Monday, June 30, 2014

खामोश पन्ने

हर जगह किसी न किसी कहानी की तरह है। जिसमें कई पन्ने हैं और हर कहानी में कुछ ऐसे भी पन्ने हैं जो किनारों से कुछ इस तरह मुड़े हैं कि अपने साथ या तो कई पन्नों को चिपका ले जाते हैं या फिर उन्हे बोलने का मौका नहीं देते।

जिंदगी की किताब :

Thursday, June 19, 2014

एकान्त

राकेश

स्कूल की किताबों में सवाल


आज सबसे मुश्किल दिन रहा। यही सोचने में दिन गुजरा की वे सवाल क्या हो जिनसे पाठ को आगे की ओर ले जाया जाये। हर बार पाठ को पढ़ाने के बाद में उसके पीछे लिखे सवालों से पाठ को क्यों दोहराया जाये जो पाठ को किताब के अंदर ही रख कर संवाद करते है। पाठ को पढ़ने वाले के जीवन तक जाने ही नहीं देते। स्कूली किताब इन सवालों से भरी हुई है। किताब की कहानी के लिये सवाल बनाये जाते हैं क्या ऐसा हो सकता है कि सवालों से कहानी बनाई जाये?

आखिरकार सवाल होते क्या हैं? सवाल छुपी हुई कहानियों को बाहर ले आने के लिये होते हैं। वे कहानियां जो रोजमर्रा जिन्दगी में किसी घटना की तरह घटती है और उन्हे घटना की भरपाई के बाद भुला दिया जाता है। सवाल उन दृश्य से मिलवाने के लिये होते हैं जो पेज दर पेज जुड़कर अनुभव के बड़े विशाल रूप बनते हैं। सवाल उन हरकतों को बहला फुसलाकर कहानी बन जाने का मौका देते हैं जिन्हे शैतानियां कहकर भूल जाने के लिये कह दिया जाता है। सवाल उन बातों व यादों को किस्सा बन जाने के लिये उक्साते हैं जिन्हे इस बंटवारे मे रखा जाता है कि क्या दोहराने लायक है और क्या नहीं। सवाल किसी सुने हुए को दोहराने के लिये नहीं होते बल्कि वे सुने हुए के अगले पड़ाव बुन लेने के लिये होते हैं।

किताब के भीतर के सवाल उन बाऊंडरियों में जीते हैं जिनमें कहानी को, उसके बुने जा रहे दृश्य को, उसके अनेकों जाने पहचाने किरदारों को अथवा कहानी में बहते अहसास को याद मे ले जाने की ताकत होती है। मगर वे क्या सवाल हो जो यादों से इन सब चीजों को वापस खींच लाये। हमेशा क्लास मे पढ़ाते किसी भी पाठ के बाद मे होती बातें इन सवालों के बनने को उक्साती हैं। पाठ के खत्म होते होते सभी किसी ना किसी बात को याद करके तुरंत ही उसमें जोड़ देते। "ऐसा हमारे साथ भी हुआ था या ऐसा एक बंदा हमारे यहां भी रहता है" बातों के शुरू होने से पहले ये लाइनें पाठ को भूल जाने को कहती और साथ ही ये भी की पाठ मे कुछ कमी छोड़ दी लिखने वाले ने। नौसिखया से ये दृश्य कहानी बनकर पाठ को फिर से पढने को जोर देते। हर बार, लगातार, जब भी कोई पाठ पढाया जाता ये बातें जुड़ने लगती। कभी कभी एक ही पाठ को दुबारा पढाया जाता तो फिर से उसपर यादों से कुछ झलकियां साथी सुना देते और ताज्जुब की बात ये ही कि हर बार उसमें कोई नया ही दृश्य होता।

Saturday, June 7, 2014

लाल गुब्बारा

राकेश

थोड़ा और इंतजार


भरी दोपहरी में जैसे सब कुछ शांत पड़ा है। सारी आवाजें जैसे यहां से होकर गुजर चुकी हैं। लेकिन यहां पर कोई भी नहीं रूकी है। पूरी जगह ने सारी आवाजों को अपने शोख लिया है। जहां पर अस्पताल बिमार को सिर्फ बिमारी से जानता है और अस्पताल की कुछ जगहें बिमार को पेपरों से तो कुछ सिर्फ दवाइयों से। वहीं पर कुछ कोने ऐसे भी होते हैं जहां पर बिमार सिर्फ बिमार होता है।

फोटो स्टेट की मशीन सुबह से चल रही है। दुकान वाला कई बार उसे बंद कर चुका है। एमरजेंसी के गेट के साथ ही मे इस दुकान से ही मालुम पड़ रहा है कि आज कितनी भीड़ है। जितनी बाहर दिखाई दे रही है उससे कई ज्यादा शायद अंदर होगी। बाहर वाले बाहर ही बैठे सुसता रहे है और अंदर वाले अंदर ही रूके हैं। ना तो कई समय से बाहर से अंदर जा रहा है और ना ही कोई बाहर आ रहा है। कई पर्चे दुकान के बाहर ही बिखरे पड़े हैं। हर पर्चा जैसे अपनी अहमियत खो चुका है। दवाइयों के छिले हुए लिफाफे और पत्ते जमीन को छुपाये हवा से यहां से वहां नाच रहे हैं। कई गोलियां, केपशूल, इंजेक्शन और बोतलें खाली हो चुकी है। कुछ तो जमीन पर बिछी चटाई के हवाले हो गई है। इस चटाई का मालिक कौन है, वे कहां गया है, ये उसके काम की थी या गलती से भूल गया है। ये सोचते हुये और उन्हे देखते हुए निकलना कोई बड़ी बात नहीं है।


दोनों हाथों की कलाइयों में गुलुकोश की शुइयां लगाए एक लगभग 60 साल की बुर्जुग औरत उस चटाई पर आकर बैठी। हाथों मे एक 2 लीटर की बड़ी पानी की बोतल और उसी हाथ में अपने पेपरों की थैली पकड़े वो वहीं पर आकर बैठ गई। वो बोतल को अपनी पुरी कोशिश से खोल रही है। हाथ कांप रहे हैं। पतले पतले हाथों की नशो को उस जोर से उभरते हुये देखा जा सकता है। धूप की चमक जैसे ही उसके उन हाथों पर पड़ती तो सुई की जगह पर लगा लाल रंग चमक उठता। हल्का हल्का खून जैसे उस जगह पर जम चुका है। उन्हे कोई नहीं देख रहा बस, एक कुत्ता उनकी ओर पूरी से तरह ध्यान दिये हुए है। लेकिन वो किसी की ओर नहीं देख रही है। बड़ी जोर आजमाइश के साथ उन्होनें अपनी उस बोतल का ढक्कन खोल लिया और दोनों हाथों की पूरी ताकत से उस दो लीटर की बोतल को उठाया। मगर उनकी ये पहली कोशिश पुरी तरह से कारगर नहीं हो पाई। उन्होने फिर से कोशिश की। इस बार मुंह तक बोतल तो गई लेकिन पानी मुंह तक नहीं जा पाया। कुछ बूंदे मुंह मे जरूर गिरी होगी लेकिन बाकी का सारा पानी उनके कपडों पर गिर गया। उनकी प्यास नहीं भुजी। उन्होनें अपनी थेली को खोला और उसमें से एक प्लासटिक का गिलास निकाला। वो शायद गंदा था। उन्होने उस गिलास में थोड़ा सा पानी भरा और उस गिलास को खंगाल कर पानी फेंक दिया। फिर उसमें दोबारा से पानी और उस कुत्ते की ओर खिसका दिया।

कुछ देर के लिये वो उस कुत्ते को देखती रही और वहीं बैठी रही।

दूसरी तरफ से एक औरत अपने तीन छोटे बच्चों के साथ में बैठ गई। एक बड़ी सी पन्नी जमीन पर बिछाकर। उसके तीनों बच्चे उसकी ओर देख रहे हैं। इस तरह से जैसे वो अभी ही कुछ ही देर में गिर पड़ेगी। वो अपने दोनों हाथों से खुद को रोके हुए है। जमीन पर उसने अपने दोनों हाथो को जमाया हुआ है। कुछ देर तक वो इसी तरह से बैठी रही। उसके तीनों बच्चे उसी की ओर देखते रहे।

"आपने सुना नहीं है क्या आपको एक्शरा करवाकर लाना है।" एक जोर दार आवाज उनके कानों मे पड़ी। एक आदमी जिसने अपने मुंह को ढक रखा था और हाथों में प्लासटिक के दस्ताने पहने हुए थे।वो एक टक लगाये उस शख्स को देखती रही। उन्होनें जल्दी से अपने कागजो की पन्नी मे से एक बड़ा मिटिया रंग का लिफाफा निकाला और उस शख्स के हाथों मे थमा दिया।

ये पुराना है। आपकों समझ में नहीं आता है क्या?” उस लिफाफा को बिना खोले ही उस शख्स नें उस औरत को वापस दे दिया। वो औरत वहीं पर बैठी उन एक्शरों में कुछ झांकने लगी और वो आदमी आगे की ओर बड़ गया। साथ वाली चटाई पर एक पूरा परिवार बैठा है। अपने बीच में अपने पेपरों को बिछाए। उसे नम्बरबारी से लगाते हुये वो उस आदमी को देख रहे हैं।

हां जी आपका क्या है?” वो आदमी उनकी ओर देखते हुए बोला।
उनमें एक शख्स अपने पेपर उनको पकड़ाते हुये बोला, “जी इनको टीबी की शिकायत बताई है।"
वो आदमी पूरे पेपर देखते हुये बोला, “तुम्हे कैसे पता की इनको टीबी की शिकायत है?”
जी वो हमारे मोहल्ले के डाक्टर ने बोला था।" वो आदमी नजर चुराते हुये बोला।
वो आदमी इस नजर को भांपते हुये बोला, “भाई साहब टेस्ट तो इसमे एक भी नहीं है और आप सीधा सीधा टीबी बोल रहे हैं। मैं क्या देखकर समझूं की इनको क्या है? पहले पूरे टेस्ट तो कराइये ना।"

वो आदमी आगे बड़ गया।

जिस जिस ओर वो आदमी जाता सभी की नजर उस ओर ही हो जाती। मगर कुछ हिस्सा अब भी अपने मे ही लीन था। इस सब क्रिया से अनजान था। पूरी जगह में जैसे गुट बने थे। कोई किसी का इंतजार करता दिख रहा था तो कोई पहली बार आया। कोई किसी के साथ आया था तो कोई सिर्फ सुस्ता रहा था। कोई खुद ही मरीज था तो कोई मरीज के बाहर आने का इंतजार कर रहा था। कोई दवाइयां लेने के लिये बैठा था तो कोई फोर्म भरने के लिये। कोई कुछ बेच रहा था तो कोई खुद ही नौकरी पर था। कोई सोने के लिये आया था तो कोई जैसे कई रातों से सोया ही नहीं था। कोई खाना खाने लिये तैयार हो रहा था तो कोई खाना खाकर भागने के लिये तैयार था। कई लोग, कई गुट, कई परिवार, कई मरीज, कई साथी, कई कामगार सभी एक दूसरे के करीब आकर दूर हो जाते। कोई जैसे किसी को नहीं जानता था और ना ही जानना चाहता था फिर भी एक ही धूप से बच रहे थे और एक ही छांव में बैठे थे। एक ही हवा खा रहे थे और एक ही जमीन के हिस्सेदार थे। हर कोई अपने शरीर में कोई ना कोई बिमारी लिये हुए बस, उसकी समाप्ती के लिये दुआ करने के लिये इस अस्पताल में हाजरी भरने के लिये आया हुआ था।

लख्मी