Friday, December 27, 2013

कोमेंटिये माहौल


काफी हफ्ते बाद मुझे इस शुक्रवार अपने बीच कई तरह की बहस और बातचीतों को समझने में मज़ा आया। उसमें ये मैं अपने साथी के एक लेख से सुनाई गई "बस की खिड़की" लेख पर कुछ कहुंगा।

एक लड़की बस की खिड़की से बाहर होता कुछ देखती है। जो उसे चुभन का एहसास करवाता है। वो अपनी लाइफ में जैसे एक ओर्डर ( लय ) से कुछ करना चाहती है। वैसे लेख पर सबने कुछ ना कुछ कहा होगा। उसे कोमेन्ट भी दिये होगें। उस बीच लगा की लेख में बाहर से आता सवाल और समझ के विरूद टकराव है।

मैं क्या होता है? मैं ये कर देता अगर मेरे हाथ में होता तो बदल देता।

ये सिर्फ कहने का फोर्स सा लगता है। जो सिच्वेशन में एक जीता हुआ एक अंकुरित सोचने का उछाल देता है। जैसे अपने देखने के बाहर को एक फ्रेम से देखते हैं तो वहां जो दिखा वो मेरी कही हुई समझ से अलग है।

एक फ्रेम जब दूसरे किसी फ्रेम से बात करता है तो उसमें दो आपसी सांसो का मेल होता है। जो मिलकर एक दूसरे को छुकर निकलती है। एक खिड़की से बना फ्रेम है। जब हम कह कर निकलते है तो जीने को सोचते है। जिससे हम एक छोटे पैमाने पर अपने स्वंम की ही कल्पना करते हैं। तो फिर उसे कोई अपने कौमेन्ट से उसकी इस कल्पना से हटा कैसे सकता है?

चलों मान लिया के आप उसके देखे फ्रेम से पूछते हैं कि "खिड़की में कुछ और क्या?” तो उसे क्या देखने को कहते हैं?

क्या उसके देखे को झुठला रहे हैं? उसके सुने हुए को तोल रहे हैं? उसकी बनावट को फिका कह रहे हैं? हम गर सोचे की जैसे - सोचे गई जगह, समय,सबजेक्ट और ओबजेक्ट मिलकर क्या बना रहे हैं? तो हमारी चाहत का रूख क्या होगा?

मैं और मेरे अनुभव, समझ का जुडा कनैक्शन है। पर अब आया की आप लिखने वाले, शौद्ध करने वाले को एक नया आईडिया या तरीका दे रहे हैं उसका पहले लिखा से बाहर जाकर क्यो?

लिखने वाले की कोशिश से लिखने वाला ही महरुम होता जाता है। जिससे वो सब के कौमेन्ट लेकर अपने सुने को लाये हुये को दोबारा नहीं सोच पाता फिर वो अगला कोई टोपिक व स्पेस को तलाशने लगता है। यानी अपने लिखे पर दोबारा का एक एक्शन नहीं होता जब की हर निगाह को दोबारा एक्शन का तलबगार रहता है। एक जगह में कही बैठ कर कुछ किया काम, सुनी आवाज या एहसास लेना है तो वो क्या है?  खासतोर से कोमेन्ट समझाया जाता है जो बोल रहा है उसे बोला जा रहा है? सौंपा जा रहा है की ये ले लों। ऐसे कर सकते हैं। ऐसे न करों एक्ट। इन पर से अलग हट कर सोचो।



मुझे लगता है एक फ्रेम या निगाह हो सकती है। कि बाहर एक निगाह -निगाह से टकराती है अपना अपना संकुचित जानकारी लेकर जिसमें तरह तरह के चेहरों की संम्भावनाएं ,चुनौतियां और मांपदण्ड़ होते हैं तो कहीं आप इस पर टिकी निगाह को किसी तराजू से तो नहीं देख रहे?  और कहीं पारदर्शी तो कहीं आपके पास वापस टकराती है एक साउण्ड़ वोलियम की गुंजन की तरह तब हम क्या सुन पाते हैं?

लिखने वाला और सुनने वाले के बीच में एक महीन सी तार होती है। जिसका कोमन साधन होता है वो चीज जो लिखने वाला लेकर आया है। लिखने वाले के लिये वो साधन उसका खुद का इजात किया हुआ होता है तो सुनने वाले के लिये उसमे क्या होता है? सवाल किसके लिये होते हैं?

बातचीत में हर कोई एक सवाल दे रहा था। लगता था की सारे सवाल लिखे हुए पर है। सुनने वाला जब बोलने वाला बन जाता है तो उसकी तलाश क्या होती है? यह गायब हो जाता है। मजेदार माहौल था।

राकेश

कुछ हल्का सा दिखा

दूर से ही देख रही थी वो बांस की मजबूत कुर्सी और उसके बगल मे रखी वो टेबल जिसके ऊपर अगर हाथ रखकर कोई खड़ा भी हो जाये तो टूटकर नीचे ही गिर जायेगी। लेकिन अभी कुछ देर के बाद मे वहाँ पर भीड़ ऐसे टूट कर पड़ेगी के उसको रोकना यहाँ किसी के बस का नहीं होगा।

वो वहीं पर उस टेबल से कुछ ही मीटर की दूरी पर बैठे थे। ये उनका काम नहीं था लेकिन उनके पास इस काम के अलावा इस समय कुछ और करने को ही नहीं था इसलिये रोज़ सुबह निकल पड़ते और कईओ की दुआये लेते हुये उस जगह पर बैठ जाते। उनके हाथ दुख जाते मगर यहाँ पर बोल खत्म होने का नाम ही नहीं लेते थे और उनका काम था उन बोलों को शब्दों मे उतारना। कुछ इस तरह उतारना की पढ़ने वाले को उनके अन्दर दबे दर्द का बखूबी अहसास हो जाये और जिसके लिये उन बोलों को शब्दों के जरिये शहर में उतारा जा रहा है वो नंगे पाँव बस होता चला जाये।

उनके नाम के बिना ही उनको लोग जानने लगे थे और वो भी नाम के साथ किसी को नहीं जानते थे। ये इस वक़्त मे बनने वाले ऐसे रिश्ते थे जो लम्बे बहुत रहेगें लेकिन कभी एक - दूसरे पर जोर नहीं डालेगें। एक - दूसरे को खोजेगें जरूर लेकिन खोने से घबरायेगें भी नहीं। दूर हो जाने से उदास जरूर होगें लेकिन हताश नहीं हो जायेगें। यहाँ चेहरे की पहचान बिना नाम जाने थी और नाम की पहचान बिना चेहरे के। फिर भी इनकी उम्र इतनी थी के जगह को अपनी उम्र देकर उसकी जिन्दगी बड़ा देती।

रिश्ते, कितने मीठे और सूईदार होते हैं? ये हम वियोग या योग मे कह भी दे तो उसमें बहस करने की कोई बात नहीं है। ये तो सम्पर्ण करने के सामन होता है। जिसके करीब उतना ही मीठा और जिसके बहुत करीब उतना ही सूईदार। जिससे दूर जाना उतना ही मीठेपन का अहसास कराता और उससे बेहद दूर जाना उतना ही सूईदार। कोई अगर ये कह दे तो क्या उससे लड़ने  जाया जा सकता है? ये तो वे अहसास से जो बिना माने या मानने से इंकार भी किये सफ़र कर ही जाता है। इसमे "मेरी" "तेरी" की भी लड़ाई हो सकती है और लड़ाई हो भी क्यों भला? ये जीवन की वे लाइने हैं जिसमें दोनों ओर से न्यौता खुला होता है। बिलकुल फिल्मों के उन गानों की तरह जो न तो किसी हिरोइन के लिये गाये जाते हैं और न ही किसी हीरो के लिये। मतलब वे गाने फिल्म के किसी क़िरदार के लिये नहीं होते। वे तो जीवन का कोई हिस्सा पकड़कर उसके मर्म के लिये गाये जाते हैं। उसका अहसास गाने वाले के लिये भी होता है, गाने पर अदाकारी करने वाले के लिये भी, गाना लिखने वाले के लिये भी और गाना सुनने वालों के लिये भी।

Thursday, December 5, 2013

लाइलाज़ नज़ारें

बारिश अभी रुकी नहीं थी और लगता था की ये पूरे कनागत बरसने वाला है। चार दिन तो हो गये थे बसरते - बरसते। इन दिनों कहानियाँ का बिखरना थोड़ा कम है। एक – दूसर से मिलना जितना दुर्लभ है उतना ही इन मिठी और खमोश कहानियाँ का एक – दूसरे के मुँहजोरी करना भी।

लेकिन क्या सारी कहानियाँ मुलाकात पर निर्भर होती है?, नहीं - हर कहानी नहीं। कहानियों के पर लगे होते हैं जो खुद ही कहीं से भी कहीं उड़कर पहुँच जाती हैं। फिर उनको देखकर मुस्कुराती हैं जो मुलाकातों के ऊपर आर्क्षित होते हैं। कहानियों का एक खास बिछोना भी होता है जिसपर कोई भी कुछ देर सुस्ताकर जा सकता है और तकीये पर अपनी कोई निशानी छोड़ भी सकता है। क्या वो निशानी महज़ निशानी ही बनकर दम तोड़ देती है?

पूरा नाला पानी से भर गया था। काला - काला पानी किचड़ समेत सड़क पर निकलकर आने की कोशिश मे था। कुछ ही देर के बाद मे यहाँ पर जाम बस, लग ही जायेगा। जाम लगने का सबको पता होता लेकिन सरकार को कोसने और गाली देने के अलावा किसी को जरा सी भी फुरसत नहीं थी कि इससे आगे कुछ किया जाये। सबसे पहले तो नाले के गन्दे पानी की महक पूरे मे अपना नाम करती। उसके बाद मे पानी। नाले के साथ मे लगी दुकानों को चाहे इससे कोई फर्क पड़े या न पड़े लेकिन इन दुकानों से समान खरीदने आये ग्राहको को जरूर दिक्कत होने वाली थी। ऊपर से बारिश का पानी और नीचे से काला पानी दोनों रिस रहे थे। नाला टापना बहुत मुश्किल था तो लोगों ने इस पार से उस पार जाने के लिये कई सरकारी खम्बों का पुल बनाया हुआ था। सुबह और शाम मे यहाँ से पूरा का पूरा हुजूम गुज़रता है। इस नाले की कोई दिनचर्या हो या न हो लेकिन ये अनगिनत दिनचर्याओ का हिस्सेदार जरूर है।

सुबह के आठ बजकर तीस मिनट हो चुके हैं। सड़क पूरी लोगों से भरी है। नाले पर बने सारे पुल लोगों से भरे हुए हैं। नाले मे देखने और झाँकने की जिद्द सबकी तारतार है। ऐसा लगता है जैसे किसी मौत के कुएँ मे कोई खरतनाक शोह चल रहा है। जितने झाँकने वाले ज्यादा है उतने ही दूर से देखने वालों की भीड़ भी कम नहीं है। एक नाला आज कई कहानियाँ का बसेरा लगता है। गर्मागर्म नांद की तरह से हर कहानी पककर निकल रही है। दूर से देखने मे बस, एक यही खामी है तो मज़ा भी है। जो भी वहाँ उस भीड़ से बाहर निकलता है उसी के पास एक कहानी होती। न जाने उसमे क्या था और वो क्या बनकर बाहर आ रहा था।

नाले के एक दम साथ मे दीवार के नीचे एक औरत लम्बा सा घूंघट करके रोये चले जा रही थी। कोई भी उसका चेहरा नहीं देख सकता था। वो शायद अकेली भी थी। उसको रोता देखकर लोग उसे कुछ ऐसी निगाहों से देखते जैसे नाले के अन्दर बहती कहानी उसी से जुड़ी है। बारिश काफी तेज हो चुकी थी। वहाँ पर खड़े सभी तितर-बितर होने की कोशिश मे थे लेकिन उस औरत का रोना और वहाँ उस जगह से उठना तय नहीं था। नाले मे भी कुछ लोग कूद गये। कहीं जिसके कारण ये सब घटा है वो ही कहीं बह न जाये। नाले के पानी का बहाव काफी जोरो से था आज। नहीं तो हमेशा ये रूका रहता है। कुछ न कुछ कूड़ा इसमे अटका रहता है लेकिन आज तो इसकी रफ़्तार देखने लायक थी। न जाने किसका साथ दे रहा था।

नाले के चारों तरफ लोग रैलिंगों पर चड़े खड़े थे। ये देखने की कोशिश मे की आखिर मे उसमे से निकलेगा क्या? वो नाले के अन्दर कूदने वालें लोगों के हाथों मे कुछ था। जो बेहद सफेद था। उन्होनें उसको छुपाया हुआ था अपने कपड़ो से लेकिन कुछ भाग अगर दिख जाता तो लोग ऐसे कहानियाँ बुन लेते जैसे हर चीज़ उनके हाथों से होकर निकली है।

कमीज़ के नीचे से कुछ भाग नजर आ रहा था। दिखने वाला हिस्सा किसी गीली और गली हुई रोटी की भांति था। सफेद रंग मे लिपटा वो हिस्सा कितने वक़्त पानी के चपेट मे रहा होगा उसका अन्दाजा कर रहा था। किसी को कुछ कहने या सुनने की जरूरत भी नहीं थी। लगता था जैसे वो हिस्सा खुद से कुछ बयाँ कर रहा है। उन लोगों ने उसे वहीं पर आईस्क्रीम की रेहड़ी पर रख दिया। कमीज़ मे लपेटा हुआ। लोग उसे देखना चाहते थे लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी की उसको पूर्ण रूप से देखा भी जाये। ये कोई दो या तीन महीने का बच्चा था। जो पानी से फूलकर डबल रोटी की तरह से हो गया था। अगर कोई उसको छूता भी तो भी खाली पाँव की उंगलियों पर ही हाथ लगाते बाकि का हिस्सा तो ऐसा लग रहा था जैसे उंगली लगाते ही वो फूट पड़ेगा।

वहाँ कई सारी आवाज़ों के बीच मे उस औरत के रोने की आवाज़ भी सभी के लिये सुनने का एक हिस्सा बनी हुई थी। नज़रें दोनों की तरफ मे कुछ इस तरह से घूमती जैसे गली मे कोई चिड़ी-बल्ले का खेल खेल रहा हो और देखने वालों की भीड़ लगी हो।
रोने की आवाज़ काफी तेज थी और ताना कसने वालो की भी। कोई उसको पाप का लेबल लगाता तो कोई कुर्क्रमो का ताना देता। कोई पूरी औरत कोम पर गाली देता तो कोई रात को काली कहता। मगर इससे क्या फर्क पड़ने वाला था ये किसी को नहीं पता था। सब कुछ वैसे का वैसे ही चलने वाला था। हाँ, कुछ देर तक लोग उसको ताना देगें। फिर घूरेगें उसके बाद मे उसको छोड़ जायेगे वहीं पर बैठे रहने के लिये। रात होने तक तो ये कहानियाँ ऐसे फैल जायेगी जैसे जगंल मे कोई आग फैलती है।

वो वहीं पर रोती रही, उसका रोना यहाँ पर सभी को खल रहा था। उसको इस पाप का भागीदार मान लिया गया था। उसका चेहरा किसी को देखना हो या न देखना हो लेकिन उसको वो कह दिया गया था जो चेहरा देखने के बाद मे थप्पड़ मारने के समान था। रोते - रोते वो औरत वहीं पर गिर गई। नाले के पानी मे पड़ी वो औरत किसी को कोई अहसास नहीं कर पा रही थी। वहाँ पर खड़े सभी ने उस बच्चे को उस औरत के बगल मे रखा और दूर खड़े हो गये। कुछ देर तक वो वहीं पर पड़ी - पड़ी रोती रही लेकिन कुछ समय के बाद मे आवाज़ें आना बन्द हो गया। फिर कुछ नहीं बचा, खाली पड़ी सड़क और कुछ दो - चार गाड़ियाँ, जिनपर लिखा था आपकी अपनी सहूलियत के लिये हमेशा।

लख्मी

Tuesday, December 3, 2013

खामोशी

कहते हैं रात दिनभर की सारी आवाज़ों को अपनी खामोशी में छुपा लेती है। पर क्या सच में रात खामोश होती है? तकरीबन रात के पोने एक का टाइम है। मैं अभी अभी अपने काम पर से घर में दाखिल हुआ हूँ। पूरा कमरा गर्म भाप से भरा हुआ। दरवाजा खोलते ही लगा जैसे दिनभर की खामोशी अब टूट जायेगी। एक पल में लगा की यहां, बंद दरवाजें के पीछे कई आवाज़ों की गूंज पहले से ही शामिल है। सब कुछ बोल रहा है। दिवारें, दिवार पर लटकी घड़ियां, घड़ियों में लंगड़ाकर चलती सुइयां, तस्वीरें, उनमें छुपी यादें, कमरें की कुर्सियां, उनकी गद्दियां, पलंग और उसपर रखे तकिये। सभी कुछ मुझसे बातें करने की कोशिश में है। कुछ भी शांत नहीं है। दरवाजें आपस में अड़ंगी देकर एक दूसरे को अपने से अलग कर रहे हैं और कमरे के भीतर खेलती हवा सबको छेड़ रही है और हवा की अपनी कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती मगर वो जिसको भी छू लेती वहीं बोल पड़ने की फिराक में है और छिंगूरों की गूंज किसी को पुकार  रही है और तेज हो रही है और शोर मचा रही है और तेज और तेज बस, जैसे उसमे अपने कंठ को पूरी तरह से विशाल कर लिया है। लगता है जैसे वो मेरे आने से पूरी तरह से नराज़ है। मुझे डरा रही है। जैसे कोई भूतिया फिल्म का बैचेन भूत मुझे मेरे ही घर से निकाल रहा हो।   

आधे कमरे में उजाला है और आधे में नहीं है। कान बहुत कुछ सुनना चाह रहे हैं। कोई ऐसी आवाज़ जिसे वो पहचानते हो। सुन चुके हो। समझ सकते हैं। कमरे की सारी चीजें अपनी ही चीख पुकार में लगी है। कमरे का पंखा "करर...करर..करर" कर रहा है जैसे कोई घर का बुर्जुग अपनी बिमारी में कर्राह रहा हो। तो घड़ी की सुइयां टिक..टिक...टिक..टिक..टिक... उन आवाज़ को छुपाने की कोशिश कर रही है। लेकिन फिर भी वो पंखे की कर्राहने की आवाज़ को ज्यादा अपना रहे हैं ये थके हुए कान।

रात की सारी बाहरी आवाज़ें बदल चुकी है। वे सभी अपनी ही आवाज़ों ( वॉलयम ) की ताल को सुर में लाने की कोशिश कर रही है। और अंदर की आवाज़ों को बदमाशी करने का मौका मिल गया है। अअअ भट, भट, भट, अअअ भट.भट.भट करती खिड़की कमरे में कोई संगीत तो बजाती है मगर बाहर के मौसम को अंदर आने का भी न्यौता दे डालती है। कभी कभी महसूस होती ठंडी हवा कानों को थकावट को थोड़ी सी ताजगी देती मगर फिर उसी जगह पर लाकर छोड़ जाती।

कानों ने आज से पहले यह सभी आवाज़ें कभी नहीं सुनी थी। शायद इन आवाज़ों को सुनने के लिये कानों के स्थिर होने का इंतजार करना होता है। मेज पर रखी किताब के पन्ने फड़..फड़...फड़ कर रहे हैं जैसे वहीं पर वापस आने के लिये लड़ रहे हो जहां पर पिताजी ने इन्हे आज शाम में छोड़ा होगा। साथ में रखे लेम्प में लटके छोटे छोटे घूंघरू छनछन.....छन....छन... कर उनकी लड़ाई को देखकर नाच रहे हैं। गर्दन हर किसी छोटी से छोटी आवाज पर ही यहां से वहां घूम जा रही है। डर लग रहा है। घबराहट हो रही है। आवाज़ों में कोई डरावनी बात नहीं है। लेकिन फिर भी कान को बंद करके मैं कुछ देर के लिये बैठ गया। बहुत जोरों से मैंने कानों को अपने दोनों हाथों की हथेलियों से भींच लिया। हवा तक को आने का रास्ता जैसे बंद कर लिया। कुछ देर के लिये सभी आवाज़ें बंद हो गई। मैंने आहिस्ता आहिस्ता अपने कानों को खोलना शुरू किया जिस तरह से किसी की आंखो के ओपरेशन के बाद में उसे देखने को कहा जाता है। फिर से वही आवाज़ें आनी शुरू हुई। अब की बात बर्तनों के खिसकने की आवाज़ बेहद जोरों से आई। मैं झट से वहां पर उठकर गया। देखा तो दो चार छोटी चूहिया वहां से भाग रही है। टिरर.....टिरर.....टिरर  की आवाज़ ने मेरे कानों को अपनी ओर खींचा।

कान जरूरत से ज्यादा जैसे सुनने की कोशिश कर रहे हो। आवाज़ों को सुनकर उन्हे समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है। आंखे रोशनी से डर रही है तो कान खामोशी से। किसको क्या चाहिये इसका कुछ भी अहसास नहीं हो रहा है। कूलर अपने पूरे जोश में चल रहा है। उसके पीछे यह महसूस होता कि जैसे कई सारी औरतें जोरो से लड़ रही है। बार – बार मैं कूलर को बंद करता और उन आवाज़ों को सुनने की कोशिश करता। मगर लगता था कि शायद मेरे कानों को अभी दिन और रात के बारे में ज्ञात नहीं हो पाया है।

कुछ ही क्षण के बाद, चीखने की आवाज़ कमरे के भीतर गूंजी। लगा जैसे कोई व्यथा में किसी को पुकार रहा है। एक पैनी सुई सी वो बीच बीच में उठती और फिर अचानक ही खमोशी में बदल जाती। लगता नहीं था कि वो आवाज़ कहीं बाहर से आ रही है। मैं यहां से वहां उस आवाज़ की गर्मी को पहचानने की कोशिश करता। कभी दरवाजे पर जाता, कभी छत पर तो कभी बालकनी में। हर जगह से उस आवाज़ को सुनने की कोशिश करता। मगर वो कभी दायं तो कभी बायं नाचती। कुछ देर के बाद में कमरे में वापस चला आया।

बीच कमरे में खमोश खड़ा रहा और अपनी पूरी कोशिश से उस आवाज़ के कमरे में दाखिल होने का इंतजार करता रहा। वो आती - सुई सी पतली "इइइइइइ-आई" कभी लगता की कोई औरत दर्द में चिल्ला रही है तो कभी लगता वही औरत मुझे डरा रही है तो कभी लगता कि कोई जानवर व्यथा में है। वे आवाज़ यहां से वहां कमरे में घूमती। मैंने अपना बिस्तर खोला और तकियों के भीतर अपने कानों को दबोज लिया। आवाज़ का पतलापन तो खत्म हो गया लेकिन उसका आना बंद नहीं हुआ। मैं उसी अवस्था में पड़ा रहा। काफी देर बीत जाने के बाद में मैं उस बिस्तर से बाहर निकला और महसूस किया कि वे आवाज़ कहीं नहीं है मगर फिर भी मेरे कान उसको सुन पा रहे हैं। पूरी गली शांत सो रही है। जानवर भी गली में टहल रहे हैं। मगर मेरे कानों में वही गूंज घूम रही है।

लगता था कि जैसे उस आवाज़ ने मेरे कानों में घर कर लिया है।


लख्मी