Monday, June 22, 2015

परिंदे




राकेश 

दिल्ली देख ली

“दिल्ली का किला तो नहीं देखा मगर दिल्ली देख ली।“

साहब की बात दिल पे लग गयी। जब वे बेतुकी के इस आलम को आसान सा कातिलाना परिचय दे रहे थे। दरवाजे पे बाहर की रोशनी अब खासी पड़ रही है। हाथ बड़ा कर के उन्होनें आंखो को अपने दांय हाथ में लगी सिगरेट के धुंए को फुंक मरते हुए रूककर कहा, “अजीबो-गरीब है ये दिल्ली?

साहब की बातें मेरे मन को पसंद नहीं आई। मैं तो पास आकर उनकी बात का खुद बहिष्कार करना चाहता था। 

वाब में एक दूसरे के बीच बस हमारी आँखें थी।

“ये शहर इतना बड़ा है बस दो लब्ज ही इनको समझ आये।“
 
“सज्जन रह गये ये!”

खैर, वो इतना कहने के बाद रुक गए। मैंने उत्सुकता से पूछा, “अब इसके बाद क्या सोचा है?

साहब ने मीठी सी मुस्कान बिखेरते हुए, “दिल्ली में आल कैरेक्टर का माहौल है। कलाकार यहाँ तस्वीर हैं, और कई खूबियां हैं। मगर कहानियों में मसहूर जो किरदार हैं, वो कभी चुनौती देने वाले माहिर हुआ करते थे।“


इसके बाद वो वह नाजुक सा मिज़ाज बना कर मुझे देखते रहे

राकेश 

घटना जिसका किस्सा बाकी है

“हाँ शायद, मैं हकीक़त में इस पूरी घटना का वर्जन, मुलाकात के एक सिरे से सुनना चाहता हूँ।“

उनके जवाब में सिर्फ एक मुस्कान काफी नहीं थी। आप को ख़बर है की आज भी ये शहर कितने तरह की घटनाओं और भाषाओं व कारनामो को अपने अनुभव में समेटे हुए है? लोगों की बात छोड़ों अभी जरुरत है महसूस करने की। यकायक,  

“मैंने सुना नहीं जरा फिर से कहो?

इतना कह कर वो बाबू कुर्सी से उठ खड़े हुए। मैंने उनके कंधे को सहलाया, “कल शाम जरूर आना।“

कमरे में ठक टक टक। टूक की आवाज आ रही थी। दीवारें टेलीविजन खिड़कियां और छोटे -बड़े साइज की बनी चीजों का हल्का सा साथ होना मालूम लग रहा था। अन्धेरा पीछे ही था और कहानी अभी शुरू होने को थी। जैसे किसी फ़िल्मी पर्दे पर स्टार्टिंग में धुम्रपान हानिकारक, शराब पीना हानिकारक है। ज़ैसे अन्य विज्ञापन आते हैं और फिल्म का माहौल निमंत्रण दे रहा होता है। आवाजों का गुंबद सा बन कर हमारी ओर बड़ रहा होता है।


वैसे ये बात मैंने भी सोची थी। उनके इन शब्दों के मतलब के लिए मेरे खुरापात दिमाग में सिर्फ एक खालिस्तान ही भर गया था। मैं गहरी सांस लेकर कुर्सी छोड़ कर उठा बात मुश्किल से पांच मिनट की थी और सचमुच एक लम्बा रूप ले गयी।

बात अब भी बाकी है 

राकेश 

कहीं दूर से


अभी सुबह के सवा चार बजे थे। ललीत गहरी नींद से जागा और दोनों हाथो को मरोड़कर उठा। उसे गाड़ी गैराज में भेजनी थी। कल रत उसकी मशीन ने रास्ते में धोखा दे दिया था। 

उसने मेरे चेहरे को देख कर कहा, "क्या रात भर सोया नही?" 

ये सुन कर मेरी आँखें इस कोशिश में लग गयी की एक झपकी मिल जाए। खैर, ललित ने जेब से मोबाइल निकला और हैलो हैलो। मुझे पहचाना? 

गॉव के सुबह सवा चार, किसी रात से कम नही होते यहाँ साँस लेना जितना सरल होता है उतना ही सरल छोड़ना भी होता है। 

"बहुत अच्छा" आवाज आई। 
"चेहरा जरूर याद होगा?" 
"बहुत अच्छा तभी सारी बातें होंगी।" 
"तुम बड़े भाई हो, बस यूं ही थोड़ी जरुरत है।"

कितनी संवेदना थी उसकी बातों में। काम के बाद वो अपने आसपास गर्दन घुमाकर देखता फिर बीच में कोशिश करता की अँधेरे में बहुत दूर देखा जा सके। पंछियों के कंठ से निकलती आवाजें बेहद प्रिय लग रही थी। अब सिर्फ एक बात खाये जा रही थी की घर कैसे पंहुचा जाये? हम लोग वहाँ ठहरने के मूड़ में नही थे। शहर दूर था मगर दिशाएँ दिखाई दे रही थी। मालूम पड़ रहा था की चाय की दुकान पास में है। इसके अलावा अलमारी, दरवाजा मिटटी की चौड़ी दीवारें काफी बड़ी है। 

हम कुछ देर के लिए जैसे रास्ते में ही खो जाने वाले थे। 


राकेश