सफर जो हमारे से हमेशा जुड़ा है। हमारे साथ में अपने अलग-अलग अदांज लेकर चलता है। कहीं पर आना - जाना हो या कहीं पर अपना लम्बा समय बिताना हो या फिर अपने रिश्तों में हर रोज एक नयापन लाना हो। इसे भी लोग सफर का नाम दे देते हैं। शहर में अपना रोल निभाते लोग जब कहीं किसी जगह पर सुस्ताने के लिये बैठ जाते हैं तो अपनी उस भागदौड़ से भरी चलने की रफ़्तार या उतार-चड़ाव को सफ़र कह दे देते हैं - सफ़र असल में कहीं पर पैरों को दौड़ाने का नाम या काम ही नहीं बल्कि सफ़र अहसासों की वर्णमाला भी है। पर इसमें भी अपना - अपना तरीका होता है। वैसे- देखो तो सफ़र कभी भी ख़त्म नहीं होता, अगर चलना रुक जाये तो ज़िन्दगी में अनेकों टूटे या बुनते वक़्त का दौर चलता रहता है।
हम कभी-कभी अपनी रोजाना के काम या अभिनय की इस लाइन को वक़्त में जोड़ते हुए चलते हैं। और दिवार पर टंगी उस घड़ी की तरह हो जाते है जहाँ पर हम रुके हैं पर सुई की तरह सफ़र चलता है। इससे जुड़ता है हमारा अनुभव, बैचेनी, गती और रिश्तों का साझारूप जो हमारी दिनचर्या में जुड़ा रहता है और इनसे ही उभरता है वो सफ़र जो चलने से ही नहीं, घूमने से ही नहीं बल्कि अनुभव को सुनने से बना है।
कई तरह के लोग हमसे अक्सर टकराते हैं। जो अपने काम की लय में कितने ही मुश्किले, चुनौतियाँ ले रहे हो पर किसी को जाहिर ही नहीं होने देते और अपने बनाये अनुभव को किसी एक लाइन या डायलॉग में बोल जाते हैं जिसमें एक छवि उभरती नज़र आती है।
एक शख़्स जिनसे मुलाकात हुई - एक सड़क पर जो एक रिक्सा चलाते हैं।
मगंलवार का दिन था मैं मोरी गेट से राजपुरा रोड़ जाने के लिये निकला। एक यही ऐसा रोड़ से जो मुझे बाकी रास्तों से थोड़ा अलग सा लगता है। सबसे ज़्यादा भीड़ यहाँ पर रिक्से वालों की होती है। बड़ी-बड़ी गाड़ियों के बीच में रगं-बिरंगे रिक्शे दिख ही जाते हैं। जिनके लिये ज़्यादातर रेडलाइट कोई मायने नहीं रखती। मैं वहाँ जाने के लिये रिक्शा कर रहा था पर उस तरफ में बहुत ही कम लोग जाते हैं। अगर कोई रिक्शे वाला राजी भी होता तो 15 से 20 रूपये माँगता। अगर मेरे साथ में कोई एक और बन्दा होता तो रिक्शे वाला 5 रूपये सवारी में हामी भी भर देता पर एक बन्दा हो तो। वो उसी से 3 सवारियों का किराया बसूल करता और ये भी तो जायज सी ही बात है अगर चक्कर लगाना ही है तो कम से कम 10 रूपये का तो हो। तभी एक रिक्शे वाला सवारी को उतारता नज़र आया। यहाँ पर और भी काफी लोग थे रिक्शे की जरुरत वाले पर उसके पास मे मैं सबसे पहले पहुँचा।
मैंने उससे कहा की "राजपुरा रोड़ 29 नम्बर चलोगे" तो उसने मुझे देखते हुए कहा, "एक सवारी 10 रुपये।" मैंने तुरंत ही रिक्शे की सीट पर बैग रखा और उसके कांधे पर हाथ रखकर रिक्शे पर चड़ गया। रिक्शे वाले भाई साहब ने पजामा, कुर्ता और गले में स्वापी डाल रखी थी और पूरा रिक्शा सजाया हुआ था। हेन्डल पर लगे चमकिले रगं-बिरंगे फूल, लटकी झालर जो धूप में चमक रही थी। हेन्डल पर लटकी फूलों की माला जो लगता था की सुबह ही डाली है। ताजा लग रही थी और हेन्डल पर लगी बीचों-बीच एक छोटी सी फोटो। उसे देखकर तो मुझे लगा जैसे कहीं पर सूटिंग हो रही है और फिल्म में हीरो की एन्टरी हो रही है। तभी इस रिक्शे को सजाया गया है। फिल्मों में तो हीरो के रिक्शे इतने सजे होते हैं। वो रिक्शेवाला हेन्डल को पकड़े पैडल पर झूल रहा था। काफी मुलायम रास्ता लग रहा था। जैसे ही वो अपनी गद्दी पर बैठा तो मैंने उससे पूछा "भाई साहब बड़ी शानो-शोकत लगती है आपके रिक्शे की। धूप में लाइट मार रहा है। क्या ये आपका अपना रिक्सा है या किराये का?”
वो स्वापी से अपना मुँह पोछते हुए बोला, "हाँ ये मेरा अपना रिक्शा है। इसे मेरे बच्चे सजाते हैं और मेरी लड़की रोज इसकी पूजा करती है तो माला भी इसी पर डाल देती है। अब देखिये यही तो हमारी रोजी-रोटी है इसे मेरे बच्चे एक दम नया बनाकर रखते है और मैं भी इसे सही बनाकर रखता हूँ तभी तो पानी की तरह चलता है मजा आता है। लेकिन शायद अब दिल्ली की सड़कों को इन साइकिलों पर झूलते लोगों की जरूरत नहीं है।"
इतना कहकर वो चुप और मैं सोचने लगा जहाँ एक दूल्हे के सेहरे की तरह वो चमकीली झालर हेन्डल पर चमक रही थी। इतनी ऊंची-नीची सड़क बिरेकर में अपने इस सफ़र को हल्का बनाकर ये क्या छोड़ते हुए चल रहे हैं? पर उस ज़्यादा महत्वपुर्ण है की ये क्या बिखेरते हुए चल रहे हैं?
फिर वो गाना गाने लगे - मैं खामोश होकर उनको सुनता रहा।
"ये सफ़र है जिन्दगी का युही कट जायेगा। इन ऊचें-नीचें भरे रास्ते पर अब दिल ना घबरायेगा...”
सजावट से लेकर सरकार के साथ बहसबाजी की धुन को वो बोलकर ऐसे अपने खो गये की एक पल के लिये लगा की जैसे हमारे बीच मे कुछ हुआ ही नहीं। ये जीवन का ऐसा पहलू था की इसे छेड़ने का असली मतलब था की मैं किसी के दुख को कुरेद रहा हूँ। कैसे दोनों तरफ के अहसास को जिया जाता है? वो सब मैंने इस एक ही पल मे उनमे महसूस किया।
ये जूस्तजू थी, जिसको पालकर चला जाये तो सारी हसरतें अपने आप जीने की परतों पर मुलायम अहसास खोल देती है।
लख्मी
हम कभी-कभी अपनी रोजाना के काम या अभिनय की इस लाइन को वक़्त में जोड़ते हुए चलते हैं। और दिवार पर टंगी उस घड़ी की तरह हो जाते है जहाँ पर हम रुके हैं पर सुई की तरह सफ़र चलता है। इससे जुड़ता है हमारा अनुभव, बैचेनी, गती और रिश्तों का साझारूप जो हमारी दिनचर्या में जुड़ा रहता है और इनसे ही उभरता है वो सफ़र जो चलने से ही नहीं, घूमने से ही नहीं बल्कि अनुभव को सुनने से बना है।
कई तरह के लोग हमसे अक्सर टकराते हैं। जो अपने काम की लय में कितने ही मुश्किले, चुनौतियाँ ले रहे हो पर किसी को जाहिर ही नहीं होने देते और अपने बनाये अनुभव को किसी एक लाइन या डायलॉग में बोल जाते हैं जिसमें एक छवि उभरती नज़र आती है।
एक शख़्स जिनसे मुलाकात हुई - एक सड़क पर जो एक रिक्सा चलाते हैं।
मगंलवार का दिन था मैं मोरी गेट से राजपुरा रोड़ जाने के लिये निकला। एक यही ऐसा रोड़ से जो मुझे बाकी रास्तों से थोड़ा अलग सा लगता है। सबसे ज़्यादा भीड़ यहाँ पर रिक्से वालों की होती है। बड़ी-बड़ी गाड़ियों के बीच में रगं-बिरंगे रिक्शे दिख ही जाते हैं। जिनके लिये ज़्यादातर रेडलाइट कोई मायने नहीं रखती। मैं वहाँ जाने के लिये रिक्शा कर रहा था पर उस तरफ में बहुत ही कम लोग जाते हैं। अगर कोई रिक्शे वाला राजी भी होता तो 15 से 20 रूपये माँगता। अगर मेरे साथ में कोई एक और बन्दा होता तो रिक्शे वाला 5 रूपये सवारी में हामी भी भर देता पर एक बन्दा हो तो। वो उसी से 3 सवारियों का किराया बसूल करता और ये भी तो जायज सी ही बात है अगर चक्कर लगाना ही है तो कम से कम 10 रूपये का तो हो। तभी एक रिक्शे वाला सवारी को उतारता नज़र आया। यहाँ पर और भी काफी लोग थे रिक्शे की जरुरत वाले पर उसके पास मे मैं सबसे पहले पहुँचा।
मैंने उससे कहा की "राजपुरा रोड़ 29 नम्बर चलोगे" तो उसने मुझे देखते हुए कहा, "एक सवारी 10 रुपये।" मैंने तुरंत ही रिक्शे की सीट पर बैग रखा और उसके कांधे पर हाथ रखकर रिक्शे पर चड़ गया। रिक्शे वाले भाई साहब ने पजामा, कुर्ता और गले में स्वापी डाल रखी थी और पूरा रिक्शा सजाया हुआ था। हेन्डल पर लगे चमकिले रगं-बिरंगे फूल, लटकी झालर जो धूप में चमक रही थी। हेन्डल पर लटकी फूलों की माला जो लगता था की सुबह ही डाली है। ताजा लग रही थी और हेन्डल पर लगी बीचों-बीच एक छोटी सी फोटो। उसे देखकर तो मुझे लगा जैसे कहीं पर सूटिंग हो रही है और फिल्म में हीरो की एन्टरी हो रही है। तभी इस रिक्शे को सजाया गया है। फिल्मों में तो हीरो के रिक्शे इतने सजे होते हैं। वो रिक्शेवाला हेन्डल को पकड़े पैडल पर झूल रहा था। काफी मुलायम रास्ता लग रहा था। जैसे ही वो अपनी गद्दी पर बैठा तो मैंने उससे पूछा "भाई साहब बड़ी शानो-शोकत लगती है आपके रिक्शे की। धूप में लाइट मार रहा है। क्या ये आपका अपना रिक्सा है या किराये का?”
वो स्वापी से अपना मुँह पोछते हुए बोला, "हाँ ये मेरा अपना रिक्शा है। इसे मेरे बच्चे सजाते हैं और मेरी लड़की रोज इसकी पूजा करती है तो माला भी इसी पर डाल देती है। अब देखिये यही तो हमारी रोजी-रोटी है इसे मेरे बच्चे एक दम नया बनाकर रखते है और मैं भी इसे सही बनाकर रखता हूँ तभी तो पानी की तरह चलता है मजा आता है। लेकिन शायद अब दिल्ली की सड़कों को इन साइकिलों पर झूलते लोगों की जरूरत नहीं है।"
इतना कहकर वो चुप और मैं सोचने लगा जहाँ एक दूल्हे के सेहरे की तरह वो चमकीली झालर हेन्डल पर चमक रही थी। इतनी ऊंची-नीची सड़क बिरेकर में अपने इस सफ़र को हल्का बनाकर ये क्या छोड़ते हुए चल रहे हैं? पर उस ज़्यादा महत्वपुर्ण है की ये क्या बिखेरते हुए चल रहे हैं?
फिर वो गाना गाने लगे - मैं खामोश होकर उनको सुनता रहा।
"ये सफ़र है जिन्दगी का युही कट जायेगा। इन ऊचें-नीचें भरे रास्ते पर अब दिल ना घबरायेगा...”
सजावट से लेकर सरकार के साथ बहसबाजी की धुन को वो बोलकर ऐसे अपने खो गये की एक पल के लिये लगा की जैसे हमारे बीच मे कुछ हुआ ही नहीं। ये जीवन का ऐसा पहलू था की इसे छेड़ने का असली मतलब था की मैं किसी के दुख को कुरेद रहा हूँ। कैसे दोनों तरफ के अहसास को जिया जाता है? वो सब मैंने इस एक ही पल मे उनमे महसूस किया।
ये जूस्तजू थी, जिसको पालकर चला जाये तो सारी हसरतें अपने आप जीने की परतों पर मुलायम अहसास खोल देती है।
लख्मी
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