Wednesday, September 16, 2009

दैनिक सज्जाएँ

अपनी इच्छाओं को पकड़कर चलने वाले,
खुद उड़ने की तमन्ना रखते हैं।

बन्दिश क्या है? एक ऐसा सैलाब जिसे अपने सीने की कसक से कहीं किसी कोने में बैठाया हुआ है। बन्दिश खुद को संतुलन मे रखने की या बन्दिश दुनिया को अपने से दूर करने की मंसा से चलती है। ये कोई खुद से या खुद के लिये लिया गया कोई फैसला नहीं है। ये तो एक ऐसा समझोता है जो आँखें मूंदकर चलने की आदत को तैयार करता है। आदत को तैयार करना क्या है?


पहचान बन गई शख़्सियत
चिन्ह बन गए उसके बटन

कुछ पल के लिए भूल जाओ की हम कौन हैं? कहाँ से आये हैं? कहाँ को जाना है? जो तेरी पहचान है वही मैं भी हूँ। तेरा या मेरा कुछ नहीं है। कुछ पल के लिये अपनी याद्दास्त गवाँ दें और सोचें की फिर से मिला है मौका एक नई पहचान बनाने का। सबसे पूछते फिरे की मैं कौन हूँ?, क्या आप मुझे जानते हैं?

पहचान के साथ बोले गये शब्द और याद्दास्त – अतीत गवाँ कर बोले गये शब्द। इन दोनों का घर कहाँ है और कैसा बना है?



वर्तमान को खोजें तो कहाँ तक जायेगें हम?

नज़ारों को मान लिया मन्जिल - मन्जिल खोई है अंधेरों में।
अतीत का पल्लू पकड़े हम भविष्य को धमकाते हैं।
वर्तमान की कोई हैसियत नहीं बस, बीते हुए को दोहराते हैं।
होठों से निकली बात अतीत की झोली में गिर जाती है।
आदमी के मरने के बाद उसकी बातें याद आती हैं।
हर अतीत में हुई बात को वर्तमान के किसी सवाल या घटना की जरूरत पड़ती है
और वर्तमान में घटी घटना अतीत की कहानी बनकर उभर पाती है।

वर्तमान कहाँ है? वर्तमान कितने समय का होता है? वर्तमान का असल वक़्त कितना है? एक पल, क्षणिक पल, शून्यता का पल।

कितने वक़्त जीते हैं हम किसी की कहानी को वर्तमान में?

लख्मी

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