Wednesday, May 27, 2009

कपड़े प्रेस करने का धड़ा...

राम बनाये जोड़ी एक अन्धा एक कोड़ी।

ये बोल सुने-सुने से लगते हैं। शायद ही कोई इन पंक्ती को पहचान ने से इन्कार कर सकता।

राम जाने कौन से जन्म मे मैनें पून्य किये थे जो ऐसी औरत मिली। जो मेरे ख़्याल आने से पहले ही मेरे आगे खड़ी हो जाती है। जैसे कोई दुआ कबूल हो गई हो। दोनों में एक-दूसरे के लिये बड़ा प्यार था। उम्र के काफी साल साथ-साथ बिताने के बाद भी उतनी ही महब्बूत दोनों में थी जितनी शादी के खुशनुमा और बेहद जवाँ दिनों में होती थी।

लोहे की गर्म चमकती सतह पर पानी की छीटें मारते ही पानी फौरन भाप बनकर उड़ जाता। उनके हाथों की मोटी-मोटी कलाइयाँ थकने का नाम ही नहीं लेती थी। दिनभर अपने धड़े पर खड़े-खड़े कोयले की प्रेस को वो कपड़ों के ऊपर फिराते रहते। एक आदमी और क्या चाहाता है। हर कामयाबी उसके कदम चूमे। इसी हसरत को वो दिल में पाले रहते थे।

आँखों में वो एक हरकत लिये जब शाम को अपनी घरवाली से पूरे दिन की थकावट को लेकर सुस्ताते हुए कहते,

"अरी बुढिया सुनती है का मेरा पव्वा ला के दे।"

वाकई ये उनकी एक दरख्वास्त होती थी अपनी जान से प्यारी अर्धागनी के रू-ब-रू। बहुत मुमकिन से सवाल के जवाब में वो कहती, "बूढापे में ज़ॉयादा मुँह से लगाओगे तो खा जायेगी ये शराब निगोड़ी।"

उनकी बात पूरी नहीं होती की राम जी जोर से हंस पड़ते उन कर मुँह के सारे दाँत उखड़ चुके थे पर मन में उठी हलचल को किसी तरह व्यक़्त तो करना होता था सो वे गले से तेज़ आवाज़ निकाल के हँसने का मज़ा ले लेते।
"तेरा एहसान होगा मुझ पर जा ला कर दे दें। मेरी टाँगों से अब चला नहीं जाता।"

कितना भी इनके भले का सोचो पर ये है की हर बार जोखिम उठाते हैं। डॉक्टर ने शराब पीने को मना किया है। पर इन की जिद्द के आगे मेरी कब चली है जो आज चलेगी। अम्मा सारी बातों को अपनी आँखों में आंसू लिये बता रही थी। उनकी आँखे पत्थरा गई थी। तख्त के उपर ठन्डी लोहे की प्रेस खुली पड़ी थी। मोटी चादर के नीचे दबा काला कम्बल जिसका कोना निकला पड़ा था तख्त को अम्मा ने ग्राहको के कपडे प्रेस करने का धड़ा बना रखा था पर रात मे वो इस धडे पर सोया करती थी। पानदानी मे पान की छाली कथ्था तम्बाकू की पुड़िया छाली काटने का कटर रखा था।

उनका पान खाने का कोई इरादा नहीं था। नहीं चेहरे पर नींद झलक रही थी। वो एक ऐसे एहसास मे डूबी थी जिस को अपने करीब पाने से ही उन की रूह को जैसे किसी का शरीर मिल गया हो। अम्मा जो राम जी की बीवी है वो राम जी अब इस दुनिया मे नहीं रहे पर अम्मा उन के बनाये प्रेस के धडे को अब तक चला रही है।

अपने कपड़ों पर प्रेस कराने वाले सब लोग राम जी की बीवी को अम्मा कह कर पूकारते है। उनका असली नाम कोई नही जानता पर नाम भी छुपने वाली चीज नहीं एक दिन तो बाहर आना था।

"सीता सुन तो सही।" इस नाम से बाबा राम अम्मा को बुलाते थे। उन्होनें जब खाली पड़े पव्वो की तरफ देखा तो नज़र चन्द लम्हो के लिये वहीं रूक सी गई। मैनें पूछने की बहुत कोशिश की सवाल किये पर अम्मा नहीं बोली मानो जैसे किसी खामोशी ने उनके होठों को सिल दिया हो।

बात कुछ देर के थी रूक गई। कुछ सवाल ऐसे होते हैं जिनका जवाब नहीं दिया जाता बस, उन्हे अपने में गड़ लिया जाता है जब तक की हम अपने को न भुला दे। याद रहे तो ये की किस के लिये खुद को भुलाया।

चूंहो के मोटे-मोटे बिल अम्मा के छप्पर तले चारों ओर जमीन मे खुदे पड़े थे। मैने दोबारा कोशिश की, "क्या बात है?"

उनका अब उत्तर मिला, "क्या बात हो सकती है जो हुआ सो हुआ। तेरे बाबा की याद आ रही है।"

जब मैनें उनकी सारी बातें सुनी तो मेरे मन मे कई विचार कोधने लगे। बाबा जाग रहे हैं और अम्मा सुबह मन्दिर जाने के लिये पुजा की थाली सजा रही है। जब देखो बीडियाँ। बीडियाँ कोने-कोने मे अध्जली बीड़ियो का ढेर लगा रखा है आखिर काम करने वाली है ना। मर गई तो मुझे भी इन बीड़ियों की तरह फूँक देना। वो मुस्करा कर कहत, "तुझसे पहले मैं मरूगाँ।"

दो बच्चो को लेकर राजस्थान से ये दोनो मियाँ-बीवी आये थे। बच्चे बड़े हो गये। शादी के बाद दोनों ने अलग रहने का फैसला ले लिया। राम जी और अम्मा दोनों अकेले आकर पार्क के कोने से सटाकर एक ठिया बनाने लगे। अम्मा और बाबा के प्रेम से बोलने और इज्जत पाने से गली के सारे लोग उन्हे राम-राम करते निकल जाया करते थे। बातचीत में समझ आ रहा था की राम जी और सीता जी की बकायदा सब से अच्छी बोलचाल थी। दोनों तो नहीं पर उनमे से एक जरूर है जो अब तक उस जगह को महीने हफ़्तों में आकर देख जाया करता है।

राकेश

लच्छे चुश्की गर्मी की मिटाये खुश्की...

"दो रूपये में मन को तरोताज़ा किजिये। लच्छे चुश्की गर्मी की मिटाये खुश्की। जो खाये वो ललचाये जो न खाये वो पछताये।"

रेहड़ी पर बर्फ को घीस-घीस कर खिलाने वाले सुखीराम जी ने अपनी बर्फ की रंग-बिरंगी गोला, चुश्की का सब को दिवाना बना रखा था। हाथों की करामात भी अनोखी होती है कहा से क्या बनाकर निकाल दे ये जुगाड़ कुछ पता नहीं चलता है।

शादी पार्टी या जन्म दिन हर कार्यक्रम मे वो अपनी रेहड़ी पर समान लगाकर होने वाले कार्यकम्रो के दरवाजे के पास खड़े होकर बर्फ के गोले बेचा करते। बहुतों की तरह उनका भी शहर से रिश्ता किसी न किसी दास्तान जुड़ा है।

एक बातचीत के दौरान उन्होनें बताया की वे तेरह साल के थे। जब गाँव से भाग आये फिर यहाँ अपने जीजा के साथ मिलकर कई छोटे बडे काम किये फिर एक ही आखिरी काम जो बर्फ कि फैक्ट्री में काम आया था बिना किसी डिगरी के सार्टीविकेट के उन्होनें शहर में अपनी एक पहचान बनाई जिसे देख कर उनका अपना माहौल बदल ही जाता है।

सुखीलाल अब अपने बीवी बच्चों के साथ हैं पर रेहड़ी पर चलते-चलते कई बातचीत ये करने लग जाते है और गुज़रे जमाने के हवाले से कुछ अलग इस वक़्त की कल्पना करते हैं।

राकेश"दो रूपये में मन को तरोताज़ा किजिये। लच्छे चुश्की गर्मी की मिटाये खुश्की। जो खाये वो ललचाये जो न खाये वो पछताये।"

रेहड़ी पर बर्फ को घीस-घीस कर खिलाने वाले सुखीराम जी ने अपनी बर्फ की रंग-बिरंगी गोला, चुश्की का सब को दिवाना बना रखा था। हाथों की करामात भी अनोखी होती है कहा से क्या बनाकर निकाल दे ये जुगाड़ कुछ पता नहीं चलता है।

शादी पार्टी या जन्म दिन हर कार्यक्रम मे वो अपनी रेहड़ी पर समान लगाकर होने वाले कार्यकम्रो के दरवाजे के पास खड़े होकर बर्फ के गोले बेचा करते। बहुतों की तरह उनका भी शहर से रिश्ता किसी न किसी दास्तान जुड़ा है।

एक बातचीत के दौरान उन्होनें बताया की वे तेरह साल के थे। जब गाँव से भाग आये फिर यहाँ अपने जीजा के साथ मिलकर कई छोटे बडे काम किये फिर एक ही आखिरी काम जो बर्फ कि फैक्ट्री में काम आया था बिना किसी डिगरी के सार्टीविकेट के उन्होनें शहर में अपनी एक पहचान बनाई जिसे देख कर उनका अपना माहौल बदल ही जाता है।

सुखीलाल अब अपने बीवी बच्चों के साथ हैं पर रेहड़ी पर चलते-चलते कई बातचीत ये करने लग जाते है और गुज़रे जमाने के हवाले से कुछ अलग इस वक़्त की कल्पना करते हैं।

राकेश

उपन्यास पढ़कर उनका दिमाग चलने लगा...

उपन्यास पढ़कर उनका दिमाग चलने लगा है। हर वक़्त किसी और दुनिया में खोये रहते हैं। हमे तो जैसे जानते ही नहीं हैं। एक बीबी और क्या चाहेगी अपने पती से की वो उसे प्यार करे और परीवार को सम्भाले। वो वक़्त की इस कसौटी पर खरे नहीं उतरे। रोज़ाना किसी न किसी उपन्यास में ओधें मुँह पड़े रहते। उनकी बीबी अनामिका गुर्राकर बोली, “35 साल के हो गये हो बुढ्ढे फिर भी बच्चों जैसी हरकत नहीं जाती। नौकरी तो छोड़ चुके हो अब क्या हमे छोड़ने का इरादा है।" ये बच्चे क्या सड़क पर छोड़ दूं।

विजय को कुछ पता नहीं था की उस के सिर पर करछी लेकर साक्षात कालीमाई के रूप में उनकी बीबी अनामिका खड़ी है। सुनते नहीं मैं कुछ कह रही हूँ। पाँच फुट पाँच इंच के इस मोटे-ताज़ी शरीर से थोड़ा काम भी कर लिया करो।

विजय मानो स्वंय ही अपने से पुँछे गये सवाल का जबाव जानता था पर वो इस जवाब को किसी और ही अंदाज में कहना चाह रहा था, "इसे रिवॉल्वर कहते हैं मैडम और इससे निकली एक नन्ही-सी गोली अच्छे-खासे इंसान की ज़िन्दगी को मौत में बदल देती है।"

अनामिका के तन-बदन में जैसे आग सी लग गई फिर अचानक ही वो ठन्डी पड गई। विजय ने उसके उतरे हुए चेहरे को पढ़ लिया कि बीबी बहुत डर गई है। ज़्यादा डराऊगाँ तो शयम को रोटी के बदले खाली थाली के दर्शन करने पड जायेगें। लेकिन अनामिका कहाँ मानती वो दोबारा किसी बात का बहाना लेकर फिर से कोशिश करने लगी। दुनिया भर के मर्द बाहर जा कर कमाते हैं एक तुम हो की पुरा दिन मुफ़्त में रोटियाँ तोड़ते हो।

वो आश्चर्यजनक ढ़ग से खुद को नियंत्रित करके आँखे उपर की तरफ कर के बोला, "अपनी नौकरी का ज़्यादा घमंड मत करो मैं अभी ज़िन्दा हूँ हाथ पैर सलामत है। जब मर जाऊँ तब खूब गालियों की बारीश करना। मैं जरा भी इतराज नहीं करूंगाँ।"

ओरतों को लड़ने के लिये किसी वजह की जरूरत नहीं होती वो लड़ाई की खुद एक वजह होती है। विजय चुप हो गया और मन ही मन उपन्यास किसी पन्ने को पढ़ने लगा। अनामिका फिर बड़बड़ाती हुई विजय की ओर लपकी।

"अगर ना ही पालने थे ये बच्चे तो पैदा क्यों किये?”

विजय बड़ी ही मुस्कराहट के साथ चेहरे पर ताज़गी लाकर बोला, "जैसे तुम्हारे बाप ने तुम्हे पैदा किया वैसे ही मैनें भी इन्हे पैदा किया है। चिन्ता किस बात की है। भगवान सबको देखता है। वो यहीं कहीं हैं तुम्हारा ड्रामा देख रहा है। जरा मुँह सम्भालकर बोलना समझी।"


"अगर तुम ये सोच रहे हो की मुझे डरा-धमका कर तुम चैन से बैठे रहोगें तो ये तुम्हारी गलत-फहमी है मिस्टर विजय।"

तभी विजय के होठों पर अजीब सी मुस्कराहट खिल गई उसने अनामिका को घूरते हुए पूछा, "तो तुम मुझे पढ़ने नहीं दोगी मुझे एक ही बात बार-बार दोहराने की आदत नहीं है।"

"मुझे तो तब तक चैन नहीं मिलता जब तक कोई मेरी बात न समझले और तुम समझ लोगे तो तुम्हारी सेहत के लिये अच्छा होगा।"

विजय ने तीव्र गती में कहा, "लगता है तुम्हारी खाल मसाला मांग रही है अभी मुझे तुमने ठिक से जाना नहीं है।"

"तुमने भी मुझे कहा पहचाना है।" अनामिका अन्जान सा चेहरा बना कर बोली।

विजय बातों से ही काम चला रहा था। उसे समझाने की कोशिश कर रहा था, "मान जाओ मुझे छेड़ो मत।"

उसने फिर चेतावनी भरी आवाज़ में कहा। पर वो कहाँ मानने वाली थी।

"देख रहे हो घर की क्या हालत बना रखी है पूरा घर कबाड़ी की दूकान लगता है। दिवारें पलस्तर छोड़ चुकी है रंग फिका पड़ गया है सफेदी की पपडियाँ रोज़ दिवारों से छूट कर गिरती है।

"ये सब पैसे से ही ठीक होगा। सूना !”

"कानों मे रूई ठूस रखी है क्या? अगर तुम अपनी खैर चाहती हो तो चुप हो जाओ।"

घर मे विजय ने एक-एक चीज को देख कर कहा, "क्या नहीं है हमारे पास फ्रीज है कूलर है टीवी है बर्तन भांडे, ओलाद है सब तो है और क्या चाहिये?"

गालियों से सांस लेने के बाद वो अपना मुँह विजय को चिड़ाकर बोली, "अच्छा और क्या चाहिये, बडे लखपती बाप के बेटे हो ना, जो इतने आसानी ये सब बोल दिया। ये पूराना फ्रीज जो कभी डन्डा पानी करता है कभी नहीं। वो खिड़की में लगा कूलर कभी रूक जाता है कभी चल पडता है और ये मुँह टीवी अपनी मर्जी का मालिक है। रिमोट के बटन तक अन्दर धंस गये हैं। जब तुम्हारा ये हाल होगा तो तुम्हे पता चलेगा। मुझे लगता है तुम मेरे हाथ से मरना चाहती हो। विजय बार-बार उसे शब्दों से समझाता पर वो कुछ ना समझती। लगता है की भेस के आगे बीन-बजाने से कोई फायदा नहीं।
मुझे कुछ करना पड़ेगा। खामखा मेरे सिर पर खून का इल्जाम आ जायेगा।

ये कहते ही उस के चेहरे पर हिंसा भरे भाव पैदा हो गये। अब जरा भी मेरी आँखों के आगे टिकी तो तेरा गला दबा दूंगा। मेरा सारा मज़ा खराब कर दिया।

उपन्यास को एक तरफ पटक कर वो बौखला कर उठा रास्ता छोड़। तुम लोग मुझे जीने नहीं दोगे। कहाँ जा कर मर जाऊँ?

बडी पैचिदगी भरी आवाज़ मे वो बोला, "तुम ये समझती हो की इन सब बातों से मेरा उपन्यास पढ़ना छूटवा दोगी तो मैं बताए देता हूँ की तुम गलत हो। अनामिका सिर को हथेली से पीटकर बोली।

"मेरी अक्ल में तुम्हारी कोई बात नहीं आती। यूँ खाट पर लमलेट पड़े रहने से कुछ नहीं हासिल होगा काम-वाम करना पड़ता है तुम तो बैशर्मो की तरह घर मे ही घुसे रहते हो। ज़ुबान को लगाम दो। विजय फिर से चौड़ा होकर बोला। मैं कुछ बोल नहीं रहा तो इस का मतलब ये नहीं की तुम सही हो। जरा अपने आप को आईने में देखो तेहजीब की तुम्हे जरूरत है।"

आईना जो दिखाता है तस्वीर अपने वर्तमान और गुज़रे वक़्त की। वो भी वक़्त साथ बहुत कुछ पीछे छोड़ आया था।विजय को उपन्यास के इलावा कुछ नहीं सुझता था। बचपन से वो स्कूल की किताबी दुनिया से दूर शहर की आबो-हवा में किस्सा गोहियो में खोया रहता था। उसकी छोटी-छोटी मगर बेहद चमकती और झिल-मिलाती आँखें, मुस्कान भरे चेहरे को और खिला देती। बचपन और जवानी के बीच उसने कहानियों और किस्सो की गुथ्थम-गुथ्था में अपना रोल अदा किया। वो धीरे-धीरे उपन्यासों की दल-दल में धंसता चला गया।

वो किसी उपन्यास की पंक्तितों में खोया हुआ एक टक नज़रें दिवार की ओर गढ़ाये हुए था। कमरे की कोई चीज़ उसे छू नहीं पा रही थी। कोई बात सुनाई नही दे रही थी और अनामिका उसके कांधे पर बैठकर कान खा रही थी। शायद तुम ये भूल गये हो की तुम बैठे कहाँ हो? क्यों?

वो बडे ही घमंडी स्वभाव मे बोली, "घर-घर होता है बाहर-बाहर होता है। अब दिवानों की तरह घर में पड़े रहोगे के कहीं जाओगे भी।"

"मैं सिर्फ तीन गिनुगाँ अगर तुम चुप नहीं हुई तो मैं बता नहीं सकता की मैं क्या कर जाऊँगा।" फिर चेतावनी दी उसने और हाथ उठाकर गिनती करना आरम्भ किया।

"एक" उसने दायनें हाथ की अगूंठे के साथ वाली उंगली उठाई। कमरे में सब कुछ शान्त हो गया बच्चे दोनों के बीच में ऐसे बैठे थे जैसे कोई तमाशा उनकी आँखें देख रही हो। बस, दिवार घड़ी की सुंई की हल्की सी टक-टक सुनाई दे रही थी ।

"दो " उसने बीच वाली उंगली उठाई तेज़ आवाज़ में जोर दिया।

अनामिका का चेहरा पीला पड़ने लगा वो विजय से वैसे बहुत डरती थी। वो इस लिये की विजय बहुत शान्त और ईमानदार आदमी था। झगडे में भी ईमानदारी से इंसाफ करता किस की क्या गलती है मसला हल कर देता था पर सेखीबाज़ होने के कारण रोब झाडती थी। उसे सहन करना हर किसी मर्द के बसकी बात नहीं थी।

तीन गिन्ने की नौबत नहीं आई वो इतने मे ही मान गई। तीनों बच्चे जोर से हंस पडे। घर का बनना जो कुछ देर के लिये मैदाने जंग बन गया था वो थम गया और घर-घर लगने लगा। दिवारें नज़दिक खिंची चली आई। फ्रीज़, कूलर, टीवी, अलमारी इत्यादी जो कुछ देर के लिये गायब हो गये थे। घर का तिनका-तिनका वापस आ गया।

राकेश

Tuesday, May 26, 2009

समय का खुक्ख होना क्या है?

किसी जगह का बनना, उसका चलना और उसका मिटना। इसके अलावा भी किसी जगह को किस वज़ह से अपने में दोहराया जाता है? जगह का चुप होना, उसका फैलाव होना होता है या चुप्पी ठहराव की दास्ताँ बताती है? समय का खुक्ख होना क्या है?

पिछले दिनों जिस जगह से मेरा वास्ता रहा वो जगह किसी भी मायने मे उतरने से कभी नहीं चूकती। वे रहने की जगह भी है, खेलने की भी, कामग़ार समाज के अन्दर जीने वाली थी और एक ऐसी जगह के रूप मे भी वो समा जाती है जहाँ पर रहना, जमना और किसी से नाज़ुक रिश्ते बनाकर चले जाना और फिर दोबारा से नई जगहें तलाशना। ये जगह खुद मे कई ऐसे हमराज़ अपने मे समाये जीती है। वक़्त के बितने और कहीं छुप जाने से क्या होता?, हर रोज़ से आज किसी ग़ेर वक़्त मे इस जगह से मिला।

आज जैसे किसी के पास कुछ बचा ही नहीं है। खाली हो गया है सब। या हमें क्या मालुम कि शायद जिनसे हम मिले हैं, वे इस ख़ुद के खुक्ख होने को जीवन मानते हैं।

आज इस जगह पर लोगों से बात करने के बाद में ऐसा व्यतित हुआ जैसे चाहें किसी भी जगह को बनाने के गुण लिए लोग चले आते हो लेकिन इसके अलावा कुछ और भी है जो बताया जाता है। वे क्या है? उसी की तलाश में रिश्ते भटकते हैं और ठिकाने उजड़ते हैं। पर उस छोर तक पहुँचने मे कुछ कसर बाकि रह ही जाती है हर बार।

यहाँ सवाल का बवाल ये नहीं है कि ये जगह शायद कुछ दिनों के बाद में यहाँ पर रहेगी नहीं। ये बात किसी के मन में हो या न हो, मगर उससे पहले दिमाग में इस जगह के वे पल दोहराने की कोशिश है जो याद रखें जायेगें। वे क्या होगा जिससे ये जगह याद रह जायेगी? वे कौन से दृश्य होगें जिससे यहाँ के हर वक़्त को तस्वीरों में उतारा जायेगा? और सबसे बड़ी बात ये की यहाँ पर ऐसा क्या है जिसे छोड़कर जाया जायेगा? जिससे इस जगह को महीनो तक दिलों में यूहीं का यूही रखा जा सकेगा? ये सब कुछ बेकार की बातें हैं। भला ऐसा भी कभी होता है कि कोई किसी जगह से उठ खड़ा हो जाये तो उसकी महक उस शख़्स मे नहीं रहती? या किसी को उसी की बनाई जगह से उठा दिया जाये तो वे कभी उस तरफ मुड़कर भी नहीं देखेगा? ये कभी नहीं होता। दरअसल बात ये भी नहीं है, सारा माज़रा तो ये ही की इस जगह की महक क्या है जो यहाँ के होने का अहसास भर पायेगी? ये महक यहाँ इस जगह की है या लोगों की है? यहाँ के बासिदों की है जो यहाँ रहते नहीं लेकिन आते-जाते हैं? या उनकी है जो यहाँ पर कुछ बनाते हैं। जगह की भूमिका हो या न हो लेकिन कई हाथ पसारे लोगों ने इसे भूमिकृत बना दिया है। इसलिए ये जगह बोल सकती है, घूम सकती है, भाग सकती है, बस सकती है और बसा भी सकती है। भले ही इसके हाथ-पाँव हो या न हो।

एक शख़्स से बात करने पर लगा जैसे कुछ चीज़ें और बातें फब्ती की भांति होती हैं। जिसे भुलाना पड़ता है। याद रखने की कोई जरूरत नहीं होती। वो ख़ुद से पूछ पाता है कि याद रखने से क्या ज़िन्दगी वैसी नहीं रहेगी जैसी चल रही है? या याद रखने से कुछ नया जुड़ता जायेगा?

ऐसे ही कुछ सवाल रोज़ अपने से पूछ पाते हैं। मैं यहाँ पर कई दिनों से आ-जा रहा हूँ, लेकिन इतने दिनों के बाद भी ये समझना मुश्किल है कि यहाँ के कोन से छोर को लोग अपने नजदीक मानते हैं। इस जगह के कई छोर हैं। जो ख़ुद से बनाये गए हैं। ये वे नहीं है जो दिखते हैं या वे नहीं है जिनसे आया-जाया जाता है। ये वे हैं जिन्हे एक-दूसरे के लिए घोषित किया गया है। जहाँ एक-दूसरे मे शामिल होने की ललक उभरती है। मैंने उनसे कुछ पूछने की कोशिश की, यही के क्या यहाँ पर सबसे पुराने आप हैं? और ये काम यहाँ कितना पुराना है?

वे बोले, "यहाँ पर ये काम या कोई और काम कितना पुराना है वे छोड़ों, पहले ये पूछों की ये जगह है किस की? हमारी सुनो तो हम बस, इतना जानते हैं की ये जगह किसी की थी ही नहीं। न तो उसकी जो हमें यहाँ पर लाया, न उसकी जिसने हमें यहाँ पर बैठाया, न ही उसकी जिसने ये जगह बनाई-बसाई और न ही उसकी होगी जो हमें यहाँ से भगायेगा और तो और ये जगह तो हमारी भी नहीं है। असीलियत बतायें तो ये जगह उनकी हैं जो यहाँ पर बिना बजाये अपनी चीज़ें रख या बैच जाता है। ये जगह उनकी है जो एक-दूसरे के आसरे यहाँ पर रह जाते हैं। हम मानते हैं की हम तो यहाँ इस जगह के उपयोगकर्ता हैं। अब तक इस जगह ने सबको उपयोग करना अच्छे तरह से सिखा दिया हैं।"

गोदाम के बाहर एक शख़्स नींबू पानी की रेहड़ी लगाकर खड़ा था उसने कहा, "भाइए लोग यहाँ कबके भूल चुकें हैं कि इस जगह पर किसका तख़्ता ठुका था। ये भी गवाँ बैठे हैं हमें यहाँ पर ठिकाना किसी ने क्यों दिया। जब तक हम यहाँ पर आवाराओं की तरह नहीं फिरेगें तब तक ये फलेगी भी नहीं। यहीं का यहीं पर रह जायेगा। इस जगह के इस कब्रिस्तान को बड़े होते वक़्त नहीं लगेगा।"

एक शख़्स अपने एक हाथ की उंगलियों में एक छोटा सा गुलाब का फूल फसायें पूरे इलाके में घूम रहा था। कभी-कभी किसी कोने में खड़ा होकर किसी के पास जाकर पूछने लगता तो कभी किसी कोने में अकेला ही खड़ा हो जाता। उससे ये पूछने में डर लग रहा था कि वे यहाँ पर कैसे आया। बड़ा तेज़ था उसके चेहरे में। वे बोला, "हमारी ज़िन्दगी जब गठ्ठरों मे गुज़र गई तब पूछ रहे हो कि यहाँ पर कैसे? हम तो यहीं के हैं। मान लो कि हमारी तो पैदाइश ही यहीं की है। कभी-कभी नराज़गी चलती है यहाँ से लेकिन ज़्यादा दिन तक दूरी रहती नहीं हैं ये खींच ही लाती है मेरे को यहाँ। एक बड़ी गुप बात बताऊँ, ये अन्दर की बात है ये जगह मेरे को साँस देती है। इस जगह में मेरे कई बार जान बचाई है। आज भी बचा रही है। मुझे इतना याद है कि मुझे कोई अपने कांधों पर धर कर लाया था। मैं बहुत नशे में था। आज भी हूँ। बाकि सब भूल गया हूँ।"

मुर्गे का मीठ बैचने वाले एक शख़्स जो साथ वाले अंडे के पराठें बैचने वाले से 19 अंडों की मारामारी के कारण झगड़ रहा था। लगभग 20 मिनट की जबरदस्त चिल्लाचिल्ली के बाद में वो मामला सुलझा। असल में पिछले दिन ये नहीं आया था इसकी जगह पर इसका भांजा आया था। वो लोगों से पिछले माल के बकाया पैसे ले गया था। जिसे भांजा मानने से ये शख़्स इनकार कर रहा था। ये कह रहा था कि मेरा तो कोई भांजा ही नहीं है, अंडे के पराठें वाला कह रहा था कि भईए वे ख़ुद ही कह रहा था तभी तो हमने दिये उसको पैसे।

ये गर्मागर्मी जोरों पर रही। ये कहता, "मुल्ला जी ऐसे कैसे आप किसी को भी पैसे दे दोगें। वे कैसे भांजा हो गया मेरा। क्या सकल-सूरत मिलती थी उससे या वे असल में मेरा नाम ले रिया था?"
मुल्ला जी बोले, "ये कहाँ खड़ा है वे भूल गया है तू? यहाँ कोई किसी की सकल से नहीं मिलता लेकिन सब एक दूसरे के रिश्तेदार हैं। पता लगता है तुझे किसी को देखकर। जब वे आ जायेगा भइए अब तो तभी होगा फैसला।"

ये कुछ कह नहीं पाया। बस, इधर से उधर नज़रें घुमाने लगा। फिर दोबारा आया अपनी साइकिल के पास और जमीन पर टाट बिछाकर मुर्गे काटने लगा।

गोदाम के माल से एक टेम्पों कसाकस भर दिया गया था। उसको बाँधने के बाद में एक बेहद पतला सा लड़का टेम्पों को दूर से देखने लगा। साथ में खड़े नींबू पानी बैचने वाले से दो रुपये का नींबू का पानी लिया और चुश्की मारते हुए ऊपर की ओर देखने लगा। उससे ये सवाल पूछने की हिमाकत कर बैठा मैं। वे जैसे अपने हर कदम को रखने पर बेहद उत्कट था। भरपूर इंद्रइयों से जीने वाला। वे अपने तावनुसार होकर बोला, "क्या बोल रहा है भाई? ये जगह मैंने बनाई है। कौन जानता था इस जगह को बता सकते हो? नहीं, ये कैसे बनी ये बताऊँ? जब तक यहाँ से धड़ाधड़ माल यूहीं हमारे हाथों से भरकर जाता रहेगा तब तक ये जब चलती रहेगी। मैंने इस जगह में अपना बहुत वक़्त दिया है। मेरा भाई भी यहीं का है। यहाँ से सारा माल मेरे ही हाथों की मेहनत का फल है। कैसे भर जाना है माल ये मुझसे बेहतर कौन जानता है। ये मैंने बनाई है जगह। मैं हूँ यहाँ का सबसे पहला आदमी।"


इस जगह का पूर्वाभ्यास लेने के समान यहाँ पर बहुत कुछ था और कुछ भी नहीं था। लेकिन ऐसे कई वाक्या व दृश्य हैं जिनसे ये जान लेना बेहद मुश्किल है कि प्रदर्शन के पहले क्या होने वाला है? इन सभी में भी कोई पूर्वाभ्यास लेने की भी जरूरत नहीं थी और न ही इस जगह के हर पहलू को देखने से पहले का ये ज्ञान था। एक माहौल जैसे हर दूसरे माहौल के आश्रित है। वैसे ही जैसे हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। कोई किसी को खोज़ रहा है, जिसे खोज रहा है वे कोई नहीं है लेकिन वो "कोई" सब मे है। यही सबका दक्ष है। जिसे सींच लिया गया है यहाँ।

लख्मी

Tuesday, May 19, 2009

ये सवाल नहीं था, कुछ और था...

क्या हम जानते है की हमारे बिना हो या हमारे साथ, कितनी जगहं और कोने रोज बनते है और रोज माहोल सजाते है? उन्ही बे-बोल जगहों के बीच एक जगह ये भी है. जो कबसे बनकर चल रही है वो किसी को नहीं पता लेकिन कब से इसमें जान पड़ी है वो सब को पता है. लोगो की भीड़ जमने ही वाली है. लो समझो जम ही गई.

"वो कौन सी चीज है जो वापस नहीं आ सकती!"

ये बात कहकर वो चुपचाप बाहर निकल गए. ये ठिया उन लोगो के जुड़ने से बनता है जो खुद को तलाशते हुए यहाँ चले आते हैं. इसका कोई वक्त नहीं है. ये कभी भी तैयार हो जाता है. लेकिन इसकी शर्त सिर्फ इतनी है की यहाँ से कोई चुपचाप निकल नहीं सकता. हाँ भले ही चुपचाप बैठ सकता है मगर निकल नहीं सकता.

साथ से गाना शुरू हुआ, "आशकी में चूर हो लिया छोरा जाट का, बुड्डे ने भी पट्ठा चाहिए सोलाह साल का."

उसके बाद यही आवाज़ वहां पर बहुत देर तक आती रही. आज यहाँ पर कुछ हुआ है, जिसका यहाँ पर किसी को अंदाजा नहीं है. आज इस जगह के एक बन्दे के नहीं आने का सबको दुःख जरुर हो रहा है. रविंदर जी आज के बाद यहाँ पर नहीं आयेगे.

रविंदर जी के यहाँ के सबसे पुराने बासिन्दे हैं जिन्हें यहाँ रहते कई साल हो गये हैं. अपने हाथो से उन्होंने यहाँ पर ये जगह बनी थी. शुरू से ही गाने और लोकगीतों की शौक रहा है. जिसके सब्दो में वो हमेसा खींचे चले गए है. पुराने से पुराने गानों के रिकॉर्ड और दिल में उनकी कहानियां वो हमेसा ही अपने अन्दर समां कर रखते आये है. कभी-कभी तो रात कितनी ही बीत जाएँ लेकिन वो उस जमीं से उठते नहीं है जहाँ पर एक बार वो गाने बैठ जाते हैं. फिर तो बस गीतों की दुनिया की जनम होने लगता है. नए - पुराने और उस दौर के गाने मुंह से निकलने लगते है जब वे जवान हुआ करते थे.

दरअशल, ये दौर बहुत जल्द दिमाग से गायब होने लगता है. जब कम और रिश्तों के बीच में सब कुछ खोने लगता है तो ये दौर भी उसी की आहुति बन जाता है. उन्होंने भी इस दौर को सफ़र के माद्यम से ही देखा है. जिसको वो बहुत जल्दी भूलना चाहते थे लेकिन उन गीतों की धुनों और शब्दों ने उन्हें ये सब भूलने ही नहीं दिया.

वो वक्त है तो आज की समय है वो अपने साथ न जाने किनते लोगो को कैद करके रखते है. और यहाँ पर सभी को कैद में मज़ा भी आता है. वो अब नहीं आ पायगें. इसका सबको बहुत अफ़सोस है.

उन्होंने पिछली रात सबसे एक बात पूछी थी जिसका जवाब वो चाहते थे. इसके कारण वो यहाँ से गए हैं. उन्होंने पूछा था, "क्या मेरे लिए कोई वक्त बचा ही नहीं है जिसमे मैं किसी को बिना याद किये ही जी सकूँ? क्या हर वक्त मुझे मेरे परिवार और लोगो के बारे में सोचना पड़ेगा?"

उनकी बातों में कुछ खींचें की तड़प थी तो दूसरी तरफ कुछ उखाड़ कर फेँक देने की जिद्द, वो किसी बात से खिशिया नहीं थे और न ही दुखी थे वो बस कुछ पाने की कोशिश में थे. यहाँ पर किसी के पास भी वो जवाब नहीं था जिससे उनको ये कहा जाये की जगह बदल जाती हैं लेकिन वो बातें नहीं बदलती जिनको दिल में लेकर हम घूमते हैं. उन्हें यहाँ से जाने का अफ़सोस नहीं था और न ही उन्हें कोई खींच कर ले जा रहा है उसका दुख था. बस उनका सवाल है उनका दर्द बन गया था.

क्या कोई समय की लडाई थी? क्या कोई बात पूछने की कोशिश थी? क्या कुछ मांगने की तड़प थी? या खुद को पाने की जिद्द? ये सब के सब सवाल उनके उस एक सवाल में छुपे थे. वो जब जा रहे थे तो सब के सब उनको देख रहे थे. वो मुस्कुरा रहे थे लेकिन वो बात दिल के किसी कोने में ठहर गई थी. ये सवाल खली उनका ही नहीं था जो बहार निकल कर खामोश हो गया था. ये सवाल इस ठिकाने और यहाँ के हर बन्दे के लिए था. सभी उस सवाल को महसूस कर रहे थे. लेकिन जवाब किसी के पास नहीं था.

क्या उम्र और समय के साथ जगहों का रिश्ता, जुड़ना, बिछड़ना और बनाना जुदा है? ये कब तक हमारी जिंदगी में शामिल रहता है? यही यहाँ पर आज छूता हुआ है. जिसमे हम कभी महसूस कर सकते हैं.

लखमी

खुद के अक्स है या ओरो के अंदर के चेहरे....



कोई अपनी छाप कैसे छोड़ता है? हम दौड़ते जा रहे है, भागे जा रहे है मगर क्या हमे मालूम है अपने पीछे कितने निशान छोड़ते जा रहे है?

ये एक झरोखा है, इसमें से वो दिखता है जो नज़रे एक बार में देख कर छोड़ देती है मगर आँखे किसी चीज़ के पीछे कितनी दूर तक जा सकती है?

ये एक दिशा है, जो कहीं खींच कर ले जाती है. बिलकुल उस रास्ते की तरह जो खुद में कई मौड़ लिए रहता है. बस कदम चलते जाते है और रास्ता बदलता जाता है. हमारे पैर कितनी दूर तक बिना मौड़ के चल सकते है?

ये एक अक्स है, जो हर किसी के अंदर से होकर निकलता है, जिसे बस खुद में बसाया जाता है, उसके साथ खेला जा है और उसके साथ जिया भी जाता है. क्या हमे पता है की हम अपने अंदर कितने अक्स लिए घूमते है?

परछाइयों के पीछे दौड़ कर तो देखो. कहाँ का सवाल कभी सामने ही नहीं आएगा.


लखमी

ये सब कहाँ है?

कुछ बनाते, लिखते व सुनते कहीं छुट जाते है. उनको दोबारा कैसे दोहराया जाये?

बीती कहानियों में दोहराए गए लोग और उन्ही कहानियों में सुनाये गए लोग कहाँ मौजूद है? क्या उनका कोई ठिकाना है? या वो खाली बनाये जाते है किसी माहोल को रचने व बनाने के लिए? हम कितनी कहानियों में न जाने कितने लोगों के बीच में रह चुकें है? ये बताना शायद मुस्किल होगा. क्या वे लोग खाली उदाहरण बनकर आते है या फिर वो सुनाने वाले के अंदर के कुछ हिस्से होते है? ये बताना हमारे लिए एक बेहद ठोश रूप में आता है जिससे हम अक्सर किनारा कर लेते है.

कई सवाल और न जाने कितने ऐसे चेहरे जिनको हम खुद में लिए घूमते है और ये सोचते है की जो भी हमारे सामने बनता जा रहा है वो असल में एक चित्र है जिससे हमारा कोई रिश्ता नहीं है. ये मानकर अगर हम चलना भी चाहें तो कोई बुरी बात नहीं होगी.

मेरे सामने गुजरने वाला हर लम्हा किसी याद से कम नहीं है. लेकिन मैं उसे दोहराने से कभी-कभी चूक जाता हूँ इसलिए नहीं की मैं उसे खुद में उतार नहीं सकता या उसे अपने माहोल में बयां नहीं कर सकता. ऐसा नहीं है. मगर क्या हम हर लम्हा और हर बीती दुनिया के पलो को बयां कर सकते है? लेकिन क्या हमे पता है की बीते और गुज़रे लम्हों में क्या-क्या समाया व छुपा होता है?

उन लोगों और कहानियों को हम कैसे सोचें जो हमे सुना दी गई है. जिनमे हम नहीं है और जिनकी दुनिया से हम वाकिफ भी नहीं है. उसे दोहराने और कह पाने की ताकत हम कैसे जुटा सकते है? कितने तरह के लोगों से हम इन्ही कहानियों के जरिये मिल चुके है?


लखमी

Monday, May 18, 2009

कुछ ऐसी पहेलियाँ जो अद्धखुली घूमती हैं...



कुछ अद्धबनी शक्लों में पुर्ण चेहरे भी होते हैं। जिन्हे किसी की तलाश होती है और वो भी अपने होने के मक्सद को खोज़ करते-करते कहीं ठहर जाते हैं।




हमारे पीछे और आगे कौन है? ये किसी को क्या पता! मगर अपने बीच कई सूरतों का संगम होता है। हर चीज़ बराबर है फिर भी सबकी अपनी -अपनी सीधी, टेडी, तीरछी पहचान सामने आती है।





कौन है वो जो अकेला नहीं कौन है? वो सबके बीच मे नहीं है! इंसान खुदगर्ज़ है जो अपनी ही कल्पना की दस्तकों को भूलकर सिर्फ़ यथार्थ के कुण्ड में डुबकी मारता है।





कोई जाने या न जाने फेरियाँ बाज़ारो में मज़ा लुटाती। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं फिर भी माँगने का सिल-सिला चलता रहता है। ये रिश्ता ही एक-दूसरे को करीब रखता है।





वो भूख जो इंसान को शुरू से ही सता रही है। वो कभी मिटती नहीं, मिट जाते हैं उसे पाने वाले और छोड़ जाते हैं सौगातों के रूप में अपनी धरोहरें, मिसाले, चिन्हे और पहेलियाँ। जिन्हे समझने की जिज्ञासा लिए आने वाला कल आकाशवाणियाँ करता जाता है।





खुद से भटकती सोच जब किसी पर उतारू होती है तो सही-गलत का फ़र्क किए बिना वो उस रूप में आ जाती हैं। जिसको आसानी से मन्जूर करना सम्भव नहीं। वो तमाशा बन जाती है और दूसरों के हँसते-मुस्कराते चेहरों में रूपान्तरण होकर छलक जाती है। वो रोके नहीं रुकता। ऐसे ही मज़मों का मंजर बना रहे तो ज़िन्दगी हसीन हो जाए।





राकेश

बारातघर से गुज़रता रास्ता...

बारातघर के सामने से जगमगाते बिजली के झूमर और बैंड-बाजे के साथ नाचते-गाते लोगों का रोमांचकारी माहौल गुज़र रहा था। रात के अंधेरे को मात देती ये अलौकिक बारात की टुकड़ियाँ सड़क के रास्ते से अक्सर निकला करती है।

एक गली के कोने पर बना ये सफ़ेद गुम्मट का मन्दिर जो काफी अरसे पुराना है। सब कुछ बदल गया पर ये मन्दिर की दरों-दिवार और यहाँ पर बहुत पहले से ही बैठने वाला एक शख़्स नहीं बदला। हम बदलाब को एक नई भूमिका में देखगें। जो की सब कुछ बदल रहा है पर शरीर जो तस का मस अपने आधार पर कायम है। जो वक़्त के आगे अपना असाधारण पात्र बनके अपने को हालात के किसी भी प्रहार से टूटने से बचाएँ रखता है। जीवन में अपने को इस असाधारण वेशभूषा में लाकर रखने वाले जो मन्दिर की देवी की सेवा करते ही रहते हैं। एक पेहरेदार की तरह वो मन्दिर के ठीक दरवाज़े के पास बैठ जाते है। जिन्हे यहाँ के लोग केशरी लाल के नाम से जानते है और एक बुर्ज़ुग शख़्स के नाते सब उनका बड़ा ही सम्मान करते है।


बदलाव पर ये अन्गिनत कथाएँ सुनाते रहते हैं और गली के सारे लोग इनकी बातों का विश्वास करते हैं। एक अनुभवी व्यक़्ति होने के साथ उनकी दिलचश्पी मन्दिर के साथ वक़्त गुज़ारने में ज़्यादा रहती है। वो अभी रिटायर हो चुके हैं। केशरी लाल की आँखों से देखे तो आज की तस्वीर के अन्दर ही बदलाव से पहले की वो धरातल दिखाई देगी। जहाँ कभी जमाने भर के हर ख़्याल और अफ़सानों को सुनाने वालों का गुट हुआ करता था। दिवारों की खुर्दरी सतहों पर हरी-सफेद फफूंदी हुआ करती थी। जब यहाँ एक बड़ा सा शौचालय हुआ करता था। लेटरिंग के दरवाज़ों के बाहर खड़े शख़्स तैमद, निक्कर और गम्छा डालकर बीढ़ियों के धूएँ में अपने को व्यस्त रखा करते थे। दिवारों के मुंडेरियों पर बोतलों और पुराने डिब्बो की लाईन लगी रहती थी। हर कोई यहाँ अपने को हल्का करने आता था। करीब सुबह के तीन-चार बजे से ही आसपास के ब्लॉको से लोगबाग यहाँ आ कर फ्री हुआ करते।

ये शौचालय पीली कोठी के नाम से दक्षिणपुरी मे प्रसिद्द था क्योंकि शौचालय की बाहर की दिवारों पर पीले रंग की सफेदी कर रखी थी। सड़क के ठीक साथ में ही ये शौचालय बना था जे ब्लॉक और अठ्ठारह ब्लॉक के बीच में बनी पीली कोठी नामक शौचालय अब पहले वाली पहचान खो बैठा है।

बारातघर जो इस की जगह में खड़ा है। जो पहले था वो अब नहीं बस, कल और आज के बीच लटकी चन्द तस्वीरें हैं जो कहीं गुमनामी के अन्धेरों में किसी के साये में बैठी है। आँख जब सब कुछ साफ़-साफ़ देखना चाहती है तब ये वक़्त की आँधी ऐसी चलती है मानों कुछ देखता ही मुश्किल हो जाता है फिर एक ही रास्ता बचता है की जो ज़्यादा नज़दिक है उसी छोर को पकड़ लिया जाये। वक़्त की इस बेडोल आंधी में सब पानी की रह बह जाता है। बस, रह जाता है तो ज़मीन पर घाँस तिनको और रह गए अवशेष जो मिट्टी की दलदल में धसें और ऊपर आये तत्व। आदमी तत्व का रूप है या तत्व आदमी के रूप बना खड़ा होता है।

केशरी लाल जब वे भी अपनी स्वीकृति को लिए सब की दावतों में जुड़े रहते थे। सड़क से गुज़रते लोग उन्हे हाथ उठाकर दूआँ-सलाम करते थे। कोई ऐसा नहीं था जिसकी नज़र इनके ऊपर न पड़ती हो। सड़क सामने पहले भी बारातों का सिल-सिला जारी रहता था लोग तब भी इसी तरह दुल्हे के घोड़ी चढ़ने का जश्न मनाया करते थे। वो भी एक वक़्त था ये भी एक वक़्त है। कही इसी के बीच में विशेष रूप से फँसे ये भी अपने को सम्पन्न देखते हैं पर ये सम्पन्न होना कुछ अलग है। जिसमें सत्तर वर्षीये केशरी लाल जी अपने को किसी मजबूत शिला से कम नहीं समझते। पूरे दिन सड़क के पास में पीपल के पेड़ की छाँव में आराम से मन्दिर की निघरानी करते हैं। जो कोई भी सड़क से होकर गुज़रता है उसे बड़ी बारीकी से जाँचते हैं। ये उनकी आदन बन गई है। उम्र के साथ शरीर कि अन्दर की ताकत कम हो गई है जिससे शरीर प्रभावित है। उनके कान में एक सुनने की मशीन लगी रहती है जो पहले से तेज़ और साफ सुनने में उन की मदत करती है।

वैसे भी उनको देखकर ऐसा लगता है की वो बिना मशीन के भी सुन सकते है। क्योंकि उन देखकर लगता है की उनकी आँखें वक़्त के किसी सुक्ष्मदर्शी फ्रेम से झाँक रही है। वो बैठे रहते हैं कुछ सोचने और हक़िकत से कल्पना कि बुनाई करने में। उनका चेहरा समान्य रूप से खिला रहता है पर वो उस के पीछे प्रचंड समाधी लिए होते हैं।

राकेश

बाँटकर गायब हो जाना...

एक बेहद छोटी सी मुलाकात, जिसने कई सवालों को हमारे खोलकर रख दिया। ये शख़्स दक्षिणपुरी के उन लोगों में से हैं जो नितियों को जीने के साथ-साथ उसे बदलने की भावनाओ को खुद में पालते हैं। ज़ोरआज़माइश करते हैं, सवाल पैदा करते हैं लेकिन बाँटकर कहीं गायब हो जाते हैं। ये शहर की रग़ में हैं। इन्हे तलाशकर कहीं खोने के लिए तैयार रह सकते हैं।

आज उन्होनें एक सवाल किया वो बोले, "हम जो भी अपने घर, परिवार और रिश्तेदारों से हटकर करते हैं। वो कुछ भी हो सकता है, चाहें कुछ बनाना, चाहे कुछ लिखना या चाहें कुछ गढ़ना। उसमें जो हम बन जाते हैं या होते हैं क्या वो सदा के लिए हममें उतर जाता है? वो सब कुछ हमारे स्वभाव में कैसे आता है?"

यहाँ पर थोड़ी देर के लिए सब कुछ खामोश हो गया था। इस सवाल के बीच में कोई भी चीज़ न तो तेरी थी और न ही मेंरी। यानि ये सवाल तेरा-मेंरा की दुनिया लेकर नहीं था। वे हम दोनों के ही अन्दर के पहलुओ को छेड़ रहा था।

मैं इस बात को ख़ुद में कई बार सोच चुका हूँ। लेकिन कभी पार नहीं पा पाया। हमारा लेखन या वो अक्श जो हम खुद बनाते हैं लेकिन वो क्या मूरत बन जायेगा वो हमें मालुम नहीं होता। उसका अहसास क्या है वो पहचानते हैं लेकिन उसका अस्तित्व क्या होगा वो नहीं जान पाते। उस दुनिया में हम रहते भी हैं लेकिन सारी दुनिया को उसमें समेंटना हमारे लिए मुश्किल हो जाता है। सारी दुनिया को बना सकते हैं लेकिन सारी दुनिया को खुद में उतारना बेहद मुश्किल हो जाता है। ये सारी दुनिया क्या है? वो दुनिया जो हममें है या वो दुनिया जो हममें होने के बाद भी बाहर है। ये लड़ाई की तरह हमारे ज़हन में दौड़ती रहती है।

अक्सर स्वभाव भारी होता है या पड़ता है। उसका रिश्ता नज़र आती बातों और चीज़ों से बनाया जाता है। कभी-कभी हमारे अन्दरूनी छंद या कल्पनाए स्वभाव की भूमिका बनती हैं मगर उनका दबदबा हरकतों और कहने सुनने के ऊपर ही अटका होता है। स्वभाव शख़्स के नैतृत्व के बहाव से परे होता है तो अन्दाज़ ही उसके पैश होने के तरीको को उजागर करता है।

परिवार, रिश्ते और काम हमें हमारे स्वभाव से परे जाने ही नहीं देते। लगता है जैसे जो भी चीज़ इस दौरान की जा रही है वो हमारे स्वभाव का ही एक हिस्सा बन जाती है। अगर हम हर शख़्स को उसके स्वभाव से आंकने लगेगें तो हमें क्या-क्या नज़र आ सकता है?

वो कहते हैं, "हम जहाँ कुछ बनाते हैं तो उसमें खो जाते हैं। उसमें हर चीज़ को सोचते हैं, कभी-कभी खुद को कोसते भी हैं, उस चीज़ से बिगड़ते हैं मगर कभी उसे तोड़ते नहीं बस, बनाये चले जाते हैं। जब कुछ लिखते हैं तो उसमें बहुत कुछ खूबसूरत बनाने की इच्छा रखते हैं। जिसमें कुछ जान बाकी नहीं होती उसे भी ज़िन्दा मानकर उसके साथ चलने लगते हैं। इसमें कोई भी चीज बेकार नहीं होती। ये हमारी समझ में बसा होता है। पर क्या इस तरह की सोच में जाने का, उतरने का या बहने का कोई वक़्त होता है? हमारी असल ज़िन्दगी और पारिवारिक नितियाँ हमें इससे बाहर खींच लेती हैं या हम खुद ही बाहर आ जाते हैं?"

ये सवाल अपने आपसे टकराने के सवाल थे। जो वो खुद में बुदबुदा रहे थे। शब्दों की ताकत, इच्छा और कल्पना की शक़्ति हमें हमसे कहीं दूर ले जाती है। जिसमें हमें ना तो किसी भी चीज़ का बुरा लगता है और न ही कोई चीज़ बेकार लगती है, न कोई मरा दिखता है ओर न ही कोई अजनबी बना नज़र आता है। ये दुनिया जब हम अपने में रच लेते हैं तो हम कहाँ होते हैं? वही हमारा अपना स्वभाव है। क्या वो दुनिया महज़ रची हुई है जिसके मिटने की कोई तारीख़ है या वो और गहरी होती जाती है? ये हमारे अन्दर के अहसास हैं। जो उससे बाहर नहीं जाना चाहते।

यहाँ पर जैसे एक सवाल को समझने के लिए सवालों की बौछार सी होने लगती है। वो सवाल कितना गहरा है उसकी गहराई नापने का काम यहाँ पर शुरू हो जाता है।

वो बोले, "मुझे अफ़सोस है कि मैं कभी नहीं रह पाता अपने इस रूप में, लेकिन मैं कुछ रचना और गढ़ना कभी बन्द नहीं करता। हाँ इसके दरिया में गोते जरूर लगाता हूँ। गोते लगाकर सबको उसकी छींटों से भिगो देता हूँ उसके बाद बाहर निकल आता हूँ। ऐसा लगता है जैसे कोई धारा या तो मुझे अपने अन्दर खींच लेती है और बहा ले जाती है या फिर कोई मुझे बाहर धकेल देता है। हर बात को, माहौल को और घरेलु नितियों को बहलाने का काम मुझे कसोटने लगता है काम का दरिया जैसे मुखे अपने अन्दर की कल्पनाओ को पैदा नहीं करने देता। मैं ऐसे कभी नहीं कहता की घरेलु नितियों में सम्भावनाये नहीं होती शायद मैं ही नहीं समझ पाता। मेंरी मुलाकात दोबारा उसी कल्पनाओ से जब भी होगी मैं आपके पास जरूर आऊगाँ"

लख्मी

बातों के सहारे...

दिल्ली शहर के रग़ में बसी कई ऐसी जगहें हैं जो कहीं छुपी हुई हैं। उसी में जीते हैं कई ऐसे जीवन को खुद को बुलंद और कुछ न कुछ तलाशने में रखकर जीते हैं। उन्ही से मुलाकातों का सिलसिला खुद को शहर के बीचो-बीच छोड़ देता है और कहता है जाओ खोजों खुद को। उन्ही तलाश में एक जगह ये भी...


बस, कुछ ही समय का काम है यहाँ पर बाकि के वक़्त तो सिर्फ बातें होती हैं।

बातें यहाँ सौगात की तरह बाँटी जाती हैं। बातें जिनका मौड़ क्या है वे समझना बेमतलब का होगा। बातें उसी अहसास से गुज़रती है जिसमे हल्के-फुल्के पलों का बोल-बाला रहता है। बातें क्यों हो रही हैं?, क्या हो रही हैं? और कौन किस को खोजकर बातें कर रहा है वे तय नहीं है।

मगर फिर भी बातों की पतंग यहाँ सभी के अरमानों के बादलों मे बड़े प्यार से उड़ती है, लहरती है और कभी यहाँ तो कभी वहाँ पर ठुमकती भी है।

पहली ही नज़र मे ये एक बड़ी और गहरी जगह के रूप मे खुल जाती है, मानों जैसे हर गली एक अलग ही देश की हो जाती है। जहाँ कोई गोदाम में पड़े कागज़ों और गत्तों के ढेर पर अटका किसी को कुछ सुनाता दिखेगा तो कोई पुरानी कब्रों पर बैठा पूरे इलाके मे नज़र दौड़ाता हुआ लोगों के बारे मे कहता रहेगा। कोई ढेर मे से पन्नियाँ चुनता हुआ कोई अपना ही गीत गाता फिरता है। अपनी बोती भर जाने के बाद साथी की बोरी मे अपना हाथ घुसाता रहेगा। कोई चावलों मे परछा मारती हुई किसी के घर की बातों मे कोई हुई सी देखेगी।

नज़र जैसे ही उठती है तो छोटे-छोटे गुटों मे ये हल्की-फुल्की बातें एक-दूसरे के अंदर दौड़ती नज़र आती हैं।

इस जगह को यही सवारते हैं, सकेरते हैं और भरते भी हैं। सकेरा हुआ जर्दा भी यहाँ पर बेहद अनमोल है। छटाई, चुनना और इकठ्ठा करना जैसे शब्द यहाँ की रोज़मर्रा में उतर चुके हैं।

अभी कुछ ठप है, मगर इसका अहसास करना आसान नहीं है। इस तस्करी से भरपूर इलाके के आसरे कई कमाउ लोग जुड़े हैं जिनके यहाँ पर हर वक़्त रहने से ये कभी ठप नहीं लगती।

यहाँ पर होती बातों मे ये जगह हमेशा कमाऊ और माल से लदी दिखती है। लोग इंतजार करते हैं यहाँ पर कट्टो के चिट्ठे लगने का। गोदाम के भर जाने से दिहाड़ी की गुंजाइसें खुलने लगती है। जिसका इंतजार केवल यहाँ के लोग ही नहीं बल्कि वे लोग भी करते हैं जो ट्रक, टेम्पो के साथ मे रहते हैं। महिने मे चार बार ये मौका बड़ी बेसब्री से आता है, जिसमे दिहाडी कमाने वाला दौड़ लगाता है। ये दौड़ दस मे से आठ को तो जीतनी होती ही है तो दौड़ हमेशा लगती है।

किसी बड़ी खुशी के इतजार मे लोग छोटे-छोटे खुशी के अवसर नहीं छोड़ते। टेम्पो मे समान लादना हो या टेम्पो वाले के साथ हेल्परी करवानी हो, ये काम जोरो पर होता है।

इस काम की माँग शुरू होने वाली है। गोदाम भरा और लदा खड़ा है। बोरियों के चिट्ठो ने पीछे के गोदामों को ढक दिया है। गली में कोई कागज़ खुला हुआ नहीं दिखता। न ही कोई बोरी खाली पड़ी दिख रही है। सब कुछ कसकर बाँधा गया है। गोदाम की जमीन सूखी और साफ पड़ी है। सात-सात फिट के कट्टे काफि वज़नदार रूप लिए हुए है।

तैयारी जोरो पर हैं...

"हम तो भइये महीने टू महीने कमाते हैं यहाँ। कभी समान लदवाने का तो कभी कुछ बिनने का। उसी से शाम के खाने का और पीने का जुगाड़ हो जाता है। मस्त लाइफ कटती है हमारी। दिन में दो-चार को हराकर कुछ निकाल लेते हैं, और कभी हार जाते हैं तो थोड़ा पिट भी लेते हैं। लेकिन लाइफ मज़े मे गुज़रती है। कसर नहीं छोड़ते किसी भी चीज़ मे और कोई काम भी अधूरा भी नहीं रहने देते।"

"हम तो यहाँ की सफाई करते हैं, उसी में हैड टू हैड पैसा मिल जाता है। ये पैसा हमें कोई देता थोडइ है. जो मिलता है उसे ही बैचकर कमा लेते हैं।"

तीन लड़के गोदाम के नल पर तोलिया बांधे एक दूसरे से बातें कर रहे थे। एक कहता, "इस बार मामा के वलीमे मे कोई खुशी न मिली हमें तो, हमारे तो चाचाजान ही हमारे पीछे लगे रहे। कहीं जाने ही नहीं दिया।"

दूसरा बोला, "एक बात तो बताओ भाई, अगले महीने क्या करोगे? क्या यही समान लादने का काम करना है या किसी गाड़ी पर रहोगे?"

पहला बोला, "अरे हम जैसे मेहनती आदमी को काम की कमी न है, कर लेगें कोई भी काम।"

तीसरा बोला, "भइये काम कोई भी करेगें लेकिन वे करेगें जिस काम के बन्द होने के आसार नहीं होगें।"

एक औरत गली की छोटी सी नाली मे सीकों की झाड़ू मारती हुई कुछ बड़बड़ा रही थी। "कभी तो पानी का निकास छोड़ दिया करो जब देखो कुछ न कुछ ठूसकर उसे यहीं अटका देते हैं। हम सोचते हैं कि यहाँ पर कुछ जमे न मगर कोई न कोई समान इसमें अटका ही रहता है।"

दो आदमी गोदाम के अंदर एक बेहद छोटे टेबल फैन को चलाये बैठे थे और गोदाम में नज़रे घुमाते हुए बातें कर रहे थे। उनमे से एक आदमी बार-बार समान का हिसाब लगा रहा था। वे बोला, "एक बार गर किसी की नज़र लग जाए तो काम कहाँ होता है। सोलह दिन में भी इतना माल नहीं लपेटा की एक टेम्पो भी लद जाये।"

"मैं तो ये सोच रहा हूँ भाईजान की दिल्ली का सारा कूड़ा जा कहाँ रहा है जो यहाँ नहीं आया तो?"

बाहर चौपाल पर मिले दो दोस्त एक-दूसरे से पहली बार मिले हैं उस अहसास से बातें कर रहे थे। एक बोला, "अरे कैसा है यार? तू तो मिलता ही नहीं है। कहाँ हैं आजकल?"

दूसरा दोस्त, "बस, यहीं है तू बतला कैसा है? काम कैसा चल रहा है?"

पहला दोस्त, "काम तो बड़िया चल रहा है। बस, आजकल अपनी दुकान खोलली है लेकिन काम तो हम गोदाम में ही करते हैं। दुकान का महीना और गोदाम की दिहाड़ी दोनों की हुड़क लग गई है हमें तो"

दूसरा दोस्त, "तू यहाँ है कबसे जो दुकान खोलली और दिहाड़ी भी मार रहा है?"

पहला दोस्त, "भाई हम तो यहाँ पर होश संभालते ही आ गए थे। हफ़्ते मे तीन दिन काम करते और कुछ न कुछ जुटा ही लेते रहे। खूब दिहाड़ी मारी है हमने। यहाँ जितने भी काम हैं सबमे हाथ आज़माया है हमने तो, जब लगा की इस दूकान की जरूरत है यहाँ पर डाल दी।"

दूसरा दोस्त, "बहुत बड़िया यार, लगे रहो और मिलते रहो यार।"

बातों का काफ़िला बाहर की तरफ मे दौड़ा चला आता है। जिसे कोई नहीं रोक सकता और रोकेगा भी क्यों भला। ये तमन्ना ही कुछ इस तरह की है जिसपर जोर नहीं चलता। कई छोटे-छोटे मौकों मे ये खूब फलता है। ऐसा लगता है जैसे ये बातें इस जगह की अंतरमन की तस्वीरों को खोल देती हैं। जिसको देखने मे जितना मज़ा आता है उतना ही उसे समझने की चेष्ठा जगती है। जिसके सहारे ये जीती है।

लख्मी

Tuesday, May 12, 2009

तुम तो अपने ही आदमी हों

दिन तारीख़ तो याद नहीं पर जब मुलाकात हुइ तो वो चन्द बातें याद रह गई जो अबतक मेरे वक़्त काटने का एक ला जवाब रास्ता बन गई थी। आर.टी.वी छोटी बस स्टेंड जो एच ब्लॉक के चौराहें पर हैं जिसके रास्ते चार अलग-अलग दिशाओं को चले जाते हैं। एक शमशान भूमि दूसरा तुगलकाबाद तीसरा खानपूर और चौथा पूष्प विहार को जहाँ अभी बी.आर.टी बस कॉरीडोर बना है। जगह का ये वर्णन दक्षिणपूरी के रहने वाले हर शख़्स के दिलो-दिमाग पर न छूटने वाली स्टेप की तरह लगा है।

किसी ने बड़ी तेज़ी से आवाज़ दी "ओ पप्पू"। माहौल पहले से ही अपने अन्दर होने वाली हरकतों से झुँज़लाया हुआ था। हम एक कोना पकड़ कर खड़े थे। उनसे मुलाकात उनके नाम से शुरू हुए फिर सीधे काम-धन्धे पर आ गई। उसके बाद हुआ असली सामना। दो-चार बार उनके बारे में काफी सुना था पर कोई काम नहीं पड़ा। बातों की इस असीमता में उनका मिलना बेहद ला जवाब था। वो वक़्त को अपना दोस्त बताते हुए बोले, "वक़्त दोस्त की तरह होता है जो कभी साथ नहीं छोड़ता हर पल हर क्षणिक ज़िन्दगी का हाथ थामें चलता है। ये पता रहे की हम किसी के साथ चल रहे हैं जहाँ ये भूले तो रास्ता भटक जायेगें और तब अकेले हो जायेगें। समझो, जहाँ हाथ छूटा किस्सा ख़त्म।"

गाड़ियो से और आते-जाते लोगों की बातों के शौर में उनकी बातों को मैं सुन्ने की पूरी कोशिश कर रहा था। वो दृश्य मेरे ज़हन में अभी घूम रहा था। घर आकर मैनें अपना टीवी ऑन किया फिर यकायक ध्यान उनके चेहरे की तरफ चला गया। कमरे के शौर से मैं कहीं बहुत दूर पहुँच गया। जहाँ मैं अपने से सवाल जवाब करने लगा। क्या नाम था उनका?, हाँ याद आया- शंकर।
नाम याद आते ही मैं वापस अपने कमरे की चार दिवारी में आ गया। टीवी चल रहा था। बस इतना मालूम हो रहा था। रह-रहकर शंकर भाई उस माहौल से जुड़ी एक तस्वीर में मौज़ूद छवि की तरह लग रहे थे पर वो किस्सा ख़त्म कहाँ होने वाला था।

सुबह के 11 बज रहे थे। मैं उनके पास खड़ा था। आँखों के ठीक सामने शंकर भाई का चेहरा था। वो पैशे से राजमिस्त्री हैं और ज़ुबान के उतने ही पक्के हैं जितनी की उन हाथ से बनाई गई ईंट-पत्थर की दिवार होती है। जब मैंनें उनसे एक छोटा सा बाथरूम बनवाने की बात की तो मुस्कुराकर उन्होनें कहा, "चिन्ता मत करो तुम तो अपने ही आदमी हो जब बोलोगे बना देगें।"

शंकर भाई के इस डायलॉग ने मुझे जैसे एकदम निश्चिन्त कर दिया फिर भी मैंनें समान कितना लगेगा और उनका अंदाजा लेने के ख़्याल से दोबारा सवाल कर डाला।
"शंकर भाई मुझे अगर आईडिया मिल जाये तो मैं उसके हिसाब से समान मगवाँ लूगाँ।"

शंकर भाई ने कहा, "जब काम करना हो तो बता देना समान का क्या है वो थोड़े ही अपने आप अपने पाँव आ जायेगा तो हम ही तभी ही बता दूँगा।"

उनसे सारी बातें हो गई थी बस, मैं घर आकर कैसे बनेगा बाथरूम ये सोच रहा था। कमरे में मौज़ूद उमस का मुझे अहसास हुआ तो मैंनें पंखा चला लिया इस से मेरे हाँफते विचारों को राहत सी मिल गई। तीसरी बार जब फिर से मैंनें उनकी तरफ ध्यान दिया तो वो खड़े हुए हाथ की उंगलियों पर बाथरूम में लगने वाली चीज़ों का हिसाब लगा रहे थे।

उनकी खानेदार कमीज़ की जैब में छोटा सा कैल्कुलेटर होने के बावज़ूद भी शंकर भाई हथैलियों से क्यों काम ले रहे हैं। पागल है क्या हर पागल ऐसा ही होता है। वो अपने मन सोचता है और मन के गणित से सारे समिकरणों का हल निकाल लेता है। वो हथैलियों पर बनी लक़ीरों से ही काम ले रहे थे। मेरे ख़्यालों में मेरे उस पीरियड ने दस्तक दी जब मैं नवी कक्षा में था। दरअसल मुझे स्कूल में पढ़ायें गए विषय याद आ गये जो ज़िन्दगी में आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कल थे खैर, जाने दो।
मैंनें उन्हे तनिक भी वो बात कहने की कोशिश नहीं की जो अभी मैं सोच रहा था। वहीं कैल्कुलेटर वाली बात। शंकर भाई ने कहा, "तुम्हारे ज़्यादा पैसे नहीं लगने दूँगा। जब मन हो बता देना समान भी दिलवा दूँगा और कोई सेवा मेरे लायक?”

उनके इन शब्दों ने मेरा मुँह बन्द कर दिया। तब लगा की ये अपनेपन का अहसास देने वाला कौन है? जो अभी का भरोसा दिला रहा है। एक खुशी सी मेरे चेहरे पर आ गई। ये मेरे निश्चिन्त होने की एकमात्र निशानी थी।

राकेश

पूजा की सामग्री का सजा हुआ ख़प्पर

उस दिन अवमास्या की रात थी। इस काली रात में भगत जी ने ख़ास तौर से लोगों को बुलवाया था। चारों तरफ लोग अपने हाथो में पूजा की सामग्री का सजा हुआ ख़प्पर लेकर बैठे हुए थे की कब भगत जी उन्हे आदेश दिया और वो सब ख़प्पर उनके कहे के मुताबिक हाथ से नीचे रखे। सब कुछ विधी-विधान के मुताबिक हो रहा था। भगत जी का नाम यहाँ सब जानते थे पर सब उन्हे भगत जी या बाबा कहकर पुकार रह थे। उनका नाम प्रेमनाथ है उम्र करीब 80 साल की होगी। शरीर को देखकर लग रहा था की वे 50 या 60 साल के है।

चमकादड़ों की तरह सीर पर धुआँ गुच्छा बनकर उड़ रहा था। फ़र्श खून की छीटों से सना हुआ था। बिल्लियाँ आकर उस खून में लथ-पथ फ़र्श को चाट रही थी। भगत जी ने अपनी चारपाई से एक कुत्ता भी बाँध रखा था। बार-बार भगत जी तेल में भीगे रूई की जलती बत्तियों को अपने सामने बैठी महीला की हथैलियों पर हाथ उठा-उठाकर मार रहे थे। जैसे ही हथैली पर जलती हुई बत्ती को छूकर हटाते तभी हथैली पर छपे काले धब्बे की आकृति में किसी को पहचान ने की कोशिश करते फिर दोबारा वैसे ही करते। हर बार कुछ अलग तरह की आकृति उस महीला की
हथैली पर छप जाती। नज़दीक में बैठे लोग ये देख कर हैरान हो जाते। वहाँ दूसरी तरफ एक कमरे में काला अंधेरा था जहाँ किसी के होने की कोई मौज़ूदगी भी नहीं दिख रही थी। आँखें जब उस तरफ देखने का अभ्यास करती तो मन के भीतर अन्नत भाव उभर आते।

वो उस जगह आकर रोके जहाँ साधना ही ज़िन्दगी को उपस्थित कर रही थी। जलती हुई रूई की बत्तियों का प्रकाश दोनों के बीच में एक दायरा बना रहा था। वे झुक-झुककर हथैली को देखते। तमाम उल्टी-सीधी लक़ीरों के ऊपर अतीत को उभारने की कोशिश की जा रही थी। कुछ तो पता चले। अनगिनत बार ऐसा करने के उपरान्त कुछ हाथ लगा। बिल्लियाँ जमे हुए खून की छीटो को ज़ीभ से चाटकर साफ कर चुकी थी। शायद जितनी देर भगत जी ने ये विधी पूरी करने मे लगाई उससे पहले ही बिल्लियों ने सारा मामला साफ कर दिया था।

इस काम के होते ही उन्होनें तसल्ली भरी सांस लेकर अपने बारे में कुछ कहना शुरू किया। सारी बातें वो बड़ी ही सरलता से कहे जा रहे थे। बचपन से ही भगत जी इस विद्या में निपुर्ण थे। उनका जीवनकाल कुछ इस तरह से आरम्भ हुआ।

जब वो चार-पाँच साल के ही थे। वो किस्सा अंग्रेजो के ज़माने का था। तब भारत अंग्रेजो का गुलाम था। उनके पिता श्री चिरंजी लाल पुलिस थाने में हवलदार की नौकरी किया करते थे। घर में सब कुछ था, .एशों-आराम। अचनाक अपनी माँ का चेहरा याद करके उनकी आँखें चमक उठी। भीतर से मन माँ को याद करके उसी मार्मिकता से व्याकुल हो गया। जैसे एक छोटा बच्चा माँ के न होने से व्याकुल हो जाता है
फिर वो वापस मुस्कराकर बोले, "मेरी माँ मुझे बहुत प्यार करती थी। हम तीन बहन भाई थे। दो बहन और मैं।
मैं बड़ा था। बदकिस्मती से उस जमाने में माता(चेचक) निकली करती थी जिसका कोई इलाज नहीं होता था। इसे ला-इलाज बिमारी समझकर हर कोई हम से कोसो दूर भागता था।

तभी मेरे पिता जी ये सोच कर बड़े परेशान रहते थे। उनके महकमे में सब जानते थे की मुझे कोई छूत की बिमारी लगी है। वो सब पिताजी से भी कतराते थे। गाँव में जीना मुश्किल हो गया था। हर रोज मेरे पिता जी को ताना दिया जाने लगा। पिताजी को अपने मान-सम्मान की बड़ी परवाह थी ।

मौहल्ले में सब उनसे डरते थे पर मेरे कारण सबके मुँह उनके ऊपर खुल जाते थे। उस रोज माँ से ज़िद्द की, "इस को कहीं छौड़कर आ जा। कोई मुझसे बात नहीं करता। सब मुझे कोसते रहते हैं। मेरी नौकरी ख़तरे में है। इलाके के साहब लोग मुझे रोज फटकारते हैं। जब भी घोड़े पर सवार होकर गलियों में गश्त लगाने जाता हूँ तो पीछे से लोग धुतकारते हैं। अब सहा नहीं जाता। तू करेगी ये काम या मैं ही उसे ज़हर देकर मार डालूँ और कहीं गड्डे में डाल आऊँ।"

माँ इस बात के लिए कभी राज़ी नहीं होती की उस के बेटे को कोई मारने की बात कहे। वो तो अपनी पति के हाथो मजबूर थी। वरना मेरे बारे में बुरा सोचने वाले का वो गला घोंट कर मार डालती। माँ बड़ी दयालू और हर सूरत में क्षमा याचनी होती है। पड़ोसियों ने उससे कहा की इसे किसी के पास छोड़ आ, नहीं तो तेरे आदमी के महकमे के साहब लोग इसे तुझसे छीन ले जायेगें।

रात भर माँ की आँखें मेरे गम में रो-रोकर पत्थर की तरह ठोस हो जाती थी। चेहरा दर्द में डूब जाता था । पति और अपनी ममता के तराजू के दो पड़लों मे वो अकेली झूलती रही। होशमन्द होकर भी बेहोशी कि सी एक ज़िन्दा लाश की तरह वो मुझे देखती रहती। कौन तोड़ता इस माँ के विश्वास को? उसे जो करना था वो करके ही दम लेती। उस के लिए पति का आदेश और अपने सपूत की रक्षा दोनों ही महत्वपूर्ण थे।

जब महामारी फैली हुइ थी। इस की चपेट से बचना बड़ा कठीन होता था। डॉक्टर इस का इलाज नहीं कर पाते थे। क्योंकि इस बिमारी के बिगड़ जाने के बाद बचना नामुमकिन था। माँ वो कर गई जो उसे करना था गाँव से दूर एक नदी के घाट पर किसी सन्यासी का डेरा लगा था। माँ उसे शायद पहले से जानती थी। उस साधू की साधना में हर प्रकार की शक़्ति थी। वो दिव्य और अति तीव्र राहत पहुँचाने वाली जड़ी बुटियों का ज्ञाता था। इस घाट पर वो गोबर से बने उपलों के ढेर लगा कर उनमें आग जला कर बीचों-बीच बैठता था। कहते हैं- ये तपो बाबा था। जो आग मे जलती लपटों के बीच बैठकर दिव्य शक़्तियों हेतू , ईश्वर की साधना में लीन रहता था प्रात: काल ही वो जागकर यज्ञ करता और तपस्या में लीन हो जाता।

माँ उस के डेरे के पास घाट के किनारे पर ही मुझे छोड गई। मैं रोता रहा जोर-जोर से मगर कोई न आया पर मैं आचनक हो चूप हो गया। मुझे अब डर नहीं लग रहा था। जब वो जटाधारी बाबा ने अपनी गोद में उठाया तो अच्छा लगा। वो मुझे बिना संकोच किए अपने डेरे पर ले आये और अपनी सारी विद्यायें मुझे सिखला दी। सौभाग्यवश वहाँ डेरे पर पहलवान कुश्ती करने आते थे। मुझे भी गूरूजी ने पहलवानों के साथ कुश्ती करने को कहा मैं धीरे-धीरे स्वास्थ होता गया। गूरूजी की लाभकारी जड़ी-बुटियों ने मुझे चेचक के रोग से बचा लिया था। जब में पूरी तरह निरोग हो गया तो दूर खड़ी मैनें एक औरत को देखा यकिनन वो मेरी माँ ही थी जिसे देख कर मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई थी। माँ गूरूजी की मिन्नते करने लगी। बहुत रोई गूरू जी कह रहे थे की "मैं जानता हूँ तू रोज यहाँ आती थी। छूप कर अपने लाडले बेटे को निहारती थी। तेरा कोई दोष नहीं। हर माँ अपनी औलाद का भला ही चाहती है।
ले जाना अपने बेटे को पर इसे अभी और भी कुछ जानना है और सिखना है, समझना है।"

मुझे गले से जी भर के लगा कर माँ ने अपनी अदमरी ममता में जाँन फूँक दी। मैं वहीं गूरू जी के डेरे पर बड़ा होता रहा बहुत ज्ञान-ध्यान की बातें वहाँ से ग्रहण की और मेरा नाम के साथ भी नाथ गोत्र जुड़ गया। गूरू जी गोरख़नाथ के शिष्य शिष्य थे तो मेरे नाम के साथ भी नाथ जुड़ गया। मुझे प्रेमनाथ कहकर पुकारने लगे।

लोगों के दुख -दर्द दूर करने करते-करते मैं दिल्ली शहर में सन् 1982 में आया था। फिर यहाँ के कुछ पीड़ित लोगों ने मुझसे अपना इलाज करने को कहा तो मेरा धर्म था कि किसी भी दुखिया को न नहीं कहूँ। मैनें अपने गूरू जी को वचन दिया था। इस वचन को भरते-भरते मैं अपना सब कुछ भूला चूका था। वचनबध होने के बाद प्रेमनाथ भगत जी ने बड़ी सहजता से चन्द पंक्तियों में कहा। उन की आवाज में अब करूणा फूट पड़ी थी।

"अब तो बस जब तक ज़िन्दा हूँ सबको को कुछ ना कुछ देता रहूँगा। मर गया तो फिर भी कुछ देकर ही जाऊँगा। अपने साथ बस, जीवन भर की साधना ही ले जाऊँगा।"

यह कहकर वे चारपाई से खिसके और अपने पास रखी शराब की आधी भरी बोतल कि तरफ देख कर बोले, "ला दे इसी बात पर लल्ला एक गिलास बना दें।"

कुछ पुरानी यादें , माँ का प्यार , गूरूजी का जीवनदान और आज बची-कुची शराब का हल्का-हल्का शुरूर जो उनके चेहरे पर दमभर रहा था।

राकेश

वो यहीं है कहीं नहीं गए हैं...

खेल और ठाठ से जीना देखा जाये तो हर किसी की भूमिका रही है। अलग-अलग लोगों की ज़िन्दगी ने जीने का मज़ा ही कुछ और है।

रेहड़ी पर पड़ी चमकीले रंग की पन्नी की रोशनी और पोदीने की महक ने उसे और भी मनभावक बना दिया था। उनकी रेहड़ी पर हमेशा भीड़ ही लगी रहती। वो गा-गाकर पूरी दक्षिणपुरी मे घूमते। काफी पुराने हैं वे यहाँ के। लोग उन्हे बाल्टी की आवाज़ से पहचानते हैं। वे अपनी रेहड़ी पर बाल्टी रखते और पोदीने का जंजीरा बाल्टी को बजाकर और गाकर वो पूरे इलाके में लोगों के बीच में शामिल होते।

"अजी पीलो- हाँ जी पीलों- मेरा जंजीरा बना है आला, इसे पी गई वेजन्तीमाला, उसका पड़ गया अमिताभ से पाला। अजी पीलो- हाँ जी पीलो।"

ये गीत गली मे पड़ते ही घरों के दरवाज़े खुलने से पहले ही बच्चे बाहर निकल आते। बस, रेहड़ी के पास खड़े होकर पूरी गली को अपने सिर पर उठा लेते।

उनके हाथ के बने जंजीरे के स्वाद के चटखारे न जाने कितने लोगों को कुछ देर उनका गीत सुनने पर मजबूर करता। ये रिश्ता खाली सुनाना और समान बैचने के समान नहीं था। उनकी रेहड़ी तो न जाने कितने शायरों के दिवानों से भरी दिखती। कहीं पर शायरी लिखी होती तो कहीं पर गीत। सब के सब उसी की लाइनों को पड़ते हुए वहीं पर जमे रहते।

कुछ साल पहले ये एक कोका कोला की कम्पनी में काम करते थे। उनके घर में कोका कोला कोल्ड्रिंक और न जाने कितने ढक्कन पड़े दिखते। वो रोज़ शाम मे जब भी वहाँ से आते तो गली के सभी बच्चो को जमा कर लेते और गिलासों मे सबको कोल्ड्रिंक पिलाते। सारे बच्चे उनके आने की राह हमेशा देखा करते थे।

उनका यही काम रहता, कभी बच्चो की महफिल जमाते तो कभी बड़े बुर्जुगों के साथ में ये शरबत की तरह रखकर एक खास तरह की मण्डली जमा लेते। बस, फिर तो गीत और चटखारों की दुनिया शुरू हो जाती। उस समय ये सारी कोल्ड्रिंक पीना किसी के बस का नहीं था। 5 रुपये मे ये शरबत किसी को पसंद नहीं था। बस, यहीं से इस शरबत के नाम से पीते और गीतों की दुनिया में चले जाते। रोनक से भरपूर ये राहें हमेशा ताज़ी बनी रहती।

उनके हाथ में खाली बचा रह गया था उन गीतों की दुनिया का सच। बाकी सब झूठ था। काम और कम्पनी बन्द होने कारण अब वो पूरे उन मण्डलियों के हो गए थे। लेकिन ये मण्डलियाँ खाने को शायद नहीं दे सकती थी। ये मण्डलियाँ हर गीत में अहसास भर पाती थी, देश-परदेश की बातें कह जाती थी लेकिन दोस्तों के बीच पलते जरूरत के हिस्सो को कभी छू भी नहीं पाती थी। ये दौर खुद को बदलने के लिए था।

वे तो अब भी वही बाँट रहे थे। वो ही गीत, वही शरबत और वही प्यार इसी में उन्हे खुशी मिलती थी। आज भी वे वही सब बाँट रहे हैं। जिसमे जीने की तमन्ना खूब पलती है। वही लोग, वही जगहें और वही शरबत के तौर पर मिलने वाला पानी। गीतों में चटखारे आज भी रोशन हैं। गीत उनकी ज़ुबान से निकलता तो दूर तक जाता। और शाम की बातों को लोग सुनने के लिए उन्हे अपने करीब भी रखते थे।

वो आज भी वहीं हैं जहाँ उन्हे होना चाहिये। शादियों और छोटे-छोटे अवसरों में वो कही यही जंजीरा पिलाते हुए दिखते हैं और गीतों को गाते नज़र आते हैं। यही उनका काम है।

लख्मी

बस, इंतजार ही किया...

किसी भी वक़्त को वो कभी आसानी से पकड़ नहीं पाये। बस, उस वक़्त के आर-पार ही भागते रहे। शायद इसी में उन्हे मज़ा आता था। घंटो वो एक ही जगह पर खड़े रहते। जिसका वो इंतजार कर रहे थे वे कैसे दिखते हैं ये भी उन्हे पता नहीं था, और वो उन्हे कैसे पहचानेगें ये भी। फिर भी उनका रोज उस जगह पर तकरीबन चार घंटे खड़ा होना तय रहता।

आज उन्हे किसी ने बड़े प्यार से बुलवाया था। उसी की खुशी उनके चेहरे पर छाई थी। अपनी पढ़ाई ख़त्म करके उनके पास कुछ भी करने को नहीं था। घर मे जो भी हो लेकिन वो इतना तो जानते थे कि अभी उनके पास दो साल तो है जिसमे वो कुछ अपने लिए कर सकते हैं। अगर ये गवा दिए तो फिर तो लग गये किसी काम पर जिसमें उनका मन कतई नहीं था।

वे भागे-भागे जाते थे उस तरफ जहाँ पर उन्हे कोई अपने साथ बिना वज़ह के ले जाने की कहता। वो रात-रात भर घूमते। कभी वेटर बनकर पार्टियों में, कभी शादियों में डीजे वाले साथ, कभी नाटक करने वालो के साथ, कभी बाजारों में तो कभी जागरणों में। उन्हे इन जगह पर जाने से कोई भी नहीं रोक सकता था। दिन और रात को उन्होनें बड़ी सहजता से ज़ुदा-ज़ुदा कर रखा था। दिन में क्या करना है और रात में क्या उन्हे खूब पता था। कभी वो दिन को रात बना देते तो कभी रात को गहरी रातें। जिसमे कोई किसी को ना तो जानता है और न ही पहचानता है।

एक बेहद छोटा सा ग्रुप जिसको बनाने में इतनी मेहनत नहीं लगी थी लेकिन उसे रोजाना बनाये रखने में अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ती थी। इसमे एक ढोलक बजाने वाला था, एक ड्रमसेट, एक गाने वाला और एक चांगों बजाने वाला हाँ कभी-कभी इसमे गिटार तो कभी मटके बजाने वाले भी जुड़ जाते थे।

उन्ही के आने जाने से ये फलता-फूलता था। सब इसी की रौनक में बेहद खूश होते। कई रौनक इन सब ने सा‌थ मिलकर ताज़ा की हैं। शुरू-शुरू में तो ये अपने ही रिश्तेदारों की जगहों को रौनक करते थे। चाहें कुछ भी, कुछ मिले या ना मिले बस, सब के सब खुद ही पँहुच जाते और माहौल को खुशगवार बना देते। ये माहौल को ताज़ा बनाना लोगों के दिलों मे उतरने के समान था। जो वे बहुत आसानी से कर लिया करते। जिसका असर शायद उन्हे दूसरे ही पल मे मिल जाता था।

ये भी उन पार्टियों के हिस्सेदार थे और उस ग्रुप के साथी थे। भले ही उन्हे कुछ बजाना नहीं आता था और न ही कुछ माहौल बनाना। ये तो खुद ही उस माहौल के दिवाने थे। हाँ इन्हे चांगों बजाना बेहद भाता था। मगर उसे खरीदना तो दूर उसे सीखने के भी उन्हे कुछ देने होगें इसी से वे डर जाते थे। लेकिन ये उनका खुद का ही भ्रम था।

रोज शाम में चार बजे वो ग्रुप साथ होता। जिसमें कोई न कोई गाना बजाया जाता। कभी गाना नया होता तो कभी पुराना। गाने के साथ मे गाने वाला, बजाने वाले और सुनने वाले सभी साथ में होते। ये सारा प्रोग्राम किसी न किसी की छत पर होता। सब कुछ यहाँ पर जैसे शांत होता, छत पर किसी के होने का अहसास गायब हो जाता। बस, जो भी होता वो दिलों के अन्दर से निकलने वाली आवाज़ होती और उन सब के रियाज़ के कण जिसने में बेहद ताकत होती।

ये छत छोटी थी, मगर इतनी भी छोटी नहीं थी कि इन सभी के लिए जगह न बन पाये। कहीं से बहुत मद्दम आवाज़ आ रही थी। जैसे कोई तारों के साथ खेल रहा है। हर तार के अन्दर से निकलती आवाज़ रात के आलम को हसीन बना रही थी। मदहोशी के आलम मे हर किसी को जैसे करीब ला रही हो। आसमान साफ था, संगीत के साथ जैसे जुगाली कर रहा था। कभी नवाबो की तरह से सब कुछ सुनता तो कभी मदहोश होकर हवा के झौकों से के रूप में फूलों की बरसात करता। वाह! क्या मज़ा था।

उन्होनें पहली बार एक चांगों खरीदा था। लेकिन इसको बजाना उन्हे आज भी नहीं आता था। घर में रखकर उसे वे कभी सीधा तो कभी उल्टा करके देखते। ये पुराना था, पुराना तो खरीदा था लेकिन उनके दिल में इसका अहसास नये से भी काफी ज़्यादा था। वे उनके दिल का जैसे टुकड़ा था।

लख्मी

Friday, May 8, 2009

उन्हे जाना कहाँ उन्हे खुद नहीं पता...

जीवन के कई साल उनके कहाँ फुर्र हो गए इसका तो उन्हे पता नहीं है लेकिन इतना मालुम है कि वो न जाने कितने जनों के मन के अन्दर बसे हैं। ये वो कभी कहते तो नहीं है पर उनके चेहरे की मुस्कुराहट से मालुम होता है।

उन्होनें चुराया है जगहों को, उन्होनें छुपाया है किसी कोने में खुद के बदलाव को। अगर वो चाहते तो शायद वो भी कहीं खो जाते पर यही सोचने में उनको कई साल लगने वाले थे। क्या खुद को कोई खोने और बदलाव की आग में झुलसने से बचा सकता है? क्या कभी आपने बचाया है खुद को?

कई जगह के रहनवाज़ बने हैं वो और उन्हे इस बात की खुशी भी है। रात का आलम गहराया हुआ है। हर चीज़ खुद को अपने मे बसाये रखने की ताकत से भर गई है। ये ताकत कोई उनसे छीन नहीं सकता।

उन्होनें बमों की लड़ी लगाई और पाँच फिट की दूरी से उसमे आग लगा दी। थोड़ी ही देर में बस, एक वही उन आवाज़ों के बीच रहे बाकी कुछ भी नहीं दिख रहा था और ना ही सुनाई दे रहा था। दबादब एक के बाद एक, आवाज़ से पूरा इलाका भन्नाया हुआ था। लोग जहाँ उन आवाज़ों से भय कर रहे थे और वो उन आवाज़ों को अपनी ताकत मानकर उनके बीच में खड़े थे।

बमों की बरसात हो जाने के बाद बातें जैसे ही होती वो उनसे दूर हो जाते। ये तो उनका रोज़ाना का काम है इसके बारे में क्या सुनना?

"क्या आतीशबाज़ी है भई मज़ा आ गया।"
"ये होता है स्वागत। टॉप क्लास।"

जहाँ बराती और घराती के बीच इन ज़ुमलों को लेकर वाह-वाही बरसाई जा रही थी वहीं वो दूर खड़े बस, अपने काम से खुश होते नज़र आते। वो कहते हैं, "भई हम तो खुशी बाँटने का काम करते हैं। यही हमारा नेग है।"

सब लोग कानों पर हाथ रखे खड़े हैं। अभी उन्होनें दरवाजे के सामने एक बहुत बड़ी बमों की लड़ी लगाई हुई है। बरात के पास में आते ही वो उसे जलायेगे। ये दुल्हे के लिए है स्पेशल। दूल्हा घोड़ी पर होगा। तो वो लगभग दस फिट की दूरी से ही उसे जला देगें। जब तक दुल्हा घोड़ी से उतरेगा तब तक वो जलेगी।

बमों की लड़ी गोल धारे में लगाई है उन्होनें और बीच में चार अनार लगाये है। सबसे पहले वो बमों की लड़ी जलेगी उसके बाद में वो चार अनार, उसके बाद में चार आसमान में फटने वाले बड़े बम। ये आखिर में होगा। उसके बाद में दुल्हा अन्दर चला जायेगा और उनका काम ख़त्म हो जायेगा।

बात अगर कहीं अटकती है तो वो है सन 1980 में। ये उनका पुश्तैनी काम था। चर्चा हो या आतीशबाज़ी के लिए उनका कहीं पर परीचित होना। ये बहुत आम सी बात होती। उनके अब्बा के मन में बम को लेकर न जाने क्या बसा होता। मगर वो चाहते थे की सभी त्यौहारों को बम से रोशन किया जाये। खुशी में सभी को बम से सलूट किया जाये। चाहे वो शादी की खुशी हो या दीवाली का शुभअवसर। वे हमेशा उसी के लिए तैयार रहते।

बम बनाना उनका शौक था। इसी शौर के कारण उनके अब्बू ने उनका नाम ही आतीश रख दिया था। मगर इस शौक के लिए कभी कोई ठिकाना नहीं मिलता था।, दूर-दूर तक सभी इसकी आवाज़ से चौंक जाते थे। मन में होता था कि कोई ऐसा बम बनाया जाये जिसमे सारे रंग हो। वो जब चले तो पूरे अंधेरे को काट दे। एक ही बम हो मगर उसके जलने मे वो पाँच बार अपनी रोशनी फैलाये। उसके रंग हवा में ऐसे झूमे की वो सारी रात को दिन के रोशन उजाने में तब्दील करदे। इसी की चाहत में ये भी अपने इस काम मे अपने हाथ आज़माने के लिए उतर गए।

हर वक़्त मन होता था कामयाबी हासिल नही हुई। देखते-देखते तंगी उनके सिर पर नाचने लगी। अब अपने शौक को रिझाने का काम उनकी तकलीफ के कारण बन गया। वो हमेशा सोचते थे की इसका असर क्या है? वो अपने आसपास देखते थे तो उन्हे लगता था की कुछ चीज़ को हासिल करने का सवाल उनके मन में ही आता था। बाकि तो सभी उन दुनिया में लीन थे। लेकिन दिमाग की फसल ने साथ देने से मनाकर दिया और बम में रंग भरने की चाहत को अधूरे में ही छोड़कर जाना पड़ा।

उनके अब्बू के मन में तंगी और कामयाबी के सवाल कभी नहीं खरोंचते थे। वो उनको देखकर हर वक़्त अचम्भे में रहते। इतना हुनर है लेकिन कभी किसी बड़ी बम बनाने वाली दुकान पर काम नहीं करते। बस, खुद मे घुसे रहते हैं। किसी को अगर सिखाने के लिए बुलाते नहीं है तो कोई आ जाये तो उसे भगाते भी नहीं है। उनका चेहरा लोग याद रखते हैं मगर उनकी जगह को नहीं? ऐसा क्यों होता था उसका कभी वो रत्तीभर भी अहसास नहीं कर पाये थे। छोटे-छोटे कागज़ों के टुकड़े उनके इर्द-गिर्द पड़े रहते, रस्सियों के गुछ्छे भी उनके मसालो में सने रहते और साथ में हर रोज़ कोई नया ही उनके उन गोलों पर मसाला रगड़ रहा होता। उन्हे तो ये तक नहीं मालुम होता था कि आज उनके पास में कौन बैठा है?

आतीश कहते हैं, "मैं उनके इस ज़ज़्बे को कभी नहीं समझ पाया था और ना ही साते जन्म तक मैं समझ सकता था। उनसे तो कुछ पूछने का भी मन नहीं होता था। घर में मैं और उनके अलावा था ही कौन? लेकिन उनकी दुनिया तो अलग ही थी। मैं उनकी दुनिया में शामिल नहीं था या मैं उनकी दुनिया से निकल भागा था ये मेरी गलती है।

वो बमों की पटली कसते हुए बाहर की तरफ मे रवाना होने वाले थे। तभी शादी वाले घर से उन्हे किसी ने रोका और वो थोड़ी देर के लिए रूक गए।

हारा-थका हुआ मैं वापस पँहुचा ये उस बात से तकरीबन 2 से 3 साल पुरानी बात है। अब्बू वहीं थे। जिन लौंडों को मैं उनके पास छोड़कर गया था उनमे से मुझे कोई दिखा नहीं या हो सकता है मेरी ही निगाह उनमे से किसी को पहचान नहीं पा रही थी। मेरे हाथ मे कुछ नहीं था, हमारा घर जला हुआ था। एक तरफ की दीवार को समझों पूरी ही जल गई थी। समान तो अन्दर पूरा सही सलामत था। अब ये पूछना तो बेकार था की ये जला कैसे? बम की दुकान कितनी ही मजबूत हो लेकिन एक दिन जलती जरूर है। और ये तो बमो का घर था। अब्बू मे मेरी तरफ इशारा करते हुए मेरा हाल-पूछा। मैं सलाम कहकर उनकी बगल मे ही बैठ गया।

दिन में तो कुछ भी बातें नहीं हुई थी, बस मसालो की महक में पूरा दिन मेरी नाक की तरह से जल रहा था। अब्बू ने चार अनार निकाले और उन्हे जलाया। उसी की रोशनी मे उन्होनें मुझे कुछ पैसे पकड़ाये और कहा गिनों। मैंने उस अनार की रोशनी मे वो पैसे गिने। उन्होनें दूसरा अनार भी जलाया। उस रोशनी मे मैंने बिजली का बिल देखा। 7 हजार रूपये हो गया था।

हमारा घर अकेला था मेरठ में। उसके बाद तो बस, जगंल ही शुरू होता था। रात का खाना खाकर फिर रात में उन्होंने एक और बम जलाया, उसे देखकर तो मेरे होश ही उड़ गए। अब्बू ने वो बम बना लिया था जिसमे से सात रंग निकलते थे। भइवाह- क्या बात है।

उस दिन के बाद में मैं कभी काम पर नहीं गया। यहीं मेरठ में रह गया। अब दिल्ली आया हूँ तो आने का मज़ा ही कुछ और है। दिल्ली के चांदनी चौक के इलाके के पीछे सदर बाजार मे हमारी अपनी जगह है। वही पर मैं भी अब्बू की तरह से बम बनाता हूँ। अनपढ़ हूँ लेकिन मुझे लोग मास्टर जी कहते हैं।

इतनी पहचान है कि आसपास की सारी शादियों में मुझे ही बुक किया जाता है। पूरा पहाड़गंज, चांदनीचौक, दिल्लीगेट, बारहखम्बा रोड़ और भी जगहों पर। नाम गूंज रहा है। सब अल्लाह की मेहरबानी है और अब्बू का हाथ है सिर पर। दिवाली के लिए तो मैं स्पेश्ल बम बनाता हूँ। और सबसे पहले मैं ही उसकी शुरूआत अपनी दुकान से करता हूँ।

बात चाहें कहीं की कहीं पँहुच गई हो, मगर जो वो अपने अन्दर लिए घूम रहे थे वो छलक उठा था। इस मुलाकात का कोई ठोर-ठिकाना नहीं था। लेकिन इसकी बुनाई समय के धागों ने कर दी थी। हम तो पात्र थे जो किसी ऐसे क़िरदार को अपने बीच महसूस कर रहे थे जिसका कोई भी पहलू हम पकड़ ही नही सकते थे। बात का अन्त होना जरूरी नहीं था।

लख्मी

दुनिया से बातें...

वक़्त मे बहती यादों के साथ लड़ने के लिए कहीं खड़ा है आदमी।
जिसे भूलने से डरता है उसी को दोहराता है आदमी।
एक आदमी काम करके रोज़ थक जाया करता था।
कहीं थककर बैठकर किसी न किसी से बतिआया करता था।

शाम के पानी आने वक़्त हो चला था। गिरधर जी रोज़ाना की ही तरह से पानी के इंतजार में तैयार खड़े थे। पानी भरना तो उनका एक बड़ा ही खूबसूरत बहाना है। वो उस समूह से मिलने की कोशिश में हमेशा रहते जिसे वो दूर ही दूर से चाहने लगे थे। एक बार कोई जरा कहदे की वो गुट आज यहाँ आने वाला है बस, वो सारे काम-वाम छोड़कर उनका किसी प्रेमिका की तरह से इंतजार किया करते। उन्हे उसी में मज़ा आता था।

ये गुट था जगह-जगह पर जाकर कुछ किताबें पढ़ने के लिए बाँटने वाला। चाहें वे किसी धर्म की हो या फिर किसी आस्था की, वे शहरों मे इन किताबों के पाठक तलाशते थे। कभी सड़क के किनारे खड़े हो जाते तो कभी जानने वालो के जरिये उनके जानने वालो के घर में चले जाते। बस, इस किताब के बारे में कभी कहते तो कभी इंसानी नितियों और चलने के बारे में गहरी बातें करते पाठकों के मनों को क्षुक्क्षम करते। लेकिन किताबों की चाहत उनके मन में हमेशा ताज़ी रहती। उनकी इन कोशिशों से आसपास को देखने का मन बहुत रोशन हो जाता।

अनेकों लोगों से खूब बातें करना और उनको किताबों के बारे में बोलना। यही काम भाता था गिरधर जी को। वे किताबों के रक्षक हैं, ये कहना बहुत अटपटा लगता है लेकिन लोग उन्हे ऐसा कहते हैं। उन्हे हर तरह कि किताबों को जमा करने में बेहद सुख मिलता है। किताबों के लिए उनका उतावलापन देखने से बनता है। कभी-कभी तो किसी कबाड़ जमा करने वाले के साथ बैठे मिलते हैं।

उनकी गली के बाहर थोड़ी पास में ही एक कबाड़ी की दुकान है। उनके यहाँ पर हर हफ्ते में दो बार रद्दी आती है। वो उन बोरियों मे घुसे रहते हैं। अगर उसमे कोई पढ़ने लायक किताब मिल जाये तो उसे वे फौरन रख लेते हैं और अपनी झोली के वज़न मे बढ़ोत्तरी कर लेते है।

वो सरकारी नौकरी करते थे, अपनी हर तंख़्वया पर उनका किसी न किसी किताब का घर में लाना तो तय रहता था। उन्हे सबसे ज़्यादा अगर कुछ पसंद था तो वो था, लोकगीतों की किताबों को पढ़ना। उनका मानना था की वो किताबें जो कहीं नहीं पढ़ी जाती वो अक्सर कबाड़ी के थैलो में मिल जाती है। उनके पास अपने घर में भरमार है किताबों की, लेकिन इस भागदौड़ में वो किसी कौने में पढ़ी है तो कभी कोइ पढ़ने ले गया तो वापस ही नहीं आता।

एक बार वो कह रहे थे, "किताबें किसी फोटोएल्बम से कम नहीं होती एक बार कोई ले गया तो वापस ही नहीं लाता। अपने पसंद की कोई न कोई चीज़ वो रख लेता है।"

पानी के चक्कर मे वो काफी देर तक वहीं खड़े रहे। काम करना तो अब बन्द हो गया है और किताबें लेना भी तो उन्ही गुट के इंतजार मे लगे रहते हैं। छोटी-छोटी कहानियों में बसते ज्ञान और संतुष्टी की बातें उनको भाने लगी हैं।

आने वाले समय मे क्या रह जायेगा?, आने वाला समय कैसा होगा?, हम जो कर रहे हैं वो आखिर में क्या है? इंसान के लिए आखिर में क्या रहने वाला है? हमारा आज किसी तरह की ओर है? और हमारे कहने-सुनने और संगत बनाने में हमें क्या अभी सोचना बाकी है?

इन सवालों से वो किताबें भरी रहती हैं। इन सवालों के हल क्या हैं उसे सोचने से पहले उन कहानियों मे जो लोग हैं उन्हे ढूँढना ही किसी शिकार की तरह है। उनको चश्का लगा है इन सवालों से अब सभी को देखने का। वो जो अभी तक देख पाये हैं वो क्या था? और उनको अभी और क्या देखने को मिलने वाला है? वे बेहद खुश होते हैं जब वे उन किताबों से पहले उन गुट में से किसी एक से भी बात कर लेते हैं तो।

एक बार उन्ही में से एक शख़्स से बात हुई वो आदमी दीन-धर्म और दुनिया के रचने के बारे में बता रहा था। गिरधर जी को उस आदमी की बोली बहुत मीठी लगी। इतने प्यार से कोई दुनिया को बताता है क्या? और इतने प्यार से कोई दुनिया क्या हो जायेगी ये कहता है क्या? गिरधर जी सब कुछ उतनी ही उदारता से सुन रहे थे जितने स्नेह से वो आदमी बता रहा था।

वो बोला, "आपको पता है दुनिया का जब अन्त होगा तो कौन लोग बचेगें?, आपको पता है जब ऊपर वाला नीचे आयेगा तो कौन उनका सामना कर पायेगें?
क्या आपको पता है कि अगर आपसे कहे की आप दुनिया को दोबारा से बनाओ तो आप कैसे बनाओगे और आपकी दुनिया मे कौन लोग होगें?"

गिरधर जी उनको भौचक्के से निहार रहे थे। उनके हाथों में एक मोटी सी किताब थी। गिरधर जी नज़र उसी पर टीकी थी। वे आदमी बीच-बीच में उस किताब को खोलता और एक सवाल उनके सपूत कर देता। शायद ही उस आदमी को भी पता होगा की इन सवालों का अर्थ क्या है?

गिरधर जी बोले, "क्या मैं बिना रिश्तेदारों के दुनिया को सोच सकता हूँ? क्या मैं बिना काम के सोच सकता हूँ? ये ही तो दुविधा है की मैं मरने के बाद ही ये सब सो पाउँगा, अगर मैं इसी दुनिया में वापस आऊँगा तो दुनिया बनाने में मज़ा ही क्या है? मैं भी कभी-कभ सोचता हूँ की कितनों के सपनों मे भगवान दर्शन दे जाते हैं मैं इतनी कोशिश करता हूँ लेकिन मेरे सपनों में वो एक बार भी नहीं आये। मुझसे कुछ नहीं कहते।"

वो आदमी बोला, "ऊपर वाले की कोई आवाज़ नहीं है, ये सब आपकी खुद की आवाज़ है। जो आप सुनना चाहोगें, करना चाहोगे। उसी मे ऊपर वाला आपके साथ होगा। बस, वो काम और बात कहने और करने वाली होनी चाहिये।"

गिरधर जी बोले, "मुझे नौकरी करते हुए 30 साल होने वाले हैं। मैंने बहुत सारे काम किये उनमे मैंने जो अपने मन से किये उनकी तो गिनती ही नहीं है। उसे कौन पूछता है, वो सब तो भूलने के लिए होते हैं। ये भी सब पढ़कर और सुनकर भूल जायेगें।"

वो आदमी बोला, "हम आपको ये किताब देते हैं, इसे पढ़कर आप नहीं भूलेगे। मगर हाँ आपको इस किताब को मन से पढ़ना होगा।"

गिरधर जी बोले, "हाँ मैं बहुत दिल से पढूँगा।"

गिरधर जी ने उस किताब को अपने माथे से लगाया और उसे अपने गोद में रख लिया। वो दिन है और आज का दिन है। गिरधर जी के पास ना जाने कितनी किताबे हो गई हैं। ये पहली किताब थी, आज उनके पास में बहुत सारी किताबे हैं और किताबें खोजने का चश्का बड़ गया है। वो भी उनके साथ मे किताबों के बारे लोगों से बातें करने के लिए जाते हैं। उनके पास किताबों में खाली सवाल ही नहीं बल्की वो बातें करने की चाहत भी है जिसके चलते वे इस पाठकों की दुनिया में शामिल हुए हैं।

कहते हैं, "लोगों से उन सवालों पर बातें करने में मज़ा आता है जिनके बारे में उन्हे पता नहीं है लेकिन उस सवाल के आने पर वो डर जरूर जाते हैं। कुछ बहस पर अड़ जाते हैं। कहते है हम तो ऐसे ही ठीक है, कुछ किताब को हाथ में लेने से डरते हैं, कुछ खाम्खा में कहते हैं आपने देखी है दुनिया तो कोई कहते है सब कुछ यहीं पर रख है। इतनी लाइनें सुनी है इस गुट मे शामिल होकर की डर से कैसे छुटा जाता है वो समझ में आया है।

उनका आज भी पाठक तलाश्ने का का जारी है। आपको वो कहीं भी मिल सकते हैं। किसी के घर में, गली में, सड़क पर, पार्क में, बस में या फिर आपके खुद के घर में।

लख्मी

महीने का वो 1500 रूपये

गली में आज बड़ा शोर मचा था। गली के बीच से होते हुए लोग निकल रहे थे। जगमगाती शाम ने अभी सूरमा लगाया था। इसलिये कोना-कोना सलेटी रंग से भर गया था। रोजाना की तरह गली-गली में संजती सँवरती लोगों की ये शामें आज कुछ ज़्यादा ही बेताब लग रही थी । गली के दोनों और दो मंजिला-तीन मंजिला मकानो से ढेरों रोशनियाँ बाहर झाँक रही थी ।

वो दरवाजा आज बन्द क्यों था जो रोजाना खुला रहता था। ये संदेह मुझे बैचेन कर रहा था। दरवाजे के बाहर जब कोई आँख लगा कर छेद में से अन्दर देखता तो अन्दर के कमरे का सारा नक्शा ही बदल जाता ।

"कौन है वहाँ" ये आवाज़ मन की स्थिरता को तोड़ देती। वो आवाज़ के साथ ही दरवाज़े की कुण्डी खोलकर बाहर देखने लगता पर उसे वहाँ कोई भी नज़र नहीं आता। जरा सा सहम कर वो चूपचाप वापस चला जाता। जो अभी आया वो राजेश था। जिसने सक-पकाकर दरवाजा खोला । फिर तीव्रता से नज़र घुमाकर वो दरवाजा बन्द कर गया।कई दिनों से वो हॉउस बॉय बनके प्रराईवेट नौकरी कर रहा है। वो अपनी बहन के यहाँ खूराकी यानी खाना-पिना रहना ये सब देकर रहता है । महीने का वो 1500 रूपये देता है। उसे कभी भी वक़्त नहीं मिलता की वो अकेले मे कोई फिल्म देख पाता ।

इसलिये कई मौको की तलाश में वो रोज़ाना चूक जाता था। उस रोज वो इस मौके का फायदा उठा रहा था । दरवाजे पर हुइ दस्तक से वो बाहर आकर देखने लगा। शायद उसका वहम था। राजेश इस बात को मज़ाक समझ कर दरवाजा बन्द कर के चला गया पर दोबारा किसी ने दरवाजे के बहार से छेद में से देखने की कोशिश की दरवाजे पर चल रही खुसर-फुसर को सुनकर राजेश फिर आ पहुँचा दरवाजा खोला- दाँय-बाय कोई नहीं था। बस, एक बिल्ली का बच्चा बैठा था। राजेश को पता लग गया की कोई जान गया है की अन्दर क्या हो रहा है । मगर मजबूर था । अपने साथ किसी और को अन्दर बुला भी नहीं सकता था।

क्योंकि गली के सारे लड़के उस के अच्छे दोस्त थे पर अच्छे दोस्तों से भी वो आज बीएफ फिल्म देख रहा था। जब सब को पता था की बीएफ फिल्में क्या है और कहाँ से मिलती है? तो भी सब अपने बीच ये बात खुलने ही नहीं देते की सब जानते हैं की बीएफ फिल्म क्या होती है?

नज़रों से कैसे छुप जाता है ये अदा ही राजेश को अब तक बचाए थी । सब की आँखों में एक निहायती शरीफ बनके रहने के बाद भी इन फिल्मों का मज़ा लेता था। ये फिल्म मे उस की थकान उतार देती थी । जिनके नीचे बैठकर वो अपने को हल्का महसूस करता था। काश वो ये समझ पाता की वो किस दिशा में जा रहा है । पर उस की ये नसमझी ही तो उसे इस शहर मे काम करने की थकावट से मुक्त कर देती थी। जब वो दफ्तर से छूट कर घर आ जाता तो मारे थकावट के बदन टूट जाता। घर में टीवी के कान मरोड़ ने वाले और भी दर्शक होते थे। इसलिये उसे अवसर ही नहीं मिलता था। कि वो आराम पा सकें। इसलिये आज का मौका वो हाथों से जाने नहीं देना चाहता था।

बाहर आकर वो मुस्कराया फिर दरवाज़े को बन्द कर के चला गया। हाथ में रिर्मोट लेकर वो फिर अन्दर ही बैठ गया ।वहाँ तो अग्रेजी फिल्म चल रही थी । उस जगह रोज़ ऐसा नहीं होता था बहुत दिनों से राजेश फिल्म देखने का विचार बना रहा था पर एक अच्छे मौके की उसे तलाश था। टीवी का वॉलियम कम था ताकी बाहर आवाज न जा सके । लेकिन ऐसा नहीं था की सुनना मूश्किल लग रहा हो । कम ही सही पर कुछ तो था जो फिल्म के सीन के साथ में चलती आवाज़ से समझ में आ रहा था।

वो बीएफ फिल्म देख रहे हैं। दरवाज़े पर झूलकर गली के लड़के फिल्म पर आँख लगाये खडे थे। फ्रीज़ के ऊपर ही टीवी और उस पर सीडी प्लेयर रखा था जिसके ठीक सामने राजेश बैठा रिंर्मोट से फिल्म को कभी रोकता तो कभी चलाता। वो कमरे में अकेला नहीं था उस का साथी जो उस के साथ वहाँ बैठा था। दोनों के चेहरे पर अजीब सा भाव दिख रहा था । जो न पूरा डर था न ही खुशी मान लिजिये की वो इन दोनों का कॉमिनेशन था।

कोई आ न जाये वरना सारा भाँडा फूट जायेगा। इस बेचैनी में फिल्म का असली मज़ा भी जा रहा था। बार- बार कोई परेशान कर रहा था। इस बार कोई और नहीं मैं ही था जो दरवाजे पर खड़ा था।

"क्या हुआ राजेश?” दरवाजे के खुलते ही मैनें सवाल किया । राजेश ने दाँय-बाय देखा और मुझे अन्दर बुला कर लाया । मैनें कमरे की गर्मी को महसूस कर के फिर पूछा, “ बाहर दरवाजे पर बडी लाईन लगी थी क्या हुआ?”

वो बोला, "कुछ नहीं हम लोग तो अपना मनोरंजन कर रहे थे।"

तब मुझे लगा की कोई तो बात है। सब कुछ जानने के बाद राजेश के अन्दर का वो शख़्स जो अब तक चाँद की तरह बादलों में छूपा था। वो नज़र आ गया पर घर के सारे लोगों से उस ने ये बातें न बताई थी। राजेश को उस वक्त मेरी हमदर्दी की जरूरत थी मैं उसे देख कर मुस्कूराए जा रहा था। मुझे देख कर पहले ही उसने सारी वीसीडी दूबका दी थी। मैं जान गया था मगर फिर भी अन्जान बना रहा।

राकेश

जरा नजदिक से..

मेरे एक दोस्त ने कहा, "हमारी पार्टी वालों में मिल जाओ, चलो हमारे साथ आज़ादी के नारे लगाओं।"

पर मैं सोचने लगा की आज़ादी क्या हैं? जिसका नशा मुझ पर चढ़ा है। गर्मियों के मौसम हैं आग आसमान से बरसाती है। कमरे भवक रहे हैं। रेलियों में पसीने से लथपथ लोगों के चेहरे मुर्झाए हैं।

किस की आवाज़ पर ये लोग दौड़ रहे हैं, कौन इनका मसीहा कौन है इनका दूश्मन? बेख़बर हैं। भटक गए हैं जीवन का ये कौन सा ढ़ग हैं। जो एक-दूसरे से घृणा की जा रही है। करूँणा कहाँ गूम है। उदारता कहाँ खो गए?

आज वक़्त ये मजबूरी है की वो अपने आप पर ही रोता है। किसका क्या दोष इसमें, बस आँखों का इक धोका है। इसलिए किस के साथ जाऊँ कुछ मालूम नहीं होता है। जो जीवन मरने के बीच का लोचा है। क्या किसी ने इसके बारे में सोचा है।

राकेश