भी हो हम अकेले नहीं है।

दावत खा चुके थे - जनमासा लोगो से भर गया था। सो लोगों की बारात मे कुछ 7 रजाइयाँ ही थी, लोग न जाने कैसे - कैसे उसमे घुसे हुए थे। एक - एक रजाई मे लोगों की गिनती नहीं थी। जो भी पहले आ गया था वही रजाई लेकर पड़ गया देरी से दावत खाने वाले जनमासे से बाहर ही खड़े रह गये थे।

सारे तो उस जनमासे मे सो गये लेकिन बचे चार दोस्त जो अपने लिये जगह ढूँढते रहे। पहले तो वो सोचने लगे की बाहर ही बैठ जाये मगर बिना आग के बाहर बैठना मुश्किल था। धूंध में जलाने के लिये लकड़ियाँ लाना भी आसान नहीं था। यहाँ अगर आदमी हाथ छोड़ दे तो खो जाये। उसके बाद मे आवाज़ मारकर ही उन्हे पास लाना हो। बहुत ढूँढने के बाद भी एक भी लड़की नहीं मिली।

चारों के चारों डाल हाथ मे हाथ वो निकल गये जनमासे से थोड़ा सा दूर। ठंड बड़ती जा रही थी। रात इतनी आसानी से गुज़र जाये ये भी तय नहीं था। बस, आँखें खोज़ रही थी कोई ऐसी जगह जहाँ पर बैठकर रात बिताई जाये। पूरा जनमासा घूमने के बाद मे एक ओटक वाली जगह मिली। जहाँ पर थोड़ी सी गर्माहट थी। वहीं पर उन्होने रात बिताने की ठानली। जमीन पर पड़ी एक बोरी मे बहुत तेज - तेज धूआँ निकल रहा था। गरमाहट के अहसास मे वो चारों दोस्त वहीं पर बैठ गये। जमीन पर बैठने के बाद मे तो जैसे हवाओ ने उनको छूने का काम ही बन्द कर दिया था। चारों के चारों बातों में और उस ताप के अहसास मे कहीं खो गये। पूरी रात हाथों को फैलाये ठंड को काटते हुए उन्होने रात को विदा करने की कोशिश करी।

उन चारों के घेरे मे धूएँ की परत कभी चड़ती तो कभी ख़त्म हो जाती। लेकिन हाथ जैसे उस बोरी को ढके चड़े थे। बोरी मे धूआँ भरा हुआ था। ऐसा लगता जैसे रात ने पूरी गरमाहट इसी मे भर दी हो। वो चारों अपनी बातों मे लीन हो चले, ये तक याद नहीं रहा कि उनको यहाँ पर बैठे कितना वक़्त हो गया है। पूरी रात बीत जाने के बाद मे वो वहाँ से उठने के लिये खड़े हुये और उस बोरी को भी उठाने के लिये जैसे ही हाथ बड़ाया तो उसके नीचे से एक कुत्ता बड़ी घबराहट मे उबासी भरता हुआ भाग खड़ा हुआ।

वो चारों एक – दूसरे को बड़ी भौचक्केपन से देखने लगे। पहले तो डर गये लेकिन उसके बाद मे बहुत हँसे - पूरी रात उन्होने कुत्ते को ताप कर बिता दी थी।

यही कहानी पूरे सफ़र मे रोनक रही - चार दोस्तों ने कुत्ते को तापकर पूरी रात काट दी थी।

लख्मी

पहेलियों मे समाई कहानियाँ . . .

ये कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी की वे दुनिया जो कहने और सुनाने के अहसासों मे बांटी जाती रही है। इनमें कई ऐसी पहेलिनुमा दुनिया है जिसको समझने में हर वक़्त दिलचस्पी बड़ती रहती है। इस दौरान हम कुछ ऐसे सफ़र से गुज़रेगें जिसमें हम कुछ दिमाग चलाकर आगे बढ़ेगें। थोड़ा अटकते हैं - वे कहानियाँ जिनमे हम आसानी से उतरते जाते हैं लेकिन कभी ठहरकर ये भी नहीं सोचते की वे कहानियाँ हमें कितने ऐसे लोगों से मिलवाती हैं जिनसे हम कभी मिले नहीं मगर जिसकी भी ज़ुबान से उस कहानी को सुना बस, उसी शख़्स को कभी-कभी कहानी का हीरो समझकर उस कहानी मे उड़ने लग जाते हैं।

कुछ कहानियों को बाँटना आरम्भ करते हैं -


कहानी की शुरुआत करते हैं: -

तीन भाई अपने खेतों मे बहुत खुश रहते । अपनी मेहनत और हर वक़्त को सींचने मे उन्हे बेहद आन्नद आता। उनका घर उनके खेतों से ज्यादा दूर नहीं था लेकिन फिर भी वो खाना खेतों मे ही खाते थे। दिन भर काम के आन्नद मे वो तीनों एक दूसरे से मिल नहीं पाते थे। एक खेतों मे पानी का काम करता तो दूसरा बीज देखता तो तीसरा हर वक़्त खेतों के रंगों को ही देखता रहता था।

तीनों के तीनों दोपहर मे एक पहर मे ही अपने - अपने काम के आन्नद के बारे मे बतलाते थे। जो करना उनको बेहद खुश कर देता था।

एक बार काम से थोड़ा सा निज़ात पाकर वो तीनों खाने के इन्तजार मे बैठे थे। तीनों को बेहद आराम महसूस हो रहा था। बीच वाला भाई बता रहा था कि खेतों को अब पकने मे ज्यादा वक़्त नहीं लगेगा। उनकी खुशबू और रंग निखर गया है। दो दूसरा कहता, “फिर तो पानी को बन्द करना होगा। नहीं तो सारे के सारे रंग खो देगें।

इन सभी पर बात चल रही थी। तभी उनके घर से खाना आ गया। उन तीनों ने कहा, “खाना अभी नहीं खायेगे हम, तुम जाओ हम थोड़ा आराम करले उसके बाद मे खायेगे। " उनकी बीवी खाना रखकर चली गई। वो तीनो भाई खाना यूहीं रखकर सो गये। थोड़ी देर के बाद मे उनमे से छोटा भाई उठा उसने देखा की दोनों भाई सो रहे हैं तो उसके रोटियों के तीन हिस्से किये और अपना हिस्सा खाकर सो गया। उसके बाद मे दूसरा भाई उठा - उसने भी देखा की दोनों भाई सो रहे हैं उसने भी रोटियों के तीन हिस्से किये । अपना हिस्सा खाया और खाना पैक करके सो गया। उसके बाद मे तीसरा भाई उठा। उसने देखा की दोनों भाई सो रहे हैं उसने भी रोटियों के तीन हिस्से किये। अपना हिस्सा खाया और रोटियाँ पैककर के सो गया।

अब बात अटक गई की आखिर उसमे रोटियाँ कितनी थी?

क्या हम ये जान सकते हैं....

लख्मी

सब कुछ तेर रहा था

हाथों में चप्पल पकड़े वो दरवाजे पर ही बैठी थी और दरवाजे के एक कोने में कई कॉकरेज मरे पड़े थे। अक्सर बारिशो में गली के सीवर भर जाते हैं तो सीवरों में सारे कॉकरेज बाहर निकल पड़ते हैं। जो गली में सबसे नीचे वाले घर में घुसने की फिराके में रहते हैं।
राजवती जी को ये बात बिलकुल पसंद नहीं है की बारिश का पानी उनके घर में भरे। कई तरह के वो इन्तजाम करके रखती हैं पर फिर भी वो पानी को रोक नही पाती। कभी पानी बौछारों के जरिये दरवाजे से अन्दर आता है तो कभी छत से टपकने से। दरवाजे पर तो वो छाता खोलकर लगा देती है और टपकने में सारे घर के बर्तन। बाल्टी से लेकर पतीले तक को वो पूरे घर में अलग-अलग जगह पर लगा देती हैं।

अगर दिन मे बारिश पड़े तो भी ठीक है पर रात में पड़ती है तो इनकी हालत ख़राब हो जाती है। तब तो ना नींद आती है और ना ही ध्यान आराम भरता है। वो पूरे घर को पानी से बचाती और बड़-बड़ाती रहत है और अगर लाइट चली जाए तो दुखों में जैसे उनके सोने पर सुहागा हो जाता है।

कल रात भी कुछ ऐसा ही हुआ सारे कॉकरेजो को मार वो पानी रोकने का इन्तजाम करके वहीं नीचे बाराम्दे में लेट गई और बाकी सारे तो पहले से ही नींद में खोये हुए थे। काफी देर तक तो वो दरवाजे पर ही देखती रही। हर हिलती-डुलती चीज उन्हे कॉकरेज ही लगती। यही देखते-देखते उन्हे कब नींद आई होगी उन्हे पता ही नही चला। बिना पंखे के दरवाजे से आती हवा और बाल्टी-पतीलों में टपकते पानी की आवाज किसी लोरी का काम कर रही थी। यूहीं पूरी रात बारिश पड़ती रही। आधी ही रात के बाद में पानी के टपकने की आवाज भारी हो गई थी और ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई हिला रहा है। नींद से भरे शरीर को कोई झूला रहा है। ये कोई सुबह का झूला सावन के गीतों के साथ का अहसास नहीं था। मगर फिर भी चादर ठीक से आ नही रही थी। इतने मे बगल में रखी तेल की कटोरी सिर से टकराई। राजवती जी ने उसे अपने हाथ से पीछे कर दिया। तो वो दोबारा से नीचे की तरफ से टकराई। चाहते ना चाहते उन्हे अपनी नींद तोड़नी पडी। ऑख खुलते ही नज़रें एक जगह पर रुक ही नहीं पाई। सब कुछ तैर रहा था। कटोरियां, एस्ट्रे, झाडू, पतीले, चप्पले, रात के झूठे बर्तन और उनके साथ-साथ बिस्तर भी। वो हडबडाती और बड़बडाती हुई उठी सबके बिस्तर को खीचते हुए चिल्लाई, “किसी की ऑख नहीं खुलती, एक मैं ही हूँ जो मरती रहती हूँ। देखलो आज मैं सो गई तो क्या हुआ।"

ये कहती-कहती वो पानी से बर्तनों को उठाने लगी और बाकी के लोग ये नहीं समझ पा रहे थे की अब करना क्या है? और चुपचाप ऊँचाई वाली जगह पर मुरझाए से बैठ गए।

"कब से कह रही थी की बाहर चबूतरा बनवालों पूरी गली का पानी हमारे ही घर में भरता है। मगर मेरी कोई नहीं सुनता।"

अब तो पूरा घर पानी निकालने में जुट गया था सभी छूपी चीजें बाहर निकल आई थी फ्रिज़, टीवी और टेबल के पीछे का सारा समान बाहर ही तेर निकला था। पैन, पैन्सिल, दवाइयाँ, डिब्बियाँ, पॉलिस की डिब्बी, रिब्बन, बिन्दी के पैकेट इन सब चीजों को देखकर सभी के सभी उन्हे ही चुनने मे लग गए। सभी खोया समान जैसे मिल गया था।

पानी निकालने में तो पूरा बीस मीनट लगा पर नींद आने में चार घण्टे। बारिश रूक जाने की दुआ निकलने के बाद।

"अरे राम जी फट गए हो क्या?”

लख्मी

Tuesday, October 13, 2009

दुनिया गोल है

ये मैंने आठवीं कक्षा में पढ़ा था। तब उतना समझ नहीं आता था। बस, जवाब देना जरुरी होता था। सिद्धांत प्रेक्टिकल है ये मुझे पता नहीं था। बहुत कुछ आज खुद पर जाँचकर पता चला है कि जितना सोचने में वक़्त लगता है उससे कहीं ज़्यादा अपने सामने किसी संम्भावना में इच्छा अनुसार जीने में लगता है सब गोल है।

इंसान जहाँ से चलता है एक न एक दिन उसी धरातल पर आ जाता है। वो जब अपनी यादों को झिंजोरना आरम्भ करता है तो उसे अतीत की मौज़ूदगी नज़र आती है की वो तब कहा था क्या था? और फिर वो वर्तमान को समझता है तो उसे सब पहले जैसा ही मालूम होता है क्यों ? इसान समय के कई पहलूओ में फँसकर जीता है। समय छलिया है जो तरह-तरह की लिलायें रचता और करता है जिसके प्रभाव से इसान कभी लाचार हो जाता है कभी उसे आसमान भी कम पड़ जाता है। कभी वो खुशी महसूस करता है और कभी दुख ज़िन्दगी कभी मौत से जीत जाती है कभी मौत ज़िन्दगी से।

कई रीति-रिवाजों में संकृतियों में समाज एक सामूहिक रूप से अपने स्नेह और भावनात्मकता को लेकर इंसान को स्वतंत्रत और परिस्थितियाँ पुर्ण जीवन जीने का आधिकार देता है। जो इंसान के अपने हाथों जीना होता है। वो खुद से अपने जीवन को जी सकता है। मगर उसे समाज के साथ चलता ही पड़ता है क्योंकि समाज करवा के जैसा है जिसकी भीड़ से अगर कोई निकल गया या पीछे छूठ गया तो समाज उसे भूल जायेगा और समाज से ही बने सारे रिश्ते-नाते भी वह शख़्स को विसरा (भूला) देंगे। फिर चाहें वो अपने जीवन के किसी भी आधार को क्यों न घसीटता फिरे अगर वापस समाज को पाना है तो समाज की शर्तो और उसकी न्यूनत्मता में अपने बनाना होगा। अगर समाज का दामन थामे चलोगें तो आवश्य ही जीवन का उद्दार हो जायेगा। क्यों सरकार जो मार्ग दर्शन देगी उसी मे जीवन के सारे काम जिम्मेंदारी और नैतिक स्वार्थ भी पूरा होगा। सरकार समाज के ही बीच का हिस्सा है जिसे कल्याण के लिए जीवन-शैली, में रहन-सहन और कार्य-व्यवहार में भी बदलाव लाने के लिए बनाया जाता है जिस को चलाने वाला नेता या चौधरी होता है। सब हुआ पर आम जीवन का सूर्य उदय नहीं हो पाया। आम जीवन पर और उसके चरित्र पर कई साहित्य और कथाएँ है।

कई लोगों ने जीवन की इस भूमि को अपने खून से सींचा। आन्दोलन भरे कई दौर आये और गए लोग जीए और वो किसी तारे की तरह चमके फिर बादलों में छीप गए। पर इस जीवन धरातल के ऊपर कोई पक्की बुनियाद ही नहीं बनी। जिसके ज़ोर से किसी इंसान को उसका अस्तित्व प्राप्त हो पाता फिर भी सहास लेकर इंसान अपने को हर तरह के समय के मुताबिक ढालने की कोशिश करता है। वो किसी की ज़िन्दगी में अपने मौज़ूदगी के निशान बनाता है। समाज में रहकर उसे ज़िन्दगी को एक ढ़ंग मिलता है। लेकिन इस ढ़ंग को वो आत्मनिर्भता से जीना चाहता है। जिससे सब रिश्तों और समाजिक जिम्मेदारियों में रहकर वो अपने जीवन के ऐसे मूल अनूभव जोड़ सकें जो उसके स्वरूप से ज़िन्दा हुए है। उसके ही जगाये हुए हैं।

राकेश

कोई कुछ भी कहे

ऐ गिट्टी....ऐ गिट्टी.. , वही जानी पहचानी आवाजें कानों में पड़ती जिनके लिए पीछे मुड़ना शायद जरुरी नहीं था और ना ही उन्हे सुनना। आज फूलजहाँ से छोटी उसकी बहन भाभी का भी रिश्ता तय होने वाला था। मगर उसके चेहरे पर खुशी ही नहीं बल्की खूब खिलखिलाती हसीं थी। जिसको देखकर उसके सारे रिश्तेदार उसकी बलाईयाँ ले लेते और शायद यही एक काम रह गया था उनके पास। फूलों सुबह से अपनी अम्मी के ट्रंक में से उनकी नई साड़ी पहनने की बात भी कर चुकी थी और "पूरा शिगांर करुगीं...पूरा शिगांर करुगी" की रट भी लगा चुकी थी।

एक तरफ घर में पुलाव की महक घूम रही थी लगभग पच्चीस-तीस आदमियों का खाना तो बनाना पड़ेगा "ये ले आओ...ये ले आओ" के नारे फैले थे। आज तो वैसे भी किसी के पास वक़्त नहीं था शाम की तैयारी थी। उसमें फूलों भी सुबह से चार बार साड़ी पहनती और खोलती लगा रही थी। खिलखिलाई सी वो आज सबसे खूबसूरत बनने की तैयारी में थी। बड़ी बहन की शादी में तो सुध ही नहीं थी तैयार होने की तो अब अपनी छोटी बहन कि शादी में क्यों कसर छोडे?

"अरी फूलों कहां है किसी को खबर है?” ( नीचे से किसी ने आवाज लगाई)
"अरे वो रही ऊपर साडी बाधं रही है आज तो सजकर ही नीचे उतरेगी ये।" ( किसी में ताना कसते हुए कहा)

"क्यों ना सजे मेरी बच्ची उसकी छोटी बहन की रिश्तेदारी हो रही है। मैं बधंवाऊगीं मेरी बच्ची की साड़ी।"


कुछ देर के बाद फूलों रेशमी सतंरगी साड़ी में बाहर आई एक लम्बा सा घूँघट और अम्मी साथ में। सीढियाँ थोड़ी छोटी थी तो अम्मी उसे संम्भाल कर नीचे ला रही थी।
"बेटा घूँघट तो ऊपर कर ले गिर जायेगी।"
पर हमारी फूलों अपनी बातों में किसी को जगह देती ही कहाँ थी। पता है वो क्या बोली?
"नहीं-नहीं अम्मी में घूँघट में ही जाउँगी बड़ी बहन ने भी तो किया था शादी में मैं भी करुगीं"
और फिर हँसती हुई नीचे उतरती पर अम्मी का ध्यान उसके पैरों पर ही था की कहीं ये फिसलकर गिर ना जाये तो उसको एक-एक सीढ़ी बोल-बोलकर उतार रही थी। अम्मी ने उसे नीचे उतारते हुए कहा था हर कोई वैसे उसको ना जाने किन-किन बातों से खुश रखने की ही सोचता रहता था।

वो बोली थी, "देखा कितनी खूबसूरत लग रही है हमारी फूलों हटो मैं अपनी बच्ची की नज़र उतारुँ।"

सारे के सारे आये रिश्तेदार उसकी तरफ में एक टुक लगाये देख रहे थे घूँघट में जो है वो क्या फूलों ही है या कोई और सीधी खड़ी है। ना कोई का जोश, ना कपड़ों का चबाना!!!

उनमें से एक ने प्यार भरे स्वर में कहा, “अरे ये घूँघट में हमारी गिट्टी है क्या?”

इस आवाज में वो लहज़ा नहीं था जो वो अक्सर गली में सुना करती थी उसने फौरन अपना घूँघट ऊपर किया आँखों में सुरमा, गालों पर लाली और होठों पर लिपिस्टीक!

वो तुरन्त बोली, “मामू जान! मामू मैं कैसी लग रही हूँ लग रही हूँ ना बिलकुल बड़ी दीदी जैसी?”

उनके पास में "हां" के अलावा कोई और शब्द ही नहीं था। अब वो भी अब बाकी के लोगों के साथ मे बैठ गई। जानती हो आसपास में बैठे सभी गली के लोग का तो जैसे ध्यान ही बट गया था। कभी तो वो रिश्तेदारों के ऊपर देखते तो कभी साड़ी में बैठी उस लड़की को। ना जाने क्या देख रहे थे जैसे सब कुछ गुमा था। अब मुझे सगाई के लिए जाना था तो मुझे सभी अपने साथ में बैठाकर सारे इंतजाम कराने के लिए कह दिया। अब सगाई की रसमें पूरी करानी थी तो सभी के कह दिया था की हम सारी रसमें फूलों से ही पूरी करायेगें। मैं रिश्तेदारो के बीच में बैठी थी और फूलों को कह दिया था की वो सारे समानों को मेरे हाथ में रखती जाये। तो वो एक-एक समान को देखती रही और मेरे हाथों में रखती गई वो एक-एक समान को ऐसे देख रही थी की जैसे वो ना जाने क्या हो? पर उसका मन लग गया था उन रसमों में और अपनी कभी ना रुकने वाली नज़रों को घूमाती वो खिलखिलाती उन रसमों को निभाती गई वो खूब जोर-जोर से हँसनें लगी थी।

"मैं तो सब कबूल कर लू बस, मेरी फूलो का कहीं कुछ हो जाये पता नहीं क्या होगा इसका?”

अम्मी उसको देख-देखकर बोले जा रही थी। बस वो तो चारों तरफ में देखकर हँसे चले जा रही थी ये नया काम लग रहा था उसको जो वो किये जा रही थी। वो आज बहुत खूश थी अपने नये रूप में बस अपनी साड़ी और कगंना को देखती और उसे घूमाती रहती बड़ी झूम रही थी। बस, जब सब कुछ हो गया तो वो सारे लोगो से दूर अपनी उसी ख़ाट पर जाकर बैठ गई जिसपर वो हमेशा बैठकर सबके साथ में खेलती और बातें बनाती थी। उस दिन वो इतना अलग लग रही थी ना के सभी उसको देखकर वो रोज का उसका थूकना और उसकी चिपचिपाहट को जैसे भूल चुके थे। भाभी भले ही आज बहुत सारे कामों को करते हुए अपने ये दिन दोहरा रही थी पर आज तो उनके कामों पर कुछ भी ध्यान नहीं जा रहा था बस, उबकी बातों के ऊपर ही सब कुछ था। वो तो बिलकुल खो ही गई थी। आज ऐसा लग रहा था जैसे की वो आज अपने रिश्ते को बड़े नजदीक से देखकर बता रही हो वो अपनी बहन के बारे में नहीं पर अपनी गली में बैठी उस लड़की के बारे में बता रही थी जो ख़ाट पर बैठी सब पर थूकती थी या सबको टोकती थी पर आज उसी ख़ाट पर वो कुछ और ही थी। उसे कैसे यादों में दोहरा रही थी? भाभी!!

लख्मी

यहाँ मोड़ बहुत हैं

( रोज़गार विभाग )

बात कुछ खास नहीं है।
ये ऐसी जगह है जो ज़िन्दगी मे कोई बदलाव तो नहीं लाती लेकिन फिर भी कहीं न कहीं हर किसी के साथ जुड़ी रहती है जिसमे दर्ज हो जाना एक संटुष्टी ला देता है कि "चलो हो गया" अब इंतजार की दुनिया शुरू।

एक वक़्त को मान लेते हैं जैसे इसकी लाइन मे लगे रहना ही ज़िन्दगी है। जिसमे हमें ये पता नहीं होता की हमारे आगे कौन लगा है और हमारे पीछे कौन? वोकोई लड़की है या लड़की? उसकी उम्र क्या होगी? खैर, 18 साल से तो ऊपर ही होगी। वो दिल्ली के कौन सी जगह मे रहता होगा? देखा जाये तो पूरी की पूरी लाइन अदृश्य ही बनी रहती है। बस, अपने नम्बर और अपने से आगे के नम्बर को सोचा जा सकता है लेकिन अपने से पीछे के नम्बर और उसकी ज़िन्दगी की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। हर कोई यहाँ पर अपने नम्बर से इस लाइन का सबसे आखिर का नम्बर है।

अभी थोड़ी ही देर मे एक और लाइन लगने वाली है।


उसने दरवाजे को जोर से धकेला। बारिश पड़ जाने के कारण बहुत जल्दी थी अन्दर घुसने की, कि कहीं सारे डॉकोमेन्ट न भीग जाये। वैसे तो सभी कागज़ो को उसने पन्नी मे अच्छी तरह से लपेटा हुआ था और सामने ही तो वो खिड़की थी जहाँ पर उसे पहुँचना था। वो जल्दी - जल्दी चलते हुये बोला, “लगता है बारिश की कारण कोई नहीं आया।"
वो सीधा खिड़की के पास मे पहुँच गया। जैसे ही उसने खिड़की पर पहुँचकर अपने सारे कागज़ निकाले की पीछे से कई सारी आवाज़ों ने उसे घेर लिया।
“ओ भइये यहाँ - कहाँ, तेरे को ये लाइन नहीं दिखी? चल पीछे से आ।"

पूरी की पूरी लाइन दिवार से चिपकी हुई थी। ग्राउंड के बाहर लगे पेड़ों की झाड़ियों की ओटक मे सभी खुद को और कागज़ों को बचाये खड़े थे। जो बारिश मे जल्दी पहुँचने की फिराक ने दिख नहीं पाई। जो दरवाजे तक ही जाती थी लगभत 30 से 35 लोग तो होगें। वो लाइन को देखते - देखते सबसे आखिर मे जाकर खड़ा हो गया। उस समय सभी की नज़र उसी पर थी। लाइन के शुरू मे ही दो पुलिसकर्मी भी खड़े हुए थे। जो सभी के कागज़ों मे लगी तस्वीर से चेहरा मिला रहे थे। उसके साथ – साथ कुछ पूछ भी रहे थे।

तेज हवा और बारिश की बौछारों के कारण शख़्स बिना बोले ही शौर कर रहा था। सभी के हाथों मे लगी पन्नियाँ काफी हल्ला मचा रही थी। हवा के साथ लड़ रही थी। सभी ने अपने कागज़ सीधे हाथ की तरफ मे पकड़ रखे थे। जो हाथ दिवार की ओट मे था। आज खुद को बचाना जरूरी नहीं जितना की कागज़ों को बचाना मायने रखता था। अभी खिड़की पर काम थोड़ा सुस्त था। इतने सभी अपने - अपने फोर्म भरने की बातें कर रहे थे।

पीछे खड़े शख़्स ने पूछा, “ भाई साहब आप कब आये?”

उसने लाइन को लम्बा हुये जो मन मे आया बोल दिया, “भाई साहब मैं तो अभी आया हूँ तभी तो आपके आगे खड़ा हूँ अगर पहले आया होता तो आपसे चार आदमी आगे खड़ा होता। क्यों भाई साहब?”

वो बस, “सही बात है भाई" कहकर चुप हो गया।

आज यहाँ पर देखकर लग रहा था जैसे आज कुछ पंगा है। नहीं तो रोज़गार विभाग मे पुलिस वालो का खड़ा होना कोई मतलब नहीं बनता है। एक – एक कागज़ को चैक करना और सवाल करना। ये क्या कोई नया नियम लागू हो गया था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उससे आगे वाले शख़्स बता रहे थे की आजकल लोग बहुत शातिर हो गये हैं। काम तो मिलता नहीं है तो जो लोग अपने लिये कुछ नहीं कर पाते तो उन्हे अपने साथ मे ले आते हैं और उनके कागज़ दिखाकर यहाँ पर नाम दर्ज करवा लेते हैं और रोज़गार की मांग कर जाते हैं फिर अगर रोज़गार मिल जाता है तो जिसके कागज़ लेकर आये थे उसे उसी मे नौकरी दे देते हैं। तन्खुया उन्हे देते हैं और मुनाफा खुद से कमाते हैं।

वो कुछ देर सोचने के बाद मे बोला, "औ यानि नाम आपका और पैसा मेरा अच्छी पार्टनरसीप है।"
उसने इस बात को कहकर अपने दिमाग से ऐसे निकाल दिया जैसे स्कूल की हिन्दी किताब की कहानियों में कोई लाला अपने दूग्ध में से मक्खी को निकालता था।

"कहीं ऐसा भी कभी होता है भला?

लाइन में लोग बढ़े चले जा रहे थे । कभी कुछ ही लोग आगे बड़ जाते और कभी पूरी लाइन एक – दूसरे को धक्का मारने पर मजबूर हो जाती। लेकिन जिस कारण धक्का लगता। वे थी बारिश और उसी से बचने के लिये आगे कोई साधन नहीं था तो लोग अपना-अपना नम्बर लगाकर कहीं किसी ओटक में छुपकर खड़े हो जाते। लोग पूरे ग्राउंड में घूमते नज़र आ रहे थे।

उन्ही आते लोग में से एक शख़्स घूमता हुआ आया। वो सभी से कुछ पूछ रहा था। वो आया और पैंसिल को हाथ पर चलाते हुए बोला, "भाई साहब क्या मैं पैंसिल से फोर्म भर सकता हूँ?”

उसने इन साहब की तरफ नज़रे की , सफेद कमीज़, नीली पैन्ट और आँखों में पर सफेद नज़रों का चश्मा।, “भाई साहब आप कितने पढ़े-लिखें है?”
वो बोला, “मैं बीए कर रहा हूँ।"
“तो भाई साहब जब पैंसिल हाथ पर नहीं चल रही तो पेपर पर क्या चलेगी? बारिश का मौसम है पैंसिल धुल जायेगी पैन से भरिये।" वो ताना कसता हुआ बोल पड़ा।

ये सुनकर वो हँसते हुए चला गया और ये भी हँसने लगा। "बताओ इतने पढ़े -लिखे लोग पैंसिल को हाथ पर चला रहे हैं क्या यार।"

इसी को सोचते-सोचते वो हँसे जा रहा था। बारिश तेज होने की वज़ह से लाइन के आगे की जगह में पानी भर गया था। अब तो सभी को उसी में से गुज़रना पड़ रहा था और लोगों की रफ़्तार में भी थोड़ा हल्कापन आ गया था। लाइन में खड़े-खड़े पाँव दर्द करने लगे थे पर यहाँ पर तो किसी को यह भी नहीं कह सकते थे की हैंडीकैप हूँ पैर में दर्द हो रहा है। क्या मैं आगे जा सकता हूँ?" यहाँ पर लाइन मे लगने वाले सभी हैन्डीकैप ही थे। किसको बोलते? मगर इतना तो तय था की लंच से पहले नम्बर आ ही जायेगा। जमीन में पानी अब कुछ ज़्यादा ही भर गया था। उसके आगे वाला शख़्स बोलकर गया, “भाई ज़रा मेरी जगह देखना मैं अभी आता हूँ।" अब नम्बर आने वाला था उस शख़्स का। थोड़ी ही देर में वो वापस आया उसने अपनी पीठ में एक लड़की को बैठाया हुआ था। उस लड़की ने अपने हाथों में एक पन्नी पकड़ी हुई थी और सभी को देखते हुए कुछ बातें कर रही थी । बातें करते - करते वो खूब हँस रही थी। उसकी उम्र से तो वो बीस साल की ही लग रही थी। सभी लोग उन्ही दो जनों को देखकर रहे थे। उस लड़की की खिलखिलाती हँसी बेहद अच्छी लग रही थी। वो आदमी जिसने उस लड़की को पीठ पर बैठाया हुआ था वो भी उसी बातों का जवाब दे रहा था। दोनों बातें करते हुए खिड़की पर आ गए थे। उस लड़की खिड़की पर आते ही खुद को संभाला । वो अपना दुप्पटा ठीक करते हुए खिड़की के अन्दर झाँकने लगी। वो खिड़की की ऊँचाई तक तो आ ही गई थी। उसने रोज़गार विभाग मे नाम दर्ज कराने के साथ – साथ एक मोबाइल साइकिल वाली एस.टी.डी का भी अप्लाई किया था। जिसके लिए उस लड़की ने फोर्म भरा था। वो जैसे ही वहाँ पर पहुँचे तभी एक पुलीष वाले ने उन्हे रोका और उनसे पूछा, “ये कौन है तेरा?”

वो मुस्कुराते हुए बोली, “ये मेरा बड़ा भाई है।"

उसने इतना कहा और वो अन्दर चली गई। थोड़ी देर के बाद में एक शख़्स आया, जो बोल नहीं सकता था। उसने हर चीज़ को एक पेपर पर लिख रखा था। वो कौन है?, कहाँ रहता है?, उसका विक्लांग के प्रमाणपत्र पर कितना परसेंट लिखा है? सब कुछ था। वो बस, अपने साथ मे किसी को ले जाना चाहता था की कोई अगर कुछ ऐसा पूछ ले जो उसने पेपर मे नहीं लिखा है तो वो उसे समझा सके। क्योंकि सरकारी आदमी पर तो इतना वक़्त होगा नहीं की उसको समझने में अपना समय दे। वो पूरे मे घूम रहा था। मगर यहाँ पर ऐसा माहौल था की जैसे हर किसी की दिक्कत एक- दूसरे से बड़ी है। वो अपनी संभाले या किसी और की। वो ऐसे ही घूमता हुआ यहाँ पर आया। उसने अपनी डायरी और एक अलबम सोनू के हाथ मे पकड़ा दी। वो बस, उसकी अलबम को देखता रहा। वो एक गायक है, तस्वीरों मे तो ऐसा ही लग रहा था। कई सारे स्टेजशोह मे वो गा रहा था और नेता लोग उसे तोहफे भी भेंट कर रहे थे। रामलीला थी, किसी की पार्टी थी, जागरण था। जिन्हे लोग आधी रात के गायक कहते हैं।

उसके साथ मे, एक पुलीस वाला चला गया। बाकि सब उसके बारे मे बातें करने मे लग गए थे। ऐसा लग रहा था जैसे कोई यहाँ से जाने की सोच ही नहीं रहा है। एक – दूसरे को देखने के बाद सोनू का भी नम्बर आ ही गया। वो अपनी पन्नी में कागज़ निकालता हुआ खिड़की पर दाखिल हुआ । वही पुलिष वाले के दो सवाल फिर अन्दर दाखिल। अन्दर में घुसते ही उसने सारे पेपर वहाँ पर बैठे एक शख़्स के आगे रख दिये। उसने उन पेपरों से पहले फोर्म को देखा, “अच्छा तो तुम्हे भी एस.टी.डी चाहिये?"

अब उसकी नज़र अलग काग़जों पर गई। उसने पूछा, “आप हो सोनू? पर आपका तो एक पाँव खराब है और आपके सार्टिविकेट पर लिखा है बोथ ऑफ लैग।"
पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ। ऐसा तो हो नहीं सकता। उसने उन पेपरों को अपने हाथ मे लिया और देखा। बोथ आफ लैग का क्या मतलब होता है वो उसे पता नहीं था। आज जब पता चला तो बस, उसके दिमाग में बाहर खड़ा पुलिष वाला और उसका डंडा ही नज़र आने लगा। आज से पहले सार्टिविकेट में ये लिखा है ध्यान क्यों नहीं दिया? इतने पढ़े लिखे लोगों ने देखा उन्होने क्यों नहीं बताया। आज गली के सारे पढ़े लिखे लोगों को बताऊँगा। मगर बेटा आज तो गया तू।" फोटो लगी है ये तो ये मानेगा नहीं और डाक्टर ने गलती की है । ये तो ये मान ही नहीं सकता। अब क्या करें?

वो वहीं पर खड़ा उस शख़्स की सूरत देखता रहा और थोड़ी देर के बाद बोला, “सर लगता है मैं गलती से अपने साथ वाले का पेपर ले आया हूँ । हम अभी बाहर में एक-दूसरे का सार्टिविकेट देख रहे थे ना ! इसलिये। मैं अभी ले आता हूँ।"

बस, दिमाग मे इतना था कि कैसे ना कैसे यहाँ से निकल जाऊँ फिर देखूगाँ। उसने उन काग़जों को एक बार भी नहीं देखा और बस जितनी तेज वो चल सकता था उतनी तेज चलता वो बाहर आ गया। बाहर आकर सोचने लगा की अगर एक गलती होती तो चलता भी यहाँ तो बोथ ऑफ लैग लिखा था। यानि के दोनों पैर ख़राब। ये कैसे हो गया? सार्टिविकेट को बने भी सात साल हो चुके हैं। अब तो बदल भी नहीं सकता और इसी को देखकर रेल का पास, बस का पास और आईकार्ड बने हैं। तब तो किसी ने नहीं देखा या कहा। आज ये क्या हो गया। बस, अब हो तो कुछ नहीं सकता था पर वो अपने पर बहुत हँसा और हँसतें हुए अपने माथे पर हाथ मारते हुए वो बोला, “साला किश्मत ही ख़राब है।"

लख्मी

Tuesday, October 6, 2009

एक जगह पड़ा रहकर तो पत्थर भी भारी पड़ जाता है

एक शख़्स रोज़ाना अपने घर से चार रोटियाँ अचार के साथ बाँधकर चलता था। वो लेबर चौक़ पर जाकर 7 बजे ही बैठ जाया करता था। वहाँ उसके जैसे कई आदमी रास्ते के किनारे कतार लगाकर बैठा करते थे। घर में बीवी बच्चे और बूढ़े बाप का ख़र्चा वो ही अकेला उठाया करता था। वो हर दिन चौक़ से किसी के साथ 150 रुपये दिहाड़ी पर चला जाया करता था। उसे कुछ कला या हुनर नहीं आता था। बस, वो पत्थर तोड़ना जानता था। जब कभी पैसों की ज़्यादा ज़रूरत होती तो वो ठेकेदार से बात करके किसी बड़ी जगह या शहर में जहाँ कहीं सड़कों का निर्माण होता वहाँ अपनी बीवी को भी ले जाता था। पत्थरों पर हथौड़े बजाने से बेहतर उसे कोई और काम नहीं आता था। सारा दिन वो इसी तरह व्यतीत करता था। उसके साथ के लोग भी उसी तरह दिन बिता देते थे।


शाम तक उसका शरीर थककर कमजोर पड़ जाता था। कितनी बार उसकी बीवी उससे कहती, "आप इससे अच्छा कोई और काम सीख लो। आधी ज़िन्दगी पत्थरों में बिता दी अब तो कुछ तरक्की करो।"

वो हँसकर कहता, "कोई बात नहीं, मैं इसी में खुश हूँ। कम से कम मैं पत्थरों में रहकर पत्थर तो नहीं बना। ये काम करते-करते समझ गया हूँ कि पत्थर भी टूटते वक़्त दर्द महसूस करता है। उसकी भी आवाज होती है।"

उसकी बीवी कहती, "आप हमारी आवाज़ों को तो इतनी ग़ौर से कभी बयाँ नहीं करते, न कभी ज़िक्र करते?”

इसका उसके पास कोई जवाब नहीं होता पर वो इस वज़ह को लेकर कभी-कभार ज़रूर सोचता रहता, चिंतन-मनन में डूबा रहता। रोज रात को पति-पत्नी इसी तरह की बातों में जीवन के कई अनुभवों को अपने बीच बाँटते रहते।


"एक जगह पड़ा रहकर तो पत्थर भी भारी पड़ जाता है।" दीनू ये कहकर अपनी बीवी को समझा देता। उसकी ये बात ज़िन्दगी के हर हालात
से टकरा जाती, इसलिये वो निराश नहीं होता था। 40 साल की उम्र में वो ज़िंदादिली के साथ अपने काम में लीन रहता और अपने शरीर की थकान दूर करता।


दोस्तों, काम के बारे में हमने पहले भी कई बार सोचा है और नया काम खोला है पर ये शब्द ज़िन्दगी के हर मोड़ और हर समय में मिल जाता है। हम इसे जी तो लेते हैं पर इसको लेकर जूझने से समझौता कर लेते हैं जिससे हमारी रफ़्तार से चलती ज़िन्दगी में कभी कोई ठहराव नहीं आ पाता। इसलिये हम अतीत में जी हुई हर चीज को वर्तमान यानी आज में बदलने या बनाने की कोशिशों में लगे रहते हैं। दीनू ऐसा नहीं करता। वो अपने आज को खुद बनाता है, अतीत पर रोता या प्रश्चाताप नहीं करता। वो आज के वज़न को जीता है। क्या आज का काम अतीत के लिए है? उसे फिर से सोचने के लिए है, या क्या नहीं हो पाया, क्यों नहीं हो पाया - इससे कुछ सीखने के लिए है, ताकि आगे कोई चूक न हो या फिर एक ज़िन्दगी को सोचकर जो चला गया वो किसी वक़्त की रचना में अपनी मौजूदगी को बनाने का निर्णय है।

दीनू आज़ादी से जीता है। हम युगों से बदलते आए हैं या नये युगों ने हमें बदल दिया है। हर बार क्या मानव की रचना किसी अलग सिरे से होती है या हम सत्ता के नियम या नीतियों से बनी योजनाओं की बनावट का एक हिस्सा हैं जिसमें हमारा समाज हमें ही काटता और संवारता है।

समाज है तो दीनू जैसा शख़्स क्यों पत्थरों मे दिल लगाता है? अपना कोई साथी और जीने का ढ़ंग ढूंढता है? सत्ता समाज को बरकरार या टिके रहने की शक़्ति देता है जिसके राज में सब अपने को सुरक्षित समझते हैं। पर जो शख़्स इससे बाहर है उसका जीवन क्या है, किस
के लिए है - इसका जवाब कौन देगा? कौन बतायेगा कि अपनी स्वतंत्रता और संतुलित जीवन की रचनाओं का मूल्य क्या है? जो किसी निजी संबंध के बंधन में नहीं वो तो अजय और अमर है।


राकेश

यह विशिष्ट दृश्य

वक़्त की शाखाओं को पकड़े बिजली की एकाग्रता सीमा के बीच मैं खड़ा धूल और मिट्टी के मोटे कणों को चेहरे कि परतों से हटा रहा था। तभी यह विशिष्ट दृश्य मेरी एक प्रवृत्ति में चल पड़ा। मैं खड़ा था। भीड़ की विवेकशीलता चल रही थी। काली परछाईयाँ मेरे सिर पर मंडरा रही थी। संतुलन असंतुलन के बीच बड़ा फर्क था। कई आलोचको की आवाजें निडियंत में ही नहीं थी। भीड़ का प्रतिनिधित्व करने के लिए मेरे मन का ख़्याल मुझमें कुलबुला रहा था। रात जंगल मे रहने वाले किट-पतंगों की गूंज दिव्यमा न थी। पानी की बाल्टी में मैली पतलून पहने एक बुझा-बुझा सा शख़्स थकी आँखों से रात मे घूमते गश्तगरों से सलाम करता। दूर से चिमनियों सी चमकती बल्ब और रंगीन ट्यूबलाईट की लुपलुपाती रोशनी जिसके घेरे में भीड़ में व्यस्त डिजीटल मीडीया अपनी छटा बिखेर रहा था। कई अन्य रूपों के माध्यम से जिसमें समाये थे।


पानी की छोटी सी बाल्टी में उसने कई पोलीथिन पैकेट रखे हुए थे। वो पोलीथिन पैक पानी था।जिसको बेचने के लिये वो शख़्स अपनी एक जगह बनाये खड़ा था। जो होंठो से धीरे-धीरे प्यास को वितरित करता अपने पास बुलाता। वहां अपने चेहरे पर कोई लड़का मुखौटा लगाये भीड़ को देख रहा था। मनमाने ढंग से उसकी आँखें चल रही थी। पोलीथिन पैक पानी को उसने हाथों में लेकर हवा में घुमाना शुरु कर दिया। बस, फिर क्या था सब की आँखें वहाँ देखने लगी। शाखारूपी वक़्त ने जैसे सबको अपनी ग्रफ्त में ले लिया।

राकेश

Friday, September 18, 2009

पढ़ना क्या है?

अपने आपको रख पाने का मतलब क्या है?

"जानकारी" जो एक बढ़े स्थर पर हमारे आसपास है जिसमें पढ़ने के मायनें इतने महत्वपूर्ण हैं कि उसमे आने वाली ज़िन्दगी, कला या जगह- सब एक मायनें लेकर जीवन में एक एक्ज़ॉम्पल की तरह से ठहर जाती है और अगर बाहर आती है तो हमेशा किसी अन्तरविरोध में या बने-बनाये ढाँचों को और मजबूत करने।

स्कूल, अख़बार और साइनबोर्ड इसी घेरे के पात्र लगने लगते हैं। जिनका जीवन किसी न किसी प्रकार इतिहास को लेकर चलता है। कहानी, शब्द, चुटकिला, शेर-शायरी या कविताएँ सभी किसी ना किसी चेहरे की मोहताज़ बनने लगती है। बस, कोई मुखड़ा होना चाहिये जिसकी माँग में शहर जीता है। महत्वपूर्ण होने के बावज़ूद भी मुखड़े की माँग एक चित्र खींचकर कोई कोना दे देती है। जिससे ये दावा होने को उतारू हो जाता है कि "हमें जानकारी है" यही माँग या जरूरत सा दिखता है। जिसका आधार क्या है यह समझ में नहीं आता पर सवाल छोड़ जाता है।


अपने आपका दोहराना या अपने आपको बता पाना क्या है?

इसी को अगर दूसरे मायनों में अपने में तलाशा जायें तो जानकारी महज़ एक जानकारी ही नहीं रहती। वो अपने अनूभव का अनुमान लगने लगती है। पढ़ना अपने अनुमान को ताज़ा करना और नया मायने देने के बराबर बनने लगने लगता है। इतना होने के बावज़ूद भी दिखता कहाँ है और कैसे दिखता है? वहीं शायद कहीं गुम है। पढ़ना खाली जीवनी पढ़ना ही नहीं होता। अगर सही मायने में देखा जाये तो उसे किसी के आगे यानि अपने खुद के बाहर पढ़ना भी होता है। जिसे हम दोहराना नाम देकर खामोश कर देते हैं। क्यों लोग कुछ पढ़कर किसी के सामने उसे दोहराते हैं? क्यों वो जीवनी सफ़र करती हैं कई अलग ज़ुबानों में?

पढ़ना या दोहराना - इन दोनों के बीच मे आखिर है क्या? एक मज़ा, एक अनुमति, एक टाइम या फिर अपने लिये कुछ तैयार करने की तलाश?

जहाँ पर एक सोच है “पढ़ना बहुत जरूरी है।"
इसमें कहावतों की क्या इमेज़ बनती है?

दूसरा, “मुझे तो खाली बसों के नम्बर ही पढ़ने आते हैं।"
इसमे बनने वाली एक साधारण छवि क्या है?

पढ़ने के साथ में चिन्ह या पहचान के भी मायने जीवन के साथ बंधे हैं। नज़र और बनावट के कनेक्ट रिलेशनश़िप में चिन्ह पढ़ने की इमेज़ को गहरा करते हैं और वही ढाँचें शख़्स के साथ में महत्वपूर्ण हो जाते हैं। "बातें" और "समझ" इसके दायरे में बनावट को आँकना खाली अपना मतलब बनाने पर ही उतारू नहीं रहता बस, शहर पढ़ने के नये मायने लेकर जी रहा है। अपने आसपास में वो ज्ञात होता रहता है।

पढ़ने में सवाल और उसके जवाब से परे जाये तो क्या बचता है?

सुभाष भाई जिनके लिये पढ़ने की इस रफ़्तार मे महत्वपुर्णता तलाश से शुरू होती है और गोला लगाने पर ख़त्म हो जाती है। अगर कभी दो-चार पेज़ आगे भी निकल जाते तो वो तलाश वापस खींच लाती। अख़बार के कई पन्नों में वो नीले-काले पैनों से गोला लगा चुके है। पढ़ना तलाश और वो शब्द जो पहले से ही ज़िन्दगी की सच्चाई से जहन में घर बना चुके है वही लपेट में आते हैं।
"अवश्यकता.......अवश्यकता" और यही गोले पढ़ने की चाहत को आगे बढ़ा देते हैं। बस, अपनी उम्र और ज़रूरत या माँग को अपने हित में कर लेते हैं। यही पढ़ना है जो शायद कभी ख़त्म ही नहीं होता बशर्ते अपनी जगह बना लेता है। हर रोज़ एक नया अख़बार उनके हाथों में नज़र आता है और बस, कुछ पाने या मिल जाने में ही अटक जाता है। फिर वही कुछ देर तक साथ में चलता है और बाद में कई सारी कटिगों में किसी खुंटी के साथ में लटक जाता है। ऐसा लगता है जैसे की पाने की तलाशें जीवन के दौर में हटकर जमा होती रही हैं।

तलाश तक जाते हैं, उसे खोजते हैं फिर जब पा लेते हैं तो?

तलाश से पहले या तलाश का वर्तमान हमें कई तरह के कटघरे में ख़ड़ा कर देता है और हम उसी वर्तमान में अपने को मौज़ूद रखने के लिये खुद से बाहर जाने की कोशिस करते रहते हैं पर तलाश पार हो जाने के बाद में हमारा आने वाला कल क्या तस्वीर सामने लाता है वो ध्यान में नहीं रहता। हम बस, उस अन्धेरे कल में से खींचकर कुछ निकालते रहते हैं निरंतर।

खुद पढ़ना और किसी के आगे पढ़ना क्या है?

लख्मी

Wednesday, September 16, 2009

हाउस बॉय

बल्बो की चमकीली रोशनी हॉल की दिवारों और फर्श पर फैली थी। ईटेलियन मार्वल किसी आईने से कम नहीं दिख रहा था। खिड़कियों का लॉक खोला था। बाहर से अचानक हवा का झौंका सारे फर्श की रोनक को मटियामेट कर गया। शानदार लकड़ी के बड़े से टेबल की सारी पॉलिश ही बेअसर हो गई। उसे देखकर कोई भी कह सकता था की इस टेबल पर कई रोज़ से कपड़ा नहीं लगा। मेरे हाथों में हमेशा दो डस्टर रहते थे। एक पीला और दूसरा सफेद। पीला जो काफी मुलायम होता था। सफेद जो खद़ड का होता था। मेरी पैन्ट की जैब में कॉलीन की बोतल लगी रहती थी।
मैं फर्नीचर पर जमी धूल-मिट्टी को पहले सूखे सफेद कपड़े से साफ करता फिर बाद में गीले कपडे पर कॉलीन छिड़क कर दो-चार बार रगड़कर हाथ मारता।

हॉल में कोई फंग्शन था। एक घण्टे का वक़्त मेरे पास था। सूपरवाईजर ने बिना खटखटाये दरवाजा खोला और चारों तरफ गिद्द की तरह देखने लगा। मेरे हाथ जहाँ थे वहीं रूक गये। कमर के पीछे मैं दोनों हाथकर के खड़ा हो गया। सूपरवाईजर को देखा, मैंने सोचा की ये जरूर कोई कमी निकालेगा या सारा काम फटाफट करने के लिये कह कर चला जायेगा और क्या वो मुझे शबासी देने थोड़े ही आया था। मेरी तरफ आकर उसने पहले फर्श पर उंगलियाँ लगाकर देखा फिर वो टेबल को देखकर बोला, "क्या कर रहे हो आधे घण्टे से एक कमरा साफ नहीं हुआ। ये क्या है? ये टेबल ऐसे साफ होता है?”
"सर! सब साफ था अभी। अचानक से खिड़की खुली और बाहर से हवा अन्दर आई, सारे में मिट्टी हो गई।"

सूपरवाईजर, "देखो बहाने मत बनाओ। खिडकी खुली थी तो किसकी गलती है मेरी तो नहीं।"

वो डायलॉग बोलता गया। मैंने सहमती जताते हुए कहा, "सर ठीक है मैं दोबारा साफ कर देता हूँ।"
उसने कहा, "चारो तरफ देखकर साफ किया करो। कहीं कोई निशान न रह जाये। गेस्ट नराज हो जाते हैं। ये लोग जरा सी भी भूल बर्दास नहीं कर पाते। समझे क्या?”

"जी हाँ।"
"तो चलो शुरू हो जाओ।"
"ओके सर!”
मैं टेबल पर दोबारा डस्टिंग करने लगा। कमरे में जल रहे बल्बो की रोशनी एक तरफ थी और दूसरी तरफ खिड़की के शीशों में से पारदर्शी धूप आसमान से सफ़र करती चली आ रही थी। मेरे पास वक़्त देखने का कोई जुगाड़ नहीं था। बिना अनुमान के मुझे सारी जगह में सफाई करनी थी। कमरे के सारे एसी बन्द थे। अभी यहाँ कोई सेमीनार होने की तैय्यारी हो रही थी। मैं अपने अजीबो-गरीब दिमागी ख़्यालों को सोचते-सोचते काम पर भी ध्यान लगाये था। जो कर रहा था उसके विपरीत मेरे तन-मन में अनेक विचार प्रकट हो रहे थे। टेबल पर से मिट्टी ठीक प्रकार से साफ करने के बाद मैंने हाथ में गीला कपडा लिया और उस पर कोलीन छिड़क कर टेबल को रगड़ने लगा। अपने हाथों को जब काम करते देखता तो ऐसा लगता जैसे कोई मशीन का कोई पाट्स इस टेबल को चमका रहा हो। कभी हल्के हाथ से तो कभी भारी हाथ से टेबल की सतह को चमकाने की कोशिश कर रहा था।
मशीन कोशिश नहीं करती। मैं कोशिश कर रहा था पर खुद को यकायक मशीन मे बदलते देखा था।
पसीना माथे पर बार-बार आता पर टेबल पर पसीना गिरना ठीक नहीं था फिर से निशान बन जाते।फिर जीरो से सब शुरू करना पड़ता।

उस कमरे में कोई और भी था जो शायद मेरे काम को देख रहा था। मेरा वहम! जो बार -बार किसी की मौज़ूदगी को सामने ला रहा था। शायद अब न आ जाये। कितनी बार थका हूँ कितनी बार रूक कर सांस ली है और फिर से चल पड़ा हूँ। खुद ही होठों के बीच कुछ शब्द बुदबुदाने लगता। जल्दी कर कहीं वो आ न जाये। वो आ गया तो उसके सामने फिर से कोई डेमो दिखाना पड़ेगा।

मेरी उपस्थिती से सूपरवाईजर को क्या लेना-देना वो जो चाहता है वो चमक उपस्थित होनी चाहिये।
जो देखना चाहता है जिसके लिये कोई आ रहा है जिस को न्यौता है। सारी चीजें और जगह को उस मेहमान के लिये ही तो तराशा जा रहा था। हॉल के अन्दर तमाम तरह की चीज़ों और वहाँ पर बनी ओक्सीजन जो बन्द कमरे मे भी जीवन बनाये थी। साँस लेने के लिये इतना ही काफी नहीं था। शरीर की माँसपेशियाँ अकड़ गई थी। पानी में कई बार हाथ भिगोने से हथेलियों की खाल किसी दिवार के सिलन जैसी लग रही थी लग रहा था। ज़ुकाम तो था ही डन्डे पानी ने इसे और गाड़ा बना दिया था।

पैरों में रबड़ के लम्बे वाले जूते पहन रखे थे। जो घुटने तक आते थे। उनमे भी पानी भरा पड़ा था। जब मैं चलता तो जूतों में भरा पानी छप-छप से आवाज़ करता लेकिन बाहर नहीं आता। ईटेलियन मार्वल से बने फर्श पर इक बार तो वाईपर घूमा चुका था के फिर से सूपरवाईजर चैक करने के लिये आया।
"कितना हुआ? जल्दी करो वो फिर टेबल पर उंगलियाँ लगाकर सफाई जाँचने लगा।"
उसने कहा, "हाँ, ये तो ठीक है चलो।"
ये कहकर वो फौरन बाहर निकल गया। मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। मुझे लगा वो कुछ देर रूक जायेगा पर ऐसा नहीं हुआ। मैं बाहर आया कैक्टर ऐरीया कुछ ही दूरी पर था। मुंसी जी मेरे पास आये और “ क्या चल रहा है बेटे?” वो मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले।

मेरी तरह उन्होंने भी यूनीफोर्म पहनी हुई थी। मैंने हँसकर उनकी बात का जबाब दिया बस मुंसी जी आप का आर्शिवाद है। उम्र करीब चालीस साल के होगें पर उनके चेहरे मे वो ताज़गी अभी ज़िन्दा थी जो युवाओं में होती है। तभी हाथ मे झाडू लिये डेनी साहब भी कोई गीत गुन-गुनाते हुए चले आ रहे थे।
हम हॉल के बाहर कोने में खड़े थे। मुंसी जी ने सलमान को होले से आवाज लगाई, "अरे मियाँ सलमान जरा हमें भी चाय का चखा दो।"
"अभी लो जनाब।" वो अपने लम्बे बालों को भवों से उपरकर के बोला।

कॉफी मशीन का बटन दबाया और एक-एक करके चाय प्लासटिक के कपो में डालने लगा मशीन से आती चाय और कॉफी की महक पूरे ऐरीयो को महका रही थी।

खास बात ये है की जो नाम अभी पुकारे जा रहे थे वो वास्तविक नहीं थे। इन नामों से इन सब शख़्सों को बुलाने का एक स्टाईल बना हुआ था। हमारे पूरे स्टाफ में करी दस शख़्स ऐसे थे जिनके नाम प्यार से रखे गए थे। भला डस्टर हाथ मे लेकर चलने वाला मुंसी कैसे हो सकता है। एक कॉफी पिलाने वाला, "सलमान खान कैसे हो सकता है।"
तज्जूब है वो सब इन्ही नामों को पसन्द करते थे। मगर काम जो ज़िन्दगी मे खास रूप लिये था।उसके लिये भी तो जीना जरूरी था। सारे क्लीन करने वाले प्रोडेक्ट लेकर सूपरवाईजर आ धमका। वहाँ यहाँ सब चाये का मज़ा ले रहे हो। वहाँ मेरी मैनेजर ने लगा रखी है चलो काम पर। ये किस्सा यही ख़त्म नहीं होना था। आगे भी बहुत कुछ बाकी था।

राकेश

सारथी बनकर

सबसे अच्छा चलाने के उद्देश्य से क्या है?
जिसमें अचाकन हो चाहे न हो
अगर ये है तो उद्देश्य, उद्देश्य नहीं

समय को जीने वाला, समय से टकराता है
वो समय के भीतर या बाहर कमजोर नहीं पड़ता
वो खुद को चैताता है।

सारथी बनकर
कंक, पंछी बनकर
लक्ष्य को भेदता है

वो अरण्यानी में नहीं खोता
उसके साथ सदैव
गरूड़ के इरादे रहते हैं।

वो तेजस्वीं खुद अरण्यानी है
जिसे जीना आता है
जीवन चकित कर देने वाली बात है
अमर गाथा है
काल्प-युगव्यापी दूनिया है।

राकेश

घुमंतू जादूगर

कहाँ से आये हो कहाँ को जाना
जीवन वहीं जहाँ ठहरे कोई तराना
यही है ज़िन्दगी की नईया
यही है मृत्युशय्या

आज को न कर बर्बाद समझकर
प्रमाणिकृत होगी तेरी छवियाँ
भूलना जरूरी है, याद करना भी जरूरी है
मत चूक इस काल से
तेरे जाने के बाद उभरेगीं तेरी कहानियाँ

केसर की किरणें तेरी झोली में है
क्यों उजालों को खोजता है
भटक जायेगा तो आप ही ढूँढ लेंगी तुझे
संसार की उंगलियाँ

चाँदनी की तुझे क्या परवाह
तेरे सिर पे आसमानी ताज है
जमीं है पैरों तले
यही मिलेगी अभिव्यक्तियाँ

ईश्वर या धर्म ये है तेरी प्रतिमा
जो कथित है विरासतों के पन्नों पर
क्या इनके लिए तेरे जीवन में
होती हैं कभी तबदिलियाँ

ऐतिहासिक आवेग को समझ
जिसमें झिलमिलाती कई ज्योतियाँ
सोच समझले न आज फिर लौटेगा
टकटकी लगाये बैठी कई रणनीतियाँ

राकेश

दैनिक सज्जाएँ

अपनी इच्छाओं को पकड़कर चलने वाले,
खुद उड़ने की तमन्ना रखते हैं।

बन्दिश क्या है? एक ऐसा सैलाब जिसे अपने सीने की कसक से कहीं किसी कोने में बैठाया हुआ है। बन्दिश खुद को संतुलन मे रखने की या बन्दिश दुनिया को अपने से दूर करने की मंसा से चलती है। ये कोई खुद से या खुद के लिये लिया गया कोई फैसला नहीं है। ये तो एक ऐसा समझोता है जो आँखें मूंदकर चलने की आदत को तैयार करता है। आदत को तैयार करना क्या है?


पहचान बन गई शख़्सियत
चिन्ह बन गए उसके बटन

कुछ पल के लिए भूल जाओ की हम कौन हैं? कहाँ से आये हैं? कहाँ को जाना है? जो तेरी पहचान है वही मैं भी हूँ। तेरा या मेरा कुछ नहीं है। कुछ पल के लिये अपनी याद्दास्त गवाँ दें और सोचें की फिर से मिला है मौका एक नई पहचान बनाने का। सबसे पूछते फिरे की मैं कौन हूँ?, क्या आप मुझे जानते हैं?

पहचान के साथ बोले गये शब्द और याद्दास्त – अतीत गवाँ कर बोले गये शब्द। इन दोनों का घर कहाँ है और कैसा बना है?



वर्तमान को खोजें तो कहाँ तक जायेगें हम?

नज़ारों को मान लिया मन्जिल - मन्जिल खोई है अंधेरों में।
अतीत का पल्लू पकड़े हम भविष्य को धमकाते हैं।
वर्तमान की कोई हैसियत नहीं बस, बीते हुए को दोहराते हैं।
होठों से निकली बात अतीत की झोली में गिर जाती है।
आदमी के मरने के बाद उसकी बातें याद आती हैं।
हर अतीत में हुई बात को वर्तमान के किसी सवाल या घटना की जरूरत पड़ती है
और वर्तमान में घटी घटना अतीत की कहानी बनकर उभर पाती है।

वर्तमान कहाँ है? वर्तमान कितने समय का होता है? वर्तमान का असल वक़्त कितना है? एक पल, क्षणिक पल, शून्यता का पल।

कितने वक़्त जीते हैं हम किसी की कहानी को वर्तमान में?

लख्मी

Monday, September 7, 2009

हमराही कौन होते हैं?

ज़िन्दगी में हमारे साथ साये के अलावा शायद ही कोई होता है। मगर हालातों की रोशनी में साया भी छिप जाता है।

रात काली होती है मगर वो अपने अन्दर कई धुंधले छीटें लेकर चलती है।
रात अपना दामन पसारे राहगीरों के आने का इंतजार करती है। सुबह यहीं कहीं है। हाथों की मुट्ठी अभी खुलेगी और वो फुर्र हो जायेगी। इस दुनियाँ के ज़र्रे-ज़र्रे में मिल जायेगी।

ओह! बेरी सुबह तू कब आयेगी?
वो कदम बढ़ाती है, फिर आती है,
फिर चलती है और दबा कर चलती है। चलती चली जाती है।
कदमों की आहट कहीं दस्तकें देती है फिर वो चलती है अपने साथ एक छवि लिए।

जो कहती है - सुनती है, इतराती है - शरमाती है। फूल, पत्तियाँ, चीजें, जगहें लोग समय सब बदल जाता है। रात के घने अन्धेरे में एक उजाले की किरण फूटती है। आवाजें तांता लगाए खड़ी होती है।
मैं वही हूँ।


दिनॉक/ 22-07-2009, समय/ रात 8:00 बजे.

राकेश

शायद, कुछ पक रहा है


दिनॉक/ 15-08-2009, समय/ दोपहर 2:00 बजे

लख्मी

Monday, August 24, 2009

लकीरों से बने चित्र



वो छाप जो हम एक कच्चेपन से अपने पीछे छोड़ते जाते हैं। वो यकीनन एक बार हमारे सम्मुख आती है। जिसे सोच के हम चकित रह जाते हैं और समय की कर्द करने लग जाते है। वो समय जो हमारे टूटने और बनने का गवाह है जिससे हम खुद को भी नहीं छुपा सकते।

राकेश

जाने की जल्दी हैं



अनुभवों की छाओं तले हम ज़िन्दगी काट देते हैं फिर जाकर कही हमारे जीने का मतलब मिलता है रोजाना के सफ़र में कितने ही चेहरों से मुलाकातें होती हैं। हम अकेले कहाँ हैं?

राकेश

मुक्त जीवन ....



जीवन खुला हैं और खुला रहेगा मगर इस में जीने वाले लोग अपने लिए दायरें बना लेते हैं जो छोटे -छोटे विभाजन में बदल जाते हैं। अपने से मुक्त करना ही जीवन का नाम हैं। हमारे राज और सच हमारे नहीं होते वो दूसरो से जुड़े होते हैं जिनके फास हो जाने के डर से हम अपने को मुक्त नहीं कर पाते

राकेश

परछाइयों तले




परछाइयों तले हम जीवन की अनेक कशमकशो से भिड़ते रहते है। कभी हमारी चाहतें कुचल जाती है और कभी ये सम्पन्न हो जाती है फिर इस सम्पन्नयता के बाद जीवन का पहिया चलता है और लोगों में जीने की जिद् दोबारा से ऊजागर होती है। ये जिद् कभी नस्ट नहीं होती और न कभी पैदा होती है। वो तो खूद ही किसी न किसी शख़्स को तलाश लेती है।

राकेश

Saturday, August 22, 2009

जादू क्या है?

हर किसी के लिये ये शब्द एक अंजान दुनिया और आसानी से न अपनाने वाली धारा के दरवाजे के समान है। जिसकी तरफ इंसान का खिंचना जैसे की बहुत ढंग से हो जाता है क्यों? हर कोई एक उम्मीद लगाकर रखता है कि सामने से कुछ जादू होगा और हाथों मे वो आ जायेगा जिसकी कल्पना पहले से नहीं की हुई थी। वो चला आयेगा जिसे शरीर ने पहले छुआ नहीं है और वो नज़र आयेगा जिसकी कोई छवि नहीं है।

जादू - इसकी जरूरत क्या है समाज़ मे? खैर, ये सवाल समाज के लिये भी क्यों है? जादू की जरूरत क्या है मूलधारा मे जीते हुए शख्स के लिये? आँखों के साथ नज़ारों का रिश्ता, शरीर का साथ जगहों का रिश्ता और बातों के साथ मे सवालों का रिश्ता - इन सब को क्यों सोचते हुए चलना पड़ता है?

हम मानकर चलते हैं कि जादू तो एक खेल का नाम है मगर इसमे छुपे अहसासों का खेल कुछ और है। एक ज़िन्दगी जिसे रूटीन मे बाँधा गया है वो आम ज़िन्दगी बन जाती है और जो रूटीन में नहीं शामिल हो पाता उसे जादू नाम दे दिया जाता है। हम और हमारे शरीर के साथ किये जाने वाले कुछ करतब जो हर कल्पना को मोड़ देते हैं, वही मोड़ जादू है। यहाँ पर जैसे हर कोई जादू करना और दिखाना चाहता है लेकिन ये हो कैसे सकता है?

इसी सवाल पर आकर जैसे सब कुछ रुक जाता है। क्या हमने किया है कभी खुद के साथ जादू? कैसे? लोग एक-दूसरे को कैसे ये जादू दिखा रहे हैं?

लख्मी

Friday, August 21, 2009

किलर म्याउँ











राकेश

इस बार का मुद्दा था घर

दस साथी एक बार फिर से बैठ गए थे सवालों और कल्पनाओं को एक दूसरे के समीप लाने के लिए। सभी अपना -अपना तर्क उसमे डाल रहे थे घर को समझना क्या है और उसे बनाना क्या है? इस सवाल को लेकर बहस मे उतरने की कोशिश चल रही थी।

सभी ने इस सवाल से अपनी बातचीत को शुरू किया। एक साथी अपने साथ मे अपने घर का नक्शा लेकर आया हुआ था। जिसमें सब कुछ पहले से ही तय था मगर इस बार उसने अपने घर के नक्शे मे एक हॉल यानि पचास लोगों के एक साथ बैठने की कल्ना की थी जिसको वो अपने घर के नक्शे मे देखना और बनाना चाहता था। उसने कई बार अपने इस नक्शे को बनाया था और कई बार अलग - अलग लोगों से उसे बनवाया भी था। जो भी उनके घर में चाहें मेहमान बनकर आता या कोई भी पड़ोसी की हैसियत से आता वो सभी को वो नक्शा दिखाकर उसको पूरा करने मे जुट जाते होगें। लेकिन यहाँ पर वो नक्शे को नहीं अपनी कल्पना को रखना चाहते थे।

उन्होंने कहा, "हमारे घर को जब भी हम बनवाने की सोचते हैं तो चाहैं उसे नया बनवाया जाये या फिर उसकी मरममत करवाई जाये मतलब तो एक ही रहता है। उसके अन्दर परिवार को सोचना है और अगर उसके साथ मे ज्यादा से ज्यादा सोचेगें भी तो किसी किश्म का रोज़गार या फिर हद से हद कोई प्रोग्राम। लेकिन ये सब जुड़ते हैं परिवार से ही। तो इसमे हमारा घर कहाँ है? वो तो गुज़ारा करने की जगह बन जाती है। इसको अगर तोड़ना है तो हम कैसे तोड़ सकते हैं? क्या घर रहने, कमाने और खुशी देने के अवसरों का कमरा है? मैंने कोशिश किया है कि मकान को थोड़ा शोहरूम, थोड़ा सिनेमा, थोड़ा रहना और थोड़ा अवसर के रूप मे देखने की। उसमे अगर मुझे कुछ सोचना है तो क्या सोचना होगा?"

उसके नक्शे मे काटा - पीटी बहुत थी। कहीं - कहीं पर तो कुछ गोले भी बने हुए थे। कुछ साफ-सपाट था तो कहीं पर कुछ लिखा हुआ था। उनके पास मे एक फोटो एलबम भी थी जिसमे घर की कुछ तस्वीरें थी जो ज्यादातर घरों मे होती सफेदी की थी। उसमे कमरों का साइज़ बहुत बड़ा था। जिसे वो दिखाकर अपनी कल्पना को छवि दे रहे थे।

उसपर उन्होंने कहा, "क्या हम अपने घर को एक दिन शादी हॉल, एक दिन प्लेहाउस, एक दिन खाना खिलाने की जगह मानकर नहीं रह सकते, इससे क्या हमारा घर देखने का नज़रिया बदल जायेगा?"

इस सवाल के बाद में बातचीत का आधार खाली घर और उसकी अन्दर की दस्तकारी को सवारने और दोबारा से बनाने के अलावा कुछ और भी था। जैसे - घर को खाली रहने और किसी और को सोचने के लिये नहीं था।

तभी एक साथी ने अपनी बात को कहा, “घर को इतना बड़ा पहले से क्यों बना लिया कि वो सोचने के मुद्दे बन गया। क्या बिना कुछ ज्यादा सोचे हम अपने घर के आकार को बदल नहीं सकते? हर मौके पर घर बदलता है। उसकी सजावट से लेकर उसके आने - जाने के रास्ते भी कुछ हद तक बदल जाते हैं फिर क्यों इस सवाल को लेकर इतना बड़ा किया जा रहा है?”

ये सवाल इस महकमे में आते ही सब अपनी हुंकारी सी भरने लगे। ये दोनों ही मुद्दों में खामोशी और बहस को लेने के लिये तैयार था। एक साथी ने कुछ पन्ने अपनी जैब से निकाले और दिखाते हुए कहने लगे, “ये सब एक किताब के पन्ने हैं, जिसमें छत को भगवान और इंसान के बीच का माना गया है। कहते हैं कि जमीन अनाज़ से जोड़ती है और छत आसमान का मान पाती है। इन दोनों के बीच मे इंसान को रखा गया है। इसी को हम घर की सूरत मे देखते हैं।"


सवालों की दिशा चाहे कुछ भी हो मगर उसका अहसास बराबर था। हम ढाँचों को कैसे देखते हैं? वे ढाँचें जिनमें हम रहते हैं या रहने की कल्पना करते हैं या फिर जिनको हम कोई नाम नहीं दे पाते। हमारे रहने के ढाँचें समाजिक ढाँचों की तस्वीर मे हम वक़्त पनपते रहते हैं और सार्वजनिक ढाँचें चुनाव मे रहते हैं मगर जो ढाँचा बनाने का सवाल यहाँ पर उभरता है उसमें इन दोनों का मेल है तो कभी इन दोनों से अलग कुछ पाने की अपेक्षा रखता है।

सवाल जारी था . . .

ये कुछ गहरे और बड़े सवाल उठाने की कग़ार चल पड़ी है....
मुलाकात का सिलसिला भी - ये सिलसिला कई सवाल लेने की कोशिश में है जो बौद्धिक और समाजिक ढाँचों के बने - बनाये स्तर को दोबारा से समझने और उनके साथ एक खास तरह से मिलने का अहसास बयाँ कर पाये। हम जहाँ रहते हैं और जहाँ जाना चाहते हैं उन दोनों के बीच में क्या देखते हैं? खुद के जीवन के कुछ सवालों से ये गुट समझने की कोशिश करता है। ये शायद, सबके जीवन से वास्ता रखता है।

निरंतर.....


लख्मी

Thursday, August 20, 2009

रोज़मर्रा के दृश्य

मन की शान्ती के लिये इंसान क्या-क्या नही` करता। वो कभी हद में रहकर तो कभी हद से बाहर अपने को पूरा करने के प्रयास करता है। उसका दायरा चाहे जितना भी छोटा या बड़ा क्यों न हो वो सफलता के लिये पल-पल बनता और बिख़रता है।


दायरे कभी आप को भ्रम में नहीं डालते बल्की ये तो आपकी नज़र का दृष्टीकोण बनकर एक पड़ाव तक ले जाते हैं इसके आगे देखना है तो जीवन के सभी कारणों को समझना होगा जिनसे हमारी और हमारे शरीर के भौतिक विकास के साथ दार्शनिक प्रवृतियाँ जन्म लेती हैं।

समय नहीं ठहरता ठहर जाती है उसके साथ चलने वाली परछाईयाँ जिनकी भीड़ में हम अपने आप अकेला नहीं समझते। लगता है जैसे कोई कारवां साथ चल रहा है जिसमें हर जाना-अंजाना शख्स हमारा हमसफ़र है।

इंसान और जानवर का रिश्ता ऐसा है जैसे मिट्टी और पानी दोनों एक-दूजे की जरूरत है। ये विभन्नता कभी-कभी एक ही सूत्र में आसमान और जमीन को मोती की तरह पिरो देती है।

दुर्घटना वो सच है जो आपके कंट्रोल में होती है जरा कंट्रोल हटा और अंत का दरवाजा खुल जाता है। इस सच के अनुरूप ज़िन्दगी की किमत अमूल्य है।

ज़िन्दगी क्या है इक तमाशा है इस तमाशे में ज़िन्दगी बेहताशा है। जो चाहे खेल सकता है। सबके हाथों में कोई न कोई चौसर का पाशा है। शहर में हर पल कुछ नया सा है। चेहरों पर नकाब है, हर नकाब एक दिलाशा है।

शुक्रबाजार की भीड़ दशहरे के मेले से कम ही है। यहाँ भी टकरा जाते हैं लोग उथल-पुथल का मंजर उतरते समय का गवाह है। दूकाने लोग रोशनियाँ,आवाजें चीजें फैरीवाले सडक पर मुँह लटकाये हुए एक कुत्ता भी अपनी जगह ठहरा हुआ है बस, मौत का लिबास पहने न जाने कोई न टूटने वाली नींद में चार काँधों पर सवार होकर चला जा रहा है। कौन रोके उसे, कौन टोके उसे, उसे उस की मन्जिल मिल गई। बस, ये हम बाकी रह गये।

गलियाँ छोटी पड़ जाती, जब आँगन बड़े हो जाते हैं।
हाथ छोटे पड़ जाते हैं, जब सपना बड़ा हो जाता है।
जबाब कम पड़ जाते हैं, जब सवाल बड़े हो जाते हैं।
अंधेरे कम हो जाते हैं, जब उजाले करीब आ जाते हैं।
तोहफे कम पड़ जाते हैं, जब सौगाते मिल जाती हैं।
कोने कम पड़ छोटे हो जाते हैं, जब दुनिया मिल जाती है।
यादें धूंधली हो जाती है, जब हकिकत रंग लाती है।
रात ढ़ल जाती है, जब सवेरा हो जाता है।
खामोशी टूट जाती है, जब आवाज कोई होती हैं।
आँखे देखने लग जाती हैं, जब पलके उठ जाती हैं।
इंतजार बड़ जाता है, जब मौज़ूदगी गायब होती है।
पंछी उड़ते फिरते हैं, जब मौसम हंसीन होता है।
नसीब बदल जाते है, जब कुदरत मेहरबान होती है।
आज़ादी लुभाती है जब सांसे आज़ाद होती है।
आंधियाँ इतराती है, जब तूफान आता है।
नदिया मुड़ जाती है, जब रास्ते जटील होते हैं।
छवि बन जाती हैं, जब रंग विभिन्न होते हैं।
दोस्त बन जाते हैं, जब इरादे नेक होते हैं।
जब रास्ते अलग हो जाते हैं तो चिन्ह बदल जाते हैं।

हवा-हवा नहीं , रोशनी-रोशनी नहीं ,चीज़ें-चीज़ें नहीं ,मैं-मैं नहीं तो और क्या है?
सब बे-मतलब मगर दुनिया कोई बनावटी माहौल तो नहीं जिसे मिट्टी के पुतले और इन पुतलों में ऊर्जा ठुसी हो। जो किसी के ईशारों पर नाच रहे हैं। इंसान नाम की कोई चीज़ हमने सादियों पहले सुनी थी। अब तो इंसान की खाल में अधमरे शरीर ठुस रखे हैं जिनमें नमी बनाये रखने के लिये जीवन छिड़का जाता है।

सुनने के लिये कान बहुत हैं देखने के लिये आँखें बहुत हैं। पाने के लिये चाहत बहुत है मगर देने के लिये हाथ कम हैं। नये जमाने और नई तकनिकों के बीच में इंसान ने अपने नैतिकता को ख़त्म ही कर दिया है इसलिये शायद सब फर्जी हो गया है। भूख को भी टाटा किया जाता है प्यास का भी नाम पुँछा जाता है।

मैं कब क्या सीखा ये भुल गया मगर याद रहा की मैं क्या सीखा। जब मुझे ये अहसास हुआ की मैं किसी से कुछ पा रहा हूँ तो मेरे कच्चेपन को मजबूती मिली। घर मे माँ-बाप,स्कूल में टीचर, रास्ते में दोस्त सब किसी न किसी तरह मेरी पूँजी बनते गये। मन की सेल्फों में जैसे को खजाना भर गया हो। मैं तैय्यार हो गया मेरे पीछे कई लोग साया बन कर चले। जिन्होनें मुझे आज में धकेला। वो मेरे पास नहीं तो क्या हुआ उनकी अनमोल सौगातें तो हैं जो सीखते सिखाते मेरी झोली में आ गीरी।

राकेश

Wednesday, August 12, 2009

कहाँ से कहाँ जाने का रास्ता...

250 से 300 रिक्शे यहाँ से हर रोज़ 12 घंटे के लिए किराये पर चलाये जाते हैं। हर आदमी का यहाँ किराये का ही सही लेकिन अपना रिक्शा है। इस बस्ती की पहचान इसी से है। देखने मे ये बस्ती भले ही छोटी व गहरी लगे लेकिन शहर मे इसका अपना ही ख़ास फैलाव है। इन्ही रिक्शों के जरिये ये जगह पूरी पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के बीच मे घूमती है।

यहाँ पर किराये पर 12 घंटे के हिसाब से रिक्शा मिलता है। 30 से 35 रुपये के किराये में इसकी देखभाली भी करनी होती है। इनका किराये पर ले जाने का वक़्त भी समान नहीं है। कोई सुबह 6 बजे ले जाता है तो कोई शाम के 3 बजे। 12 घंटो के हिसाब से ये रात के 4 बजे तक इन सड़कों पर अपनी हवा मे रहते हैं।

खाली यही पहचान है इस जगह की ये भी तय नहीं है। पंत अस्पताल के डीडीए फ्लैट की बाऊंडरी से सटी ये बस्ती उस 12 फुट की दीवार से ऊपर जाती ही नहीं है। इस बस्ती के हर बसेरे की छत बाऊंडरी के उस दूसरी तरफ से बिलकुल भी नज़र नहीं आती। बाकि तो इसको पुराने दरवाज़े, खिड़कियाँ और प्लाईवुड बैचने वाले छुपा देते हैं और ये जगह अंदर की ही होकर रह जाती है।

अपने अंदर कई ऐसे किस्से व अनुभवों को रखने मे अमादा रहती है कि कोई भी यहाँ पर ख़ुद को बनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ सकता। ये एक ख़ास तरह के गुलेल की तरह से काम करती है। अपनी तरफ मे खींचकर बाहर फैंकना और फिर अपना आसरा खोज़ना ये यहाँ की पूंजी है। यही करने लोग यहाँ पर कहाँ से आये हैं वे तय नहीं है।

सलाउद्दीन दिल्ली ने आने के बाद पूरे तीन महीने बारह खम्बा रोड़ के पुल के नीचे बनी मस्ज़िद मे रहे। वहीं आने वाले लोगों के जूते-चप्पलो को संभालते। वहाँ पर लगते बाज़ार मे कुछ सहयोग कर अपना आमदनी का किनारा बना लेते। ये करना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं था। मगर वो तो कुछ और ही चाहत रखते थे।

दिल्ली मे आने का कारण यहाँ पर घूमना था। वे दिल्ली मे घुमना चाहते थे लेकिन काम करने के साथ-साथ। इससे पहले ये बम्बई मे 6 महीने रहे। वहाँ पर भी पटना से आये थे। असल मे ये हैं भी पटना के जबरदस्त पान खाने वाले।

ये मस्ज़िद के पास मे लगते बाज़ार मे से पन्नियाँ, पेपर बीनकर यहीं पर गोदाम मे बैचा करते थे। फिर तो जैसे इनकी हर शाम गोदाम मे ही बितती थी। क्योंकि इनके जैसे कई और लोग थे यहाँ पर जो परदेशी थे। इसी जगह को अपना देश मानकर काम करने की जिद्द मे लगे रहते। यहाँ से बीना वहाँ रखा, वहाँ से उठाया यहाँ बैका। इसी धून मे हर दिन, सप्ताह और महीना बीत जाता।

वे ख़ुद को दोहराते हुए जब बोलते जब गोदाम और कुल्लर बस्ती के बीच एक गऊशाला और मैदान का ही फर्क था। घरों से काम करने और कुड़े के चिट्ठे लगाने का ये जमाआधार साफ़ नज़र आता।

यहाँ आने के बाद मे जिनके पास से ये रिक्शा किराये पर उठाते हैं उनके पास खाली 40 रिक्शे हुआ करते थे। मगर पुलिस वालों से जानकारी रखकर उन्होनें यहाँ रिक्शों की फौज़ जुटाली है। वे कहते हैं, “आज देखों ऊपर वाले के कर्म से 300 से ज्यादा रिक्शे हैं"

ये रिक्शे पुलिस वालों के कर्म की मेहरबानी है। पुलिस वाले जब किसी रिक्शे को उठाते उन रिक्शों को ये कम से कम किमत पर यहाँ पर ले आते और यहाँ पर रिक्शों का आम्बार खड़ा हो जाता।

ये तो दोहपरी का वक़्त था तो लोगों को कम देखना पड़ रहा था यहाँ कि तो अब सुबह हुई है। लोग तो अब अपने काम पर निकले हैं। अपने-अपने रिक्शों की सफाई करके किराये से कमाने की जोराजोरी के मथने की तैयारी कर रहे हैं।

वे जाते-जाते बोले, “यहाँ पर कैसे कोई रिक्शा किराये पर मिलता ऊ तो हमें पता नहीं है लेकिन हमने बहुत जोर लगाया है यहाँ पर टिकने के लिए। पूरे रिक्शो की दिन के शुरू होते ही सफाई की है। इनके पीछे 786 लिखा है। तब जाकर हम यहाँ के बने हैं। लेकिन यहाँ की एक बात बहुत निराली है चाहें कोई भी कहीं से भी आया हो अगर वो क्षमता रखता है कुछ करने की तो ये जगह खुली हुई है सबके लिए नहीं तो जाओ कुछ और तलाशों।"

वे कभी अपना रिक्शा खरीदने की नहीं कहते। कहते हैं, “शायद 6 महीने के बाद मे कहीं और चला जाऊगां। यहाँ पर तो मैं सालों रूक गया पता नहीं कैसे, अब कहीं और चलेगें।"

लख्मी

Tuesday, August 4, 2009

लाईट केमरा एक्सन

सतपाल किसी एक रास्ते से गुज़रने पर वहाँ से वो कई चक्कर लगा दिया करता था। पुलिया के पास लगने वाले दैनिक बाज़ार का शौरगुल उसके सम्पर्क को तोड़ नहीं पाता था। वो पनी उधेड़बुन में लगा रहता। मोसमी के जूस का ठिया, चाय की खूशबू से वो चौराहा अपने पास से होकर जाने वाले शख़्सों के स्पर्श को महसूस करता।

गुब्बारे वाला बाजा बजाते हुये निकलता। जूस की दुकान के पास लगा मुर्गे काटने वाले का ठिया जो सुबह करीब दस बजे ही मुर्गियों की गर्दन पर छूरी रख देता था। वहीं चार कदमों की दूरी पर बड़ा सा कुड़ेदान था। जहाँ से मोटी-मोटी मक्खियाँ मंडराती हुई यहाँ-वहाँ घूमती फिरती। फिर सब्जियों रेहड़ी और लोहे का STD both जिस पर पान तम्बाकू चिप्स वगेहरा भी मिलते हैं। ये चौराहा सड़क के दोनों ओर को मुड़ता हुआ चला जाता है। रोजाना यहाँ की उथल-पुथल से टकराकर लोग निकलते हैं।

जहाँ एक-दूजे से निगाहें मिलाकर हर कोई कट जाता है अपने रास्ते को। लगातार आवारा आवाजे यहाँ बेफिक्र माहौल से जुझती रहती है। इस माहौल में होने के बाद भी सतपाल अपने अंतरद्वधों मे फंसा रहता है। वो हँसता है मुस्करता है मायूस भी होता है फिर अचानक उसके चेहरे के एक्सप्रेशन ही बदल जाते है। अगर कहीं रूक गया तो वो वहाँ से तस का मस भी नहीं होता। दिमाग चौबीसों घण्टे रट्टे लगाता रहता है वक़्त में बन रहे आँकड़ो का चार्ट उसके सामने जैसे कभी भी उभर आता है।

हमारी तरह उसे भी ऊर्जा सूरज की किरणों से मिलती है खाने के सभी पोस्टिक आहार से उस का शरीर भी बड़ता है। सतपाल की दैनिक ज़िन्दगी उसके रोज के चिन्तनमन्न से शूरू होती और कब किस रूप में ख़त्म होती ये पता नहीं चलाता।

शाम तक वो बहुत सी जगहों पर टहल कर आ जाता। पुराने दोस्तों से यूं ही अचानक मिलता और एक चौंकने वाले अन्दाज मे बर्ताव करता। सड़क का वो किनारा जहाँ से वो दस साल पहले स्कूल जाया करता था। बीच में बस स्टेंड भी है। ऑटो रिक्शा स्टेंड भी है। वही पुरानी फलो की दूकान भी है। चौराहे पर बना वो मंज़र आज भी है।
दोपहर की धूप उसके स्कूल के दिनों की याद दिलाती है। जब सुबह के स्कूल की लड़कियों की छुट्टी होती है तो आज भी उसी टाईम पर बाहर पुलिया पर आकर खड़ा हो जाता है। जो दोस्त उसे पहले से जानते है। वो अब उससे कट जाया करते। बस, कुछ ही दोस्त थे जो उसे समझते थे।

सतपाल एक दिन अपने पुराने दोस्त से टकराया, उसके चेहरे को भाँपने लगा दोनों मुस्कुराये, "अरे राकेश तू" सतपाल ने कहा उसके बाद। उसने भी सतपाल से हाथ मिलाया।

"सतपाल कैसा है तू? मैं तो ठीक हूँ, तू सुना कहाँ जा रहा है?”
"बस घर का कुछ सामान था वो ही लेने जा रहा हूँ।"
"अबे आज तो पेपर है, मेथ का"

राकेश हिचकिचा गया, "क्या बकवास कर रहा है। तू पागल है क्या?”
सतपाल हँसा, "अबे मैं पागल नहीं तू पगला गया है। देख मैं तो सेन्टर जा रहा हूँ तू आ जाना।" राकेश ने खट्टेपन से कहा- "कोन सा पेपर कोन सी क्लास?”
सतपाल बोला, "अरे भाई दसवीं और कोनसी?”
राकेश उसे समझाने का प्रयास करने लगा।
"देख भाई तू कुछ भूल रहा है। दसवी तो मैंने कब की पास करली है। मैथ मैं एक बार फेल हुआ। दूसरी पास कम्पार्टमेन्ट आई थी फिर मैं पास हो गया।"

माना के नम्बर कम थे पर पास होने की खुशी ज़्यादा थी। जैसे - तैसे दसवीं का ठप्पा लग गया यही बहुत है। सतपाल को इस बात का जरा भी झटका नहीं लगा। "अच्छा" कोई बात नहीं मैं तो जा रहा हूँ तूझे आना है तो चल।
दस साल पहले बीते दौर को सतपाल ने अभी भी ज़िन्दा कर रखा था। यादों में नहीं था ये मुझे यकिन था। अतीत उसके जहन में अन्धेरे में जल रही डिबिया की तरह था।
वही डिबिया उसे अपने उजाले में आज का समय दिखा रही थी। उसकी कामनाएँ मेरी नहीं थी। उम्मीद टूटी नहीं थी। वक़्त का साथ उसने नहीं छोड़ा था। पर शायद वक़्त उसे कही गुमनाम जगह छोड़ आया था।

दुनिया उसके लिये वैसी ही थी जैसी सब के लिये वो भी भूख प्यास जानता था। वो पुलिया की मुंडेरियों पर घण्टो बैठ करता था कभी सड़क के किसी कोने पर खड़ा होकर अपनी निगाहों को दूर - दूर तक ले जाता । फिर कुछ सोचने लगता। फिर दोबारा से हाथों की कोहनियों को मिला लेता और बड़ी पैचिदा हालात रिएक्ट करने लगता।
शायद ये दूनिया पागल होती तो कैसा होता किसी न कोई फिक्र न कोई डर होता। मगर इतना होने के बावज़ूद ये पापी पेट न होता तो सोने पर सुहागा होता।

वक़्त हर किसी के साथ अहतियात नहीं बरता। सतपाल शायद उन सभी हालातों से गुज़र रहा था। जहाँ से अच्छा खासा इंसान भी टूटने लगता है। सतपाल टूटने का नाम नहीं वो लड़ रहा था। अपनी दैनिक ज़िन्दगी से। वो निहत्था भी नहीं था। अभी उसने हथियार नहीं घेरे थे। अपने आप में कभी मोन तो कभी इस मोन को तोड़कर वो बाहार आ जाता। फिर यथार्थ श्रृखलाओं मे शामिल हो जाता।

ठीक उस तरह जिस तरह कई कबूतरों के भीड़ दाना खाते हुये अचानक कोई कबूतर आसमान में उड़ जाता है। वो मदमस्त हो कर बस्तियों शहरों के ऊपर से उड़ता जाता है। न किसी जगह पँहुचने की जल्दी न किसी का इंतजार। नहीं वापसी कि चिन्ता होती।

सतपाल जब अपनो के बीच होता तो उसे अकेला पन महसूस होता और जब वो बाहार आता तो उसे कुदरती सुकून हासिल होता। वो दूनिया के ऊपर पडे वक़्त के पर्दो को हटाकर किसी दूनिया का नज़ारा देखा करता। क्षण भर में ही उस की आँखे जैसे किसी फ्रैम से झाकने लगी हो और उसके चेहरे पर सैकड़ों फुल खिल गये हो।
रोशनी की किसी किरण न जैसे उसके हाथेलियों कोई दिव्य मणी रख दी हो जिसके तेज से उस के शरीर में दिव्यमान उजाला भर गया हो। चारों तरफ आते-जाते लोगों की भीड़ कहीं से कहीं चली जा रही होती और वो वही पर ठहरा हुआ जैसे किसी के चरित्र की अदाकारी को पेश कर रहा होता।

लाईट, कैमरा, एक्शन......

माहौल में कुछ बदल जाता। वो अमिताभ बच्चन की नकल कर के कहता, "रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते है नाम है शहनशा" फिर फौरन वो राजकुमार बन जाता। जानी हम सोदागर है हमारे चौदह घर है"

एक ही टेक में वो कई सीन बना देता। इस तरह से फिल्मी एक्टरों के डायलॉग और एक्टींग करके वो सब को हँसाता फिरता था।

कभी भी वो तमाशा दिखाने वाला बन जाता कभी तमाशे वाले का जमूरा बन जाता।

राकेश

एक संवाद –

शख़्सियत और जगह को हम कैसे देखते हैं? उसके साथ मे दोहराना क्या है? यहाँ पर दोहराना खाली कह देना ही नहीं है, वे कभी बयाँ करना होता है तो कभी उतारना।

ये सवाल सर्वहारा रातें के पन्नो मे बखूबी उभरता है - लेकिन उस शाम इस किताब के लेखक से बात करने के बाद मे इन दोनों शब्दों के मायने ही कुछ और बने।

शख्स जिसको देखने के कई रूप हो सकते हैं लेकिन सबसे ज्यादा मजबूत रूप कौन सा है? जिसे देखकर हम उसकी छवी बनाते हैं? एक काम करने वाला वर्ग खुद को काम के मालिस मे मांधता रहता है, खुद को चमकता रहता है, खुद को सम्पूर्ण बनाने की कोशिश मे वो खुद को पॉलिस पर पॉलिस करता रहता है। यही शायद उसको देखने के और बयाँ करने के कारण बन जाते हैं।

लेकिन क्या हमें पता है कि हम जिसे देख रहे हैं, काम करते हुये, बैठे हुये, बातें करते हुये या किसी चीज को निकालते हुये। वे वही शख्स है जो वो साफ नजर आ रहा है या इसके अलावा भी वो कुछ और है?

शख्स अपने साथ मे अपनी कई और छवि लिये चलता है। जिसे वो मांजता या निखारता हुआ भले ही नज़र न आये लेकिन वो उसके पूरे दिन के घेरे से बनाता चलता है। यहाँ पर शख्स एक जीवन की भांति लगा जिसमे एक शख्स नहीं बल्कि उसमे कई शख्सो को जोड़कर देखा जा सकता है। जिसमे शख्स कभी, यादों को दोहराने वाला नहीं बनता, कभी काम को लिबास बनाकर जीने वाला भी नहीं रहता, कभी ज़ुबान को बनाकर उसे दोहराने वाला भी नहीं रहता। शख्स यहाँ पर एक हवा और पानी की तरह से जीता है जिसकी जुबान और रातें खुद को नया रूप देने लिये जी जाती हैं।

मेरे कुछ सवाल थे जो मैं पिछले दिनों लेखन और दोहराने के तरीको मे किसी जीवन और शख्सियत को उभारने की कोशिश कर रहा था। जो सर्वहारा रातें किताब के बाद मे सवाल को गहरा कर देती है।

मेरे आसपास मे कई कहानियाँ सुनी और सुनाई जाती हैं। कभी उदाहरणों के तौर पर तो कभी समा बाँधने के लिये तो कभी जगह को बताने के लिये। हर कहानी कभी एक दूसरे से बंधी - जुड़ी लगती है तो कभी एकदम अलग दिशा की। मगर वो सुनाई किस लिये जा रही है उसका अहसास एक ही रहता है।

इन कहानियों मे अनगिनत लोग बसे होते है, जिनको कभी मैं नहीं मिला, उनको कभी देखा भी नहीं है। कहानियों मे आये लोग कहानियों मे है लेकिन असल जिन्दगी मे वो कहीं स्थित नहीं रहते। उनका कोई रूप नहीं दिखता। मैं कभी सोचता हूँ की किसी कहानी के जरिये आने वाला शख्स कोई और नहीं बल्की सुनाने वाले की ही दूसरी छवि हैं औ‌र कभी सोचता हूँ की ये शख्स बनाये - रचे गये रूप है कोई शख्स नहीं है।

मेरे इस घुमाऊ सवाल के बाद मे शरीर और आकार को लेकर बातचीत चली, जिसमे मेरा सवाल था‌ की जो रूप कहानी मे बनता है वो कभी नजर नहीं आता, ऐसा लगता है जैसे वो बौद्धिकता हर किसी के अन्दर का ही रूप है। तो मैं उन कहानियों मे बसे लोगो को अपने आसपास मे स्थित करके उसे बयाँ करने लगता हूँ। किसी जगह को सींचते हुये।

इस पर मेरे एक साथी ने कहा, "मुझे लगता है की मैं कई अनेकों शरीर से घिरा हुआ हूँ लेकिन वो अहसास नहीं मिलता जिसमे उन्हे मैं ढाल पाऊँ।

बातचीत मे शरीर और उसका अहसास, हमारी सोच और बातों मे बेहद टाइट लग रहा था जिसमे जॉक रांसियर केर साथ बात करने के बाद उभरा, "शरीर हो या कहानी, दोनों की अपनी - अपनी जुबान होती है, और इन दोनों को लिखने वाले की अपनी। हमे ये तय करना होता है की हम कौन सी जुबान बनाये जिसमे कुछ छुटे भी और वो भी न रहे की जिसको लिख रहे हो वो वही रहे जो वो है। हमें अपनी और उसकी जुबान दोनो को सोचना होता है। जिससे किसी तीसरी जुबान का बनना तय होता है। वही उन सारे सवालो और शख्सियतों को खोल पाती है। इतना गहरा सोचना और खुद के लिये सवाल बना लेना कभी कभी सामने वाली चीज से मिलने से रोकता है। हमें पहले टकराना होता है, जिससे हम सवाल तय कर पाते हैं, मिल पाते हैं।"

ये तीसरी जुबान क्या होती है?

लख्मी

एक और मुलाकात,

अपने को आज़माने के क्या तरीके हैं?

शाम मे ये कसर हर रोज़ निकाली जाती है। एक गुट जो रोज़ शाम मे मिलता है जिनके पास मे खाली खुद की कहानियाँ ही नहीं होती वे रखते हैं खुद को दोहराने और खुद को आज़माने के साधन।

इस बार का मौका रहा, अख़बार और टीवी पर चलती दुनिया। उसके साथ मे एक शख्स अपने साथ मे कई अखबारों की कटींग लेकर आया। जिसमे कई नौकरियों के गुच्छे थे। हर पर्चा दिल्ली शहर के किसी कोने का था। ऐसा लगता था की जैसे एक ही बन्दा कितनी बार शहर के अन्दर घूमा होगा। उसका सवाल था - इतना घूमने के बाद भी किसी को कैसे बताया जाये शहर क्या है?

उसमे वो खुद को हटाकर बोल रहा था। वो अखबार की कटींग उसके लिए ये प्रमाण नहीं थी की वो शहर को कितना जानता है बल्कि ये था की वो शहर मे कितने अन्दर के हिस्सो मे खुद को देख पाता है। अखबार उसके लिए एक ऐसी शख्सियत बना रहा था जो उसके शहर के कोनो मे ले जाने की जोरआज़ामइस करता और हर बार किसी नई तरह से खुद को आज़माने की तरफ मे धकेल देता।

अखबार खाली पढ़कर किसी के बारे मे और किसी को जानने में ही किरदार निभाये ये ही तय नहीं होता। उसका कहना था - "क्या मैं इन कटींग को लेकर जितना घुमा उसके बाद भी मैं शहर मे कहीं परिचित नहीं होता क्यों? ये मेरे लगभग चार साल है जो मेरे लिये किसी भागदौड़ के सिवा कुछ नहीं थे लेकिन आज ये इतने पावरफुल हैं की मैं इनको लेकर किसी के भी आगे अपनी मेहनत और भटकने को बता सकता हूँ। जिसमे मुझे बहुत दम लगता है।"

वो अखबार उस गुट के लिये कोई बड़ी बात तो नहीं थे लेकिन ये उस एलबम की तरह थे जिनको उस जन के रास्तो और थकावट को सहज़ कर रखा था जिससे वो आज खुद को किसी शक्तिशाली इंसान से कम नहीं आँक सकता था जो खुद से बहस करने के साथ - साथ किसी को उस बहस मे शामिल भी कर सकता था।

अखबार की ये कटींग उन सारे क्षणिक पलो की वो किताब थी जिनको पढ़ा नहीं जा सकता था उसके साथ घूमा जा सकता था।

लख्मी

दैनिक जीवन के आयोग मे...

नये शहर के नये इलाके में आये हुए सुरेश को कुछ ही दिन हुए थे। उसने कभी सोचा भी नहीं था की उसकी ज़िन्दगी इतनी बेरहम बन जायेगी के सुरेश को किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ेगा। उसने किसी तरह अपने मकान मालिक से कुछ दिनों की मोहलत मांगी ताकी वो पिछले दो महीने का भी किराया दे सके। उसे इस बात का गम नहीं था की यहाँ आकर उसे लोगों से मांगना पड़ रहा है। गम तो इस बात का था की इसके सिवा उसके पास कोई चारा भी नहीं था। वो एक दम अकेला पड़ गया था। वो क्या करता जब सब घर के लोग उसकी तरफ उम्मीद की नज़र से देखते। जरुरत आदमी को क्या नहीं करवा देती? इंसान, इंसान को क्यों भूल जाता है? और जानवरों जैसा सलूक करने लग जाता है पर सुरेश जानवर नहीं बना।

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मेरी यादें जो असल में किसी और की धरोहर है। मैं इन्हे कैसे ठुकरा दूं। वक़्त रेत की तरह मेरे हाथों से छूट जाता है। मैं अपनी याद्दश्त को ज़िन्दा रखना चाहता हूँ। इसलिये वर्तमान को देखता हूँ और उसे पकड़ कर रखना चाहता हूँ। जिसमें मेरी यादों का सिलसिला के लिये सौगात बन जायें।

दर्द जीना सिखाता है फिर दर्द कैसे दूश्मन हुआ,सब कुछ संतूलन मे चलेगा तो असंतूलन का अपनी रचनात्मकता को कौन जानेगा। हम असंतूलन में है संतूलन बनाने के लिये प्रयास करते है मगर फिर वही उसी जगह असंतूलन में आ जाते हैं।

राकेश

Friday, July 17, 2009

वो एक नया वर्तमान पैदा करती है...

आने वाले कुछ ही सालों में दिल्ली में छा जायेगें मैट्रो ट्रेन के स्टेशन। तेजी से दौड़ेगी हमारी ज़िन्दगी इस मैट्रो में पर जिन लोहे की पट्टरियों पर मेट्रो दौड़ेगी उन पट्टरियों को सम्भाले हुए खड़े होगे कई सरकारी और गैर-सरकारी कन्ट्रक्शन कम्पनियों के हाथों से बनाये गए वो पुल।

जिनकी नीव में, बुने गए ढाँचो में, मलवे में और अन्य हादसों की सतहों में न जाने कितनी ही ज़िन्दगियाँ समा चुकी होगी। हादसे तो कदम रखते ही है ज़िन्दगी का सच निचौड़ने के लिये। इसलिये ये हादसे जीवन में यमराज बनकर आते हैं और समय की अदृश्य सरहदो को लाँघकर शरीर से ज़िन्दगी को छीन ले जाते हैं।


मौत एक सच है और ज़िन्दगी उस से भी बड़ा सच है। मौत जीतकर भी हार जाती है और ज़िन्दगी हार कर भी जीत जाती है। अगर ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाइयों को पीकर हम मौत को मात देते हैं तो मौत भी हमारी ताक में रहती है। वो जगह-जगह हमें तलाश रही होती है। अपने हाथों में एक तरह का इन्विटेशनकार्ड लेकर। मौका मिला और कहीं किसी के भी हाथ में थमाकर रफूचक्कर हो जाती है। ये मौत अचानक ज़िन्दगी में आ जाती है। कब-कहाँ और कैसे, किसी को इन सवालों का जबाब मालूम नहीं है।

अभी पिछले साल 2008 मे हुई लापरवाही को मैट्रो पुल बनाने वाले लीडरों ने एक एक्सीडेन्ट करार दे दिया। लक्ष्मीनगर के पास बने इस पुल के नीचे बीचो-बीच दबी ब्लूलाइन बस में बैठे लोगों की मौत ने पूरे शहर में सनसनी का माहौल बना दिया था।

कई जख्मी हुए कई मौत के घाट उतर गये। सरकार हिल गई मीडिया ने इस दिन को बार-बार दिखा-दिखा कर लोगों के दिलों में दहशत भर दी। लोग मरे हंगामा हुआ। ये ख़बर न्यूज चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बनी रही। लाखों की आँखों मे ये मंज़र खौफ बन कर दिलो-दिमाग पर छाया रहा। मगर वक़्त ने अपने तेवर नहीं बदले वो ज्यों का त्यों चलता रहा। आखिरकार ये मौत भी उन लाखों-करोड़ों मौत की तरह अपना कोई बयान पीछे छोड़ गई। जिसे पढ़कर या सुनकर, आने वाली नस्लें अपने अतीत से कुछ सीख पायेगीं। इससे याद्दश्त को कोई हानी नहीं होगी, क्योंकि अतीत की परछाईयाँ याद्दश्त में ईजाफा करती हैं। वर्तमान बनाती हैं। अपने बीते माहौल के एक-एक मूवमेन्ट को लेकर वो एक नया वर्तमान पैदा भी करती है।

ये ज़ुमला उस कहावत से बिल्कुल भिन्न है जिसने कहा है की "मुर्गी पहले आई थी या अण्डा" जो भी पहले आया मौत तो उसी की हमराज बन जाती है। वो बीता लम्हा जो किसी की रहगुज़र से होकर निकला और किसी की झोली में आकर गिर गया। शायद लक्ष्मी नगर के इस मैट्रो पुल वाले हादसे से आबादी उभर चुकी थी। भूल चुकी थी उस मौत को जो कई सौ टन के सीमेन्ट से बने पुल के नीचे दब कर हुई थी।


आज उस हादसे ने फिर करवट बदली है। फिर मौत ने अंगड़ाई ली है। फिर वही सवाल। फिर भूलने के तरीके पर प्रश्न चिन्ह लगा है। फिर वही याद्दश्त को झिजोंड़ने वाली तस्वीरें। जो जीवन में एक दम से शून्यता का अहसास दिला जाती है और बुन देती है हमारे चारों ओर डर का जाल। जिसमें उलझ जाती है हमारी बहूमुखी चिन्ताये। जो निकलती है हमारे विचारों के मंथन से और सवालों की प्रगाढ़ता से। क्यों? क्या? और कैसे? फिर आमने-सामने होती है ज़िन्दगी और मौत और इनके बीच झूलती है वो शंकाए जिनको जन्म देती है सरकार की जल्दबाजी। सत्ता का चलन वो है जो अपने आपसे भी समझोता नहीं करता।

सरे आम ये कहा जा रहा है की केन्द्र सरकार ने भारत में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलो से जुड़ी परियोजनाओ के कारण मैट्रो निर्माण के कामों को पूरा करने वाली कम्पनियों की डेड लाईन का वक़्त अब ख़त्म होने को आ रहा है। इसलिये इस पूरी प्रक्रिया को कामयाब करने के लिये कुछ ज़्यादा ही तेजी बर्ती जा रही है।

जमरूदपुर में मैट्रो पुल के टूट जाने से रविवार के दिन शहर में अफरा-तफरी का माहौल बना रहा। इस दोहरी घटना ने 24 घन्टे शहर के लोगों को हैरत में डाल दिया। जो भी हो पहले पुल टूटा फिर क्रेन के हादसे से मलवे में दब जाने से लोगों की जान चली गई।

क्रेन का गार्ड गिरने से एक दम से धमाका हुआ की चारों तरफ तमाशा-ए-बीन लोग कार्मचारी और मजदूर अपनी जान बचाकर दूर भागे। लगभग क्रेन की मशीन चार सौ टन के स्लेब को ठिकाने लगाने का काम कर रही थी। अब चाहे मशीनी ख़राबी हो या कोई लापरवाही जो होना था हो चुका। मूंबई की कम्पनी ने कहा है की मरने वालों या घायलों को मुआवज़ा दिया जायेगा। इससे ज़्यादा कम्पनी और क्या कर सकती है।

रोज़ाना की ज़िन्दगी में हादसे खड़े होते हैं। आने वाला समय उन हादसों को भुला चुका होगा जो आज कल शहर में घटीत हो रहे हैं। मानो तेजी से कोई वायरस हमारी नव निर्मीत दूनिया में आ चुका है। जो जगह-जगह कह़र ढा रहा है। वो हमारे सारे सम्पर्क जान गया है सारे राज़ जान गया है। इसलिये ज़िन्दगी के टेढे-मेढे रास्तों पर एक अनचाही हेवानियत की मौज़ूदगी ने कदम-कदम पर शिकंजा बिछा दिया है। जैसे - मौत सब को खैरात में बाँटी जा रही हो। कहीं खाने - पीने की चीज़ों में तो कही घूमते-फिरते जगहों में होने वाले धमाको से कभी अपने ही चूकने से। तो कहीं हादसा खुद एक शिकारी बनकर शिकार करता है। ये मौत ज़िन्दगी की गलियों में अपना सा कुछ ढूँढती फिरती है।

एक अजीब सी बात सुनने को मिली है पुल के आसपास बसे लोग ये कह रहे की यहाँ मैट्रो पुल बनाने के लिये कई सौ साल पुराने पीपल के पेड़ को काट डाला है इसलिये ये हादसा हुआ है। शनी देव जी के नाराज होने की वज़ह से ये दूर्घटना हुई है।

गेनम इंडिया कम्पनी को गैर जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। शनी देव जी इस पीपल के पेड़ में विराजमान होते थे। मैट्रो के कामगारों ने इसे एक झटके में ही काट डाला। कई सौ साल पुराने इस पेड़ की पूजा जमरूदपुर गांव के लोग करते आये थे। अब वो पेड़ नहीं रहा ये बात वहाँ तेजी से फेल गई है की यहाँ अब अक्सर इस तरह के हादसे होते ही रहेगें।

राकेश

Wednesday, July 15, 2009

दो आँखें जो हमेशा तैरती है...

कौन समय कब तक हावी रहेगा ये कोई नहीं समझ सकता और कौन सा समय कब तक शरीर से चिपका रहेगा ये भी कोई नहीं समझ सकता।

किताब के पन्नो की तरह यहाँ समय का चक्का हमेशा और लगातार पलटता रहता है, हर दिन का जैसे नया ही चित्र हो। अगर चित्र वही होगा तो उसके अन्दर की हलचल एकदम अलग होगी। हर कदम पर जैसे मोड़ नहीं चित्र बदलते हैं।

मुझे अच्छी तरह से याद है मैं यहाँ की गलियों से तकरीबन 2 साल सिर नीचे करके चलता आया हूँ। इसलिए मुझे मोड़ तो नहीं मगर उनकी शुरूआत ही नज़र आती रही। ऊपर क्या है उससे मैं हमेशा अन्जान ही बना रहा। मन करता था की यहाँ की हर गली और कौना देखूँ, जहाँ पर मैं गया भी नहीं हूँ वहाँ पर जाकर देखूँ। क्या मैं थक जाऊँगा? या फिर ये जगह मुझे थकने ही नहीं देगी। मैं यहाँ तक तो अपने में ही रहा।

असल में ये जगह अन्तहीन है, दिवार से लगी दिवार इसका अहसास करवाती है। कई दिवारें तो एक – दूसरे से भिन्न लगती है तो कई पता ही नहीं लगने देती कि इसके ऊपर चलते समय के आँकड़े अलग – अलग हैं। कब पहला ख़त्म हुआ और दूसरा शुरू। किसी कविता के अहसास की भांति ये चलती रहती है।
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ये पाँचवी बार था, वो वहीं पर बैठी थी। गली के अन्दर आते और जाते बन्दे को देख रही थी, जैसा वो अब तक करती आई थी। इस पूरी गली में दो ही आँखें ऐसी थी जो हमेशा खुली रहती थी। किसी से मिलना हो पाये ना हो पाये लेकिन कोई आपको वहाँ पर देख लिया करता था। उनसे कोई भी बचकर नहीं निकल सकता था। पहली तो ये नजदीकी से निहारती ये अम्मा की आँखें और दूसरा वो गली के कोने पर लगा स्ट्रीपलेम्प हो हमेशा ही अपनी आँखें फड़फड़ाता रहता। उसका फड़कना जैसे कभी बन्द ही नहीं होने वाला था।

उनके हाथ, पाँव और शरीर जैसे किसी चीज़ से सुन्न हैं लेकिन आँखें जैसे कभी थकती ही नहीं हो। वो यहाँ से वहाँ आती - जाती रहती। हर दो पल में उनकी पलकें कुछ इस तरह से झपकती जैसे मानो कितने ही समय को उनके दिल के अन्दर ले गई हो। तस्वीर पर तस्वीर बस, चड़ती ही जाती।

सिर के ऊपर से वो हमेशा चमक का अहसास करवाने में सक्षम रहता। चाहें उसके नीचे से कोई गुज़रे, बैठे या खड़ा रहे इसका उसपर कोई गहरा असर नहीं रहता। मगर वो हमेशा ही अपने होने अहसास करवाता रहता। कभी तो अपनी पूरी आँखें खोल लेता तो कभी बस, तस्वीर पर तस्वीर खींचता ही रहता। इसका उसे जैसे बहुत मज़ा आता कई रोशनियों से भिड़ने में। न तो ये कभी पूरा जलता और न ही कभी पूरा बन्द होता। किसी की गलती से ये यहाँ पर खड़ा अनेको रोशनियों का विद्रोही बन गया था। जो हमेशा क्षत्रिये बनकर लड़ने के जुझारू बना रहता।
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उनके कानों से कई आवाज़ें होती हुई घर की चौखट पार करती। उनके इशारे इनकी इतनी प्यारी ज़ुबान है कि हर कोई उनके पास में बैठकर उनके इन्ही इशारों में दो - दो हाथ करने के लिए तैयार रहता। ये किसी भरपूर चाहत के समान होता। हर कोई उनके पास में बैठकर बोलना क्या चाहता था लेकिन बोल क्या जाता इसका तो मतलब दोनों को ही नहीं पता होता लेकिन जिसने भी वो इशारा किया होता उनके विश्वास में कोई भी कमी नहीं आती। वो दोबारा इशारों से अपनी कहानी कह डालने की कोशिश करता रहता।

मुँह की तरफ इशारा होता तो वो गर्दन हिला देती, शरीर की तरफ में हाथ खेलता तो वो गर्दन हिला देती लेकिन जैसे इशारे में हाथ आसमान की तरफ लम्बा खिंचता तो उनकी आँखें ही इधर से उधर घूम जाती। वो समझने के लिए जैसे बेइन्तहा कोशिश कर रही हो। सामने बैठा शख़्स अपने इशारे करता, रुकता, फिर करता और फिर रुकता। बात जैसे किश्तो में अपने मायने बता रही हो मगर जब वो बोलती तो हाथ जैसे नृत्य करते और हवा में तैरते नज़र आते।
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उनकी कहानी हवा में अपने आकार बनाती चली जाती। घर, बारह और आसमान सभी उनकी कहानी के पात्र बन जाते। कभी - कभी तो जमीनपर पड़े पत्थर भी उनके इशारों की आत्मकथा में मेंन और बेहतरीन क़िरदारी निभाते नज़र आते। कहानी तो उन्ही के हिसाब से हमेशा चालु रहती।

इस दौर में समझने और समझाने जैसी जद्दोजहद सामिल रहती मगर जोश तो बरकरार रहता।

किसी को पता चले या न चले की वो जमीन तक अपनी चमक दे रहा है, जमीन पर रखे और पड़े हर चीज को छु रहा है। अपनी छुअन का अहसास भी करवा रहा है। जैसे - जैसे फड़कता वैसे - वैसे जमीन पर पड़ी हर चीज़ उसी के साथ में डाँस करती नज़र आने लगती। डिस्को लाइट की तरह से ये सब कुछ हिलता हुआ नज़र आने लगता।

उसका यही काम था जो वो बिना किसी की इजाजत लिए करता चलता जाता और कितनी ही बन्द और खुली आँखों में मिल जाता।

लख्मी

साधन - क्या है?

साधन - पहला भाग...

साधन क्या है? ये सवाल कोई अनोखा नहीं है। इससे हम जैसे रोज़ लड़ते हैं और इसे रोज बनाते भी हैं। हर कोई खुद के लिये जैसे साधन जुटाता फिरता है। कोई कल्पना करने के लिये साधन बनाता है, कोई खुद को रखने के, कोई कहानी सुनाने के, कोई महफिल मे शामिल होने के, कभी - कभी महफिल भी साधनो से रची जाती है तो कभी रच जाने के बाद मे लोग छोटे - छोटे कारणों को अपनी बातचीत का साधन बना लेते हैं। क्या हमें पता है की हमारे आसपास चलती बातचीत के समुहों मे साधन क्या होते हैं?

एक जगह जहाँ पर इस सवाल को लेकर बातचीत चली। ये दस साथियो का एक गुट है जिनके लिये साधन कोई सीढ़ी नहीं थे और न ही वो कोई हवा मे झूलती डोर। साधन जो एक रूप बनता है किसी चीज़ मे गहरेपन से उतरने का। एक मौका बनता है किसी से जुड़ने और संकल्प बनाने का। साधन कोई चाबी नहीं है लेकिन कई अनेको सोच और कल्पनाओ को खोलने और उसे बहने देने का अच्छा खासा इंतजाम कर सकती है।

यहाँ पर आये कुछ साथी अपने साथ एक साधन लेकर आये कोई किताबें लाया - विनोद कुमार शुक्ल – खिलेगा तो देखेंगे की और कोई लाया फिल्म का एक क्लीप - फिल्म थी ( आई क्लाउन) कोई तस्वीरे लाया- जिसमे तीन लड़कियाँ अलग - अलग ड्ररेस मे बैठी थी, तो कोई ड्राइंग / ग्रापिक्स जिसपर वो उन्हे बनाने और उन्हे देखने का नज़रिया बना पाने की कोशिश मे था। कोई टेकनॉलोजी से मोबाइल लाया और कोई किसी माहौल के विवरण के तरह किसी वर्कशॉप की तस्वीरे और लेख लाया।

किताबें हमारी ज़िन्दगी मे क्या सजों पाती है? क्या खाली टाइम मे पढ़ने का जरिया?, क्या पढ़कर भूल जाने के तरीके? या कुछ और है? या स्कूलो की तरह से पढ़ने और जवाब देने के बाद मे सब कुछ खत्म हो जाता है?, शायद नहीं

यहाँ पर किताबों का कुछ और ही रूप था - जिसमे कुछ ऐसे मुल्यवान सवाल उभरे की उसको सोच पाना किसी नई धारा के साथ बहने के समान था। ये सवाल किसी से पूछे जाने वाले सवाल नहीं थे और न जवाब पाने के साथ मे खत्म हो जाने वाले। सवाल खुद के साथ मे जीवन का फलसफा समझने के लिये तत्पर थे।

एक साथी ने एक किताब रखी जो समाजिक नितियो की भरमार थी। जिसमे जीवन जीने के तरीके और उसको बनाने के आयाम कुछ बने - बनाये ढाँचो के ऊपर चलने वाले बने थे। यहाँ पर वो किताब को पढ़कर कुछ सवाल खोज पाया-

सवाल था : मूलधारा क्या है? हमारे जीने की, हमें बनाने की और हमारे चलने की?
असल मे एक धारा तो हमारे आसपास मे बनी है जिसमे सब कुछ पहले से ही तय हो जाता है। हमारे दिमाग का हमारे शरीर के साथ और हमारे चलने का हमारे रुकने के साथ। लेकिन ये मूल धारा मे चलना हमे नये की तरफ धकेल पाता है? क्या इसमे नये की कल्पना शामिल होती है?
अगर हम इस मूलधारा से हटकर सोचना चाहते हैं तो उसके बिन्दू क्या हैं?

मूलधारा को सोचते हुये चले तो हमें क्या मिलता है? जीवन की ये मूलधारा क्या है? कुछ तो है जिसके साथ बन्धे हैं?

उसी के साथ मे एक और साथी ने एक किताब रखी जिसमे इस सवाल से जुझने का एक नज़रिया तो नहीं कह सकते लेकिन एक कोना समझमे आने की कोशिश मे रहा। दूसरे साथी ने कहा, "मैं और बाहर की दहलीज़ पर बैठकर कुछ बनाना क्या होता है?

इस सवाल से असल मे हम उस छोर को लाने की कोशिश कर सकते थे जो आर या पार की भूमिका को जीवन मे खत्म कर देता है। फैसला नहीं है और न ही फैसले तक का जीवन है। ये किसी धारा के बीच की दुनिया है जो बनी - बनाई नहीं है। जो निरंतर बहती है। मूलधारा कहीं पर जाकर तो अपने बने बनाये रूपो मे फसती है। वो कोने कौन से हैं? ये दहलीज़ उस अनकेनी की बुनियाद की तरह से है। जिसे गिना नहीं जा सकता लेकिन गिनती मे नहीं है ये भी नहीं कहा जा सकता।

"दहलीज़" शब्द से मूलधारा को समझा जा सकता है या शायद नहीं। लेकिन काम - प्रक्रिया उसके बाद मे फैसला ये तय कर देता है उस नितियों को जिसे कड़ी धारा के माध्यम मे देखा जाता है। मगर यहाँ पर सवाल कुछ दूसरा हो गया था। जो कहीं पर है, लेकिन नज़रों से चिन्हित नहीं किया जा सकता।

लख्मी

Tuesday, July 7, 2009

आटो रिक्शा - जगह की जिन्दगी

वर्तमान इस बात का गवाह है की आज दिल्ली की सड़कों पर यातायात के सुलभ प्रयोजन हैं पर वक़्त के नये और कारगर योजनाओं की चपेट में आकर यातायात के कई साधनों के लुप्त होने के बिन्दू दिख रहे हैं। ये देखने में आता है की शहर आदमी की ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा ही नहीं बल्की आज शहर की आबों-हवा के बिना आदमी की कल्पना करना नामुम्मकिन सा लगता है।

शहर में सत्ता का सिक्का चलता है इसमें कोई शक़ नहीं है। वो कानूनी दाव-पेच के जरिये अपने लोकतंत्र में जीने वाले प्रत्येक व्यक़्ति से राज्य का नुकसान और मुनाफा करने के लिये सार्वजनिक सम्पदाओं में जीते लोगों पर टेक्स जैसे भुगतानों से अपनी जड़ों को सींचती है और बदले में देती है एक तराजू-बट्टे से नपा-तुला शरीर कि चक्की में पिसा वो हिस्सा जो संतुष्ट ही करता है। सपने पूरे नहीं करता। सपनों को जन्म ही लेने नहीं देता। बल्की आप किसी के सपने के लिये जी रहे हो ये समझ कर खुद को मारकर भी ज़िन्दा रखा जाता है। ये ज़्यादा दिखाई देगा उस निराकार उद्देश्यहीन और भौतिक दूनिया में एहतियात बरती विवेकशील इच्छाओं में। असुविधाओं में एक सच्चा जीवन अपनाकर जीने वाले मजदूर आदमी में। इंसान ने शरीर की अनेक क्षमताओं के बारे में शायद जान लिया है।

तभी वो खुद को किसी के सपने के लिये ज़िन्दा रखकर उसके साथ अपना सपना भी देखना शुरू कर देता है। इसलिये अपना एक क्षेत्र मानकर आदमी किसी न किसी विभाजन के बीच रहकर अपने आराम और काम से अलग बनी रचना में भी जीने लगता है।

ये चाहत उस नियम को तोड़ती है जो किसी के जन्म से पहले बन जाता है। जो समाज में आने वाले के आगमन के होते ही उसकी छवि को समाज में प्रचलित कर देता है। लेकिन असल में जब बनाने वाले के हाथ ही ये भूल जाये की मैंने इस नेन-नक्श से सोभित रूप - आकार को बनाया किस लिये है? और वो करना क्या चाहता है? तब वक़्त की भविष्य वाणियाँ भी झूठी पड़ जाती है फिर काल्पनिकता इतनी गाढ़ी हो जाती है की सपना भी हक़ीकत में बदल जाता है या सब सच हो रहा होता है। यानी इंसान को जब मौत के लिये बनाया है तो अपने लिये जीने की वज़ाहें तलाश लेता है और फिर जीना चाहता है तो फिर इंसान को बनाने वाला भी अपना ईरादा बदल देता है और हमारी तलाश की ज़िन्दगी मे ईजाफा कर देता है।

ऐसा ही तेवर मैंने आटो रिक्शा बनाने वालो के जीवन में देखा। एक चलता-फिरता भौतिक जीवन का ढ़ाँचा। जिसका शायद भाविष्य है। ये एक साधन और ज़रिया तो है ही, पर किसी को कहीं से कहीं तक छोड़ने के अलावा इसके साथ रोजमर्रा की सच्चाई और काल्पनिलताएँ जुड़ी है। ये एक जगह में गढ़ा जीवन बनाये हुए है। जिसके साथ कई लोग, कई घर की कशमकश से भरी इच्छाएँ उज़ागर हो रही है। इन सारी भावनाओं और ज़िन्दगी इमारतें को खड़ा रखने वाली जगह है। जो ये एक आटो रिक्शा रिपेयर मार्किट है। जिसके साथ यहाँ पर भारी संख्या में लोग जुड़े हैं। इस समूदाय में हर कोई किसी न किसी का उस्ताद और शार्गीद है पर किसी को भी इस बात का जरा भी अभिमान नहीं है। सब का कार्य करने का अपना अन्दाज है अपना तरीका है। सब एक - दूसरे के स्वभाव से सुसोभित रहते हैं। दिन भर में न जाने कितनी बार किसी न किसी से मिलते-जुलते नज़र डाल जाते हैं और मज़ाक के अन्दाज में कोई भी बात कह जाते हैं। सब का आपस में बड़ा अच्छा ताल-मेल का रिश्ता है। जो उदारता और करूणा अहसास देता है पर जब उस मार्किट से बाहर निकलते हैं तो अजीब सी ताकतें इस अहसास को जख़्मी करने की कोशिश करती है। जो मार्किट से बनकर बाहर आता है उसे इस्तेमाल के नज़रिये से ज़्यादा नहीं समझा जाता है।

आज कल ऐसी ही कुख़्यात नीती के शिकार जो शहर के जागने से सोने तक में अपनी एहम भूमिका निभाते हैं। वो जैसे मानो सूरज की तरह कभी डूबते ही नहीं चाँद की तरह कभी छिपते ही नहीं। दूनिया के चौबीस घंटे घूमते रहने के बावज़ूद प्रत्येक व्यक़्ति को अस्थिर अहसास ही मालूम होता है। जब की वो अपनी जगह को बहुत कम छोड़ते हैं।

दूनिया में जीने रहने वाले इंसान को अपनी अनेक भूमिकाएँ बनाकर रहना पड़ता है। बस, वो जहाँ है अपनी जगह को मजबूती से पकड़े रहे तभी उसके जीवन के कठोर से कठोर हालातों का सामना करने की ताकत आती है। जो जड़ो में निरंतर पुर्नमिश्रण करते रहने से होता है।

अब मैं सोच रहा हुँ की में एक ऐसी खोज के लिये चला था जिसका छोर अभी मैंने ठीक से समझा ही नहीं। लेकिन उसमें भटक जरूर गया हुँ। जब मेरे सामने मेरी अपनी खोज को सबसे पहले चुनौती देनी बाली बात थी की मैं दूनिया के एक छोटे से भूआकार मे बनी लम्भ-सम्भ पचास मीटर से अधिक जगह में जाकर शामिल हो रहा हुँ। उस जगह में जीतने भी लोग मुझे देखते हैं वो बेहद संकोच मे पड़े होकर भी मुझे आसानी से अपने बीच से गुजर देना चाहते हैं फिर मैं कैसे और किन सवालों को चीज़ों को लेकर उनके बीच जा बैठूँ। जिससे मुझे उनकी ज़िन्दगी का हर क्षण को जीना और स्वतंत्रता के साथ एक-दूजे से मेल-मिलाप बनाये रखने की मोज़ूदगी मिली। मैं ये कहकर अपनी तलाश को कमजोर नहीं करना चाहुँगा की मेरे चन्द सवालो के जवाब पाना और किसी चीज को खोज पाने की मुझे इच्छा रही है। ये मान लेना मेरे लिये और मेरे बेमतलब मक्सद के साथ सरासर नाइंसाफी होगी।

बात चाहें जहाँ से भी शुरु हुई हो तलाश का मुद्दा चाहें कुछ और दिखा रहा हो। जरूरी तो ये बन पड़ता है की आपने उस तलाश में जारी रहे वक़्त के लम्हात में जीवन की रचनात्मकता और अनेक भूमिकाओं की नाट्कियता को कैसे अपने अदान-प्रदानों में लिया?

अपना एक अदभूत कुटुम्भ सा बनाये "ये इंद्रिरा विराट" मार्किट की ये जगह दक्षिणपुरी के साथ ही जन्म ले चुकी थी। शुरू में इस जगह मे चाय, खाना, पर्चुने की दूकान चलाने वाले ही आये थे। तेजी से बनते घरों और एक जगह से दूसरी जगह जाने के उम्दा साधनों के न होते हुए आटो रिक्शा ही रह जाता था जिसमें लोग अपने सामान को लाया और ले जाया करते थे। आटो आने की वजह अभी ओझल है मैं इस पर से पर्दा नहीं उठा चाहता। मगर आज जो पूरी मार्किट में घूसते ही सुनने को मिलता है जो हो रहा होता है। उसे पचाने के लिये अजगर के माफिक शरीर चाहिये।

मुझे ये जानने की एक हुड़क सी लगी की इस जगह में पहले कौन आया होगा।? मैं जगह से हर बार इतना प्रभावित रहता हुँ की मुझे जगह में अपने खुद के होने का पता ही नहीं होता। कि मैं कौन हुँ और कहाँ से आया हुँ? जगह के (अवतरन) वज़ूद में मैं अपने पूरी तरह से खो बैठता हुँ। आप यकिन ये सोचे की ऐसा बेडोल बन्दा कैसे किसी तलाश को ज़िन्दा रख पाता होगा? आप मेरे ओधड़ स्वभाव को काश समझ पाते तो मुझे शुकून मिलता। आप इस बात पर भी हंस रहे होगें की बहकी और भटकते विचार वाला कोई कैसे हमारे बीच आ सकता है। तो मैं आप को विश्वास दिलाता हुँ की मैं आप के ही बीच में हुँ और जो बात कर रहा हुँ जिस ज़िन्दगी को आपके नज़दीक ला रहा हुँ। वो भी आपके ही बीच से निकला समाज है। बल्की मैं तो ये कहता हूँ की ये तो आप ही का हम शक़्ल है। जो कहीं भीड़ में खो गया है। आप जिसे मानो कुम्भ के मेले में खोज रहे हैं और मिलने के उपरान्त भी आप उसके रूप और रचनाशीलता को पहचान नहीं पा रहे हैं पर कोई चिन्ता की बात नहीं ज़िन्दगी में ऐसा अक्सर होता है। चीज़ों को देखने की हमारी एक नपी-तुली दूरी होती है जिसके ज़रा भी कम या ज़्यादा होने से हम ठीक से अपने सम्मुख देख नहीं पाते हैं।

शहर हर शख़्स की जेब में इजाफा करता है, जो आज के युग में उपभोगता और उत्पादनकर्ता की बीच के तार को जोड़े रखता है।

भाग दुसरा.........

मैं सोच रहा हूँ की लिखकर इस ज़िन्दगी को महसूस किया जा सकता है तो मेरा अपना भौतिक विकास होना जरूरी है। लिखना क्या है और कैसे ये आगे बड़ता और गाढ़ा होता है? ये मैंने अपने और दूसरों से लिये अनूभव को लेकर समझ पाया हूँ। मैं जब भी सोच रहा होता हूँ तो मेरे ख़्याल से या ख़्यालों के सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक सुचनाएँ जो मेरे चारों ओर कोई वर्ग न बना कर कोई अदृश्य रेखाओं खींचा नक्शा महसूस होता है। जिसमे छूअन और टकराने का सकेंत मिलते हैं जिसमें बने बन रहे दृष्टिकोणों के ठण्डे-गर्म स्पर्शो को हम लेते रहते हैं। इस लिये मुझे लिखने जैसी रचनात्मकता में यानी इस शैली में मानवियता के गुणों के साथ जीवन के फलसफाएँ जानने को भी मिलते हैं। किसी भी प्रथमिकता को पाने के लिये हमारा चेतन्य या जिज्ञासू होना जरूरी है। इस आटो रिक्शा मार्किट में मैंने वो सारी सम-विषम भावनाएँ और क्षमताएँ देखी जो हर क्षण को अंनदमय बनाती है जीवन की दिर्गता को पारिस्थितियों को नये- नये सिरों से शुरू करती है। यही तो यथार्थ का स्वरूप है।


आज मैं एक आटो रिक्शा रिपेयर करने वाले से मिला। जो दक्षिणपुरी मे विराट सिनेमा के पास बनी मार्किट की एक दुकान में काम करता है। अजय कुमार, इस मार्किट में पिछले सोलहा साल से काम कर रहे हैं। वो आटो रिक्शा की बॉडी का डेंट निकालते हैं और कटे - पुराने लोहे की वेल्डिंग भी करते हैं। अजय से जब मैं मिला तो उस के सारे कपड़े तेल और ग्रीस से सने हुए थे। वो मुझसे हाथ मिलाने मे झिज़क रहा था।

आटो रिक्शा को रिपेयर करने काम यहाँ बड़े पैमाने पर होता है। रोज़ 500 से ज़्यादा आटो रिक्शा यहाँ रिपेयर होते हैं। अजय - सुबह 9 बजे से रात को 9 बजे तक काम करता है। उसके ही जैसे लगभग यहाँ सभी लोग आटो की रूप-सज्जा और रिपेयरिंग करते हैं। मैनें एक आटो बनते हुए देखा जिसकी लोहे की हड्डियों पर रेक्सिन चढ़ाई जा रही थी। दूसरा आदमी उसके पीछे एक आर्कशित पेंटिंग बना रहा था। एक शख़्स आटो की हैड लाईट लगा रहा था। एक उसके सामने नम्बर लिख रहा था, फिर शीशा, एफ.एम. सैट करना - अन्दर की गद्दियाँ लगाना। देखते ही देखते चन्द घन्टो में आटो बनकर तैयार हो गया। अजय से इस बारे में बात हुई है। वो इस पर अपनी कई तरह की दृष्टि डालता है। इस काम को अपने जीवन का एक महत्वपुर्ण हिस्सा मानता है।
एक ख़ास बात ये है की सब यहाँ आटो रिपेयर करवाने आते हैं और बदले में अपने और काम करने वालों के बीच में अलग-अलग तरह के माहौल बना कर चले जाते हैं। एक छोटी सी जगह में लोगों का अदभुत मिल होता है जिसमें सब की अपनी एक तलाश होती है और उस तलाश के जरिये कुछ पाने की जिज्ञासा होती है जिसमें बड़े हर्ष और उल्लास के साथ जिया जाता है। यहाँ दुख और निराशा के लिये NO Entry है। सब मस्ती में जीते हैं।

राकेश