Friday, February 15, 2013

डाकघर और जरूरत

डाकघर दोपहर के 2 बजे थे। डाकघर की खिड़की खुलने से लगभग 5 मिनट पहले। इस समय डाकघर एक दम खाली रहता है। पंखे की हवा से टेबल पर रखे पन्ने फड़फड़ाते रहते हैं और खाली कमरे की शांत आवाजें पंखे की हवा में मिल जाती है और एक चक्करव्यू सा तैयार करती हैं। इसी बीच मैं दरवाजे पर खड़ा इन्तजार कर रहा था वहां पर किसी के आने का। वहीं कोने में रखी एक बड़ी सी टेबल के नीचे की तरफ़ एक शख्स कुछ फाईलों में कुछ टटोल रहे थे। साथ ही साथ मोहर लगाने की आवाजें भी आ रही थी।

इज़ाज़त मांगता हुआ मैं अन्दर दाखिल हुआ।  वे वहां से खड़े हो गये। बड़ी-बड़ी मूंछे, लम्बे-चौड़े वे देखने में किसी पुलिस वाले की की कठ-काठी के जैसे ही दिखते रहे थे। लाल चन्द नाम है इनका, दक्षिण पुरी जे ब्लाक के एक इकलौते डाकघर के ये सबसे पुराने काम करने वाले हैं। पिछले 5 सालों से ये यहीं पर अपनी पोस्टिंग सम्भाल रहे हैं। लाल चन्द जी यहां दक्षिण पुरी के रहने वाले नहीं है। वे आर.के.पुरम के रहने वाले है। सरकारी क़्वाटरों में इनका भी एक घर है। जो सरकारी नौकरी से मिला है।

उन्होनें ऊपर उठते ही कहा, “हां, क्या चाहिये?” फाइल को बन्द कर दिया था उन्होनें।

मैंने उनसे बात करने को कहा, “सर क्या मैं आपसे कुछ बात कर सकता हूं? कुछ जरूरी बात है।"

"जरूर कर लेना मगर क्या बात करनी है?”

मैंने कहा, “एक सवाल करना था आपसे, मुझे लगा उसे आप सही से समझा पायेगें।"

"क्या सवाल है?” ( वे बोले मेरी तरफ़ देखते हुए)

"आज के टाइम में लोगों की जरूरतों की जगह कहां है उनके जीवन में?” (मैंने उनसे सवाल किया ।)

वे मेरी तरफ़ में देखते हुए बहुत सोचकर बोले, “यह सवाल करने की क्या जरूरत पड़ गई तुम्हारे को?”
मैंने कहा, “सर मैं जब भी अपने घर या दोस्तों में कोई बात करता हूं या किसी भी चीज़ को लेकर बात करता हूं तो बात शुरु भले ही कहीं से भी हो पर ख़त्म जरूरत पर होती है। मैं समझना चाहता हूँ इसे। क्या आप समझा सकते हैं?”

"और कितने लोगों से बात कि है तुमने इसके बारे में?” ( वे बोले कुछ समझने के लिए)

"कई लोगों से और जरूरत के पहाड़ों को बहुत बार सुन चुका हूं घर में, दोस्तों मे, स्कूलों मे मगर कभी ठीक से समझ नहीं पाया। शुरूवात आपसे करना चाहता हूँ क्योंकि मैंने सुना है की यहां पर जरूरतों को सोचते हुए या आने वाले समय को सोचते हुए। कुछ रास्ते लोग खोजते हुए चले आते हैं।"

वे अपने काम में लगे हुए बोलते गये। वे कुर्सी पर बैठते हुए बोले, "मैं क्या बता सकता हूँ तुम्हें बस, यही बता सकता हूं कि मैंने यहां से क्या अनुमान लिया है। उसके अलावा क्या? मुझे देखो कभी पाला नहीं पड़ा था मेरा किसी के भी जीवन की कहानियों से और ना ही कभी मैंने इस काम की लाइन में किसी के घर के बारे में जानने की कोशिस भी की है। मगर, फिर भी यहां के बारे में बहुत कुछ जान चुका हूँ। यहां जरूरतें कभी तो कठिन परिस्थिती है तो कभी बचत के साथ जुड़ी हैं। अपने 35 साल के अनुभव में मैंने अनेकों खाते खोले मगर यहां दक्षिण पुरी में सबसे ज्यादा खाते 60 साल की उम्र वालो के हैं और उसके साथ में सुनी है मैंने यहां कई कहानियां। बहुत किस्से हैं जो जरूरत की मार खाये हैं। कई लोग तो यहां घण्टों बैठे रहे हैं और कईयों ने तो अपना घर का सारा समान लिए रात बिताई है यहां पर। मैं इतने डाकखानों मे रहा या तो मैं वहां नौकरी कर रहा था या फिर यहां कुछ और कर रहा हूँ। आज के समय में तो जरूरत ही तय करती है सब। ऐसा लगने लगा है कुछ वक़्त से।"

"जहां आप पहले रहे, वहां पर क्या मालुम होता था जरूरतों को लेकर?” ( मैंने उनसे पुछा)

उन्होनें एक रजिस्टर निकाला और दिखाने लगे। कहने लगे की "ये वे रजिस्टर है जिसमें कई जरूरतें जमा हैं। बताओ अब इसे कैसे देखोगें? लोगों ने अपना 3, 3 हजार रूपये तक 8 साल के लिए फिक्स कराया हुआ है जो 8 साल के बाद में डबल मिलेगा। जानते हो जिसने ये कराया है उसकी उम्र कितनी है? 65 साल और उन्होनें ये अपनी पोती की शादी में कुछ अपनी तरफ से देने के लिए करवाया है। उनकी पोती 8 साल के बाद में 20 साल की हो जायेगी और नोमिनेट भी उसी को किया है। मगर, जहां पर मैं पहले था वहां पर तो ऐसा कुछ भी नहीं था। मेरा अनुभव 28 साल की उम्र में शुरू हुआ। कई तबादलों में मैं अपनी ज़िन्दगी के 36 साल दिये है। मैं पहले जिन डाकघरों में रहा वहां डाकखाने का मतलब था, वे ख़बर जो जमा रखना जो महज़ सरकारी चिठ्ठियों में ही आती थी। जैसे, रिज़ल्ट, नौकरी, सम्मन और बील वगैरह। किसी के नाम का ख़त आना या देखना बेहद मुश्किल होता। सन 1970 में मैं आर.के.पुरम के डाकखाने में था। वहीं पर मेरा क़्वाटर भी है, उसके बाद मुझे कालका जी भेजा गया, 4 साल के बाद मालविया नगर, उसके 3 साल के बाद ओखला, उसके फोरन 2 साल के बाद ही कोटला मुबारकपुर फिर दोबारा से आर.के.पुरम, उसके 3 साल के बाद नेहरूप्लेस फिर ओखला पार्ट-2, उसके बाद मुझे यहां दक्षिण पुरी में भेजा गया। वहां जरूरत का मतलब जल्दबाजी और बैचेनी था बस। असल में वहां किसी को किसी का नाम जानने की भी कोई जरूरत नहीं होती थी और मैं यहा अपनी 5 साल की नौकरी में लगभग 500 लोगों के नाम जानता हूँ और ना जाने कितने घरों की कहानियों को मैं सुन चुका हूँ।"

"क्या आपने किसी का ख़त पढ़ा या पढ़कर सुनाया है?” मैंने उनसे पुछा।

वे अपने चेहरे पर एक हठ वाला भाव लाते हुए बोले, “हां, बहुत से लोगों का पढ़कर सुनाया है। मेरा तो सबसे पहले काम ही यही था यानि कई साल तक ख़तों को पोस्टऑफिस लाने का काम किया है। तब बहुत सुनाता था।"

"कुछ याद है सर?” मैंने उनसे पुछा।

वे कुछ याद करने की कोशिस में बोले, “याद तो कुछ नहीं है मगर हां, जिन लोगों को पढ़कर सुनाया उनका हसंना और रोना याद रह जाता था।"

मैंने पुछा, “क्यों सर वही क्यों याद रह जाता था?”

वे बोले, “उन लिखे शब्दों में जान ही वही फूकतें थे। चाहे उनमे कोई मौत की ख़बर, बिमारी, जरूरत या खुशी कोई सी भी ख़बर लिखी हो मगर बिना पढ़ने या सुनने वाले के वे बेजान ही रहती हैं। उसके साथ जुड़ा हसंना या रोना ही उसमे जान डालता। तो वही याद रह जाता था।"

मैंने पुछा, “कितने तरह के लोग याद है आपको? हमें ये कैसे मालुम होता है कि कोई हमें याद है?”

वे हसंकर मेरी तरफ में देखते हुए बोले, “मुझे तरह तो याद नहीं मगर, यहां आये लोगों के किसी चीज को जानने से उसे अपनाने, करवाने तक जो सवाल करते थे वो और जल्दी रखते थे कि क्या बताये? कोई भी प्लान सुनते तो फौरन करने की कह देते। आई थी एक बुढ़िया, वो खिड़की के सामने ही बैठी थी। मैं उनकी आवाज सुन सकता था मगर, देख नहीं सकता था। वे नीचे बैठे-बैठे खाता खुलवाने की कह रही थी । शायद वे सुनती भी कम थी। मैं उचक-उचक कर देख रहा था। "अम्मा अन्दर चली आ" उन्होनें सुना भी नहीं फिर मैं ही उन्हे बाहर जाकर उठा
कर लाया। वो अपनी पैन्सन शुरू करवाने आई थी। महिने के 300 के हिसाब से उन्हे 3 महिने के 900 रुपये मिलने थे। वे अपना खाता खुलवाने आई थी। बस, हाथों में फोटो और 500 रुपये लेकर वो चली आई थी। जब तक मैं उनका फोर्म भरता रहा तब तक वो अपने घर, परिवार और बेटो-बहुओ की बातें बताने लगी। मुझे वो इसलिए याद नहीं है कि वे बुढ़िया अपने घरवालो से छुपकर कुछ करवाने आई थी बल्कि वो पूरा दिन यहीं बैठी रही थी। कॉपी के लिए।”

इतना तो पता चला है कि यहां पर कोई किसी भी चीज को आसानी से जाने नहीं देना चाहता। अब बताओ इसमे क्या है? कुछ भी तो नहीं मगर, फिर भी एक दौड़ है जैसे कोई अनचाही रेस है और हम उसमें नाच रहे हैं।"


लख्मी

एक चमकदार रिक्शेवाला

सफर जो हमारे से हमेशा जुड़ा है। हमारे साथ में अपने अलग-अलग अदांज लेकर चलता है। कहीं पर आना - जाना हो या कहीं पर अपना लम्बा समय बिताना हो या फिर अपने रिश्तों में हर रोज एक नयापन लाना हो। इसे भी लोग सफर का नाम दे देते हैं। शहर में अपना रोल निभाते लोग जब कहीं किसी जगह पर सुस्ताने के लिये बैठ जाते हैं तो अपनी उस भागदौड़ से भरी चलने की रफ़्तार या उतार-चड़ाव को सफ़र कह दे देते हैं - सफ़र असल में कहीं पर पैरों को दौड़ाने का नाम या काम ही नहीं बल्कि सफ़र अहसासों की वर्णमाला भी है। पर इसमें भी अपना - अपना तरीका होता है। वैसे- देखो तो सफ़र कभी भी ख़त्म नहीं होता, अगर चलना रुक जाये तो ज़िन्दगी में अनेकों टूटे या बुनते वक़्त का दौर चलता रहता है।

हम कभी-कभी अपनी रोजाना के काम या अभिनय की इस लाइन को वक़्त में जोड़ते हुए चलते हैं। और दिवार पर टंगी उस घड़ी की तरह हो जाते है जहाँ पर हम रुके हैं पर सुई की तरह सफ़र चलता है। इससे जुड़ता है हमारा अनुभव, बैचेनी, गती और रिश्तों का साझारूप जो हमारी दिनचर्या में जुड़ा रहता है और इनसे ही उभरता है वो सफ़र जो चलने से ही नहीं, घूमने से ही नहीं बल्कि अनुभव को सुनने से बना है।

कई तरह के लोग हमसे अक्सर टकराते हैं। जो अपने काम की लय में कितने ही मुश्किले, चुनौतियाँ ले रहे हो पर किसी को जाहिर ही नहीं होने देते और अपने बनाये अनुभव को किसी एक लाइन या डायलॉग में बोल जाते हैं जिसमें एक छवि उभरती नज़र आती है।

एक शख़्स जिनसे मुलाकात हुई - एक सड़क पर जो एक रिक्सा चलाते हैं।
मगंलवार का दिन था मैं मोरी गेट से राजपुरा रोड़ जाने के लिये निकला। एक यही ऐसा रोड़ से जो मुझे बाकी रास्तों से थोड़ा अलग सा लगता है। सबसे ज़्यादा भीड़ यहाँ पर रिक्से वालों की होती है। बड़ी-बड़ी गाड़ियों के बीच में रगं-बिरंगे रिक्शे दिख ही जाते हैं। जिनके लिये ज़्यादातर रेडलाइट कोई मायने नहीं रखती। मैं वहाँ जाने के लिये रिक्शा कर रहा था पर उस तरफ में बहुत ही कम लोग जाते हैं। अगर कोई रिक्शे वाला राजी भी होता तो 15 से 20 रूपये माँगता। अगर मेरे साथ में कोई एक और बन्दा होता तो रिक्शे वाला 5 रूपये सवारी में हामी भी भर देता पर एक बन्दा हो तो। वो उसी से 3 सवारियों का किराया बसूल करता और ये भी तो जायज सी ही बात है अगर चक्कर लगाना ही है तो कम से कम 10 रूपये का तो हो। तभी एक रिक्शे वाला सवारी को उतारता नज़र आया। यहाँ पर और भी काफी लोग थे रिक्शे की जरुरत वाले पर उसके पास मे मैं सबसे पहले पहुँचा।

मैंने उससे कहा की "राजपुरा रोड़ 29 नम्बर चलोगे" तो उसने मुझे देखते हुए कहा, "एक सवारी 10 रुपये।" मैंने तुरंत ही रिक्शे की सीट पर बैग रखा और उसके कांधे पर हाथ रखकर रिक्शे पर चड़ गया। रिक्शे वाले भाई साहब ने पजामा, कुर्ता और गले में स्वापी डाल रखी थी और पूरा रिक्शा सजाया हुआ था। हेन्डल पर लगे चमकिले रगं-बिरंगे फूल, लटकी झालर जो धूप में चमक रही थी। हेन्डल पर लटकी फूलों की माला जो लगता था की सुबह ही डाली है। ताजा लग रही थी और हेन्डल पर लगी बीचों-बीच एक छोटी सी फोटो। उसे देखकर तो मुझे लगा जैसे कहीं पर सूटिंग हो रही है और फिल्म में हीरो की एन्टरी हो रही है। तभी इस रिक्शे को सजाया गया है। फिल्मों में तो हीरो के रिक्शे इतने सजे होते हैं। वो रिक्शेवाला हेन्डल को पकड़े पैडल पर झूल रहा था। काफी मुलायम रास्ता लग रहा था। जैसे ही वो अपनी गद्दी पर बैठा तो मैंने उससे पूछा "भाई साहब बड़ी शानो-शोकत लगती है आपके रिक्शे की। धूप में लाइट मार रहा है। क्या ये आपका अपना रिक्सा है या किराये का?”

वो स्वापी से अपना मुँह पोछते हुए बोला, "हाँ ये मेरा अपना रिक्शा है। इसे मेरे बच्चे सजाते हैं और मेरी लड़की रोज इसकी पूजा करती है तो माला भी इसी पर डाल देती है। अब देखिये यही तो हमारी रोजी-रोटी है इसे मेरे बच्चे एक दम नया बनाकर रखते है और मैं भी इसे सही बनाकर रखता हूँ तभी तो पानी की तरह चलता है मजा आता है। लेकिन शायद अब दिल्ली की सड़कों को इन साइकिलों पर झूलते लोगों की जरूरत नहीं है।"

इतना कहकर वो चुप और मैं सोचने लगा जहाँ एक दूल्हे के सेहरे की तरह वो चमकीली झालर हेन्डल पर चमक रही थी। इतनी ऊंची-नीची सड़क बिरेकर में अपने इस सफ़र को हल्का बनाकर ये क्या छोड़ते हुए चल रहे हैं? पर उस ज़्यादा महत्वपुर्ण है की ये क्या बिखेरते हुए चल रहे हैं?

फिर वो गाना गाने लगे - मैं खामोश होकर उनको सुनता रहा।

"ये सफ़र है जिन्दगी का युही कट जायेगा। इन ऊचें-नीचें भरे रास्ते पर अब दिल ना घबरायेगा...”

सजावट से लेकर सरकार के साथ बहसबाजी की धुन को वो बोलकर ऐसे अपने खो गये की एक पल के लिये लगा की जैसे हमारे बीच मे कुछ हुआ ही नहीं। ये जीवन का ऐसा पहलू था की इसे छेड़ने का असली मतलब था की मैं किसी के दुख को कुरेद रहा हूँ। कैसे दोनों तरफ के अहसास को जिया जाता है? वो सब मैंने इस एक ही पल मे उनमे महसूस किया।

ये जूस्तजू थी, जिसको पालकर चला जाये तो सारी हसरतें अपने आप जीने की परतों पर मुलायम अहसास खोल देती है।


लख्मी

Wednesday, February 13, 2013

मेरी किताबें

कुछ दिनों पहले मेरी बीवी ने मुझसे कहा बुकसेल्फ में रखी किताबों को देखकर।

“आपको जो भी एक-दो किताबें इनमे से लेनी हैं तो ले लो। मैं बाकी सब कबाड़ी को बेच रही हूँ, तुम रोज इन किताबों के लिए मुझे नजरंदाज करते हो।"

मैंने कहा, "नहीं ऐसा मत करो। ये किताबें आग है जिससे मुझे रोशनी मिलती। जैसे: सर्दी के मौसम में कोहरे को चीरकर दिखाई देने वाली उड़ते हुए शोले हों। इसमें मुझे कोई क्षितिज दिखाई देता है।"

दो दिन बाद...... मेरी किताबें उस बुकसेल्फ के खाने में नहीं थी। वो सारी किताबें मेरी बीवी ने बेच डाली थी। बिना किसी संकोच के। जब मुझे ये पता चला तो मैं गुस्साया और चिल्लाया। मेरी बीबी तो वहाँ से हट कर चली मगर मैं वहाँ खड़ा ये सोचता रहा की इस खाने में आखिर क्या था? जिसकी वजह सें आज मुझे वो आग नहीं दिख रही।

राकेश

Tuesday, February 12, 2013

अपना हाथ जगननाथ


हम क्या बनना चाहते हैं उसके पीछे ही दौड़ रहे हैं। मगर हम क्या बन सकते थे वही भूले हुए हैं बस। मैं भी जो बनने चला था वो तो नहीं बन पाया मगर क्या बन सकता था वो भी भूलता गया। हमारी याद रखने की क्षमता से ज़्यादा तो हमारी भूलने की ताकत है। आज हम बैठकर बात करते हैं कि "मैं जो ना बन सका" से अपनी मंजिल रचते हैं।


मैं जो ना बन सका...
पहली से पांचवी तक के स्कूल में टाइम से सब कुछ चलता था लेकिन किसी के पास घड़ी नहीं होती थी। ना तो टीचर के पास, ना क्लास में और ना ही किसी बच्चे के पास। बस, घंटियां थी। वे बजती और क्लास शुरू। मगर हमने सोच लिया था कि क्लास में एक टीचर से दूसरे टीचर के बीच की दूरी को किस तरह से जिया जाये। उसमें कभी नये गाने बनने लगते तो कभी कोई नये खेल बुन जाते। धूप पूरी क्लास में उस घड़ी का काम करती जिसने इस दूरी को समझना सिखाया था कि इस दूरी को किस तरह से जिया जा सकता है। क्लास में धूप जहां जहां चलती मैंने वहां पर जमीन से, कुर्सियां, उससे डेस्क और डेस्क से दीवारों पर अपने हाथ से नम्बर लिख डाले थे। टाइम देखकर धूप की घड़ी बना डाली थी। पूरी क्लास दूर से देखने पर लगती थी जैसे हमने उसे प्यानों की तरह बना दिया है। लेकिन वो तो धूप घड़ी थी। पूरी क्लास एक टाइम मशीन की तरह बन गई थी लेकिन मैं, घड़ी बनाने वाला भी ना बन सका।


पढाई दिमाग में घूसी नहीं। अपना हाथ जगननाथ के नारे ने स्कूल भी छुड़वा दिया। हाथ की दस्तकारी पाने को मकैनिक की दुकान का ताला बन गया। उसे टाइम पर खोलना और बंद करना रहा। क्या रबड़ है, क्या टीन, क्या पीतल, क्या सिलवर और क्या लोहा छांटकर चिट्ठे लगाता रहा। गाड़ियों से निकाली गई चीजों को साफ कर उन्हे फिर से नया बनाता रहा। वहीं चीज़ें दोबारा से गाड़ियों में लगा दी जाती और नये के पैसे ले लिये जाते। चमक क्या होती है, नया क्या होता है और कहां से और कितना साफ करना है सब कुछ जैसे अपने आप हाथों में बस गया था। मगर क्या करें मैं इतना करने के बाद भी एक मकैनिक ना बन पाया।


छोटी सी उम्र में गाड़ी चलाना सीख गया। इस दूकान से उस दूकान समान पंहुचाता रहा। एक छोटे से एक्सीडेंट ने पेंटर का शार्गिद बनने पर मजबूर किया। पेंटर भला था कोई भारी काम नहीं करवाता था। ब्रुश साफ कराना, केनवस फिट करना, रंग निकालना और खराब पेंटिग को साफ करना। कुछ दिनों के बाद में एक पेंटिंग को मैंने साफ किया। उस पेंटिग को देखकर लोग रोज हंसते थे। वहां उसे खड़े खड़े देखा भी करते थे। बंद दुकान की वही एक पहचान भी बन गई थी। बस, बनी बनाई पेंटिंग को मैंने और रंगो से साफ कर दिया था या ये कहिये की और रंगों से उसे भर दिया था। अमिताभ बच्चन की पेंटिंग में कई और अमिताभ बच्चन दिखने लगे थे। दुकान पर भीड़ रहने लगी थी। मैंनें फिर कई ऐसी और दस्तकारियां की इतना करते रहने के बावजूद भी मैं एक भी अच्छी पेंटिंग बनाने वाला नहीं बन पाया।

लकड़ी के केनवस बनाने में बहुत पैसा है। ये सुनते ही अपना भविष्य दिखने लगा। लगता था की लकड़ी का काम तरक्की देगा। बैठने की आरामदायक कुर्सियां, लेटने के लिये, चढ़ने के लिये, पढ़ने के लिये, झूला, जीना, कबर, पेटी, लकड़ी के रूप घने थे। कोई ना कोई चीज़ तो मैं बनाना सीख ही जाऊगां। यह सोचकर पुरानी लकड़ी की मार्किट में घूस गया। शुरूआत में रस्सी और पुरानी लकड़ी हाथ में लगी। काफी पुराना माल जो पहले से ही बना हुआ था। सोफा, रेक, ड्रेंसिटेबल, बुकसेल्फ। सबको काटना था। मैं क्या बनाना चाहता हूँ लकड़ी को उसमें से निकालना था। मैं तो बस, बनी हुई चीजों में से कुछ ही हिस्से काटकर उसमें रस्सियां लगा देता। और बना देता झूले वाली कुर्सी, परदेदार कुर्सी, परदे वाली चौखट, घुमने वाली टेबल। बहुत डांट पड़ती। और कभी कभी तो थप्पड़ भी। सुनना पड़ता, 'आरी पकड़ने की तमीज नहीं है और हथोड़ा चलाने का ठेका लेता है।'  डर के मारे वो काम मैनें छोड़ दिया। अगर वहीं पर सुनकर और पिटकर रहता तो एक कारपेंटर तो जरूर बन जाता मगर वो भी रह गया।


सरकार से एक साइकिल नसीब हुई। हाथ से चलाने वाली साइकिल। कई साल हाथ के काम को तलाशता मैं यहां तक पहुँच जाऊगां ये मालुम नहीं था। साइकिल मिली हाथ से चलाने वाली। अब उसी साइकिल को मोटरसाइकिल में बदलता हूँ। ऊपर छतरी लगाता हूँ। उसे दुकान बनाता हूँ। ऐसा स्टॉल बनाता हूँ जिसे बाहर कर दिया जाये तो वो कुछ और बन जाये और बंद कर दिया जाये तो साइकिल। उसमें शीशों के बोर्ड बनाता हूँ। बोर्ड खाली पढ़ने के लिये नहीं होने चाहिये। वो ऐसे हो की लोग उसके सामने खड़े हो पाये। विवश हो जाये खड़े होने के लिये। मैं शीशों के बोर्ड बनाता हूँ। लोग आते जाते उसमे एक झलक खुद को देखते जरूर हैं। मैं कम जगह में मोबाइल शॉप बनाने की कोशिश कर सकता हूँ। बल्कि बना सकता हूँ। स्टॉल, हेंडिकेप साइकिलों से। जिन्हे रिचार्ज काऊंटर बना सकता हूँ। ओपन शॉप और फिर साइकिल।

सोचता हूँ अपना यह डिजाइन और इस कोशिश को दिल्ली विकलांग संस्थान को भेज दूँ। ताकी वो मेरी इस अर्जी को एक नज़र जरूर दें। पर फिर लगता है की अभी बहुत आगे और जाना है। सही कहा था लोगों ने, “अपना हाथ जगननाथ"
  

लख्मी

अनुलग्नक

राकेश

Friday, February 8, 2013

दीवारों के भी चेहरे होते हैं

राकेश

दो अवशेषों के बीच बातचीत

10 दोस्तों का एक गुट एक पिज़्जा हॉट से खाकर निकला। एक प्लेट में पिज़्जा के कुछ टुकड़े और दूसरी प्लेट में एक सौ का नोट छोड़कर।




टीप में दिये गये 100 रूपये के नोट ने प्लेट में पड़े पिज्ज़ा से पूछा, " तुम बता सकते हो कि आखिर काम क्या है?”
पिज्ज़ा ने उसकी ओर देखते हुये जवाब दिया, "काम भूख को संतुलन में रखने के लिये किया जाता है।"

100 रूपये का नोट, "तो फिर कमाई क्या है?”
पिज़्ज़ा ने जवाब दिया, " कमाई तो भूख को बढ़ाने के लिये होती है।"

100 रूपये का नोट, "एक अच्छे काम में और एक अच्छी कमाई में क्या फर्क है?”
पिज़्ज़ा ने कहा, " जिसमें हर तरह की भूख का निवारण हो। वो सिर्फ शरीर की शक़्ति, दिमागी संतुलन को भी महत्व दिया जाये।"

100 रूपये का नोट, "तुम्हारे इस काम में आराम क्या होता है?”
पिज़्ज़ा ने कहा, "यहां केफे कॉफी शॉप में आकर लगा और जाना भी की आराम यहां पर व्यस्त रूटीन की थकावट को पाना नहीं है। ये बिलकुल ऐसा है जैसे कोई मॉडल के जैसा जिसे हर 2 मीनट के बाद मे कपड़े बदलने है जब वो कपड़े बदलता है तो रिलेक्श नहीं होता बल्कि स्थिर होता है मगर उसका पूरा ध्यान उस रेंप पर होता है जहां से वो आया है और अभी वहीं पर जाना है। हम भी एक कुर्सी पर बैठे उस रेंप के लिये बैठे हैं।"

100 रूपये का नोट, "किसी काम के लिये तैयार होना क्या है? क्योंकि मुझे तैयार नहीं किया जाता। मुझे लाया जाता है। मैं किसी का नहीं हूँ। मैं हाथ का मैल हूँ। ये कहा जाता है और तुम्हारे लिये क्या?”
पिज़्ज़ा ने थोड़ा रूककर जवाब दिया, "तैयारी तो ताजा होना है, लूक बनाना है, इम्प्रेशन लाना है और साथ ही ये तैयारी सिर्फ इसलिये भी नहीं है की तुम कैसे दिख रहे हो। ये उस आंख के लिये है जो दिखाई नहीं दे रही मगर फिर भी तुम्हे देख रही है। वे आंख किसी अकेले की भी नहीं है। किसी भी हो सकती है। हर आंख का अपना ही एक सवाल है उन सभी सवालों का एक बेशब्द जवाब है ये तैयारी। तुम कौन हो, कहां जा रहे हो, तुम्हारा स्टेटश क्या है, किस रूतबे में हो, क्या करने जा रहे हो और साथ ही पहचान के सवाल भी होते होगें। इन सबको बदलती, पलटती और सहराती भी है ये तैयारी। तैयारी खुद के साथ होती जरूर है लेकिन होती अपने से बाहर के लिये हैं। कुछ देर ही होती है फिर समाप्त हो जाती है। मैं इसमे रोज जीता हूँ।"

100 रुपये के नोट ने फिर पुछा, "तैयारी पूरी हो गई क्या तुम्हे इसकी परख हो जाती है?”
पिज़्ज़ा ने कहा, "मुझे बनाने वाले ने जब मुझे फिर से देखा, तभी ये अहसास हो जाता है। हाथ मे लेता है, छूता है, देखता है, रखता है, फिर से देखता है, जैसे वो मेरी तैयारी में खुद तैयार कर रहा हो। वॉमप भी करता है। आसपास से खुद को ट्रेंड करता है। देखकर सीखता है और खुद में धारण कर लेता है। मैं कुछ समय के बाद मे उसका हो जाता हूँ। मैं उसका हुआ और वो मेरा। जैसे वो मेरे अंदर घुस गया हो। हम असल में अपने अंदर मे घुसे हुए उन सभी लोगों की एक्टींग करते हैं। कब कौनसे बंदे की एक्टिंग करनी हैं इसको जान लेते है। तैयारी तो सारी भीड़ मे खोई हुई है। किसी के कंधे पर हाथ रख कर पूछो की 'भाई साहब क्या कर रहे हो?' तो वो बोलेगा कोर्स कर रहा हूँ या कहेगा की जॉब कर रहा हूँ। कोई भी शायद ये कहे की घूम रहा हूँ शहर देख रहा हूँ और अगर ये वो कह भी देगा तो आपको लगेगा की आपका मजाक उड़ा रहा है या तंज मे बोल रहा है। यहां पर एक शख्स रोज़ आता है। वो मेरा फेन है। मुझे बेहद पसंद करता है। मेरी इज़्जत करता है। मैंने उसकी सारी बातें सुनी है। वो कभी अपनी बात नहीं करता और वो कभी अकेला भी नहीं आता। वे अपनी जेब में जैसे शहर की हर तरह की नौकरी लिये चलता है। उसके साथ आये सभी उससे नौकरी ही बात करते हैं। जब भी उससे काम की बात होती है वो तो कहता है की चल चला जा मैं पता देता हूँ मेरा नाम ले दियो बस, नौकरी लग जायेगी।"


100 रुपये के नोट ने चाव दिखाते हुए पूछा, "किसी राह पर कितनी चीजों को हम छोड़ते हुए पहुँचे हैं इसका पता कैसे चलता है?”
पिज़्ज़ा ने जवाब दिया बिना किसी इमोशन के, "वैसे देखा जाये तो हमने पकड़ा ही क्या है अब तक? हमें एलियंस की फिल्मों की तरह रखा जाता है। हमें देखकर लोग चौंकते हैं, डरते हैं और अपना भी बना लेते हैं। एक डायलॉग है जो मैंने यहां कईओ के मुंह से सुना है कि हम इंसान अपना दिमाग 10 प्रतिशत ही इस्तेमाल कर पाते हैं। बाकि का 80 प्रतिशत तो खाने में खत्म कर देते हैं। तभी तो हम जिन्दा होते हैं रोज और हम रोज़ इस्तेमाल में आते हैं। हम 90 प्रतिशत तो छोड़ते और भूलते ही तो जा रहे हैं। इसका अपना दम है।"


100 रूपये के नोट ने गुस्से में पूछा, "तो क्या हमें चुना जा रहा है?” 
पिज़्ज़ा ने कहा बिना किसी इमोशन के, "चुनाव अपने आप में खुद क्या होता है? 1000 लोग रोज आये। आने से पहले कुछ चुनकर आये। कुछ यहां पर आकर चुनाव किये। कुछ अपने से बाहर होकर चुनाव किये तो कुछ किसी का चुनाव देखकर चुने। स्वाद से चुने, जेब देखकर चुने, टेबल देखकर चुने, परिवार देखकर चुने, टाइम देखकर चुने, भीड़ देखकर चुने, भूख सोचकर चुने। खाने के लिये, पैकिंग के लिये, किसी को देने के लिये, किसी को मनाने के लिये, किसी को दूर करने के लिये, प्लेट मे छोड़ देने के लिये। चुनाव है नहीं। चुनाव होता नहीं, चुनाव हो रहा है और होता रहा है।"

100 रूपये का नोट  गुस्सा जारी रखते हुये,  "क्या  इसके लिये भी कुछ सवालों की जरूरत पड़ती है? मुझे प्लेट मे छोड़ दिया गया। मेरी इज्जत बड़ गई किसी के जहन में। मगर मैं तुम्हारे लिये मानयता नहीं रखता। मुझे छोड़ा गया है। मेरा चुनाव किया गया। या मुझे छोड़ दिया गया?” 

पिज़्ज़ा ने कहा  ( बिना किसी इमोशन के), "बहुत तरह के सवालों की जरूरत हो सकती है।


100 रूपये के नोट ने पूछा, “ये सवाल आखिर पूछता कौन है?”
पिज़्ज़ा ने जवाब दिया, “ये सवाल पुछता कोई नहीं है। इन सवालों का अहसास होता रहता है। कभी जब काम में हल्का सा भी मन हटा तब इनका अहसास होगा, कभी जब किसी एक ही काम मे लीन हो गये तब इनका अहसास होगा। मैं जब यहां पर पहली बार आया था तभी इसका अहसास पूरी तरह हो गया था। हर कोई जो यहां पर मेरे से पहले ही काम कर रहा था उसकी तेजी, भागमभागी, बोलचाल सब में इन सवालों का अहसास था। कोई अगर आ गया वो बाहर नहीं जाना चाहिये और अगर कोई नहीं आया तो उसे बुलाकर लाना है। उसे ये अहसास करवाना है कि ये जगह उसी के लिये है और इससे बेहतरीन जगह दुनिया में और कोई नहीं। इतना सोच पाया कि काम की दुनिया में "मोहना" बेहद जरूर है। आसान है लेकिन इसको आज़माना बेहद मुश्किल। जैसे मुझे एक बंदा यहां पर रोज़ यहां से वहां करता है। वो कर क्या रहा है ये तो पता नहीं लेकिन वो हमेशा जैसे बहुत सारे लोगों मे घिर हुआ है। हमेशा फोन पर रहता है। काम जितना आसपास से काटता है उतना ही वो आसपास में ना दिखने वाली भीड़ को तैयार भी कर देता है। हम भी इन सामने दिखती कुर्सियों पर उस भीड़ को हमेशा देखते हैं। हर पांच मिनट के बाद में हममे से कोई ना कोई इन कुर्सियों के पास जाता है और घूमकर आ जाता है। और जब हमारी ट्रेनिंग होती है तो इन्ही खाली कुर्सियों पर ना जाने कितने लोग बैठे होते है। और हर बंदे का एक ऐटीट्यूट होता है। जो हमें अपने अन्दर ले लेगा और उसे हमें काटना होगा। जैसे हम खुद को ही काट रहे हैं और खुद को ही मोहित कर रहे हैं।"

100 रूपये के नोट ने पूछा, "क्या तुम भी कुछ सवाल रखते हो इस सब मे?"
पिज़्ज़ा ने जवाब दिया, “मेरे सवाल तो नहीं मगर शायद तुमने कभी इनको सोचा हो? मैं बस, अपनी बैचेनी को हल करना चाहता हूँ। काम का ताल्लुक अंतिम चीज से है तो उसको रूटीन से क्यों जोड़ा गया। ऐसा क्या है जो काम नहीं है? कमाई, मेहनताना, दिहाड़ी इनके साथ जोड़ दिया जाना वाला काम ही वाज़िब है? सब काम कर रहे है और कोई जगह काम करने के लिये नहीं बनाई जाती तो ये दुनिया कैसी होती? एक चीज और – सोचो की अगर काम का कोई सरकल नहीं होता तो? जैसे हर बंदा इस सरकल में है। आज जो मेरे पास कस्टमर बनकर आया है मैं भी उसके यहां जरूर गया होउंगा या जाऊंगा। बस मे चड़ा कोई कन्डेक्टर से टीकट लेता है तो कन्डेकर भी उसके ओफिस मे किसी ना किसी काम से गया होगा। हर कोई एक दूसरे के पास मे घूम ही तो रहा है मगर फिर भी सिर्फ अपने काम की बात कर रहा है एक दूसरे के काम की नहीं। मैं सोचता हूँ की ऐसे ही कैफेकॉपीशॉप खोलूँ जहां पर लोग अपना काम करने आये। हर कोई ओडर लेने वाला, टेलीफोन ओपरेटर, चित्रकार, कारपेंटर, सभी, एक ऐसी बिल्डिंग जहां काम हो। बिना ओफिस बने और ना ही दुकान।"

100 रूपये का नोट हंसा और बोला, “तुम्हे फिर मेरा साथ जरूर चाहिये होगा। मतलब काम से बाहर की जगह जहां पर लोग एक दूसरे से कुछ बातें करने आये और जो वो कर रहे हैं उसमे उसे जोड़ ले। इस तरह की जगह से तुम संतुष्ट हो जाओगे? और कहां पर बनेगी ये जगह?”

पिज़्ज़ा ने जवाब दिया, “अभी तो पता नहीं लेकिन बनेगी जरूर।"


लख्मी

असंगति

राकेश

कुछ अनसुने किस्से


अगर ये पता हो जाये की हमें करना क्या है तो दिमाग चलना बंद हो जाता है और फिर शरीर किसी मशीन की तरह चलता है उस काम को करने के लिये। काम उस मशीन को पूजा मानता है।

अखबार की कई कटिंग ना जाने कितने सालों से उपर वाले कमरे की दिवारों मे किन्ही पतले सरियों में फसी पड़ी हैं। दीवारें कई मेग्जिन की कटिंगो से सजी है और अलमारियां उन कहानियों की किताबों से जिसमें अपने उन दिनों को गुजार देने की बातें शामिल हैं जब सिर्फ कटिंग करना ही अपना एक मात्र काम था। सुबह अखबार और मेग्जिन डाला करते और शाम मे उसी मे अपने लिये भी मेग्जिन और अखबार ले आते और फिर शाम में शुरू होता अपने कमरे को अपने लिये तैयार करना। हर कलेक्शन बनाने की इच्छा शक़्ति जैसे अपने जोरों पर थी। कहानियों की दीवार, डायलॉग की अलमारियां, तस्वीरों की छतें और पर्चियां नौकरियों की और एक बड़ा सा मेप जिसमें कहां कहा गये नौकरी के लिये उसका हिसाब समित एक अपना भी मेप बना था।

मेरे कई दोस्त उसमें मेरा साथ देते। हर कोई उसमें कितना पैसा कहां लगा, कहां गये और कहां पर नहीं जा पाये सब नोट होता। कभी कोई नौकरी नहीं। इस बात का कतई गम नहीं। लेकिन वो साथी कहीं किसी नौकरी मे खो गये। तब जाकर अहसास हुआ की काम की दुनिया कुछ चुराती नहीं उसे गायब हो जाने पर मजबूर करती है।

अपना तो एक अखबार का ठिया है और मेग्जिन का भी। 18 साल से वहीं कर रहा हूँ। सोच रहा हूँ वही फिर से अपनी बचकानी हरकत को चालू करूं। क्या पता कुछ उनके जैसे नये दोस्त मिल जाये।

लख्मी