कुछ देर अगर रूक जाये तो ठहराव बड़ता जाता है। लगता जैसे आपके साथ-साथ आसपास का भी सारा नज़ारा कुछ समय के लिए आहिस्तगीपन की देखरेख में जीने की लालसा रख रहा हो। फिर आहिस्ता - आहिस्ता से शरीर अपनी वापसी की मुद्रा में आने की मांग करता है। हल्की सी भी हलचल जैसे बहुत बड़ी उत्तेजना में रहती है। ठहराव के इर्द-गिर्द चल रही सारी तीव्रता अपनी नई पौशाक पहने आपके समीप आकर आपको कहीं खींच लेने की चाहत बना लेती है। फिर चाहें कितनी ही आनाकानी हो लेकिन उस तीव्र अहसास के साथ चलना ही पड़ता है। शायद यही कशमकश है - हमारी।
ऐसा मौका दिनभर में कई बार आता है। कभी इसे नकार दिया जाता है तो कभी इसे बिना पकड़ना चाहें तब भी ये शरीर की अनकही मांग पर चिपट ही जाता है।
आसपास चलते नज़ारे दिन के किसी न किसी वक़्त में अपनी रोज़ाना की चाल से जुदा होते हैं। इसका अहसास कब होता है? शायद तब जब हम खुद की रफ़्तार से उल्टा चलने लगते हैं
लख्मी
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