उस दिन अवमास्या की रात थी। इस काली रात में भगत जी ने ख़ास तौर से लोगों को बुलवाया था। चारों तरफ लोग अपने हाथो में पूजा की सामग्री का सजा हुआ ख़प्पर लेकर बैठे हुए थे की कब भगत जी उन्हे आदेश दिया और वो सब ख़प्पर उनके कहे के मुताबिक हाथ से नीचे रखे। सब कुछ विधी-विधान के मुताबिक हो रहा था। भगत जी का नाम यहाँ सब जानते थे पर सब उन्हे भगत जी या बाबा कहकर पुकार रह थे। उनका नाम प्रेमनाथ है उम्र करीब 80 साल की होगी। शरीर को देखकर लग रहा था की वे 50 या 60 साल के है।
चमकादड़ों की तरह सीर पर धुआँ गुच्छा बनकर उड़ रहा था। फ़र्श खून की छीटों से सना हुआ था। बिल्लियाँ आकर उस खून में लथ-पथ फ़र्श को चाट रही थी। भगत जी ने अपनी चारपाई से एक कुत्ता भी बाँध रखा था। बार-बार भगत जी तेल में भीगे रूई की जलती बत्तियों को अपने सामने बैठी महीला की हथैलियों पर हाथ उठा-उठाकर मार रहे थे। जैसे ही हथैली पर जलती हुई बत्ती को छूकर हटाते तभी हथैली पर छपे काले धब्बे की आकृति में किसी को पहचान ने की कोशिश करते फिर दोबारा वैसे ही करते। हर बार कुछ अलग तरह की आकृति उस महीला की
हथैली पर छप जाती। नज़दीक में बैठे लोग ये देख कर हैरान हो जाते। वहाँ दूसरी तरफ एक कमरे में काला अंधेरा था जहाँ किसी के होने की कोई मौज़ूदगी भी नहीं दिख रही थी। आँखें जब उस तरफ देखने का अभ्यास करती तो मन के भीतर अन्नत भाव उभर आते।
वो उस जगह आकर रोके जहाँ साधना ही ज़िन्दगी को उपस्थित कर रही थी। जलती हुई रूई की बत्तियों का प्रकाश दोनों के बीच में एक दायरा बना रहा था। वे झुक-झुककर हथैली को देखते। तमाम उल्टी-सीधी लक़ीरों के ऊपर अतीत को उभारने की कोशिश की जा रही थी। कुछ तो पता चले। अनगिनत बार ऐसा करने के उपरान्त कुछ हाथ लगा। बिल्लियाँ जमे हुए खून की छीटो को ज़ीभ से चाटकर साफ कर चुकी थी। शायद जितनी देर भगत जी ने ये विधी पूरी करने मे लगाई उससे पहले ही बिल्लियों ने सारा मामला साफ कर दिया था।
इस काम के होते ही उन्होनें तसल्ली भरी सांस लेकर अपने बारे में कुछ कहना शुरू किया। सारी बातें वो बड़ी ही सरलता से कहे जा रहे थे। बचपन से ही भगत जी इस विद्या में निपुर्ण थे। उनका जीवनकाल कुछ इस तरह से आरम्भ हुआ।
जब वो चार-पाँच साल के ही थे। वो किस्सा अंग्रेजो के ज़माने का था। तब भारत अंग्रेजो का गुलाम था। उनके पिता श्री चिरंजी लाल पुलिस थाने में हवलदार की नौकरी किया करते थे। घर में सब कुछ था, .एशों-आराम। अचनाक अपनी माँ का चेहरा याद करके उनकी आँखें चमक उठी। भीतर से मन माँ को याद करके उसी मार्मिकता से व्याकुल हो गया। जैसे एक छोटा बच्चा माँ के न होने से व्याकुल हो जाता है
फिर वो वापस मुस्कराकर बोले, "मेरी माँ मुझे बहुत प्यार करती थी। हम तीन बहन भाई थे। दो बहन और मैं।
मैं बड़ा था। बदकिस्मती से उस जमाने में माता(चेचक) निकली करती थी जिसका कोई इलाज नहीं होता था। इसे ला-इलाज बिमारी समझकर हर कोई हम से कोसो दूर भागता था।
तभी मेरे पिता जी ये सोच कर बड़े परेशान रहते थे। उनके महकमे में सब जानते थे की मुझे कोई छूत की बिमारी लगी है। वो सब पिताजी से भी कतराते थे। गाँव में जीना मुश्किल हो गया था। हर रोज मेरे पिता जी को ताना दिया जाने लगा। पिताजी को अपने मान-सम्मान की बड़ी परवाह थी ।
मौहल्ले में सब उनसे डरते थे पर मेरे कारण सबके मुँह उनके ऊपर खुल जाते थे। उस रोज माँ से ज़िद्द की, "इस को कहीं छौड़कर आ जा। कोई मुझसे बात नहीं करता। सब मुझे कोसते रहते हैं। मेरी नौकरी ख़तरे में है। इलाके के साहब लोग मुझे रोज फटकारते हैं। जब भी घोड़े पर सवार होकर गलियों में गश्त लगाने जाता हूँ तो पीछे से लोग धुतकारते हैं। अब सहा नहीं जाता। तू करेगी ये काम या मैं ही उसे ज़हर देकर मार डालूँ और कहीं गड्डे में डाल आऊँ।"
माँ इस बात के लिए कभी राज़ी नहीं होती की उस के बेटे को कोई मारने की बात कहे। वो तो अपनी पति के हाथो मजबूर थी। वरना मेरे बारे में बुरा सोचने वाले का वो गला घोंट कर मार डालती। माँ बड़ी दयालू और हर सूरत में क्षमा याचनी होती है। पड़ोसियों ने उससे कहा की इसे किसी के पास छोड़ आ, नहीं तो तेरे आदमी के महकमे के साहब लोग इसे तुझसे छीन ले जायेगें।
रात भर माँ की आँखें मेरे गम में रो-रोकर पत्थर की तरह ठोस हो जाती थी। चेहरा दर्द में डूब जाता था । पति और अपनी ममता के तराजू के दो पड़लों मे वो अकेली झूलती रही। होशमन्द होकर भी बेहोशी कि सी एक ज़िन्दा लाश की तरह वो मुझे देखती रहती। कौन तोड़ता इस माँ के विश्वास को? उसे जो करना था वो करके ही दम लेती। उस के लिए पति का आदेश और अपने सपूत की रक्षा दोनों ही महत्वपूर्ण थे।
जब महामारी फैली हुइ थी। इस की चपेट से बचना बड़ा कठीन होता था। डॉक्टर इस का इलाज नहीं कर पाते थे। क्योंकि इस बिमारी के बिगड़ जाने के बाद बचना नामुमकिन था। माँ वो कर गई जो उसे करना था गाँव से दूर एक नदी के घाट पर किसी सन्यासी का डेरा लगा था। माँ उसे शायद पहले से जानती थी। उस साधू की साधना में हर प्रकार की शक़्ति थी। वो दिव्य और अति तीव्र राहत पहुँचाने वाली जड़ी बुटियों का ज्ञाता था। इस घाट पर वो गोबर से बने उपलों के ढेर लगा कर उनमें आग जला कर बीचों-बीच बैठता था। कहते हैं- ये तपो बाबा था। जो आग मे जलती लपटों के बीच बैठकर दिव्य शक़्तियों हेतू , ईश्वर की साधना में लीन रहता था प्रात: काल ही वो जागकर यज्ञ करता और तपस्या में लीन हो जाता।
माँ उस के डेरे के पास घाट के किनारे पर ही मुझे छोड गई। मैं रोता रहा जोर-जोर से मगर कोई न आया पर मैं आचनक हो चूप हो गया। मुझे अब डर नहीं लग रहा था। जब वो जटाधारी बाबा ने अपनी गोद में उठाया तो अच्छा लगा। वो मुझे बिना संकोच किए अपने डेरे पर ले आये और अपनी सारी विद्यायें मुझे सिखला दी। सौभाग्यवश वहाँ डेरे पर पहलवान कुश्ती करने आते थे। मुझे भी गूरूजी ने पहलवानों के साथ कुश्ती करने को कहा मैं धीरे-धीरे स्वास्थ होता गया। गूरूजी की लाभकारी जड़ी-बुटियों ने मुझे चेचक के रोग से बचा लिया था। जब में पूरी तरह निरोग हो गया तो दूर खड़ी मैनें एक औरत को देखा यकिनन वो मेरी माँ ही थी जिसे देख कर मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई थी। माँ गूरूजी की मिन्नते करने लगी। बहुत रोई गूरू जी कह रहे थे की "मैं जानता हूँ तू रोज यहाँ आती थी। छूप कर अपने लाडले बेटे को निहारती थी। तेरा कोई दोष नहीं। हर माँ अपनी औलाद का भला ही चाहती है।
ले जाना अपने बेटे को पर इसे अभी और भी कुछ जानना है और सिखना है, समझना है।"
मुझे गले से जी भर के लगा कर माँ ने अपनी अदमरी ममता में जाँन फूँक दी। मैं वहीं गूरू जी के डेरे पर बड़ा होता रहा बहुत ज्ञान-ध्यान की बातें वहाँ से ग्रहण की और मेरा नाम के साथ भी नाथ गोत्र जुड़ गया। गूरू जी गोरख़नाथ के शिष्य शिष्य थे तो मेरे नाम के साथ भी नाथ जुड़ गया। मुझे प्रेमनाथ कहकर पुकारने लगे।
लोगों के दुख -दर्द दूर करने करते-करते मैं दिल्ली शहर में सन् 1982 में आया था। फिर यहाँ के कुछ पीड़ित लोगों ने मुझसे अपना इलाज करने को कहा तो मेरा धर्म था कि किसी भी दुखिया को न नहीं कहूँ। मैनें अपने गूरू जी को वचन दिया था। इस वचन को भरते-भरते मैं अपना सब कुछ भूला चूका था। वचनबध होने के बाद प्रेमनाथ भगत जी ने बड़ी सहजता से चन्द पंक्तियों में कहा। उन की आवाज में अब करूणा फूट पड़ी थी।
"अब तो बस जब तक ज़िन्दा हूँ सबको को कुछ ना कुछ देता रहूँगा। मर गया तो फिर भी कुछ देकर ही जाऊँगा। अपने साथ बस, जीवन भर की साधना ही ले जाऊँगा।"
यह कहकर वे चारपाई से खिसके और अपने पास रखी शराब की आधी भरी बोतल कि तरफ देख कर बोले, "ला दे इसी बात पर लल्ला एक गिलास बना दें।"
कुछ पुरानी यादें , माँ का प्यार , गूरूजी का जीवनदान और आज बची-कुची शराब का हल्का-हल्का शुरूर जो उनके चेहरे पर दमभर रहा था।
राकेश
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