Wednesday, April 22, 2015

घर कहाँ है, मालूम नहीं


कूड़ेदान के बिलकुल बगल मे रह रहे अशोक जी का कहना है की उनकी पूरी ज़िंदगी मे इतनी तकलीफ़े नहीं देखी होगी जितनी की उन्होने यहाँ पर पिछले एक महीने मे देख ली हैं। जो उन्हे पूरी ज़िंदगी याद रहेगी। अपने दिहाड़ी मजदूरी के काम मे इतने दर्द बरदस्त नहीं किए थे जो अब करने पड़े है उन्हे।

अपने खाने के समान को एक जगह पर रखते हुये वो दूर देखने की कोशिश कर रहे हैं। शायद भीड़ के भीतर में से कुछ अपने लिए खोज रहे हो। किसी ऐसे रिश्तेदार को देखने की कोशिश कर रहे हैं जो उन्हे इन तकलीफ़ों से दूर ले जाएगा और फिर से हँसना और बोलना सिखाएगा। उनके साथ में बेटी उनकी बीवी कहती है की इनके जैसा कोई गाँव मे बोलने वाला नहीं था, ये हमेशा खुश रहते थे और अब देखो की बस चलती सड़क को देखते रहते है और गुस्सा होते रहते हैं, जैसे किसी ऐसी चीज से नाराज हो गए है जो सिर्फ इन्हे ही मालूम है।

उनको अगर सिर्फ देखते ही रहा जाए तो भी ये एहसास हो जाएगा की ये शक्स कितने टाइम से बीमारी की हड्कन को झेल रहे है और ये भी मालूम हो जाएगा की ये अपने परिवार से कैसे ये दर्द छुपाने मे माहिर हो गए हैं। उनकी पलके जल्दी जल्दी नहीं झपकती बस जैसे किसी चीज पर रुक जाती हैं। फिर अचानक से पलट जाती हैं। अब वो अपनी एक करवट पर लेट गए हैं। हाथो में अस्पताल के पर्चे हैं। जिनहे वे बार बार देख रहे है फिर सामने की और देखते है, कभी वो कागजो मे देखते है तो कभी सड़क पर, कभी खुद की तरफ निगाह कर लेते है तो कभी बीवी की तरफ। बस ये नियमित चलता जा रहा है।

उनसे कुछ बात करने की अगर कोई सोचे भी तो भी उनकी इस रिद्धम को तोड़ना नहीं चाहेगा। अब उन्होने अपनी जेब से कुछ कटे हुये कागज निकाले। उन्हे जमीन पर बिछा कर देख रहे है। कुछ जोड़ने की भी कोशिश कर रहे है तो कभी उन्हे उलट पलट कर देख रहे है। कुछ देर के बाद मे उन कटे हुये कागज को उन्होने हवा मे उड़ने के लिए छोड़ दिया। और खुद अपने पाँव के नाखूनों को देखने लगे। शायद बड़े हो गए है काफी। उन्हे वे बड़ी गौर से दे रहे है। तभी उन्होने अपने सिरहाने रखे कपड़ो ने नीचे से एक आधा ब्लेड निकाला और उस नाखून को काटने लगे। इतने मे उनकी बीवी उन्हे अनदेखा कर रही है। वो अपनी नजर को यहाँ से वहाँ घूमने मे मशरूफ़ है। वो देख रही है उन लोगो को जो अभी तक अपने काम से निबटे नहीं हैं। उनकी गर्दन यहाँ से वहाँ घूम रही है।

एम्स अस्पताल एक इस चबूतरे पर हर रोज लोग एक दूसरे से बाते करते हैं और अपनी तकलीफ़ों को बाँट लेते हैं। यहाँ पर हर दूर दराज से आया हुआ परिवार एक दूसरे का हमराही बना रहता है। किसी के न होने पर उसके समान की देखभाली करता है और होने पर हर दर्द के बारे मे पूछता है। अशोक जी को यहाँ पर जैसे सब देखते रहते है। बातें होती है तो उनकी बीवी से। ये सिकंदराबाद से आए है।

Friday, April 10, 2015

अब नींद कहाँ आने वाली थी

उन्हे बेहद डर लगता था। हर तेज आवाज पर वो चौंक जाते थे। चाहे वो आवाज़ दरवाजा जोर से पिटने की हो या फिर लिफाफे में हवा भर कर उसे फोड़ने की या फिर किसी बम या पटाखे की। वो इन सभी आवाज़ों से खौफ़ खाते थे। जब तक इस तरह की कोई भी आवाज उनके कानों में पड़ती रहती उनकी आँखों में नींद की परत कभी नहीं उतर पाती। अपने कानो को वो जोरो से भीच लिया करते। मगर फिर भी आवाज़ों से उनका पाला कभी नहीं छूट पाता था।

अपने मन को बहलाने के लिए वो पड़ोस के घर में हमेंशा घुसे रहते थे। उनकी सीट जैसे पड़ोसी के घर में पहले से ही बुक रहती थी। कभी - कभी तो वो वहीं पर नींद की झपकियाँ ले लेते थे और जब आँख खुली तो हमेंशा की तरह अपनी माँ की बगल में सोये हुए होते। जिससे उन्हे ये कभी नहीं पता चल पाता था की वो नींद में चलकर आये हैं या उन्हे कोई अपनी गोद में झुलाता हुआ लाया है। हाँ कभी - कभी उनके गालों पर किसी न किसी के निशान छपे रहते थे। कभी कपड़े की सिलवटें जैसे तो कभी कुछ बलखाती डोरियों जैसे। जिन्हे वो जब भी छुते तो उन्हे दर्द तो नहीं होता था लेकिन अपने गालों को छुने में कुछ अलग सा महसूस होता। वो उठने के बाद उन्हे सहलाते ही रहते।

रोजाना की तरह वे अपने घर में सोये हुए थे। उनके कमरे में गोलियाँ चलने की काफी तेज आवाजें आ रही थी। न चाह कर भी वो उन आवाजों को अनसुना नहीं कर सकते थे। धड़ा - धड़ गोलियाँ कहीं दागी जा रही थी और लोगों के करहाने की आवाज़ें उन्ही आवाजों के घोल में मिली थी। लगता था की जैसे किसी बहुत ही बड़े ग्रोह से लड़ाई चल रही है। उनकी नज़र उनके दरवाजें पर दौड़ जाती। मगर ऐसा लगता था की दुनिया में खाली अब वही बचे हैं बाकि तो सब शिकार हो गये हैं। दीवारें आज थर थरा रही थी। बर्तनों के एक दूसरे से टकराने का शौर कमरे की शान्ती को और भी खौफनाक बना देता। अबकी बार तो आवाज़ तो और मजबूत थी। उस एक ही आवाज़ ने बाकी सारी आवाज़ों को दबा दिया था। अब तो छोटे - छोटे पटाखों के जैसे लड़ियों की आवाज़ तेज होने लगी जिसमें लगता था जैसे आदमियों के मरने की गुंजाइशे बड़ रही हो।