खेल और ठाठ से जीना देखा जाये तो हर किसी की भूमिका रही है। अलग-अलग लोगों की ज़िन्दगी ने जीने का मज़ा ही कुछ और है।
रेहड़ी पर पड़ी चमकीले रंग की पन्नी की रोशनी और पोदीने की महक ने उसे और भी मनभावक बना दिया था। उनकी रेहड़ी पर हमेशा भीड़ ही लगी रहती। वो गा-गाकर पूरी दक्षिणपुरी मे घूमते। काफी पुराने हैं वे यहाँ के। लोग उन्हे बाल्टी की आवाज़ से पहचानते हैं। वे अपनी रेहड़ी पर बाल्टी रखते और पोदीने का जंजीरा बाल्टी को बजाकर और गाकर वो पूरे इलाके में लोगों के बीच में शामिल होते।
"अजी पीलो- हाँ जी पीलों- मेरा जंजीरा बना है आला, इसे पी गई वेजन्तीमाला, उसका पड़ गया अमिताभ से पाला। अजी पीलो- हाँ जी पीलो।"
ये गीत गली मे पड़ते ही घरों के दरवाज़े खुलने से पहले ही बच्चे बाहर निकल आते। बस, रेहड़ी के पास खड़े होकर पूरी गली को अपने सिर पर उठा लेते।
उनके हाथ के बने जंजीरे के स्वाद के चटखारे न जाने कितने लोगों को कुछ देर उनका गीत सुनने पर मजबूर करता। ये रिश्ता खाली सुनाना और समान बैचने के समान नहीं था। उनकी रेहड़ी तो न जाने कितने शायरों के दिवानों से भरी दिखती। कहीं पर शायरी लिखी होती तो कहीं पर गीत। सब के सब उसी की लाइनों को पड़ते हुए वहीं पर जमे रहते।
कुछ साल पहले ये एक कोका कोला की कम्पनी में काम करते थे। उनके घर में कोका कोला कोल्ड्रिंक और न जाने कितने ढक्कन पड़े दिखते। वो रोज़ शाम मे जब भी वहाँ से आते तो गली के सभी बच्चो को जमा कर लेते और गिलासों मे सबको कोल्ड्रिंक पिलाते। सारे बच्चे उनके आने की राह हमेशा देखा करते थे।
उनका यही काम रहता, कभी बच्चो की महफिल जमाते तो कभी बड़े बुर्जुगों के साथ में ये शरबत की तरह रखकर एक खास तरह की मण्डली जमा लेते। बस, फिर तो गीत और चटखारों की दुनिया शुरू हो जाती। उस समय ये सारी कोल्ड्रिंक पीना किसी के बस का नहीं था। 5 रुपये मे ये शरबत किसी को पसंद नहीं था। बस, यहीं से इस शरबत के नाम से पीते और गीतों की दुनिया में चले जाते। रोनक से भरपूर ये राहें हमेशा ताज़ी बनी रहती।
उनके हाथ में खाली बचा रह गया था उन गीतों की दुनिया का सच। बाकी सब झूठ था। काम और कम्पनी बन्द होने कारण अब वो पूरे उन मण्डलियों के हो गए थे। लेकिन ये मण्डलियाँ खाने को शायद नहीं दे सकती थी। ये मण्डलियाँ हर गीत में अहसास भर पाती थी, देश-परदेश की बातें कह जाती थी लेकिन दोस्तों के बीच पलते जरूरत के हिस्सो को कभी छू भी नहीं पाती थी। ये दौर खुद को बदलने के लिए था।
वे तो अब भी वही बाँट रहे थे। वो ही गीत, वही शरबत और वही प्यार इसी में उन्हे खुशी मिलती थी। आज भी वे वही सब बाँट रहे हैं। जिसमे जीने की तमन्ना खूब पलती है। वही लोग, वही जगहें और वही शरबत के तौर पर मिलने वाला पानी। गीतों में चटखारे आज भी रोशन हैं। गीत उनकी ज़ुबान से निकलता तो दूर तक जाता। और शाम की बातों को लोग सुनने के लिए उन्हे अपने करीब भी रखते थे।
वो आज भी वहीं हैं जहाँ उन्हे होना चाहिये। शादियों और छोटे-छोटे अवसरों में वो कही यही जंजीरा पिलाते हुए दिखते हैं और गीतों को गाते नज़र आते हैं। यही उनका काम है।
लख्मी
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