Wednesday, October 31, 2012

नौकरी की अर्जियों की तलाश में

दुनिया में कितनी ही तरह की नौकरियां है। हर कोई अपनी मनपसंद, ज़रूरत की जॉब के लिये खुद को तैयार करता है। नौकरी एक हावी सोच जो अपने में दुनिया की क्षमताओं को लपेटें में है। आप किस चीज़ के लायक हो और किस चीज़ के नहीं का नौकरी से सीधा इशारा मिलता है। दुनिया और दुनिया मैं अनेक जॉब की अपनी दुनिया और हर दुनिया का अपना अलग स्वाद।

क्या है जिसे छोड़कर किसी जॉब के लिये तैयार होना पड़ता है? "नॉनबॉयग्राफिल बायोडाटा" एक ऐसा पत्र जो शरीर की थिरकन से दिमाग की कल्पनाओं को सोच पाने की कोशिश करता है।
वे अनुभव जिसका कोई प्रमाणपत्र नहीं, जिसका कोई सबूत नहीं। जिसकी कहानियां है और ऐसी संभावनाएं जो एकांत को असंख्य बनाती है।

ये एक पत्र है जिसे हम इस माध्यम से बना रहे हैं जो इन अंदरूनी क्षमताओं और संभावनाओं मे गुथे मिले नये आइडियों को ला पाये। बनी बनाई ठोस सोच को तोड़ सके। भरिये और भेजिये। अपने जवाबों मे उन जीवनों को लाने की जिनकी छुअन और कहानी आपके होने को जिंदा करती है।

Wednesday, October 17, 2012

'दस्तक' किताब


सोचा जाये तो एक आम शख़्सियत हमारी ज़िन्दगी में क्या ला सकती है? महज़ ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव या जगह की घनत्तवता, रिश्तों की बेरूखियां या बदलाव की हरकत, फैल होने का डर या समय की तलाश, फैसला लेने की कशमश या भीड़ की हिस्सेदारी, विरासत या जहदोजहद, वसीयत या सफ़र और क्या?

'दस्तक' एक छवि को हमसे परिचित करवाती है जिसका नाम है हसीना खाला। हसीना खाला एक ऐसी शख़्सियत जो आम है, जो अपनी राहें खुद से बना रही है और तय भी कर रही है। वे जो भीड़ में चलती हैं, वे जो भीड़ लिये चलती हैं और भीड़ में खो जाती है। वे जिन्हे अनदेखा भी किया जा सकता है। वे याद तभी रहेगी जब टकरायेगीं। भीड़ में हजारों हसीना खाला बने हम, ना जाने कितनों से रोज टकराते हैं और अनदेखे भी हो जाते हैं। मगर हसीना खाला उन अनदेखें चेहरों की बुनाई का एक अक्स है।
 
किताब किसी रचे गये व कल्पना किये गये शहर की दास्तान नहीं है वे जीते जागते उन अंदरूनी दृश्यों की तरफ इशारें करती हैं जिनके अन्दर से अगर कोई गुज़र जाये तो उसे भुलाया नहीं जा सकता। उन दृश्यों से शहर बनता भी है और धड़कता भी है। 'दस्तक' किताब ऐसा ही शहर लिये है। वे चल रही है तो दौड़ती नहीं, वे रूक रही  है तो ठहरती नहीं, वे सुन रही है तो बोलती नहीं। वे जाग रही है तो सोती नहीं और साथ ही साथ वे उन आवाज़ों से बनी है जो एक दूसरे में दाखिल होकर और कोई गाथा कह रही हैं। वे गाथायें जो किसी की निजी जिन्दगी से ताल्लुक रखती है लेकिन किसी अकेले की नहीं। 

हसीना खाला सिर्फ एक ही शख्स नहीं। किताब को पढ़ते हुए लगा की जैसे हसीना खाला कोई शख्सियत है ही नहीं। वे तो कोई परछाई सी बनी है। हल्की और विशाल परछाई सी। जो जिस पर गिर जाये उसी में ढल जा रही हैं। जैसे वो हर किसी में हो। इसलिये ये पूछना गलत होगा की हसीना खाला कौन है और कहां रहती है? हां, ये कहा जा सकता है की हसीना खाला कोई भी हो सकता है। वो भी घर से निकलने के लिये तैयार हो रहा है, वो भी जो घर लौट रहा है और वो भी जो घर आना ही नहीं चाहता।

जैसे जैसे दिन का बढ़ता जाता है वो अपने दिन और समय दोनों को एक साथ में रचती हैं। इस रचना में वो कभी अकेली व तन्हा नहीं होती। उनके साथ में होती है उनमें बहती वे सभी खुरदरी यादें , हसीन पल, अटपटे रिश्ते, अजनिबयत से भरी राहें और बिखरी व छुटी हुई मुलाकातें जो पहले से संजोई नहीं गई। वे रची जाती है। वो रचती है, अपने अन्दर बहते अनेकों लोगों की परछाइयों के साथ। वे परछाइयां जो एक बार मिली है, वे जो मिलती रही हैं, और वे जो कभी मिली ही नहीं सिर्फ सुनी गई हैं। हसीना खाला उन सभी अनेकों छोटे-छोटे दृश्य और अनदेखी परछाइयों को अपने साथ में लिये चलती हैं। जैसे वे सभी इनकी धडकन हो। वो लौट रही है तो अकेली नहीं। वो कहीं बैठी हैं, खड़ी हैं जैसे किसी भीड़ के साथ हैं। और अपने लिये जीने के साधन किन्ही अक्शों की तरह चुनती व बुन रही हैं।

'दस्तक' किताब में अगर हसीना खाला शहर में है तो शहर उनमें है। हसीना खाला अगर घर में हैं तो घर भी उनमें है का अहसास लिये हैं। वे हर बदलाव, जमीनी बुनाईयां व तोहफो में बंटती रवायतें व बनने और छूट जाने के हर पहलू को जानती व समझती है। उन्हे पता है कि शहर कहां की तैयारी में है। वे जानती है कि कहां पर आकर वे रूकता है। कहां पर टूटता है और कहां पर छूट भी जा रहा है। वे भागते शहर के पीछे नहीं बल्कि वे उन्हे चुन रही है जिनमें हजारों के होने का चिंह बसे हैं। किसी 'आफटर लाइफ'  की तरह जैसे उन्होनें खुद को रच दिया है। वे जिन्दगी जो किसी इवेंट के बाद से बनी है, बाद के लिये बनी है और बाद में बनी है। कभी कभी लगा की यशोदा सिंह उन अहसासों के बीच में खामोश हैं शायद तभी ये संभावनाएं नज़र आती हैं। 'दस्तक' मुलाकातों से बनी है। बिना किसी इंटरव्यू के। क्या इस किताब की कल्पना हसीना खाला जी के साथ लम्बी बातचीत से भी रची जा सकती थी? शायद नहीं, यशोदा सिंह का उनके साथ में रहना और बिना हसीना खाला जी के इंटरव्यू के इस किताब को बुन देना अपने आप में एक चैलेंज के समान है। बिना किसी फलसफे के, अपने लिखने वाले होने के प्रमाण देने के और ना ही किन्ही बड़े व उलझे शब्दों के इस्तमाल करने से। जिस जमीन से हसीना खाला जी अपने चुनाव और अंश बुन रही है 'दस्तक' की ज़ुबान भी वही है।

कहां जाये तो किसी के साथ किसी रिश्ते की बुनाई करने में घंटो सुनने की तैयारी में होना जरूरी नहीं। सिर्फ दो मिनट ही बहुत हैं। हसीना खाला उन दो मिनट को जी रही हैं। बिना कुछ अपना सुनाये, बिना किसी खास परिचय के। अच्छा हुआ यशोदा सिंह ने हसीना खाला जी को कोई कहंकार की तरह नहीं सोचा, नहीं तो हसीना खाला जी ही हर जगह जाकर अपनी ही गुजरी दास्तान सुना रही होती। यहां पर तो हसीना खाला उसी सादगी से जी रही है जिसे समान्य कहकर अमान्य करार कर दिया जाता है।

रवीश कुमार जी ने समाज कार्य विभाग के एक सेमिनार में कहा था, “हमने देखना छोड़ दिया है।"

हां, हमने सचमुच में देखना बंद कर दिया है। हम सोच रहे हैं कि हम देख रहे हैं। लेकिन हम वही देख रहे हैं जिनसे हमें टकरा जाने का और भिड़ जाने का डर है। असल में हम अपना बचाव कर रहे हैं तभी कुछ नहीं देख पा रहे। यशोदा सिंह की किताब ये नहीं कहती कि मुझे पढ़ो, वे कहती है मेरे साथ देखो। 'दस्तक' किताब का जब कोई एक लेख पढ़ते हैं तो साथ ही साथ शहर को भी चलते हुए महसूस कर पाते हैं। आसपास और दास्तान साथ में जैसे गुथी हुई चल रही हैं।

अभी बहुत कुछ है कहने और लिखने को। मगर अभी के दौर में यशोदा सिंह को बधाई देते हुए इसे रोक रहा हूँ। आगे जरूर बात करेगें। जरूर पढ़े।

दस्तक : यशोदा सिंह
वाणी प्रकाशन, 4695,21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002
मूल्य: 175 रूपये



लख्मी

Monday, October 15, 2012

नौकरियां ही नौकरियां - अर्जियां ही अर्जियां

लख्मी

परछाइयों की आकृतियां

राकेश

रंगो की अय्याशियां



पिछली रात अशौक ने रजनी के चेहरे पर कई रंग लगा दिये। रजनी को इन सबका पता भी नहीं था। वे मदमस्त नींद में मुस्कुराती हुई सो रही थी। अशौक ने रंगो से उसके चेहरे को पूरी तरह से रंग दिया था। लाल, पीला, हला और नीले रंग से इतनी लकीरें खींच दी थी की लगता था कई सारे इंसान के साथ रजनी आज बिस्तर मे है।

दूसरे दिन रजनी उठी तो हर रोज़ की तरह वो सबसे मिलने के लिये अपने कमरे से निकली। जो भी उसे देखता तो हंस पड़ता। वे समझ नहीं पाती। जो भी उससे बात करता तो बड़ी मुस्कुराहट के साथ। मगर रजनी अपने काम मे पूरी तरह जुटी हुई थी। वे जिस जिस के पास मे जाती वो ही उसे देखकर चौंक जाता। उसे करीब से जानने वाले उसपर हंसते और दूर से जाने वाले पूरी तरह से चौंक गये थे।

सब की हंसी का कारण बनी रजनी वापस अपने कमरे में पहुँची। खुद को संवारने के लिये जैसे ही शीशे के सामने पहुँची वे खुद चौंक गई और फिर जोरो से हंसी। काफी देर तक वे खुद को बस, देखती रही। रंगो को प्यार से छूती वे और भी ज्यादा बिगाड़ रही थी। जैसे खुद का ही चेहरा बिगाड़ रही हो। कुछ देर आइने के सामने खड़े होने के बाद में रजनी उसी हालत में फिर से घर के अंदर घूमी, अब की बार वो उन लोगों के पास मे गई जो उसे देखकर हमेशा नराज रहते थे तो कभी गुस्सा हो जाते थे। उनके सामने वे खड़ी रही। उन बच्चों के पास मे गई जो उसकी डांट फटकार पर भी हंसते थे। उन्हे डराने के लिये।

फिर दोबारा से अपने कमरे मे आइने के सामने आई और रंग को मलने लगी।


जिन्दगी मे कई बार ऐसे वक़्त आते है जब ये सोचना बेहद जरूरी होता है कि जीवन के किस हिस्से को आगे ले जाने की जरूरत है? उसे जो कामयाबी और नकामी का उदाहरण बनेगा या उसे जो कुछ नया गढ़ेगा। यह वक़्त नये और छूटने वाली अनेकों छवियों के बीच मे खड़ा कर देते हैं। क्या पकड़ा जाये और क्या छोड़ दिया जाये? असल में कुछ नया मिलना और कुछ छूट जाना हमेशा साथ साथ चलता है। कुछ छूट जाने का गम करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की नये की उमंग मे आगे बढ़ना। यह सोच उज्वल है। मगर शायद कुछ ऐसा भी है जिसे जीवन मे रिले करने की भूख रहती है। रिले करना विभिन्नताओ के अहसास में रहने के समान है। रिले ट्रांसफर है सोच का, छवि का, और समय का।

साथ ही वे मौके भी जब हम सभी खुद को एक बार ऐसे तैयार करते जिससे किसी को चौंका सके, हैरान कर सके, चिड़ा सके, लुभा सके, अपनी ओर खींच सके, डरा सके, पंगा ले सके या चैलेंज कर सके। कुछ तो बहुत कम समय के लिये बन पाते हैं तो कुछ कम समय के लिये होते मगर बार बार सिर चड़ जाते है। जीवन मे किसी वक़्त ने कोई चेहरा जैसे तोहफे मे दे दिया हो। वो याद तो रखा जायेगा मगर किस तरह?  उसे हम खुद से बुन ले तो क्या हो?


एक वक़्त ने उनके सामने भी ऐसे ही हालात पैदा कर दिये थे। जिनमे किन्ही दो रूपो में से उन्हे किसी एक छवि को अपनाना था। एक तो वे जो उन्हे पूरी तरह से इस दुविधा मे फसाये हुये थी कि वे कहां चली जायेगी और दूसरी वे जिसका बढ़ना पूरी तरह से तह होता है। पढ़ना, बढ़ना, शादी करना, मां बनना और फिर जिन्दगी के किसी पायदान पर रूक जाना। पायदान का दबदबा बेहद कठोर रहता है। समाजिक जिन्दगी का मान सम्मान बना रहता है। वे जो एक और रूप तैयार करता है जिसका रंगीले चेहरे से कोई लेना देना नहीं।

हर साल नाच मण्डली में हिस्सा लेती है। हिस्सा लेने से पहले वे कहां रहती थी व क्या करती थी। मण्डली का इससे कोई लेना देना नहीं होता था। शायद मण्डली का हर बंदा इसी रूप से नवाजा गया था। वे क्या छोड़कर आयी से ज्यादा वे इस बार क्या लेकर आयी है। नाच जमने से पहले यह जानने की रात हर साल जमती।

यह रात कई रोज की रातों से भिन्न होती। थकने और दुरूस्त होने से पहले की रात। कभी याद नहीं रहती। हर कोई दिन के शुरू होते ही क्या रूप धारण करके इस बार बाहर निकलेगा को रचता, बोलता और उसमे खो जाता। ऐसा मालुम होता की जैसे हर कोई वो बनकर निकलना चाहता है जिसमे वो खूबसूरत लगे, दुरूस्त लगे और यादगार लगे और कभी कभी तो होता की वे वो बनने की कोशिश मे है जिसे वो पहली बार खुद पर ट्राई करेगा।

एक पूरी रात उस किरदार मे ढ़लने के लिये होती। एक दूसरे को गहरी निगाह से देख सभी उस किरदार का अहसास करते। जैसे सपाट चेहरे पर उस किरदार का रंगीला चेहरा बना रहे हो। एक ही रात मे सभी अपने चेहरे मे दिखते चेहरे को पोत उन राहों पर निकल जाते जो अब भी अपने ही जैसे को तलाश रही होती है। उन पुते रंगीले चेहरे के पीछे के चेहरे को सभी ताकना चाहते और खोचना भी।

वे आज तैयार थी अपने चेहरे की शेप के भीतर किसी और को बसाये।

रूप वापस लौटते हैं। किसी समय को साथ लेकर। वे समय जिसे जवाब देना चाहते हैं या वे समय जिससे बहस करना चाहते हैं। समय जिसमें रूप खो गये थे, जाने नहीं जा रहे थे, नकार दिये जा रहे थे। समय उन पड़ावो को रिले करता चलता है जिसमें फिर से ये उम्मीद होती है कि वे रंग ले सकते हैं।

लख्मी

चार दीवार के बाहर

कभी "रैनबसेरा"

अनेक मे होना - उन अनेक में के बीच जो जीवित है।

लगा - जहां हर कोई किसी के भी नजदीक हो सकता है, दूरी बना सकता है, सुन सकता है और दूर से सुनने के अहसास ले सकता है। कई बातें एक साथ चल रही है।

सही मायने में - जब कोई अपने किसी वक़्त को दोहरा रहा होता है तो उसी वक़्त कई और जीवन दोहराने मे चल गुजर रहे होते है। एक दूसरे से मिक्स होते हुए। किसी बड़ी आवाज़ को रचते हुये। समय को भूलाते हुए या समय को याद बनाते हुए। स्पेश किसी आर्केश्ट्रा की तरह हमेशा बज रहा है।




रात में गली के कौने का माहौल

मिलने वाले एक दूसरे के साथ पहचान में है। कई टाइम से मिल रहे होते हैं। एक दूसरे को सुन रहे होते है। इतनी पहचान के बाद भी वे हर मुलाकात मे हो रही या निकलती बातों से हमेशा अंजान रहते हैं। मिलने के स्वाद इसी मे छुपा है। माहौल कभी एकांत मे नहीं होता। ये जरूर है कि वे किसी एकांत के लिये बनाया व चुना जरूर जा रहा है। माहौल उस बाघी दुनिया मे उतार देता है जिसने किसी रात तो फैसला किया कि इसे चारदीवारी या छुपने की जगह पर नही बिताया जायेगा।



ट्रेन के रद्द हो जाने से पहले - स्टेशन का वेटिंग रूम
जहां लोग जितने भी समय रूक जाये मगर, हमेशा हमसफ़र ही बने रहते हैं। जो कभी भी एक दूसरे से बिछड़ सकते है। खुद में सबको लेकर।



जनमासा -
जहां पर कुछ समय के लिये लोगों को रोका जाता है
जैसे - किसी बरात को, किसी सरकारी महकमे को, मुसाफिरों को,



मार्किट के बीच में बना शीशमहल
यहां पर सिर्फ लोग रात गुजारने के लिये आते हैं। वे किसी अकेले का नहीं होता।



मण्डी मे बना चौकीदार का कमरा
जो कभी घर नहीं कहलाता और ना ही मण्डी।



किसी का कमरा

बिना दिवारो के है या फिर कई खिड़की दरवाजे हैं जहां से किसी एक ही गुट या माहौल को कहीं से भी, कभी भी हर कोई देख सकता है या देख रहा है।



सुनते हुए महसूस हुआ की हर सुनने पर इस जगह की कल्पना बदल जाती है। निजी बातें नजदीकी बड़ाती जाती है और समानो को यहां से वहां करती आवाज़ें और नजदीकी में चली आती है। निजी बातें रिलेशपन में डूब रही है और दूसरी ओर सक्रियेता का बड़ता वज़न है।

एक पोइंट पर आकर लगता है वो कमरा जहां पर हम रोज जाते हैं और रूकते हैं। वे हमारे जाने से पहले क्या होता है? उसके सामने से गुजरने वाले, उसपर कोई काम करने वाले, उसके बगल मे रहने वाले के क्या? हजारों रूप एक स्पेश अपने मे बसाये हुए है। असल मे देखने वाला, बरतने वाला, सुनने वाला किस भाव से उससे मिल रहा है से भी स्पेश के प्रति छवि की रूपरेखा बदल जाती है।

लख्मी

अधपका सबके बीच

मैं पूर्ण नहीं हूँ, अपूर्ण भी नहीं हूँ, आधा - अधूरा, अधपका सबके बीच हूँ। मेरा रूप कितना विशाल, घना और तरलता में है, ये सफ़र अनिश्चित्त है। समय सदेव उसके साथ बहस में रहता है।

हम इसी समय को रचने के मौके में खुद को उतारते हैं। कब आप बोडी को मौजूद करोगें और कब आप बोडी को छोड़कर ख्यालों मे आसमान को मापोगे? समय इन दोनों रूपो को एक साथ एकत्रित करता है। इस निरंतर व्यवस्थित होने से निकाल के अपने लिए एक अनिश्चितता को तैयार करना, अपने आसपास इसके लिए जगह खुद बनाना। अपने को रचने के लिए बेपरवाह समय को रचना है। रास्ते में जो मिलेगा, उसे भी अपने साथ बहा लेना है।

मेरा शरीर मुझसे अपेक्षा नहीं रखता की मैं उसकी निगरानी करता रहूँ या उसकी निगरानी में रहूँ। उसकी नंगन्ता से मेरे साथ रिश्ता ड़र से ना शुरू हो। मैं जितना पोशाक से बाहर अपने आप को देखने का उनमाद रखता हूँ उतना ही बे-पोशाक होकर भी। ये अस्त्तिव मेरे शरीर को सिर्फ नाम देता है, पहचान देता है पर उसकी बे-परहावा छलांगे मेरे लिये रिक्स भी है। वो रिक्स जो मैने अपने से चुना है जिसमें ध्वस्थ होने का ख़तरा और अवारा होने की गुज़ाइश है पर अपूर्ण मे ही रहना है जिसमे मैं जीता हूँ। वही मेरी रचना और मेरे समय की अनिचता है मेरी टकरार मेरे सध्यात के बनाए ढ़ाचे से है। 

शरीर मुझे कहाँ फैंकता है, समय के दायरों का उल्घन करने की कोशिश करूँ तो कहाँ पहुँचता हूँ किसको रचने मे निकलता हूँ।
अनफिनिश हूँ और अपने आपको अनफिनिश रखने की कोशिश मे हूँ। इस अहसास से निरंतर अपने आपको रिवेंट करने में हूँ। मेरा समय अनिश्चिता मे है। ये कहीं पर टिकने या टिक जाने की बहस मे नही है। वो इस कि एक भाषा ढूंढ रहा है अपने आपको अपूरता मे चुनना वो थकान है जो मुझे तलाशती है, मैं जिसे तलाशता हूँ। मेरे पैर कहीं ले जायेगे और मेरा मूवमेंट उसको छोड़ देगा, मैं उस फलसखे से टकराता है। जो कहता है कि अस्थिर हो जाना समय का अस्थिर होना नहीं है। ये समय, मेरे अपनाये समय से बहस मे है। जो मुझमे फिट नहीं होता मगर मैं इस अनफिट से जीने की लरक मे चला जाता हूँ।

फिट ना होना, उसको लुफ्ट मे रखना नहीं है बल्कि वही जीवन को बना कर रखना है।

लख्मी