Wednesday, December 30, 2009

अतीत की गाठों में आवाज़ होती हैं . .

बचपन में एक खिलौना हम खुद से बनाते थे। जो मेले में मिलने वाले और खिलौनों के जैसे शौर करने का एक ज़रिया बनता था। इस खिलौने को बनाने की विधि बहुत ही आसान होती। असल में इसमें बेकार हो जाने वाली चीज़ को कैसे खिलौने की तरह देखा जा सकता है वे था। जिसे आज हम हँसकर कह देते हैं - कबाड़ से जुगाड़।

पहले एक गिलास लो और एक फूटा हुआ गुब्बारा। गिलास के मुँह पर वो फटा गुब्बारा लगा लो। उसे कसकर खींचकर नीचे की तरफ से टाइट रब्बड़ से बाँध लो और फिर एक पतली सींक मे धागा बाँधकर उसे गुब्बारे में छेद करके गिलास में अटका दो। उसके बाद धागे में थोड़ी - थोड़ी दूरी पर गिठा बाँध दो। अब जब उस धागे को खींचते है तो हर गाँठ पर हाथ पड़ते ही आवाज़ बाहर निकल जाती।

कितना आसान है ना इस आवाज़ से खेलना और कितना आसान है किसी चीज़ को खींचना। बस, यादों में भी कई ऐसी गांठे हैं जिन्हे खींचने पर आवाज़ होती है। अपनी यादों को कसकर पकड़कर रखने वाले लोग दूसरों की यादों को सुनने की तमन्ना रखते हैं और अपनी गांठो को बिना छेड़े ही कई शौरों में शामिल होना चाहते हैं।

बीती यादों की छोटे-छोटे कंटे - फटे टूकड़ों से बने चित्र खुद को पूरा करने की कोशिश करते हैं जिनमें घूमते हैं वे तमाम सवाल जो रिश्तों की बंदिशों से बने हैं। रोज़ सुबह ताज़ा होकर घर से निकलने वाला इंसान। अपने कल को भूलकर आज को जीता है। बीते हुए कल की सारी उलझने और मुलाकातें उसके आज को मुकम्मल बनाती हैं। जिसमें वो खुद को हिम्मत वाला समझने से भी नहीं चूकता।

क्या चाहिये आखिर में इंसान को या पैंतरे क्या है उसके? वक़्त के हर हादसे को खींचकर लम्बा करने की उसकी बेइंतिहा कोशिश उसके हर घटते पल में तत्पर रहती है। हर हादसे उसके आज के हर समय को मजबूत करते जाते हैं। उसके अनुभव को और गहरा करते जाते हैं। उसके मुँह से निकलने वाले हर लव्ज़ को और पुख़्ता करते जाते हैं। इन सभी क्रियाओं से जब वे वापस लौटता है तो आज को दोहराने की सारी क्रियाएँ - कल पौशाक पहनकर जीती हैं। इसी रिद्दम को वो जीवन कहता है।

कल और आज की दहलीज़ पर खड़ा इंसान यादों की हर गांठ पर हँसने को जीने का सबब मानकर चलता है और अचम्भे की बात तो ये है कि इसे वो लगातार और नियमित ढंग से करता है।

लख्मी

एक कहानी - दो हँसों का जोड़ा

दो हँसो का जोड़ा एक बहुत ही गुम गाँव में रहता था। ये गाँव कई बड़े - बड़े गाँवो में जाने - आने के बीच के रास्ते में था। इसलिए लोग इसे जानते तो थे लेकिन कोई यहाँ रूकता नहीं था। हाँ, जब कभी किसी के घर पहुँचने के रास्ते में बारिश पड़ जाती या कोई रूकावट हो जाती तो लोग यहाँ पर किसी के आँगन में कुछ समय के लिए रूक जरूर जाते। मगर इसको जानने किसी के लिए जरूरी नहीं था।

गाँव के एकदम छोर पर एक घर था पूरा छप्पर का बना हुआ। वहाँ पर ये हँसों का जोड़ा रहता था। इनकी एक बेटी थी। ये दोनों बेहद बुर्ज़ुग थे। उसकी देखभाल ठीक तरह से नहीं कर सकते थे। मगर फिर भी वो उसी में अपना सारा दिन बिता देते। उसी के प्यार में दिन बितते गए और लड़की बड़ी हो चली। उनका काम इतना भी सही नहीं था की वे उसकी शादी के लिए धन-दहेज़ जुटा पाये। मगर गाँव के लोगों ने मिलकर उनकी लड़की की शादी करदी।

बिना लड़की के उनका दिन कटना बेहद मुश्किल हो चला था। उनक दोनों के पास में कुछ करने को नहीं था। जब दोपहर होती तो उनको लगता की वो अब क्या करें?

एक दिन उस बुर्ज़ुग औरत ने घर के बाहर एक चूल्हा लगाया और रोटियाँ सेकने लगी। उनका आँगन तो आने-जाने का रास्ता था ही तो जो भी वहाँ से गुज़रता वो उनको रोककर रोटी खिलाती। बदले में उनसे कुछ नहीं लेती। जो भी वहाँ पर उनके हाथ की रोटी खाता वो यही सोचता की ये औरत कुछ लेती क्यों नहीं है? सभी यही सोचते। देखते - देखते उनके यहाँ बहुत लोग आने लगे। बहुत देर बातें करते और रोटियाँ खाते। चले जाते - उनका दिन भी यूहीं कट जाता। बस, जो भी वहाँ से रोटी खाकर गुज़रता वो यही कहता, “अम्मा कभी हमारे गाँव से गुज़रों तो हमारे घर जरूर आना।"

एक दिन पिता का मन किया बेटी से मिलने का। लेकिन उनके घर खाली हाथ तो नहीं जा सकते थे। मगर कोई न कोई बहाना बनाकर जाने की सोच ही ली। उन बुर्ज़ुग औरत ने उनके लिए रोटी बनाई और पोटली में कुछ दालें, राज़मा और चने रख दिये। उन्होनें अपनी बुग्गी तैयार की और चल दिये। बस, उस अम्मा ने कहा था कि उस गाँव से निकलोगे तो वहाँ पर होते हुए जाना नहीं तो उन्हे बुरा लगेगा।

वो जिस किसी भी गाँव से निकलते तो किसी न किसी के घर जरूर जाते। वहाँ जाकर कहते, “मैं रोटी बनाने वाली अम्मा का पति हूँ। उन्होनें कहा था आपसे मिलकर जाऊँ।"

हर कोई उन्हे कुछ देर रुकने को कहता और उनकी बुग्गी में कुछ कुछ रख देता उन्हे बिना बताये। ऐसे ही वो कितनों के घर जाते और हर कोई ऐसे ही करता।

वो जब अपनी बेटी के यहाँ पहुँचे तो उन्हे बड़े प्यार से कहा, “बेटी से मिलने का मन था। जो बन पड़ा वो ले आये। बस, बेटी से दो - चार पल बात करले। खैर-ख़बर लेकर चले जायेगें। लेकिन जब उनकी बुग्गी को देखा तो वो समानों से भरी लदी पड़ी थी। सभी हैरान थे लेकिन उनको कुछ नहीं पता था।

यहाँ पर रूके हुए थे और वहाँ अम्मा और न जाने कितने राहगिरों को रोटियाँ खिला रही थी।
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ये कहानी यहीं पर ख़त्म हो जाती है लेकिन कहानी कुछ छोड़ जाती है। जब मैं ये कहानी सुन रहा था तो दिमाग में खुद को लेकर कई बातें घूम रही थी। मैं क्यों शहर में घूम रहे लोगों को अजनबी कहता हूँ?, ये अजनबी शब्द कहाँ से पैदा होता है? और क्यों होता है?
लोग एक – दूसरे में मिलते क्यों हैं?
लोग मिलने के बाद देकर क्या जाते हैं?
क्या मिलने के बाद मे कुछ देकर जाना जरूरी होता है?

ये रोटियाँ बनाना और रिश्ते का तार तैयार करना कितना आसान लगता है। जीवन के सही - गलत और जाना-पहचाना - अजनबी जैसे शब्दों को भूलकर तैरने का अहसास जगाता है। ये कोई प्रयोग नहीं था और ना ही कोई मूवमेंट। ये शहर के उस अन्जानी परत मे खुद के किसी खास तार को छोड़ देने की कसक थी। जिसे कोई भी कहीं भी कर सकता है।

लख्मी

आखिर और शुरूआत – एक विस्तार

हर वक़्त कुछ ख़त्म हो रहा है तो कुछ शुरु हो रहा होता है। लेकिन इस शुरु होने और ख़त्म होने के बीच में क्या है?

(Unknown) - अन्जानी खामोशी
कोई गुम (Beep) - धुन
कोई मद्धम सा अंधेरा
कुछ महीम सी लकीरें
फिसलन भरा वक़्त
तैरने लायक बातें
अस्पष्ट सी तस्वीरें
(Unknown Confidence) – अन्जान भरोसा
(Crash voice) – टूटी हुई आवाज़
क्षणिक पल
(Unknown vibration) – अन्जानी हलचल
(High Power) – तेज़ ताकत
(Creative Movement) – रचनात्मक पल
(Action) - टकराना

बस, किसी चीज के शुरु होते ही इन सभी की मौत हो जाती है। असल में इनकी उम्र कुछ नहीं होती। इनका जन्म लेना और टूटकर मर जाना ही इनके लिए जीवन है। एक ऐसा जीवन जिनको उन पगडंडियों पर चलना होता है जिनका कोई आधार नहीं है।

खत्म होने का दर्द और कुछ शुरू होने की खुशी मनाने वाला इंसान और इन दोनों मूवमेंट को बखूबी जानने वाला इंसान इन महीम परत से अंजान बनकर जीता है। खुद को धोका देना इंसान के लिए जीने की जड़ी बूटी साबित होता है। सांसे ले कहाँ रहा है इंसान सांसे खुद से धोका देकर छीन रहा है। लेकिन इस धोखाधड़ी में वे जिन चीजों को समीप करता है वे है उसके अतीत के वे भण्डार जिनको वे अकेले करना भी चाहें मगर अकेला नहीं कर सकता। यही उसकी बहुत बड़ी अपेक्षा है जीवन के परदों को संभालने की।

इन सबके बीच इतना तो तय है की एक बड़ी बात न जाने कितनी ही छोटी कहानियों की सांसो से पैदा होती है। उनकी आहूती से जन्म लेती है और तैयार रहती है उससे भी बड़ी बात को जन्म देने के लिए। ये सभी छोटी-छोटी दास्तानें इसी इंतजार में बैठी होती है की न जाने कब मरजाना पड़ें।

लख्मी

रुक जाने से दिखता है

कुछ देर अगर रूक जाये तो ठहराव बड़ता जाता है। लगता जैसे आपके साथ-साथ आसपास का भी सारा नज़ारा कुछ समय के लिए आहिस्तगीपन की देखरेख में जीने की लालसा रख रहा हो। फिर आहिस्ता - आहिस्ता से शरीर अपनी वापसी की मुद्रा में आने की मांग करता है। हल्की सी भी हलचल जैसे बहुत बड़ी उत्तेजना में रहती है। ठहराव के इर्द-गिर्द चल रही सारी तीव्रता अपनी नई पौशाक पहने आपके समीप आकर आपको कहीं खींच लेने की चाहत बना लेती है। फिर चाहें कितनी ही आनाकानी हो लेकिन उस तीव्र अहसास के साथ चलना ही पड़ता है। शायद यही कशमकश है - हमारी।


ऐसा मौका दिनभर में कई बार आता है। कभी इसे नकार दिया जाता है तो कभी इसे बिना पकड़ना चाहें तब भी ये शरीर की अनकही मांग पर चिपट ही जाता है।

आसपास चलते नज़ारे दिन के किसी न किसी वक़्त में अपनी रोज़ाना की चाल से जुदा होते हैं। इसका अहसास कब होता है? शायद तब जब हम खुद की रफ़्तार से उल्टा चलने लगते हैं

लख्मी

बंद कानों में भी सुनता है

कुछ देर कान बंद करके सुना, ऐसा लगा जैसे हर चीज़ आपको दबाने के लिए ज़ोर पकड़ रही हो। आँखों के सामने चलने वा‌ली हर चीज़ कई टनों का भार लिए हिल रही हो। हर कपकपाहट में गज़ब की तेजी हो। कुछ पल के लिए अगर ठहर जाये तो कोई बड़ा और घातक कदम उठाने का मौका तलाश रही हो जैसे।

हर मूवमेंट में कोई तलाश उत्पन्न होने लग जाती है और हर एक मूवमेंट में समय की कोई न कोई गहरी परत चड़ी होती है।

कोई पैनी सी आवाज़ अगर बंद कानों में चली थी आती तो उसके वज़न का अहसास होने लगता। वे अपने भाव के साथ बह जाने को कहती। न जाने आवाज़ भाव लिए होती है या खाली वे बस, आवाज़ ही होती है। बाकि सब तो हमारे कर्म हैं कि हम उसे क्या नाम देते हैं।

कानों को बंद करने के बाद में दिमाग और सराऊंड हो जाता है। खुद में आवाज़ का गोला बनाता है और उसे अपने भंवर में सफ़र करवाता है। कहीं किसी कोने में ठहरी कोई आवाज़ उस वक़्त शौर मचाने लगती है।

ये एक बंद कमरा है। बंद कमरे में बंद कान करने बैठना किसी बेरूखी की लड़ाई लड़ने से कम नहीं होता। जहाँ हर छोटी से छोटी आवाज़ किसी खतरनाक लड़ाकू विमान की भांति दिमाग से टकराने के लिए तैयार रहती है और वहाँ पर जमीं सारी परतों को ख़त्म करने के लिए ज़ोर ले रही होती है।

लख्मी

Tuesday, December 22, 2009

लम्बा जीने की चाहत

हर आदमी लम्बा जीना चाहता है। लम्बा जीने के लिए वो कई छोटे-छोटे पैमाने बनाता है। वे पैमाने क्या होते हैं? - दिन की दिनचर्या में आने और मिलने वाली कुछ समाजिक घटनायें, दोस्तों का मिलना, उनके बिछड़ने के बाद का गम, काम पर निकलने की जल्दी, किसी को छूने की कोशिश और इन अनेको पैमाने बन जाने के बाद वो खुद से पूछता है, “अपने लिए क्या करूँ?, लम्बा जीने के लिए राहें कैसे तैयार करूँ?”

बिन सवालों के जीना लगातार बेरूखी की ही तरह सही लेकिन उन्हे अपनाता जाता है। खुद से कुछ पूछ लेने के बाद – अपनी दौड़ को थोड़ा धीमा करने की चाहत में खुद से कुछ- कुछ मिलने की तमन्ना बनाने लगता है। बस, दो राहों को जीवन की गाड़ी बना लेता है। "काम और रिश्ते" ये दो पटरियाँ लम्बे जीवन की बुनाई करने में उसका सहयोग करने लगती है। "काम" – जो उसे मन्जिल-मन्जिल करवाते रटवाते कहीं दूर के अंधविश्वास में जीने चाहत देता है।

लम्बा जीवन खाली इसलिए ही नहीं होता जो उसे किसी चमक की तरफ आकृषित करता हो बल्की तंज़ तो इस बात का होता है कि मन्जिल पाने की जूनून में लम्बे अंधेरे को चीर कर उस पार जाया जाये। उस पार जाने की कोशिश मे वो कुछभी करने की चाहत बना लेता है। वो एक ऐसा पार है जिसे कोई नहीं देख पाया है आजतक – हाँ बस, अंदेशे लेकर जीना ख्याइशें बड़ा देता है।

लो - फिर तैयार हो गया लम्बे जीवन का उद्देश्य।

यहाँ इस दौर में आकर वो फिर से कुछ पूछता है, “खुद के लिए क्या जमा किया? कहीं खुद का आसपास अकेला तो नहीं रह गया?”

यहीं से होता है "तलाश" शब्द का जीवन में जन्म।
तलाश किसी अन्देखी शख़्सियत की
तलाश अपने विरोधी की
तलाश एक सहपाठी की
तलाश किसी सुनने वाले की।

लम्बे जीवन की कल्पना में 25% यानी खुद के जीवन का एक चौथाई भाग उस तलाश में खुद को झौंकने को उत्तेजित करता है।

लम्बे जीवन में नये पड़ावों का एक अंदरूनी झुकाव।

लख्मी

Wednesday, December 16, 2009

कुछ बन जाने से निज़ात

आदमी जो बन गया है उससे निज़ात पाना क्यों नहीं चाहता?

अपनी शख़्सियत को हर वक़्त गाढ़ा करके चलने वाला शख़्स हमेशा इस चालाकी में रहता है की कब खुद को नोसिखिया साबित कर और भरोसा पा सके। ये एक खास तरह का सूरतेहाल है, शहर की लगती लाइनों में कहीं जमने का हो या कहीं किसी भीड़ मे घुसने का या फिर काम और रिश्तों की आवाजाही में अपना कौना पकड़ने का।

हर रोज़ सुबह इस दावे के साथ चलने वाला शख़्स शाम होते - होते अपनी शख़्सियत के गाढ़ा हो जाने का दम भरता है। इसी सोच से आगे बड़ता है की जहाँ पर रुकना होगा वहाँ पर अपनी शख़्सियत को थोड़ा नाज़ुक और लचीलेपन में लाकर नये लोगों के बीच में दाखिल हो जायेगा।

एक लड़की ने एक तस्वीर को देखते हुए कहा, “कितना डर भरा है इसमें।"
उसके साथी ने उससे पूछा, “डर क्यों लग रहा है तुम्हे इसमें?”
वे बोली, “मेरी ज़िन्दगी के किसी पल को ये झिंजोर देता है।"

किसी एक वक़्त का पुलींदा बनाने में कई छोटे-छोटे पहलुओं का हाथ होता है। कोई वक़्त कभी अकेले कोई बड़ा और मजबूत रूप तभी ले सकता है। जब उन छोटे-छोटे वक़्त की परतों से न मिला हो। उन परतों की लड़ाई, उनका सहयोग, उनका टकराना और उनका साथ देना। उस पुलींदे को मजबूत बनाता जाता है।

लेकिन वो वक़्त का मजबूत पुलींदा आखिर में आते - आते बन क्या जाता है? क्या तस्वीरों को देखकर उन छोटे - छोटे पहलुओं की परत को चमकाने का काम करता है या टूटने के लिए छोड़ देना होता है?

ये समझना और समझाना थोड़ा मुश्किल हो जायेगा। इसे सिर्फ महसूस किया जा सकेगा।

उस साथी ने दोबारा से उस लड़की से पूछा, “तुम जो बन गई हो उसे गाढ़ा क्यों किये जाती हो?”

वे लड़की बोली, “या तो गाढ़ा करूँगी या फिर तोड़ूंगी मगर तोड़ने के बाद भी कुछ बनता ही है। वे भी तो गाढ़ा होता जाता है।"

लख्मी

कुछ घटा, पता नहीं

कुछ घटा, क्या घटा कुछ पता नहीं भरी सड़क जिसपर दौड़ लगाने, एक – दूसरे को धक्का मारने के साथ ही साथ एक – दूसरे के ऊपर चड़कर जाने को तैयार शहर हमेशा इस अचम्भे मे रहता है की क्या घटा?

घटना के बाद का एक्शन, घटना के बाद के नियम और उनपर कई समय तक चलना शहर की जिम्मेदारी है। बस, यूँही रास्ते बदलते जाते हैं। कुछ टूटा और नये नियम लागू हो जाते हैं। इसके साथ लड़ाई में रहने वाला शहर हमेशा तैयार रहता है।

घटना के बाद के चित्र देखकर घटना को कहानी की तरह सुनाना जोरों से होने लगता है। एक घटना कई ज़ुबानों और मोड़ों से शुरू होती है लेकिन कहानी का अंत एक ही जगह पर आकर रुक जाता है। कभी कहानी में भीड़ होती है तो कभी कहानी में सन्नाटा।

हर कोई कहानी के जरिये घटना का चश्मदीद गवाह बनकर शहर में घूमने लगता है।

कोई सबूत निकला, नहीं। कोई ज़िन्दा बचा - पता नहीं।

लेकिन इसके बावज़ूद भी कुछ रुक जाये ये तय नहीं होता। शहर की भागदौड़ के बीच में ये घटनायें गोल-गोल चक्की तरह से चलती हैं जिनसे निकलने वाले इंधन से शहर भागता है।

लख्मी

Saturday, December 5, 2009

एक कुत्ते को ताप कर चार लड़को ने रात काट दि ।

एक रात की बात है ।



अब हम कहाँ जाये ? ये बात उन्हे सताती रही।



हम चारों एक पेड़ के नीचे आकर खड़े हो गये ।जिसके पास से हमें गर्मी महसूस हो रही थी।
वो चारो वही थककर बैठ गयें ।



वहाँ जो आटे की बोरी का कट्टा पड़ा था उसमें से ही गर्मी नीकल रही थी वो वही हाथो
को फेला कर तापने लगें।
काली रात के सायें मे उन्हे दिन की धूप की गर्माई का अहसास हो रहा था।
शायद कुत्ता भी अपने को उनके बीच महफूज़ समझ रहा था।



तड़के ही कुत्ता उठ खड़ा हुआ और उनके बीच से नीकल भागा ......




राकेश