Friday, July 17, 2015

Wednesday, July 15, 2015

Monday, June 22, 2015

परिंदे




राकेश 

दिल्ली देख ली

“दिल्ली का किला तो नहीं देखा मगर दिल्ली देख ली।“

साहब की बात दिल पे लग गयी। जब वे बेतुकी के इस आलम को आसान सा कातिलाना परिचय दे रहे थे। दरवाजे पे बाहर की रोशनी अब खासी पड़ रही है। हाथ बड़ा कर के उन्होनें आंखो को अपने दांय हाथ में लगी सिगरेट के धुंए को फुंक मरते हुए रूककर कहा, “अजीबो-गरीब है ये दिल्ली?

साहब की बातें मेरे मन को पसंद नहीं आई। मैं तो पास आकर उनकी बात का खुद बहिष्कार करना चाहता था। 

वाब में एक दूसरे के बीच बस हमारी आँखें थी।

“ये शहर इतना बड़ा है बस दो लब्ज ही इनको समझ आये।“
 
“सज्जन रह गये ये!”

खैर, वो इतना कहने के बाद रुक गए। मैंने उत्सुकता से पूछा, “अब इसके बाद क्या सोचा है?

साहब ने मीठी सी मुस्कान बिखेरते हुए, “दिल्ली में आल कैरेक्टर का माहौल है। कलाकार यहाँ तस्वीर हैं, और कई खूबियां हैं। मगर कहानियों में मसहूर जो किरदार हैं, वो कभी चुनौती देने वाले माहिर हुआ करते थे।“


इसके बाद वो वह नाजुक सा मिज़ाज बना कर मुझे देखते रहे

राकेश 

घटना जिसका किस्सा बाकी है

“हाँ शायद, मैं हकीक़त में इस पूरी घटना का वर्जन, मुलाकात के एक सिरे से सुनना चाहता हूँ।“

उनके जवाब में सिर्फ एक मुस्कान काफी नहीं थी। आप को ख़बर है की आज भी ये शहर कितने तरह की घटनाओं और भाषाओं व कारनामो को अपने अनुभव में समेटे हुए है? लोगों की बात छोड़ों अभी जरुरत है महसूस करने की। यकायक,  

“मैंने सुना नहीं जरा फिर से कहो?

इतना कह कर वो बाबू कुर्सी से उठ खड़े हुए। मैंने उनके कंधे को सहलाया, “कल शाम जरूर आना।“

कमरे में ठक टक टक। टूक की आवाज आ रही थी। दीवारें टेलीविजन खिड़कियां और छोटे -बड़े साइज की बनी चीजों का हल्का सा साथ होना मालूम लग रहा था। अन्धेरा पीछे ही था और कहानी अभी शुरू होने को थी। जैसे किसी फ़िल्मी पर्दे पर स्टार्टिंग में धुम्रपान हानिकारक, शराब पीना हानिकारक है। ज़ैसे अन्य विज्ञापन आते हैं और फिल्म का माहौल निमंत्रण दे रहा होता है। आवाजों का गुंबद सा बन कर हमारी ओर बड़ रहा होता है।


वैसे ये बात मैंने भी सोची थी। उनके इन शब्दों के मतलब के लिए मेरे खुरापात दिमाग में सिर्फ एक खालिस्तान ही भर गया था। मैं गहरी सांस लेकर कुर्सी छोड़ कर उठा बात मुश्किल से पांच मिनट की थी और सचमुच एक लम्बा रूप ले गयी।

बात अब भी बाकी है 

राकेश 

कहीं दूर से


अभी सुबह के सवा चार बजे थे। ललीत गहरी नींद से जागा और दोनों हाथो को मरोड़कर उठा। उसे गाड़ी गैराज में भेजनी थी। कल रत उसकी मशीन ने रास्ते में धोखा दे दिया था। 

उसने मेरे चेहरे को देख कर कहा, "क्या रात भर सोया नही?" 

ये सुन कर मेरी आँखें इस कोशिश में लग गयी की एक झपकी मिल जाए। खैर, ललित ने जेब से मोबाइल निकला और हैलो हैलो। मुझे पहचाना? 

गॉव के सुबह सवा चार, किसी रात से कम नही होते यहाँ साँस लेना जितना सरल होता है उतना ही सरल छोड़ना भी होता है। 

"बहुत अच्छा" आवाज आई। 
"चेहरा जरूर याद होगा?" 
"बहुत अच्छा तभी सारी बातें होंगी।" 
"तुम बड़े भाई हो, बस यूं ही थोड़ी जरुरत है।"

कितनी संवेदना थी उसकी बातों में। काम के बाद वो अपने आसपास गर्दन घुमाकर देखता फिर बीच में कोशिश करता की अँधेरे में बहुत दूर देखा जा सके। पंछियों के कंठ से निकलती आवाजें बेहद प्रिय लग रही थी। अब सिर्फ एक बात खाये जा रही थी की घर कैसे पंहुचा जाये? हम लोग वहाँ ठहरने के मूड़ में नही थे। शहर दूर था मगर दिशाएँ दिखाई दे रही थी। मालूम पड़ रहा था की चाय की दुकान पास में है। इसके अलावा अलमारी, दरवाजा मिटटी की चौड़ी दीवारें काफी बड़ी है। 

हम कुछ देर के लिए जैसे रास्ते में ही खो जाने वाले थे। 


राकेश 

Wednesday, April 22, 2015

घर कहाँ है, मालूम नहीं


कूड़ेदान के बिलकुल बगल मे रह रहे अशोक जी का कहना है की उनकी पूरी ज़िंदगी मे इतनी तकलीफ़े नहीं देखी होगी जितनी की उन्होने यहाँ पर पिछले एक महीने मे देख ली हैं। जो उन्हे पूरी ज़िंदगी याद रहेगी। अपने दिहाड़ी मजदूरी के काम मे इतने दर्द बरदस्त नहीं किए थे जो अब करने पड़े है उन्हे।

अपने खाने के समान को एक जगह पर रखते हुये वो दूर देखने की कोशिश कर रहे हैं। शायद भीड़ के भीतर में से कुछ अपने लिए खोज रहे हो। किसी ऐसे रिश्तेदार को देखने की कोशिश कर रहे हैं जो उन्हे इन तकलीफ़ों से दूर ले जाएगा और फिर से हँसना और बोलना सिखाएगा। उनके साथ में बेटी उनकी बीवी कहती है की इनके जैसा कोई गाँव मे बोलने वाला नहीं था, ये हमेशा खुश रहते थे और अब देखो की बस चलती सड़क को देखते रहते है और गुस्सा होते रहते हैं, जैसे किसी ऐसी चीज से नाराज हो गए है जो सिर्फ इन्हे ही मालूम है।

उनको अगर सिर्फ देखते ही रहा जाए तो भी ये एहसास हो जाएगा की ये शक्स कितने टाइम से बीमारी की हड्कन को झेल रहे है और ये भी मालूम हो जाएगा की ये अपने परिवार से कैसे ये दर्द छुपाने मे माहिर हो गए हैं। उनकी पलके जल्दी जल्दी नहीं झपकती बस जैसे किसी चीज पर रुक जाती हैं। फिर अचानक से पलट जाती हैं। अब वो अपनी एक करवट पर लेट गए हैं। हाथो में अस्पताल के पर्चे हैं। जिनहे वे बार बार देख रहे है फिर सामने की और देखते है, कभी वो कागजो मे देखते है तो कभी सड़क पर, कभी खुद की तरफ निगाह कर लेते है तो कभी बीवी की तरफ। बस ये नियमित चलता जा रहा है।

उनसे कुछ बात करने की अगर कोई सोचे भी तो भी उनकी इस रिद्धम को तोड़ना नहीं चाहेगा। अब उन्होने अपनी जेब से कुछ कटे हुये कागज निकाले। उन्हे जमीन पर बिछा कर देख रहे है। कुछ जोड़ने की भी कोशिश कर रहे है तो कभी उन्हे उलट पलट कर देख रहे है। कुछ देर के बाद मे उन कटे हुये कागज को उन्होने हवा मे उड़ने के लिए छोड़ दिया। और खुद अपने पाँव के नाखूनों को देखने लगे। शायद बड़े हो गए है काफी। उन्हे वे बड़ी गौर से दे रहे है। तभी उन्होने अपने सिरहाने रखे कपड़ो ने नीचे से एक आधा ब्लेड निकाला और उस नाखून को काटने लगे। इतने मे उनकी बीवी उन्हे अनदेखा कर रही है। वो अपनी नजर को यहाँ से वहाँ घूमने मे मशरूफ़ है। वो देख रही है उन लोगो को जो अभी तक अपने काम से निबटे नहीं हैं। उनकी गर्दन यहाँ से वहाँ घूम रही है।

एम्स अस्पताल एक इस चबूतरे पर हर रोज लोग एक दूसरे से बाते करते हैं और अपनी तकलीफ़ों को बाँट लेते हैं। यहाँ पर हर दूर दराज से आया हुआ परिवार एक दूसरे का हमराही बना रहता है। किसी के न होने पर उसके समान की देखभाली करता है और होने पर हर दर्द के बारे मे पूछता है। अशोक जी को यहाँ पर जैसे सब देखते रहते है। बातें होती है तो उनकी बीवी से। ये सिकंदराबाद से आए है।

Friday, April 10, 2015

अब नींद कहाँ आने वाली थी

उन्हे बेहद डर लगता था। हर तेज आवाज पर वो चौंक जाते थे। चाहे वो आवाज़ दरवाजा जोर से पिटने की हो या फिर लिफाफे में हवा भर कर उसे फोड़ने की या फिर किसी बम या पटाखे की। वो इन सभी आवाज़ों से खौफ़ खाते थे। जब तक इस तरह की कोई भी आवाज उनके कानों में पड़ती रहती उनकी आँखों में नींद की परत कभी नहीं उतर पाती। अपने कानो को वो जोरो से भीच लिया करते। मगर फिर भी आवाज़ों से उनका पाला कभी नहीं छूट पाता था।

अपने मन को बहलाने के लिए वो पड़ोस के घर में हमेंशा घुसे रहते थे। उनकी सीट जैसे पड़ोसी के घर में पहले से ही बुक रहती थी। कभी - कभी तो वो वहीं पर नींद की झपकियाँ ले लेते थे और जब आँख खुली तो हमेंशा की तरह अपनी माँ की बगल में सोये हुए होते। जिससे उन्हे ये कभी नहीं पता चल पाता था की वो नींद में चलकर आये हैं या उन्हे कोई अपनी गोद में झुलाता हुआ लाया है। हाँ कभी - कभी उनके गालों पर किसी न किसी के निशान छपे रहते थे। कभी कपड़े की सिलवटें जैसे तो कभी कुछ बलखाती डोरियों जैसे। जिन्हे वो जब भी छुते तो उन्हे दर्द तो नहीं होता था लेकिन अपने गालों को छुने में कुछ अलग सा महसूस होता। वो उठने के बाद उन्हे सहलाते ही रहते।

रोजाना की तरह वे अपने घर में सोये हुए थे। उनके कमरे में गोलियाँ चलने की काफी तेज आवाजें आ रही थी। न चाह कर भी वो उन आवाजों को अनसुना नहीं कर सकते थे। धड़ा - धड़ गोलियाँ कहीं दागी जा रही थी और लोगों के करहाने की आवाज़ें उन्ही आवाजों के घोल में मिली थी। लगता था की जैसे किसी बहुत ही बड़े ग्रोह से लड़ाई चल रही है। उनकी नज़र उनके दरवाजें पर दौड़ जाती। मगर ऐसा लगता था की दुनिया में खाली अब वही बचे हैं बाकि तो सब शिकार हो गये हैं। दीवारें आज थर थरा रही थी। बर्तनों के एक दूसरे से टकराने का शौर कमरे की शान्ती को और भी खौफनाक बना देता। अबकी बार तो आवाज़ तो और मजबूत थी। उस एक ही आवाज़ ने बाकी सारी आवाज़ों को दबा दिया था। अब तो छोटे - छोटे पटाखों के जैसे लड़ियों की आवाज़ तेज होने लगी जिसमें लगता था जैसे आदमियों के मरने की गुंजाइशे बड़ रही हो।

Monday, February 2, 2015

टेबल से कुछ ही मीटर की दूरी


दूर से ही देख रही थी वो बांस की मजबूत कुर्सी और उसके बगल मे रखी वो टेबल जिसके ऊपर अगर हाथ रखकर कोई खड़ा भी हो जाये तो टूटकर नीचे ही गिर जायेगी। लेकिन अभी कुछ देर के बाद मे वहाँ पर भीड़ ऐसे टूट कर पड़ेगी के उसको रोकना यहाँ किसी के बस का नहीं होगा।

वो वहीं पर उस टेबल से कुछ ही मीटर की दूरी पर बैठे थे। ये उनका काम नहीं था लेकिन उनके पास इस काम के अलावा इस समय कुछ और करने को ही नहीं था इसलिये रोज़ सुबह निकल पड़ते और कईओ की दुआये लेते हुये उस जगह पर बैठ जाते। उनके हाथ दुख जाते मगर यहाँ पर बोल खत्म होने का नाम ही नहीं लेते थे और उनका काम था उन बोलों को शब्दों मे उतारना। कुछ इस तरह उतारना की पढ़ने वाले को उनके अन्दर दबे दर्द का बखूबी अहसास हो जाये और जिसके लिये उन बोलों को शब्दों के जरिये शहर में उतारा जा रहा है वो नंगे पाँव बस होता चला जाये।

उनके नाम के बिना ही उनको लोग जानने लगे थे और वो भी नाम के साथ किसी को नहीं जानते थे। ये इस वक़्त मे बनने वाले ऐसे रिश्ते थे जो लम्बे बहुत रहेगें लेकिन कभी एक - दूसरे पर जोर नहीं डालेगें। एक - दूसरे को खोजेगें जरूर लेकिन खोने से घबरायेगें भी नहीं। दूर हो जाने से उदास जरूर होगें लेकिन हताश नहीं हो जायेगें। यहाँ चेहरे की पहचान बिना नाम जाने थी और नाम की पहचान बिना चेहरे के। फिर भी इनकी उम्र इतनी थी के जगह को अपनी उम्र देकर उसकी जिन्दगी बड़ा देती।

रिश्ते, कितने मीठे और सूईदार होते हैं? ये हम वियोग या योग मे कह भी दे तो उसमें बहस करने की कोई बात नहीं है। ये तो सम्पर्ण करने के सामन होता है। जिसके करीब उतना ही मीठा और जिसके बहुत करीब उतना ही सूईदार। जिससे दूर जाना उतना ही मीठेपन का अहसास कराता और उससे बेहद दूर जाना उतना ही सूईदार। कोई अगर ये कह दे तो क्या उससे लड़ने जाया जा सकता है? ये तो वे अहसास से जो बिना माने या मानने से इंकार भी किये सफ़र कर ही जाता है। इसमे "मेरी" "तेरी" की भी लड़ाई हो सकती है और लड़ाई हो भी क्यों भला? ये जीवन की वे लाइने हैं जिसमें दोनों ओर से न्यौता खुला होता है। बिलकुल फिल्मों के उन गानों की तरह जो न तो किसी हिरोइन के लिये गाये जाते हैं और न ही किसी हीरो के लिये। मतलब वे गाने फिल्म के किसी क़िरदार के लिये नहीं होते। वे तो जीवन का कोई हिस्सा पकड़कर उसके मर्म के लिये गाये जाते हैं। उसका अहसास गाने वाले के लिये भी होता है, गाने पर अदाकारी करने वाले के लिये भी, गाना लिखने वाले के लिये भी और गाना सुनने वालों के लिये भी।

उनके पास इतने पेपर पड़े होते जितने की उस टेबल पर नहीं होते थे। वे लगातार लिख रहे थे। क्या लिख रहे थे उन्हे ये मालुम था लेकिन सो मे से कितने अलग है वे नहीं। विषय एक जैसा होता, मगर उसके नीचे बनी वे चार लाइने कहीं भी ले जाने का दम भरती थी। इन कागजो को भरने की कोई किमत नहीं थी और न ही कोई ये किमत अदा कर सकता था। वे कागज और उनपर लिखी वे चार लाइनें उन भेदों को भी खुलेआम खोलकर रख देती जो कई समय से दिल के अंदर बसी मीलों का सफर कर रही थी। कई जगहें बदलकर यहाँ तक आई थी और न जाने कितनी और आगे जायेगीं। कोन कहाँ से क्या लाया है और कोन किसके साथ क्यों आया है? कोन कैसे यहाँ आया है और कोन किसको कहाँ लेकर जायेगा? ये सब भरा हुआ था। इसको अगर यहाँ आज खोल दिया तो इसकी मौत निश्चित है फिर मरे हुए के सामने हम रोने के अलावा क्या कर सकते हैं? या उसे कुछ देर दोहराकर भूल जाने के लिये तैयार हो जाते हैं और अगर दोहराकर भूलकर जाने के लिये ये सब दोहराया जायेगा तो इसका जिन्दा रहना जरूरी है। इसलिये इसको इतना ही गाया जाये तो ठीक है नहीं तो मिलने की मिठास खत्म हो जायेगी।

पुछताछ की मार से सभी यहाँ अच्छी तरह से वाकिफ हो गये थे। सबको अंदाजा हो गया था की यहाँ कोन कब आकर क्या पूछेगा? और हमें किन बातों और जवाबों के लिये तैयार रहना है। इसी को यहाँ पर सभी ने खेल बना लिया था। हर कोई जैसे मसखरी करने के लिये कोई रूप धारण करना चाहता था। जहाँ पर सभी किसी मोहर के नीचे दब जाने का खौफ पालते थे वहीं पर वो सभी मे उसका लुफ्त बाँट रही थी। वे अपनी गली की सबसे मसखरी औरत थी। मजा तो जैसे उनके शरीर का ही हिस्सा था। हर कोई उनको जानता था मगर कोई ये नहीं जानता था की आज और कल के बीच मे उनके खुरापाती दिमाग मे कोनसी छेड़खानी जन्म ले लेगी और वो उस दिमाग को हमेशा खाली और शांत रखती जिससे उनको खेलना है। सारे कागजात लेकर जब सारे मर्द लोग जमीन और जगह के लिये निकल जाते तो उनका खेल शुरू होता।