Monday, August 24, 2009
लकीरों से बने चित्र
वो छाप जो हम एक कच्चेपन से अपने पीछे छोड़ते जाते हैं। वो यकीनन एक बार हमारे सम्मुख आती है। जिसे सोच के हम चकित रह जाते हैं और समय की कर्द करने लग जाते है। वो समय जो हमारे टूटने और बनने का गवाह है जिससे हम खुद को भी नहीं छुपा सकते।
राकेश
जाने की जल्दी हैं
मुक्त जीवन ....
परछाइयों तले
परछाइयों तले हम जीवन की अनेक कशमकशो से भिड़ते रहते है। कभी हमारी चाहतें कुचल जाती है और कभी ये सम्पन्न हो जाती है फिर इस सम्पन्नयता के बाद जीवन का पहिया चलता है और लोगों में जीने की जिद् दोबारा से ऊजागर होती है। ये जिद् कभी नस्ट नहीं होती और न कभी पैदा होती है। वो तो खूद ही किसी न किसी शख़्स को तलाश लेती है।
राकेश
Saturday, August 22, 2009
जादू क्या है?
हर किसी के लिये ये शब्द एक अंजान दुनिया और आसानी से न अपनाने वाली धारा के दरवाजे के समान है। जिसकी तरफ इंसान का खिंचना जैसे की बहुत ढंग से हो जाता है क्यों? हर कोई एक उम्मीद लगाकर रखता है कि सामने से कुछ जादू होगा और हाथों मे वो आ जायेगा जिसकी कल्पना पहले से नहीं की हुई थी। वो चला आयेगा जिसे शरीर ने पहले छुआ नहीं है और वो नज़र आयेगा जिसकी कोई छवि नहीं है।
जादू - इसकी जरूरत क्या है समाज़ मे? खैर, ये सवाल समाज के लिये भी क्यों है? जादू की जरूरत क्या है मूलधारा मे जीते हुए शख्स के लिये? आँखों के साथ नज़ारों का रिश्ता, शरीर का साथ जगहों का रिश्ता और बातों के साथ मे सवालों का रिश्ता - इन सब को क्यों सोचते हुए चलना पड़ता है?
हम मानकर चलते हैं कि जादू तो एक खेल का नाम है मगर इसमे छुपे अहसासों का खेल कुछ और है। एक ज़िन्दगी जिसे रूटीन मे बाँधा गया है वो आम ज़िन्दगी बन जाती है और जो रूटीन में नहीं शामिल हो पाता उसे जादू नाम दे दिया जाता है। हम और हमारे शरीर के साथ किये जाने वाले कुछ करतब जो हर कल्पना को मोड़ देते हैं, वही मोड़ जादू है। यहाँ पर जैसे हर कोई जादू करना और दिखाना चाहता है लेकिन ये हो कैसे सकता है?
इसी सवाल पर आकर जैसे सब कुछ रुक जाता है। क्या हमने किया है कभी खुद के साथ जादू? कैसे? लोग एक-दूसरे को कैसे ये जादू दिखा रहे हैं?
लख्मी
जादू - इसकी जरूरत क्या है समाज़ मे? खैर, ये सवाल समाज के लिये भी क्यों है? जादू की जरूरत क्या है मूलधारा मे जीते हुए शख्स के लिये? आँखों के साथ नज़ारों का रिश्ता, शरीर का साथ जगहों का रिश्ता और बातों के साथ मे सवालों का रिश्ता - इन सब को क्यों सोचते हुए चलना पड़ता है?
हम मानकर चलते हैं कि जादू तो एक खेल का नाम है मगर इसमे छुपे अहसासों का खेल कुछ और है। एक ज़िन्दगी जिसे रूटीन मे बाँधा गया है वो आम ज़िन्दगी बन जाती है और जो रूटीन में नहीं शामिल हो पाता उसे जादू नाम दे दिया जाता है। हम और हमारे शरीर के साथ किये जाने वाले कुछ करतब जो हर कल्पना को मोड़ देते हैं, वही मोड़ जादू है। यहाँ पर जैसे हर कोई जादू करना और दिखाना चाहता है लेकिन ये हो कैसे सकता है?
इसी सवाल पर आकर जैसे सब कुछ रुक जाता है। क्या हमने किया है कभी खुद के साथ जादू? कैसे? लोग एक-दूसरे को कैसे ये जादू दिखा रहे हैं?
लख्मी
Friday, August 21, 2009
इस बार का मुद्दा था घर
दस साथी एक बार फिर से बैठ गए थे सवालों और कल्पनाओं को एक दूसरे के समीप लाने के लिए। सभी अपना -अपना तर्क उसमे डाल रहे थे घर को समझना क्या है और उसे बनाना क्या है? इस सवाल को लेकर बहस मे उतरने की कोशिश चल रही थी।
सभी ने इस सवाल से अपनी बातचीत को शुरू किया। एक साथी अपने साथ मे अपने घर का नक्शा लेकर आया हुआ था। जिसमें सब कुछ पहले से ही तय था मगर इस बार उसने अपने घर के नक्शे मे एक हॉल यानि पचास लोगों के एक साथ बैठने की कल्ना की थी जिसको वो अपने घर के नक्शे मे देखना और बनाना चाहता था। उसने कई बार अपने इस नक्शे को बनाया था और कई बार अलग - अलग लोगों से उसे बनवाया भी था। जो भी उनके घर में चाहें मेहमान बनकर आता या कोई भी पड़ोसी की हैसियत से आता वो सभी को वो नक्शा दिखाकर उसको पूरा करने मे जुट जाते होगें। लेकिन यहाँ पर वो नक्शे को नहीं अपनी कल्पना को रखना चाहते थे।
उन्होंने कहा, "हमारे घर को जब भी हम बनवाने की सोचते हैं तो चाहैं उसे नया बनवाया जाये या फिर उसकी मरममत करवाई जाये मतलब तो एक ही रहता है। उसके अन्दर परिवार को सोचना है और अगर उसके साथ मे ज्यादा से ज्यादा सोचेगें भी तो किसी किश्म का रोज़गार या फिर हद से हद कोई प्रोग्राम। लेकिन ये सब जुड़ते हैं परिवार से ही। तो इसमे हमारा घर कहाँ है? वो तो गुज़ारा करने की जगह बन जाती है। इसको अगर तोड़ना है तो हम कैसे तोड़ सकते हैं? क्या घर रहने, कमाने और खुशी देने के अवसरों का कमरा है? मैंने कोशिश किया है कि मकान को थोड़ा शोहरूम, थोड़ा सिनेमा, थोड़ा रहना और थोड़ा अवसर के रूप मे देखने की। उसमे अगर मुझे कुछ सोचना है तो क्या सोचना होगा?"
उसके नक्शे मे काटा - पीटी बहुत थी। कहीं - कहीं पर तो कुछ गोले भी बने हुए थे। कुछ साफ-सपाट था तो कहीं पर कुछ लिखा हुआ था। उनके पास मे एक फोटो एलबम भी थी जिसमे घर की कुछ तस्वीरें थी जो ज्यादातर घरों मे होती सफेदी की थी। उसमे कमरों का साइज़ बहुत बड़ा था। जिसे वो दिखाकर अपनी कल्पना को छवि दे रहे थे।
उसपर उन्होंने कहा, "क्या हम अपने घर को एक दिन शादी हॉल, एक दिन प्लेहाउस, एक दिन खाना खिलाने की जगह मानकर नहीं रह सकते, इससे क्या हमारा घर देखने का नज़रिया बदल जायेगा?"
इस सवाल के बाद में बातचीत का आधार खाली घर और उसकी अन्दर की दस्तकारी को सवारने और दोबारा से बनाने के अलावा कुछ और भी था। जैसे - घर को खाली रहने और किसी और को सोचने के लिये नहीं था।
तभी एक साथी ने अपनी बात को कहा, “घर को इतना बड़ा पहले से क्यों बना लिया कि वो सोचने के मुद्दे बन गया। क्या बिना कुछ ज्यादा सोचे हम अपने घर के आकार को बदल नहीं सकते? हर मौके पर घर बदलता है। उसकी सजावट से लेकर उसके आने - जाने के रास्ते भी कुछ हद तक बदल जाते हैं फिर क्यों इस सवाल को लेकर इतना बड़ा किया जा रहा है?”
ये सवाल इस महकमे में आते ही सब अपनी हुंकारी सी भरने लगे। ये दोनों ही मुद्दों में खामोशी और बहस को लेने के लिये तैयार था। एक साथी ने कुछ पन्ने अपनी जैब से निकाले और दिखाते हुए कहने लगे, “ये सब एक किताब के पन्ने हैं, जिसमें छत को भगवान और इंसान के बीच का माना गया है। कहते हैं कि जमीन अनाज़ से जोड़ती है और छत आसमान का मान पाती है। इन दोनों के बीच मे इंसान को रखा गया है। इसी को हम घर की सूरत मे देखते हैं।"
सवालों की दिशा चाहे कुछ भी हो मगर उसका अहसास बराबर था। हम ढाँचों को कैसे देखते हैं? वे ढाँचें जिनमें हम रहते हैं या रहने की कल्पना करते हैं या फिर जिनको हम कोई नाम नहीं दे पाते। हमारे रहने के ढाँचें समाजिक ढाँचों की तस्वीर मे हम वक़्त पनपते रहते हैं और सार्वजनिक ढाँचें चुनाव मे रहते हैं मगर जो ढाँचा बनाने का सवाल यहाँ पर उभरता है उसमें इन दोनों का मेल है तो कभी इन दोनों से अलग कुछ पाने की अपेक्षा रखता है।
सवाल जारी था . . .
ये कुछ गहरे और बड़े सवाल उठाने की कग़ार चल पड़ी है....
मुलाकात का सिलसिला भी - ये सिलसिला कई सवाल लेने की कोशिश में है जो बौद्धिक और समाजिक ढाँचों के बने - बनाये स्तर को दोबारा से समझने और उनके साथ एक खास तरह से मिलने का अहसास बयाँ कर पाये। हम जहाँ रहते हैं और जहाँ जाना चाहते हैं उन दोनों के बीच में क्या देखते हैं? खुद के जीवन के कुछ सवालों से ये गुट समझने की कोशिश करता है। ये शायद, सबके जीवन से वास्ता रखता है।
निरंतर.....
लख्मी
सभी ने इस सवाल से अपनी बातचीत को शुरू किया। एक साथी अपने साथ मे अपने घर का नक्शा लेकर आया हुआ था। जिसमें सब कुछ पहले से ही तय था मगर इस बार उसने अपने घर के नक्शे मे एक हॉल यानि पचास लोगों के एक साथ बैठने की कल्ना की थी जिसको वो अपने घर के नक्शे मे देखना और बनाना चाहता था। उसने कई बार अपने इस नक्शे को बनाया था और कई बार अलग - अलग लोगों से उसे बनवाया भी था। जो भी उनके घर में चाहें मेहमान बनकर आता या कोई भी पड़ोसी की हैसियत से आता वो सभी को वो नक्शा दिखाकर उसको पूरा करने मे जुट जाते होगें। लेकिन यहाँ पर वो नक्शे को नहीं अपनी कल्पना को रखना चाहते थे।
उन्होंने कहा, "हमारे घर को जब भी हम बनवाने की सोचते हैं तो चाहैं उसे नया बनवाया जाये या फिर उसकी मरममत करवाई जाये मतलब तो एक ही रहता है। उसके अन्दर परिवार को सोचना है और अगर उसके साथ मे ज्यादा से ज्यादा सोचेगें भी तो किसी किश्म का रोज़गार या फिर हद से हद कोई प्रोग्राम। लेकिन ये सब जुड़ते हैं परिवार से ही। तो इसमे हमारा घर कहाँ है? वो तो गुज़ारा करने की जगह बन जाती है। इसको अगर तोड़ना है तो हम कैसे तोड़ सकते हैं? क्या घर रहने, कमाने और खुशी देने के अवसरों का कमरा है? मैंने कोशिश किया है कि मकान को थोड़ा शोहरूम, थोड़ा सिनेमा, थोड़ा रहना और थोड़ा अवसर के रूप मे देखने की। उसमे अगर मुझे कुछ सोचना है तो क्या सोचना होगा?"
उसके नक्शे मे काटा - पीटी बहुत थी। कहीं - कहीं पर तो कुछ गोले भी बने हुए थे। कुछ साफ-सपाट था तो कहीं पर कुछ लिखा हुआ था। उनके पास मे एक फोटो एलबम भी थी जिसमे घर की कुछ तस्वीरें थी जो ज्यादातर घरों मे होती सफेदी की थी। उसमे कमरों का साइज़ बहुत बड़ा था। जिसे वो दिखाकर अपनी कल्पना को छवि दे रहे थे।
उसपर उन्होंने कहा, "क्या हम अपने घर को एक दिन शादी हॉल, एक दिन प्लेहाउस, एक दिन खाना खिलाने की जगह मानकर नहीं रह सकते, इससे क्या हमारा घर देखने का नज़रिया बदल जायेगा?"
इस सवाल के बाद में बातचीत का आधार खाली घर और उसकी अन्दर की दस्तकारी को सवारने और दोबारा से बनाने के अलावा कुछ और भी था। जैसे - घर को खाली रहने और किसी और को सोचने के लिये नहीं था।
तभी एक साथी ने अपनी बात को कहा, “घर को इतना बड़ा पहले से क्यों बना लिया कि वो सोचने के मुद्दे बन गया। क्या बिना कुछ ज्यादा सोचे हम अपने घर के आकार को बदल नहीं सकते? हर मौके पर घर बदलता है। उसकी सजावट से लेकर उसके आने - जाने के रास्ते भी कुछ हद तक बदल जाते हैं फिर क्यों इस सवाल को लेकर इतना बड़ा किया जा रहा है?”
ये सवाल इस महकमे में आते ही सब अपनी हुंकारी सी भरने लगे। ये दोनों ही मुद्दों में खामोशी और बहस को लेने के लिये तैयार था। एक साथी ने कुछ पन्ने अपनी जैब से निकाले और दिखाते हुए कहने लगे, “ये सब एक किताब के पन्ने हैं, जिसमें छत को भगवान और इंसान के बीच का माना गया है। कहते हैं कि जमीन अनाज़ से जोड़ती है और छत आसमान का मान पाती है। इन दोनों के बीच मे इंसान को रखा गया है। इसी को हम घर की सूरत मे देखते हैं।"
सवालों की दिशा चाहे कुछ भी हो मगर उसका अहसास बराबर था। हम ढाँचों को कैसे देखते हैं? वे ढाँचें जिनमें हम रहते हैं या रहने की कल्पना करते हैं या फिर जिनको हम कोई नाम नहीं दे पाते। हमारे रहने के ढाँचें समाजिक ढाँचों की तस्वीर मे हम वक़्त पनपते रहते हैं और सार्वजनिक ढाँचें चुनाव मे रहते हैं मगर जो ढाँचा बनाने का सवाल यहाँ पर उभरता है उसमें इन दोनों का मेल है तो कभी इन दोनों से अलग कुछ पाने की अपेक्षा रखता है।
सवाल जारी था . . .
ये कुछ गहरे और बड़े सवाल उठाने की कग़ार चल पड़ी है....
मुलाकात का सिलसिला भी - ये सिलसिला कई सवाल लेने की कोशिश में है जो बौद्धिक और समाजिक ढाँचों के बने - बनाये स्तर को दोबारा से समझने और उनके साथ एक खास तरह से मिलने का अहसास बयाँ कर पाये। हम जहाँ रहते हैं और जहाँ जाना चाहते हैं उन दोनों के बीच में क्या देखते हैं? खुद के जीवन के कुछ सवालों से ये गुट समझने की कोशिश करता है। ये शायद, सबके जीवन से वास्ता रखता है।
निरंतर.....
लख्मी
Thursday, August 20, 2009
रोज़मर्रा के दृश्य
मन की शान्ती के लिये इंसान क्या-क्या नही` करता। वो कभी हद में रहकर तो कभी हद से बाहर अपने को पूरा करने के प्रयास करता है। उसका दायरा चाहे जितना भी छोटा या बड़ा क्यों न हो वो सफलता के लिये पल-पल बनता और बिख़रता है।
दायरे कभी आप को भ्रम में नहीं डालते बल्की ये तो आपकी नज़र का दृष्टीकोण बनकर एक पड़ाव तक ले जाते हैं इसके आगे देखना है तो जीवन के सभी कारणों को समझना होगा जिनसे हमारी और हमारे शरीर के भौतिक विकास के साथ दार्शनिक प्रवृतियाँ जन्म लेती हैं।
समय नहीं ठहरता ठहर जाती है उसके साथ चलने वाली परछाईयाँ जिनकी भीड़ में हम अपने आप अकेला नहीं समझते। लगता है जैसे कोई कारवां साथ चल रहा है जिसमें हर जाना-अंजाना शख्स हमारा हमसफ़र है।
इंसान और जानवर का रिश्ता ऐसा है जैसे मिट्टी और पानी दोनों एक-दूजे की जरूरत है। ये विभन्नता कभी-कभी एक ही सूत्र में आसमान और जमीन को मोती की तरह पिरो देती है।
दुर्घटना वो सच है जो आपके कंट्रोल में होती है जरा कंट्रोल हटा और अंत का दरवाजा खुल जाता है। इस सच के अनुरूप ज़िन्दगी की किमत अमूल्य है।
ज़िन्दगी क्या है इक तमाशा है इस तमाशे में ज़िन्दगी बेहताशा है। जो चाहे खेल सकता है। सबके हाथों में कोई न कोई चौसर का पाशा है। शहर में हर पल कुछ नया सा है। चेहरों पर नकाब है, हर नकाब एक दिलाशा है।
शुक्रबाजार की भीड़ दशहरे के मेले से कम ही है। यहाँ भी टकरा जाते हैं लोग उथल-पुथल का मंजर उतरते समय का गवाह है। दूकाने लोग रोशनियाँ,आवाजें चीजें फैरीवाले सडक पर मुँह लटकाये हुए एक कुत्ता भी अपनी जगह ठहरा हुआ है बस, मौत का लिबास पहने न जाने कोई न टूटने वाली नींद में चार काँधों पर सवार होकर चला जा रहा है। कौन रोके उसे, कौन टोके उसे, उसे उस की मन्जिल मिल गई। बस, ये हम बाकी रह गये।
गलियाँ छोटी पड़ जाती, जब आँगन बड़े हो जाते हैं।
हाथ छोटे पड़ जाते हैं, जब सपना बड़ा हो जाता है।
जबाब कम पड़ जाते हैं, जब सवाल बड़े हो जाते हैं।
अंधेरे कम हो जाते हैं, जब उजाले करीब आ जाते हैं।
तोहफे कम पड़ जाते हैं, जब सौगाते मिल जाती हैं।
कोने कम पड़ छोटे हो जाते हैं, जब दुनिया मिल जाती है।
यादें धूंधली हो जाती है, जब हकिकत रंग लाती है।
रात ढ़ल जाती है, जब सवेरा हो जाता है।
खामोशी टूट जाती है, जब आवाज कोई होती हैं।
आँखे देखने लग जाती हैं, जब पलके उठ जाती हैं।
इंतजार बड़ जाता है, जब मौज़ूदगी गायब होती है।
पंछी उड़ते फिरते हैं, जब मौसम हंसीन होता है।
नसीब बदल जाते है, जब कुदरत मेहरबान होती है।
आज़ादी लुभाती है जब सांसे आज़ाद होती है।
आंधियाँ इतराती है, जब तूफान आता है।
नदिया मुड़ जाती है, जब रास्ते जटील होते हैं।
छवि बन जाती हैं, जब रंग विभिन्न होते हैं।
दोस्त बन जाते हैं, जब इरादे नेक होते हैं।
जब रास्ते अलग हो जाते हैं तो चिन्ह बदल जाते हैं।
हवा-हवा नहीं , रोशनी-रोशनी नहीं ,चीज़ें-चीज़ें नहीं ,मैं-मैं नहीं तो और क्या है?
सब बे-मतलब मगर दुनिया कोई बनावटी माहौल तो नहीं जिसे मिट्टी के पुतले और इन पुतलों में ऊर्जा ठुसी हो। जो किसी के ईशारों पर नाच रहे हैं। इंसान नाम की कोई चीज़ हमने सादियों पहले सुनी थी। अब तो इंसान की खाल में अधमरे शरीर ठुस रखे हैं जिनमें नमी बनाये रखने के लिये जीवन छिड़का जाता है।
सुनने के लिये कान बहुत हैं देखने के लिये आँखें बहुत हैं। पाने के लिये चाहत बहुत है मगर देने के लिये हाथ कम हैं। नये जमाने और नई तकनिकों के बीच में इंसान ने अपने नैतिकता को ख़त्म ही कर दिया है इसलिये शायद सब फर्जी हो गया है। भूख को भी टाटा किया जाता है प्यास का भी नाम पुँछा जाता है।
मैं कब क्या सीखा ये भुल गया मगर याद रहा की मैं क्या सीखा। जब मुझे ये अहसास हुआ की मैं किसी से कुछ पा रहा हूँ तो मेरे कच्चेपन को मजबूती मिली। घर मे माँ-बाप,स्कूल में टीचर, रास्ते में दोस्त सब किसी न किसी तरह मेरी पूँजी बनते गये। मन की सेल्फों में जैसे को खजाना भर गया हो। मैं तैय्यार हो गया मेरे पीछे कई लोग साया बन कर चले। जिन्होनें मुझे आज में धकेला। वो मेरे पास नहीं तो क्या हुआ उनकी अनमोल सौगातें तो हैं जो सीखते सिखाते मेरी झोली में आ गीरी।
राकेश
दायरे कभी आप को भ्रम में नहीं डालते बल्की ये तो आपकी नज़र का दृष्टीकोण बनकर एक पड़ाव तक ले जाते हैं इसके आगे देखना है तो जीवन के सभी कारणों को समझना होगा जिनसे हमारी और हमारे शरीर के भौतिक विकास के साथ दार्शनिक प्रवृतियाँ जन्म लेती हैं।
समय नहीं ठहरता ठहर जाती है उसके साथ चलने वाली परछाईयाँ जिनकी भीड़ में हम अपने आप अकेला नहीं समझते। लगता है जैसे कोई कारवां साथ चल रहा है जिसमें हर जाना-अंजाना शख्स हमारा हमसफ़र है।
इंसान और जानवर का रिश्ता ऐसा है जैसे मिट्टी और पानी दोनों एक-दूजे की जरूरत है। ये विभन्नता कभी-कभी एक ही सूत्र में आसमान और जमीन को मोती की तरह पिरो देती है।
दुर्घटना वो सच है जो आपके कंट्रोल में होती है जरा कंट्रोल हटा और अंत का दरवाजा खुल जाता है। इस सच के अनुरूप ज़िन्दगी की किमत अमूल्य है।
ज़िन्दगी क्या है इक तमाशा है इस तमाशे में ज़िन्दगी बेहताशा है। जो चाहे खेल सकता है। सबके हाथों में कोई न कोई चौसर का पाशा है। शहर में हर पल कुछ नया सा है। चेहरों पर नकाब है, हर नकाब एक दिलाशा है।
शुक्रबाजार की भीड़ दशहरे के मेले से कम ही है। यहाँ भी टकरा जाते हैं लोग उथल-पुथल का मंजर उतरते समय का गवाह है। दूकाने लोग रोशनियाँ,आवाजें चीजें फैरीवाले सडक पर मुँह लटकाये हुए एक कुत्ता भी अपनी जगह ठहरा हुआ है बस, मौत का लिबास पहने न जाने कोई न टूटने वाली नींद में चार काँधों पर सवार होकर चला जा रहा है। कौन रोके उसे, कौन टोके उसे, उसे उस की मन्जिल मिल गई। बस, ये हम बाकी रह गये।
गलियाँ छोटी पड़ जाती, जब आँगन बड़े हो जाते हैं।
हाथ छोटे पड़ जाते हैं, जब सपना बड़ा हो जाता है।
जबाब कम पड़ जाते हैं, जब सवाल बड़े हो जाते हैं।
अंधेरे कम हो जाते हैं, जब उजाले करीब आ जाते हैं।
तोहफे कम पड़ जाते हैं, जब सौगाते मिल जाती हैं।
कोने कम पड़ छोटे हो जाते हैं, जब दुनिया मिल जाती है।
यादें धूंधली हो जाती है, जब हकिकत रंग लाती है।
रात ढ़ल जाती है, जब सवेरा हो जाता है।
खामोशी टूट जाती है, जब आवाज कोई होती हैं।
आँखे देखने लग जाती हैं, जब पलके उठ जाती हैं।
इंतजार बड़ जाता है, जब मौज़ूदगी गायब होती है।
पंछी उड़ते फिरते हैं, जब मौसम हंसीन होता है।
नसीब बदल जाते है, जब कुदरत मेहरबान होती है।
आज़ादी लुभाती है जब सांसे आज़ाद होती है।
आंधियाँ इतराती है, जब तूफान आता है।
नदिया मुड़ जाती है, जब रास्ते जटील होते हैं।
छवि बन जाती हैं, जब रंग विभिन्न होते हैं।
दोस्त बन जाते हैं, जब इरादे नेक होते हैं।
जब रास्ते अलग हो जाते हैं तो चिन्ह बदल जाते हैं।
हवा-हवा नहीं , रोशनी-रोशनी नहीं ,चीज़ें-चीज़ें नहीं ,मैं-मैं नहीं तो और क्या है?
सब बे-मतलब मगर दुनिया कोई बनावटी माहौल तो नहीं जिसे मिट्टी के पुतले और इन पुतलों में ऊर्जा ठुसी हो। जो किसी के ईशारों पर नाच रहे हैं। इंसान नाम की कोई चीज़ हमने सादियों पहले सुनी थी। अब तो इंसान की खाल में अधमरे शरीर ठुस रखे हैं जिनमें नमी बनाये रखने के लिये जीवन छिड़का जाता है।
सुनने के लिये कान बहुत हैं देखने के लिये आँखें बहुत हैं। पाने के लिये चाहत बहुत है मगर देने के लिये हाथ कम हैं। नये जमाने और नई तकनिकों के बीच में इंसान ने अपने नैतिकता को ख़त्म ही कर दिया है इसलिये शायद सब फर्जी हो गया है। भूख को भी टाटा किया जाता है प्यास का भी नाम पुँछा जाता है।
मैं कब क्या सीखा ये भुल गया मगर याद रहा की मैं क्या सीखा। जब मुझे ये अहसास हुआ की मैं किसी से कुछ पा रहा हूँ तो मेरे कच्चेपन को मजबूती मिली। घर मे माँ-बाप,स्कूल में टीचर, रास्ते में दोस्त सब किसी न किसी तरह मेरी पूँजी बनते गये। मन की सेल्फों में जैसे को खजाना भर गया हो। मैं तैय्यार हो गया मेरे पीछे कई लोग साया बन कर चले। जिन्होनें मुझे आज में धकेला। वो मेरे पास नहीं तो क्या हुआ उनकी अनमोल सौगातें तो हैं जो सीखते सिखाते मेरी झोली में आ गीरी।
राकेश
Wednesday, August 12, 2009
कहाँ से कहाँ जाने का रास्ता...
250 से 300 रिक्शे यहाँ से हर रोज़ 12 घंटे के लिए किराये पर चलाये जाते हैं। हर आदमी का यहाँ किराये का ही सही लेकिन अपना रिक्शा है। इस बस्ती की पहचान इसी से है। देखने मे ये बस्ती भले ही छोटी व गहरी लगे लेकिन शहर मे इसका अपना ही ख़ास फैलाव है। इन्ही रिक्शों के जरिये ये जगह पूरी पुरानी दिल्ली और नई दिल्ली के बीच मे घूमती है।
यहाँ पर किराये पर 12 घंटे के हिसाब से रिक्शा मिलता है। 30 से 35 रुपये के किराये में इसकी देखभाली भी करनी होती है। इनका किराये पर ले जाने का वक़्त भी समान नहीं है। कोई सुबह 6 बजे ले जाता है तो कोई शाम के 3 बजे। 12 घंटो के हिसाब से ये रात के 4 बजे तक इन सड़कों पर अपनी हवा मे रहते हैं।
खाली यही पहचान है इस जगह की ये भी तय नहीं है। पंत अस्पताल के डीडीए फ्लैट की बाऊंडरी से सटी ये बस्ती उस 12 फुट की दीवार से ऊपर जाती ही नहीं है। इस बस्ती के हर बसेरे की छत बाऊंडरी के उस दूसरी तरफ से बिलकुल भी नज़र नहीं आती। बाकि तो इसको पुराने दरवाज़े, खिड़कियाँ और प्लाईवुड बैचने वाले छुपा देते हैं और ये जगह अंदर की ही होकर रह जाती है।
अपने अंदर कई ऐसे किस्से व अनुभवों को रखने मे अमादा रहती है कि कोई भी यहाँ पर ख़ुद को बनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ सकता। ये एक ख़ास तरह के गुलेल की तरह से काम करती है। अपनी तरफ मे खींचकर बाहर फैंकना और फिर अपना आसरा खोज़ना ये यहाँ की पूंजी है। यही करने लोग यहाँ पर कहाँ से आये हैं वे तय नहीं है।
सलाउद्दीन दिल्ली ने आने के बाद पूरे तीन महीने बारह खम्बा रोड़ के पुल के नीचे बनी मस्ज़िद मे रहे। वहीं आने वाले लोगों के जूते-चप्पलो को संभालते। वहाँ पर लगते बाज़ार मे कुछ सहयोग कर अपना आमदनी का किनारा बना लेते। ये करना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं था। मगर वो तो कुछ और ही चाहत रखते थे।
दिल्ली मे आने का कारण यहाँ पर घूमना था। वे दिल्ली मे घुमना चाहते थे लेकिन काम करने के साथ-साथ। इससे पहले ये बम्बई मे 6 महीने रहे। वहाँ पर भी पटना से आये थे। असल मे ये हैं भी पटना के जबरदस्त पान खाने वाले।
ये मस्ज़िद के पास मे लगते बाज़ार मे से पन्नियाँ, पेपर बीनकर यहीं पर गोदाम मे बैचा करते थे। फिर तो जैसे इनकी हर शाम गोदाम मे ही बितती थी। क्योंकि इनके जैसे कई और लोग थे यहाँ पर जो परदेशी थे। इसी जगह को अपना देश मानकर काम करने की जिद्द मे लगे रहते। यहाँ से बीना वहाँ रखा, वहाँ से उठाया यहाँ बैका। इसी धून मे हर दिन, सप्ताह और महीना बीत जाता।
वे ख़ुद को दोहराते हुए जब बोलते जब गोदाम और कुल्लर बस्ती के बीच एक गऊशाला और मैदान का ही फर्क था। घरों से काम करने और कुड़े के चिट्ठे लगाने का ये जमाआधार साफ़ नज़र आता।
यहाँ आने के बाद मे जिनके पास से ये रिक्शा किराये पर उठाते हैं उनके पास खाली 40 रिक्शे हुआ करते थे। मगर पुलिस वालों से जानकारी रखकर उन्होनें यहाँ रिक्शों की फौज़ जुटाली है। वे कहते हैं, “आज देखों ऊपर वाले के कर्म से 300 से ज्यादा रिक्शे हैं"
ये रिक्शे पुलिस वालों के कर्म की मेहरबानी है। पुलिस वाले जब किसी रिक्शे को उठाते उन रिक्शों को ये कम से कम किमत पर यहाँ पर ले आते और यहाँ पर रिक्शों का आम्बार खड़ा हो जाता।
ये तो दोहपरी का वक़्त था तो लोगों को कम देखना पड़ रहा था यहाँ कि तो अब सुबह हुई है। लोग तो अब अपने काम पर निकले हैं। अपने-अपने रिक्शों की सफाई करके किराये से कमाने की जोराजोरी के मथने की तैयारी कर रहे हैं।
वे जाते-जाते बोले, “यहाँ पर कैसे कोई रिक्शा किराये पर मिलता ऊ तो हमें पता नहीं है लेकिन हमने बहुत जोर लगाया है यहाँ पर टिकने के लिए। पूरे रिक्शो की दिन के शुरू होते ही सफाई की है। इनके पीछे 786 लिखा है। तब जाकर हम यहाँ के बने हैं। लेकिन यहाँ की एक बात बहुत निराली है चाहें कोई भी कहीं से भी आया हो अगर वो क्षमता रखता है कुछ करने की तो ये जगह खुली हुई है सबके लिए नहीं तो जाओ कुछ और तलाशों।"
वे कभी अपना रिक्शा खरीदने की नहीं कहते। कहते हैं, “शायद 6 महीने के बाद मे कहीं और चला जाऊगां। यहाँ पर तो मैं सालों रूक गया पता नहीं कैसे, अब कहीं और चलेगें।"
लख्मी
यहाँ पर किराये पर 12 घंटे के हिसाब से रिक्शा मिलता है। 30 से 35 रुपये के किराये में इसकी देखभाली भी करनी होती है। इनका किराये पर ले जाने का वक़्त भी समान नहीं है। कोई सुबह 6 बजे ले जाता है तो कोई शाम के 3 बजे। 12 घंटो के हिसाब से ये रात के 4 बजे तक इन सड़कों पर अपनी हवा मे रहते हैं।
खाली यही पहचान है इस जगह की ये भी तय नहीं है। पंत अस्पताल के डीडीए फ्लैट की बाऊंडरी से सटी ये बस्ती उस 12 फुट की दीवार से ऊपर जाती ही नहीं है। इस बस्ती के हर बसेरे की छत बाऊंडरी के उस दूसरी तरफ से बिलकुल भी नज़र नहीं आती। बाकि तो इसको पुराने दरवाज़े, खिड़कियाँ और प्लाईवुड बैचने वाले छुपा देते हैं और ये जगह अंदर की ही होकर रह जाती है।
अपने अंदर कई ऐसे किस्से व अनुभवों को रखने मे अमादा रहती है कि कोई भी यहाँ पर ख़ुद को बनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ सकता। ये एक ख़ास तरह के गुलेल की तरह से काम करती है। अपनी तरफ मे खींचकर बाहर फैंकना और फिर अपना आसरा खोज़ना ये यहाँ की पूंजी है। यही करने लोग यहाँ पर कहाँ से आये हैं वे तय नहीं है।
सलाउद्दीन दिल्ली ने आने के बाद पूरे तीन महीने बारह खम्बा रोड़ के पुल के नीचे बनी मस्ज़िद मे रहे। वहीं आने वाले लोगों के जूते-चप्पलो को संभालते। वहाँ पर लगते बाज़ार मे कुछ सहयोग कर अपना आमदनी का किनारा बना लेते। ये करना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं था। मगर वो तो कुछ और ही चाहत रखते थे।
दिल्ली मे आने का कारण यहाँ पर घूमना था। वे दिल्ली मे घुमना चाहते थे लेकिन काम करने के साथ-साथ। इससे पहले ये बम्बई मे 6 महीने रहे। वहाँ पर भी पटना से आये थे। असल मे ये हैं भी पटना के जबरदस्त पान खाने वाले।
ये मस्ज़िद के पास मे लगते बाज़ार मे से पन्नियाँ, पेपर बीनकर यहीं पर गोदाम मे बैचा करते थे। फिर तो जैसे इनकी हर शाम गोदाम मे ही बितती थी। क्योंकि इनके जैसे कई और लोग थे यहाँ पर जो परदेशी थे। इसी जगह को अपना देश मानकर काम करने की जिद्द मे लगे रहते। यहाँ से बीना वहाँ रखा, वहाँ से उठाया यहाँ बैका। इसी धून मे हर दिन, सप्ताह और महीना बीत जाता।
वे ख़ुद को दोहराते हुए जब बोलते जब गोदाम और कुल्लर बस्ती के बीच एक गऊशाला और मैदान का ही फर्क था। घरों से काम करने और कुड़े के चिट्ठे लगाने का ये जमाआधार साफ़ नज़र आता।
यहाँ आने के बाद मे जिनके पास से ये रिक्शा किराये पर उठाते हैं उनके पास खाली 40 रिक्शे हुआ करते थे। मगर पुलिस वालों से जानकारी रखकर उन्होनें यहाँ रिक्शों की फौज़ जुटाली है। वे कहते हैं, “आज देखों ऊपर वाले के कर्म से 300 से ज्यादा रिक्शे हैं"
ये रिक्शे पुलिस वालों के कर्म की मेहरबानी है। पुलिस वाले जब किसी रिक्शे को उठाते उन रिक्शों को ये कम से कम किमत पर यहाँ पर ले आते और यहाँ पर रिक्शों का आम्बार खड़ा हो जाता।
ये तो दोहपरी का वक़्त था तो लोगों को कम देखना पड़ रहा था यहाँ कि तो अब सुबह हुई है। लोग तो अब अपने काम पर निकले हैं। अपने-अपने रिक्शों की सफाई करके किराये से कमाने की जोराजोरी के मथने की तैयारी कर रहे हैं।
वे जाते-जाते बोले, “यहाँ पर कैसे कोई रिक्शा किराये पर मिलता ऊ तो हमें पता नहीं है लेकिन हमने बहुत जोर लगाया है यहाँ पर टिकने के लिए। पूरे रिक्शो की दिन के शुरू होते ही सफाई की है। इनके पीछे 786 लिखा है। तब जाकर हम यहाँ के बने हैं। लेकिन यहाँ की एक बात बहुत निराली है चाहें कोई भी कहीं से भी आया हो अगर वो क्षमता रखता है कुछ करने की तो ये जगह खुली हुई है सबके लिए नहीं तो जाओ कुछ और तलाशों।"
वे कभी अपना रिक्शा खरीदने की नहीं कहते। कहते हैं, “शायद 6 महीने के बाद मे कहीं और चला जाऊगां। यहाँ पर तो मैं सालों रूक गया पता नहीं कैसे, अब कहीं और चलेगें।"
लख्मी
Tuesday, August 4, 2009
लाईट केमरा एक्सन
सतपाल किसी एक रास्ते से गुज़रने पर वहाँ से वो कई चक्कर लगा दिया करता था। पुलिया के पास लगने वाले दैनिक बाज़ार का शौरगुल उसके सम्पर्क को तोड़ नहीं पाता था। वो पनी उधेड़बुन में लगा रहता। मोसमी के जूस का ठिया, चाय की खूशबू से वो चौराहा अपने पास से होकर जाने वाले शख़्सों के स्पर्श को महसूस करता।
गुब्बारे वाला बाजा बजाते हुये निकलता। जूस की दुकान के पास लगा मुर्गे काटने वाले का ठिया जो सुबह करीब दस बजे ही मुर्गियों की गर्दन पर छूरी रख देता था। वहीं चार कदमों की दूरी पर बड़ा सा कुड़ेदान था। जहाँ से मोटी-मोटी मक्खियाँ मंडराती हुई यहाँ-वहाँ घूमती फिरती। फिर सब्जियों रेहड़ी और लोहे का STD both जिस पर पान तम्बाकू चिप्स वगेहरा भी मिलते हैं। ये चौराहा सड़क के दोनों ओर को मुड़ता हुआ चला जाता है। रोजाना यहाँ की उथल-पुथल से टकराकर लोग निकलते हैं।
जहाँ एक-दूजे से निगाहें मिलाकर हर कोई कट जाता है अपने रास्ते को। लगातार आवारा आवाजे यहाँ बेफिक्र माहौल से जुझती रहती है। इस माहौल में होने के बाद भी सतपाल अपने अंतरद्वधों मे फंसा रहता है। वो हँसता है मुस्करता है मायूस भी होता है फिर अचानक उसके चेहरे के एक्सप्रेशन ही बदल जाते है। अगर कहीं रूक गया तो वो वहाँ से तस का मस भी नहीं होता। दिमाग चौबीसों घण्टे रट्टे लगाता रहता है वक़्त में बन रहे आँकड़ो का चार्ट उसके सामने जैसे कभी भी उभर आता है।
हमारी तरह उसे भी ऊर्जा सूरज की किरणों से मिलती है खाने के सभी पोस्टिक आहार से उस का शरीर भी बड़ता है। सतपाल की दैनिक ज़िन्दगी उसके रोज के चिन्तनमन्न से शूरू होती और कब किस रूप में ख़त्म होती ये पता नहीं चलाता।
शाम तक वो बहुत सी जगहों पर टहल कर आ जाता। पुराने दोस्तों से यूं ही अचानक मिलता और एक चौंकने वाले अन्दाज मे बर्ताव करता। सड़क का वो किनारा जहाँ से वो दस साल पहले स्कूल जाया करता था। बीच में बस स्टेंड भी है। ऑटो रिक्शा स्टेंड भी है। वही पुरानी फलो की दूकान भी है। चौराहे पर बना वो मंज़र आज भी है।
दोपहर की धूप उसके स्कूल के दिनों की याद दिलाती है। जब सुबह के स्कूल की लड़कियों की छुट्टी होती है तो आज भी उसी टाईम पर बाहर पुलिया पर आकर खड़ा हो जाता है। जो दोस्त उसे पहले से जानते है। वो अब उससे कट जाया करते। बस, कुछ ही दोस्त थे जो उसे समझते थे।
सतपाल एक दिन अपने पुराने दोस्त से टकराया, उसके चेहरे को भाँपने लगा दोनों मुस्कुराये, "अरे राकेश तू" सतपाल ने कहा उसके बाद। उसने भी सतपाल से हाथ मिलाया।
"सतपाल कैसा है तू? मैं तो ठीक हूँ, तू सुना कहाँ जा रहा है?”
"बस घर का कुछ सामान था वो ही लेने जा रहा हूँ।"
"अबे आज तो पेपर है, मेथ का"
राकेश हिचकिचा गया, "क्या बकवास कर रहा है। तू पागल है क्या?”
सतपाल हँसा, "अबे मैं पागल नहीं तू पगला गया है। देख मैं तो सेन्टर जा रहा हूँ तू आ जाना।" राकेश ने खट्टेपन से कहा- "कोन सा पेपर कोन सी क्लास?”
सतपाल बोला, "अरे भाई दसवीं और कोनसी?”
राकेश उसे समझाने का प्रयास करने लगा।
"देख भाई तू कुछ भूल रहा है। दसवी तो मैंने कब की पास करली है। मैथ मैं एक बार फेल हुआ। दूसरी पास कम्पार्टमेन्ट आई थी फिर मैं पास हो गया।"
माना के नम्बर कम थे पर पास होने की खुशी ज़्यादा थी। जैसे - तैसे दसवीं का ठप्पा लग गया यही बहुत है। सतपाल को इस बात का जरा भी झटका नहीं लगा। "अच्छा" कोई बात नहीं मैं तो जा रहा हूँ तूझे आना है तो चल।
दस साल पहले बीते दौर को सतपाल ने अभी भी ज़िन्दा कर रखा था। यादों में नहीं था ये मुझे यकिन था। अतीत उसके जहन में अन्धेरे में जल रही डिबिया की तरह था।
वही डिबिया उसे अपने उजाले में आज का समय दिखा रही थी। उसकी कामनाएँ मेरी नहीं थी। उम्मीद टूटी नहीं थी। वक़्त का साथ उसने नहीं छोड़ा था। पर शायद वक़्त उसे कही गुमनाम जगह छोड़ आया था।
दुनिया उसके लिये वैसी ही थी जैसी सब के लिये वो भी भूख प्यास जानता था। वो पुलिया की मुंडेरियों पर घण्टो बैठ करता था कभी सड़क के किसी कोने पर खड़ा होकर अपनी निगाहों को दूर - दूर तक ले जाता । फिर कुछ सोचने लगता। फिर दोबारा से हाथों की कोहनियों को मिला लेता और बड़ी पैचिदा हालात रिएक्ट करने लगता।
शायद ये दूनिया पागल होती तो कैसा होता किसी न कोई फिक्र न कोई डर होता। मगर इतना होने के बावज़ूद ये पापी पेट न होता तो सोने पर सुहागा होता।
वक़्त हर किसी के साथ अहतियात नहीं बरता। सतपाल शायद उन सभी हालातों से गुज़र रहा था। जहाँ से अच्छा खासा इंसान भी टूटने लगता है। सतपाल टूटने का नाम नहीं वो लड़ रहा था। अपनी दैनिक ज़िन्दगी से। वो निहत्था भी नहीं था। अभी उसने हथियार नहीं घेरे थे। अपने आप में कभी मोन तो कभी इस मोन को तोड़कर वो बाहार आ जाता। फिर यथार्थ श्रृखलाओं मे शामिल हो जाता।
ठीक उस तरह जिस तरह कई कबूतरों के भीड़ दाना खाते हुये अचानक कोई कबूतर आसमान में उड़ जाता है। वो मदमस्त हो कर बस्तियों शहरों के ऊपर से उड़ता जाता है। न किसी जगह पँहुचने की जल्दी न किसी का इंतजार। नहीं वापसी कि चिन्ता होती।
सतपाल जब अपनो के बीच होता तो उसे अकेला पन महसूस होता और जब वो बाहार आता तो उसे कुदरती सुकून हासिल होता। वो दूनिया के ऊपर पडे वक़्त के पर्दो को हटाकर किसी दूनिया का नज़ारा देखा करता। क्षण भर में ही उस की आँखे जैसे किसी फ्रैम से झाकने लगी हो और उसके चेहरे पर सैकड़ों फुल खिल गये हो।
रोशनी की किसी किरण न जैसे उसके हाथेलियों कोई दिव्य मणी रख दी हो जिसके तेज से उस के शरीर में दिव्यमान उजाला भर गया हो। चारों तरफ आते-जाते लोगों की भीड़ कहीं से कहीं चली जा रही होती और वो वही पर ठहरा हुआ जैसे किसी के चरित्र की अदाकारी को पेश कर रहा होता।
लाईट, कैमरा, एक्शन......
माहौल में कुछ बदल जाता। वो अमिताभ बच्चन की नकल कर के कहता, "रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते है नाम है शहनशा" फिर फौरन वो राजकुमार बन जाता। जानी हम सोदागर है हमारे चौदह घर है"
एक ही टेक में वो कई सीन बना देता। इस तरह से फिल्मी एक्टरों के डायलॉग और एक्टींग करके वो सब को हँसाता फिरता था।
कभी भी वो तमाशा दिखाने वाला बन जाता कभी तमाशे वाले का जमूरा बन जाता।
राकेश
गुब्बारे वाला बाजा बजाते हुये निकलता। जूस की दुकान के पास लगा मुर्गे काटने वाले का ठिया जो सुबह करीब दस बजे ही मुर्गियों की गर्दन पर छूरी रख देता था। वहीं चार कदमों की दूरी पर बड़ा सा कुड़ेदान था। जहाँ से मोटी-मोटी मक्खियाँ मंडराती हुई यहाँ-वहाँ घूमती फिरती। फिर सब्जियों रेहड़ी और लोहे का STD both जिस पर पान तम्बाकू चिप्स वगेहरा भी मिलते हैं। ये चौराहा सड़क के दोनों ओर को मुड़ता हुआ चला जाता है। रोजाना यहाँ की उथल-पुथल से टकराकर लोग निकलते हैं।
जहाँ एक-दूजे से निगाहें मिलाकर हर कोई कट जाता है अपने रास्ते को। लगातार आवारा आवाजे यहाँ बेफिक्र माहौल से जुझती रहती है। इस माहौल में होने के बाद भी सतपाल अपने अंतरद्वधों मे फंसा रहता है। वो हँसता है मुस्करता है मायूस भी होता है फिर अचानक उसके चेहरे के एक्सप्रेशन ही बदल जाते है। अगर कहीं रूक गया तो वो वहाँ से तस का मस भी नहीं होता। दिमाग चौबीसों घण्टे रट्टे लगाता रहता है वक़्त में बन रहे आँकड़ो का चार्ट उसके सामने जैसे कभी भी उभर आता है।
हमारी तरह उसे भी ऊर्जा सूरज की किरणों से मिलती है खाने के सभी पोस्टिक आहार से उस का शरीर भी बड़ता है। सतपाल की दैनिक ज़िन्दगी उसके रोज के चिन्तनमन्न से शूरू होती और कब किस रूप में ख़त्म होती ये पता नहीं चलाता।
शाम तक वो बहुत सी जगहों पर टहल कर आ जाता। पुराने दोस्तों से यूं ही अचानक मिलता और एक चौंकने वाले अन्दाज मे बर्ताव करता। सड़क का वो किनारा जहाँ से वो दस साल पहले स्कूल जाया करता था। बीच में बस स्टेंड भी है। ऑटो रिक्शा स्टेंड भी है। वही पुरानी फलो की दूकान भी है। चौराहे पर बना वो मंज़र आज भी है।
दोपहर की धूप उसके स्कूल के दिनों की याद दिलाती है। जब सुबह के स्कूल की लड़कियों की छुट्टी होती है तो आज भी उसी टाईम पर बाहर पुलिया पर आकर खड़ा हो जाता है। जो दोस्त उसे पहले से जानते है। वो अब उससे कट जाया करते। बस, कुछ ही दोस्त थे जो उसे समझते थे।
सतपाल एक दिन अपने पुराने दोस्त से टकराया, उसके चेहरे को भाँपने लगा दोनों मुस्कुराये, "अरे राकेश तू" सतपाल ने कहा उसके बाद। उसने भी सतपाल से हाथ मिलाया।
"सतपाल कैसा है तू? मैं तो ठीक हूँ, तू सुना कहाँ जा रहा है?”
"बस घर का कुछ सामान था वो ही लेने जा रहा हूँ।"
"अबे आज तो पेपर है, मेथ का"
राकेश हिचकिचा गया, "क्या बकवास कर रहा है। तू पागल है क्या?”
सतपाल हँसा, "अबे मैं पागल नहीं तू पगला गया है। देख मैं तो सेन्टर जा रहा हूँ तू आ जाना।" राकेश ने खट्टेपन से कहा- "कोन सा पेपर कोन सी क्लास?”
सतपाल बोला, "अरे भाई दसवीं और कोनसी?”
राकेश उसे समझाने का प्रयास करने लगा।
"देख भाई तू कुछ भूल रहा है। दसवी तो मैंने कब की पास करली है। मैथ मैं एक बार फेल हुआ। दूसरी पास कम्पार्टमेन्ट आई थी फिर मैं पास हो गया।"
माना के नम्बर कम थे पर पास होने की खुशी ज़्यादा थी। जैसे - तैसे दसवीं का ठप्पा लग गया यही बहुत है। सतपाल को इस बात का जरा भी झटका नहीं लगा। "अच्छा" कोई बात नहीं मैं तो जा रहा हूँ तूझे आना है तो चल।
दस साल पहले बीते दौर को सतपाल ने अभी भी ज़िन्दा कर रखा था। यादों में नहीं था ये मुझे यकिन था। अतीत उसके जहन में अन्धेरे में जल रही डिबिया की तरह था।
वही डिबिया उसे अपने उजाले में आज का समय दिखा रही थी। उसकी कामनाएँ मेरी नहीं थी। उम्मीद टूटी नहीं थी। वक़्त का साथ उसने नहीं छोड़ा था। पर शायद वक़्त उसे कही गुमनाम जगह छोड़ आया था।
दुनिया उसके लिये वैसी ही थी जैसी सब के लिये वो भी भूख प्यास जानता था। वो पुलिया की मुंडेरियों पर घण्टो बैठ करता था कभी सड़क के किसी कोने पर खड़ा होकर अपनी निगाहों को दूर - दूर तक ले जाता । फिर कुछ सोचने लगता। फिर दोबारा से हाथों की कोहनियों को मिला लेता और बड़ी पैचिदा हालात रिएक्ट करने लगता।
शायद ये दूनिया पागल होती तो कैसा होता किसी न कोई फिक्र न कोई डर होता। मगर इतना होने के बावज़ूद ये पापी पेट न होता तो सोने पर सुहागा होता।
वक़्त हर किसी के साथ अहतियात नहीं बरता। सतपाल शायद उन सभी हालातों से गुज़र रहा था। जहाँ से अच्छा खासा इंसान भी टूटने लगता है। सतपाल टूटने का नाम नहीं वो लड़ रहा था। अपनी दैनिक ज़िन्दगी से। वो निहत्था भी नहीं था। अभी उसने हथियार नहीं घेरे थे। अपने आप में कभी मोन तो कभी इस मोन को तोड़कर वो बाहार आ जाता। फिर यथार्थ श्रृखलाओं मे शामिल हो जाता।
ठीक उस तरह जिस तरह कई कबूतरों के भीड़ दाना खाते हुये अचानक कोई कबूतर आसमान में उड़ जाता है। वो मदमस्त हो कर बस्तियों शहरों के ऊपर से उड़ता जाता है। न किसी जगह पँहुचने की जल्दी न किसी का इंतजार। नहीं वापसी कि चिन्ता होती।
सतपाल जब अपनो के बीच होता तो उसे अकेला पन महसूस होता और जब वो बाहार आता तो उसे कुदरती सुकून हासिल होता। वो दूनिया के ऊपर पडे वक़्त के पर्दो को हटाकर किसी दूनिया का नज़ारा देखा करता। क्षण भर में ही उस की आँखे जैसे किसी फ्रैम से झाकने लगी हो और उसके चेहरे पर सैकड़ों फुल खिल गये हो।
रोशनी की किसी किरण न जैसे उसके हाथेलियों कोई दिव्य मणी रख दी हो जिसके तेज से उस के शरीर में दिव्यमान उजाला भर गया हो। चारों तरफ आते-जाते लोगों की भीड़ कहीं से कहीं चली जा रही होती और वो वही पर ठहरा हुआ जैसे किसी के चरित्र की अदाकारी को पेश कर रहा होता।
लाईट, कैमरा, एक्शन......
माहौल में कुछ बदल जाता। वो अमिताभ बच्चन की नकल कर के कहता, "रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप लगते है नाम है शहनशा" फिर फौरन वो राजकुमार बन जाता। जानी हम सोदागर है हमारे चौदह घर है"
एक ही टेक में वो कई सीन बना देता। इस तरह से फिल्मी एक्टरों के डायलॉग और एक्टींग करके वो सब को हँसाता फिरता था।
कभी भी वो तमाशा दिखाने वाला बन जाता कभी तमाशे वाले का जमूरा बन जाता।
राकेश
एक संवाद –
शख़्सियत और जगह को हम कैसे देखते हैं? उसके साथ मे दोहराना क्या है? यहाँ पर दोहराना खाली कह देना ही नहीं है, वे कभी बयाँ करना होता है तो कभी उतारना।
ये सवाल सर्वहारा रातें के पन्नो मे बखूबी उभरता है - लेकिन उस शाम इस किताब के लेखक से बात करने के बाद मे इन दोनों शब्दों के मायने ही कुछ और बने।
शख्स जिसको देखने के कई रूप हो सकते हैं लेकिन सबसे ज्यादा मजबूत रूप कौन सा है? जिसे देखकर हम उसकी छवी बनाते हैं? एक काम करने वाला वर्ग खुद को काम के मालिस मे मांधता रहता है, खुद को चमकता रहता है, खुद को सम्पूर्ण बनाने की कोशिश मे वो खुद को पॉलिस पर पॉलिस करता रहता है। यही शायद उसको देखने के और बयाँ करने के कारण बन जाते हैं।
लेकिन क्या हमें पता है कि हम जिसे देख रहे हैं, काम करते हुये, बैठे हुये, बातें करते हुये या किसी चीज को निकालते हुये। वे वही शख्स है जो वो साफ नजर आ रहा है या इसके अलावा भी वो कुछ और है?
शख्स अपने साथ मे अपनी कई और छवि लिये चलता है। जिसे वो मांजता या निखारता हुआ भले ही नज़र न आये लेकिन वो उसके पूरे दिन के घेरे से बनाता चलता है। यहाँ पर शख्स एक जीवन की भांति लगा जिसमे एक शख्स नहीं बल्कि उसमे कई शख्सो को जोड़कर देखा जा सकता है। जिसमे शख्स कभी, यादों को दोहराने वाला नहीं बनता, कभी काम को लिबास बनाकर जीने वाला भी नहीं रहता, कभी ज़ुबान को बनाकर उसे दोहराने वाला भी नहीं रहता। शख्स यहाँ पर एक हवा और पानी की तरह से जीता है जिसकी जुबान और रातें खुद को नया रूप देने लिये जी जाती हैं।
मेरे कुछ सवाल थे जो मैं पिछले दिनों लेखन और दोहराने के तरीको मे किसी जीवन और शख्सियत को उभारने की कोशिश कर रहा था। जो सर्वहारा रातें किताब के बाद मे सवाल को गहरा कर देती है।
मेरे आसपास मे कई कहानियाँ सुनी और सुनाई जाती हैं। कभी उदाहरणों के तौर पर तो कभी समा बाँधने के लिये तो कभी जगह को बताने के लिये। हर कहानी कभी एक दूसरे से बंधी - जुड़ी लगती है तो कभी एकदम अलग दिशा की। मगर वो सुनाई किस लिये जा रही है उसका अहसास एक ही रहता है।
इन कहानियों मे अनगिनत लोग बसे होते है, जिनको कभी मैं नहीं मिला, उनको कभी देखा भी नहीं है। कहानियों मे आये लोग कहानियों मे है लेकिन असल जिन्दगी मे वो कहीं स्थित नहीं रहते। उनका कोई रूप नहीं दिखता। मैं कभी सोचता हूँ की किसी कहानी के जरिये आने वाला शख्स कोई और नहीं बल्की सुनाने वाले की ही दूसरी छवि हैं और कभी सोचता हूँ की ये शख्स बनाये - रचे गये रूप है कोई शख्स नहीं है।
मेरे इस घुमाऊ सवाल के बाद मे शरीर और आकार को लेकर बातचीत चली, जिसमे मेरा सवाल था की जो रूप कहानी मे बनता है वो कभी नजर नहीं आता, ऐसा लगता है जैसे वो बौद्धिकता हर किसी के अन्दर का ही रूप है। तो मैं उन कहानियों मे बसे लोगो को अपने आसपास मे स्थित करके उसे बयाँ करने लगता हूँ। किसी जगह को सींचते हुये।
इस पर मेरे एक साथी ने कहा, "मुझे लगता है की मैं कई अनेकों शरीर से घिरा हुआ हूँ लेकिन वो अहसास नहीं मिलता जिसमे उन्हे मैं ढाल पाऊँ।
बातचीत मे शरीर और उसका अहसास, हमारी सोच और बातों मे बेहद टाइट लग रहा था जिसमे जॉक रांसियर केर साथ बात करने के बाद उभरा, "शरीर हो या कहानी, दोनों की अपनी - अपनी जुबान होती है, और इन दोनों को लिखने वाले की अपनी। हमे ये तय करना होता है की हम कौन सी जुबान बनाये जिसमे कुछ छुटे भी और वो भी न रहे की जिसको लिख रहे हो वो वही रहे जो वो है। हमें अपनी और उसकी जुबान दोनो को सोचना होता है। जिससे किसी तीसरी जुबान का बनना तय होता है। वही उन सारे सवालो और शख्सियतों को खोल पाती है। इतना गहरा सोचना और खुद के लिये सवाल बना लेना कभी कभी सामने वाली चीज से मिलने से रोकता है। हमें पहले टकराना होता है, जिससे हम सवाल तय कर पाते हैं, मिल पाते हैं।"
ये तीसरी जुबान क्या होती है?
लख्मी
ये सवाल सर्वहारा रातें के पन्नो मे बखूबी उभरता है - लेकिन उस शाम इस किताब के लेखक से बात करने के बाद मे इन दोनों शब्दों के मायने ही कुछ और बने।
शख्स जिसको देखने के कई रूप हो सकते हैं लेकिन सबसे ज्यादा मजबूत रूप कौन सा है? जिसे देखकर हम उसकी छवी बनाते हैं? एक काम करने वाला वर्ग खुद को काम के मालिस मे मांधता रहता है, खुद को चमकता रहता है, खुद को सम्पूर्ण बनाने की कोशिश मे वो खुद को पॉलिस पर पॉलिस करता रहता है। यही शायद उसको देखने के और बयाँ करने के कारण बन जाते हैं।
लेकिन क्या हमें पता है कि हम जिसे देख रहे हैं, काम करते हुये, बैठे हुये, बातें करते हुये या किसी चीज को निकालते हुये। वे वही शख्स है जो वो साफ नजर आ रहा है या इसके अलावा भी वो कुछ और है?
शख्स अपने साथ मे अपनी कई और छवि लिये चलता है। जिसे वो मांजता या निखारता हुआ भले ही नज़र न आये लेकिन वो उसके पूरे दिन के घेरे से बनाता चलता है। यहाँ पर शख्स एक जीवन की भांति लगा जिसमे एक शख्स नहीं बल्कि उसमे कई शख्सो को जोड़कर देखा जा सकता है। जिसमे शख्स कभी, यादों को दोहराने वाला नहीं बनता, कभी काम को लिबास बनाकर जीने वाला भी नहीं रहता, कभी ज़ुबान को बनाकर उसे दोहराने वाला भी नहीं रहता। शख्स यहाँ पर एक हवा और पानी की तरह से जीता है जिसकी जुबान और रातें खुद को नया रूप देने लिये जी जाती हैं।
मेरे कुछ सवाल थे जो मैं पिछले दिनों लेखन और दोहराने के तरीको मे किसी जीवन और शख्सियत को उभारने की कोशिश कर रहा था। जो सर्वहारा रातें किताब के बाद मे सवाल को गहरा कर देती है।
मेरे आसपास मे कई कहानियाँ सुनी और सुनाई जाती हैं। कभी उदाहरणों के तौर पर तो कभी समा बाँधने के लिये तो कभी जगह को बताने के लिये। हर कहानी कभी एक दूसरे से बंधी - जुड़ी लगती है तो कभी एकदम अलग दिशा की। मगर वो सुनाई किस लिये जा रही है उसका अहसास एक ही रहता है।
इन कहानियों मे अनगिनत लोग बसे होते है, जिनको कभी मैं नहीं मिला, उनको कभी देखा भी नहीं है। कहानियों मे आये लोग कहानियों मे है लेकिन असल जिन्दगी मे वो कहीं स्थित नहीं रहते। उनका कोई रूप नहीं दिखता। मैं कभी सोचता हूँ की किसी कहानी के जरिये आने वाला शख्स कोई और नहीं बल्की सुनाने वाले की ही दूसरी छवि हैं और कभी सोचता हूँ की ये शख्स बनाये - रचे गये रूप है कोई शख्स नहीं है।
मेरे इस घुमाऊ सवाल के बाद मे शरीर और आकार को लेकर बातचीत चली, जिसमे मेरा सवाल था की जो रूप कहानी मे बनता है वो कभी नजर नहीं आता, ऐसा लगता है जैसे वो बौद्धिकता हर किसी के अन्दर का ही रूप है। तो मैं उन कहानियों मे बसे लोगो को अपने आसपास मे स्थित करके उसे बयाँ करने लगता हूँ। किसी जगह को सींचते हुये।
इस पर मेरे एक साथी ने कहा, "मुझे लगता है की मैं कई अनेकों शरीर से घिरा हुआ हूँ लेकिन वो अहसास नहीं मिलता जिसमे उन्हे मैं ढाल पाऊँ।
बातचीत मे शरीर और उसका अहसास, हमारी सोच और बातों मे बेहद टाइट लग रहा था जिसमे जॉक रांसियर केर साथ बात करने के बाद उभरा, "शरीर हो या कहानी, दोनों की अपनी - अपनी जुबान होती है, और इन दोनों को लिखने वाले की अपनी। हमे ये तय करना होता है की हम कौन सी जुबान बनाये जिसमे कुछ छुटे भी और वो भी न रहे की जिसको लिख रहे हो वो वही रहे जो वो है। हमें अपनी और उसकी जुबान दोनो को सोचना होता है। जिससे किसी तीसरी जुबान का बनना तय होता है। वही उन सारे सवालो और शख्सियतों को खोल पाती है। इतना गहरा सोचना और खुद के लिये सवाल बना लेना कभी कभी सामने वाली चीज से मिलने से रोकता है। हमें पहले टकराना होता है, जिससे हम सवाल तय कर पाते हैं, मिल पाते हैं।"
ये तीसरी जुबान क्या होती है?
लख्मी
एक और मुलाकात,
अपने को आज़माने के क्या तरीके हैं?
शाम मे ये कसर हर रोज़ निकाली जाती है। एक गुट जो रोज़ शाम मे मिलता है जिनके पास मे खाली खुद की कहानियाँ ही नहीं होती वे रखते हैं खुद को दोहराने और खुद को आज़माने के साधन।
इस बार का मौका रहा, अख़बार और टीवी पर चलती दुनिया। उसके साथ मे एक शख्स अपने साथ मे कई अखबारों की कटींग लेकर आया। जिसमे कई नौकरियों के गुच्छे थे। हर पर्चा दिल्ली शहर के किसी कोने का था। ऐसा लगता था की जैसे एक ही बन्दा कितनी बार शहर के अन्दर घूमा होगा। उसका सवाल था - इतना घूमने के बाद भी किसी को कैसे बताया जाये शहर क्या है?
उसमे वो खुद को हटाकर बोल रहा था। वो अखबार की कटींग उसके लिए ये प्रमाण नहीं थी की वो शहर को कितना जानता है बल्कि ये था की वो शहर मे कितने अन्दर के हिस्सो मे खुद को देख पाता है। अखबार उसके लिए एक ऐसी शख्सियत बना रहा था जो उसके शहर के कोनो मे ले जाने की जोरआज़ामइस करता और हर बार किसी नई तरह से खुद को आज़माने की तरफ मे धकेल देता।
अखबार खाली पढ़कर किसी के बारे मे और किसी को जानने में ही किरदार निभाये ये ही तय नहीं होता। उसका कहना था - "क्या मैं इन कटींग को लेकर जितना घुमा उसके बाद भी मैं शहर मे कहीं परिचित नहीं होता क्यों? ये मेरे लगभग चार साल है जो मेरे लिये किसी भागदौड़ के सिवा कुछ नहीं थे लेकिन आज ये इतने पावरफुल हैं की मैं इनको लेकर किसी के भी आगे अपनी मेहनत और भटकने को बता सकता हूँ। जिसमे मुझे बहुत दम लगता है।"
वो अखबार उस गुट के लिये कोई बड़ी बात तो नहीं थे लेकिन ये उस एलबम की तरह थे जिनको उस जन के रास्तो और थकावट को सहज़ कर रखा था जिससे वो आज खुद को किसी शक्तिशाली इंसान से कम नहीं आँक सकता था जो खुद से बहस करने के साथ - साथ किसी को उस बहस मे शामिल भी कर सकता था।
अखबार की ये कटींग उन सारे क्षणिक पलो की वो किताब थी जिनको पढ़ा नहीं जा सकता था उसके साथ घूमा जा सकता था।
लख्मी
शाम मे ये कसर हर रोज़ निकाली जाती है। एक गुट जो रोज़ शाम मे मिलता है जिनके पास मे खाली खुद की कहानियाँ ही नहीं होती वे रखते हैं खुद को दोहराने और खुद को आज़माने के साधन।
इस बार का मौका रहा, अख़बार और टीवी पर चलती दुनिया। उसके साथ मे एक शख्स अपने साथ मे कई अखबारों की कटींग लेकर आया। जिसमे कई नौकरियों के गुच्छे थे। हर पर्चा दिल्ली शहर के किसी कोने का था। ऐसा लगता था की जैसे एक ही बन्दा कितनी बार शहर के अन्दर घूमा होगा। उसका सवाल था - इतना घूमने के बाद भी किसी को कैसे बताया जाये शहर क्या है?
उसमे वो खुद को हटाकर बोल रहा था। वो अखबार की कटींग उसके लिए ये प्रमाण नहीं थी की वो शहर को कितना जानता है बल्कि ये था की वो शहर मे कितने अन्दर के हिस्सो मे खुद को देख पाता है। अखबार उसके लिए एक ऐसी शख्सियत बना रहा था जो उसके शहर के कोनो मे ले जाने की जोरआज़ामइस करता और हर बार किसी नई तरह से खुद को आज़माने की तरफ मे धकेल देता।
अखबार खाली पढ़कर किसी के बारे मे और किसी को जानने में ही किरदार निभाये ये ही तय नहीं होता। उसका कहना था - "क्या मैं इन कटींग को लेकर जितना घुमा उसके बाद भी मैं शहर मे कहीं परिचित नहीं होता क्यों? ये मेरे लगभग चार साल है जो मेरे लिये किसी भागदौड़ के सिवा कुछ नहीं थे लेकिन आज ये इतने पावरफुल हैं की मैं इनको लेकर किसी के भी आगे अपनी मेहनत और भटकने को बता सकता हूँ। जिसमे मुझे बहुत दम लगता है।"
वो अखबार उस गुट के लिये कोई बड़ी बात तो नहीं थे लेकिन ये उस एलबम की तरह थे जिनको उस जन के रास्तो और थकावट को सहज़ कर रखा था जिससे वो आज खुद को किसी शक्तिशाली इंसान से कम नहीं आँक सकता था जो खुद से बहस करने के साथ - साथ किसी को उस बहस मे शामिल भी कर सकता था।
अखबार की ये कटींग उन सारे क्षणिक पलो की वो किताब थी जिनको पढ़ा नहीं जा सकता था उसके साथ घूमा जा सकता था।
लख्मी
दैनिक जीवन के आयोग मे...
नये शहर के नये इलाके में आये हुए सुरेश को कुछ ही दिन हुए थे। उसने कभी सोचा भी नहीं था की उसकी ज़िन्दगी इतनी बेरहम बन जायेगी के सुरेश को किसी के सामने हाथ फैलाना पड़ेगा। उसने किसी तरह अपने मकान मालिक से कुछ दिनों की मोहलत मांगी ताकी वो पिछले दो महीने का भी किराया दे सके। उसे इस बात का गम नहीं था की यहाँ आकर उसे लोगों से मांगना पड़ रहा है। गम तो इस बात का था की इसके सिवा उसके पास कोई चारा भी नहीं था। वो एक दम अकेला पड़ गया था। वो क्या करता जब सब घर के लोग उसकी तरफ उम्मीद की नज़र से देखते। जरुरत आदमी को क्या नहीं करवा देती? इंसान, इंसान को क्यों भूल जाता है? और जानवरों जैसा सलूक करने लग जाता है पर सुरेश जानवर नहीं बना।
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मेरी यादें जो असल में किसी और की धरोहर है। मैं इन्हे कैसे ठुकरा दूं। वक़्त रेत की तरह मेरे हाथों से छूट जाता है। मैं अपनी याद्दश्त को ज़िन्दा रखना चाहता हूँ। इसलिये वर्तमान को देखता हूँ और उसे पकड़ कर रखना चाहता हूँ। जिसमें मेरी यादों का सिलसिला के लिये सौगात बन जायें।
दर्द जीना सिखाता है फिर दर्द कैसे दूश्मन हुआ,सब कुछ संतूलन मे चलेगा तो असंतूलन का अपनी रचनात्मकता को कौन जानेगा। हम असंतूलन में है संतूलन बनाने के लिये प्रयास करते है मगर फिर वही उसी जगह असंतूलन में आ जाते हैं।
राकेश
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मेरी यादें जो असल में किसी और की धरोहर है। मैं इन्हे कैसे ठुकरा दूं। वक़्त रेत की तरह मेरे हाथों से छूट जाता है। मैं अपनी याद्दश्त को ज़िन्दा रखना चाहता हूँ। इसलिये वर्तमान को देखता हूँ और उसे पकड़ कर रखना चाहता हूँ। जिसमें मेरी यादों का सिलसिला के लिये सौगात बन जायें।
दर्द जीना सिखाता है फिर दर्द कैसे दूश्मन हुआ,सब कुछ संतूलन मे चलेगा तो असंतूलन का अपनी रचनात्मकता को कौन जानेगा। हम असंतूलन में है संतूलन बनाने के लिये प्रयास करते है मगर फिर वही उसी जगह असंतूलन में आ जाते हैं।
राकेश
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