Thursday, August 20, 2009

रोज़मर्रा के दृश्य

मन की शान्ती के लिये इंसान क्या-क्या नही` करता। वो कभी हद में रहकर तो कभी हद से बाहर अपने को पूरा करने के प्रयास करता है। उसका दायरा चाहे जितना भी छोटा या बड़ा क्यों न हो वो सफलता के लिये पल-पल बनता और बिख़रता है।


दायरे कभी आप को भ्रम में नहीं डालते बल्की ये तो आपकी नज़र का दृष्टीकोण बनकर एक पड़ाव तक ले जाते हैं इसके आगे देखना है तो जीवन के सभी कारणों को समझना होगा जिनसे हमारी और हमारे शरीर के भौतिक विकास के साथ दार्शनिक प्रवृतियाँ जन्म लेती हैं।

समय नहीं ठहरता ठहर जाती है उसके साथ चलने वाली परछाईयाँ जिनकी भीड़ में हम अपने आप अकेला नहीं समझते। लगता है जैसे कोई कारवां साथ चल रहा है जिसमें हर जाना-अंजाना शख्स हमारा हमसफ़र है।

इंसान और जानवर का रिश्ता ऐसा है जैसे मिट्टी और पानी दोनों एक-दूजे की जरूरत है। ये विभन्नता कभी-कभी एक ही सूत्र में आसमान और जमीन को मोती की तरह पिरो देती है।

दुर्घटना वो सच है जो आपके कंट्रोल में होती है जरा कंट्रोल हटा और अंत का दरवाजा खुल जाता है। इस सच के अनुरूप ज़िन्दगी की किमत अमूल्य है।

ज़िन्दगी क्या है इक तमाशा है इस तमाशे में ज़िन्दगी बेहताशा है। जो चाहे खेल सकता है। सबके हाथों में कोई न कोई चौसर का पाशा है। शहर में हर पल कुछ नया सा है। चेहरों पर नकाब है, हर नकाब एक दिलाशा है।

शुक्रबाजार की भीड़ दशहरे के मेले से कम ही है। यहाँ भी टकरा जाते हैं लोग उथल-पुथल का मंजर उतरते समय का गवाह है। दूकाने लोग रोशनियाँ,आवाजें चीजें फैरीवाले सडक पर मुँह लटकाये हुए एक कुत्ता भी अपनी जगह ठहरा हुआ है बस, मौत का लिबास पहने न जाने कोई न टूटने वाली नींद में चार काँधों पर सवार होकर चला जा रहा है। कौन रोके उसे, कौन टोके उसे, उसे उस की मन्जिल मिल गई। बस, ये हम बाकी रह गये।

गलियाँ छोटी पड़ जाती, जब आँगन बड़े हो जाते हैं।
हाथ छोटे पड़ जाते हैं, जब सपना बड़ा हो जाता है।
जबाब कम पड़ जाते हैं, जब सवाल बड़े हो जाते हैं।
अंधेरे कम हो जाते हैं, जब उजाले करीब आ जाते हैं।
तोहफे कम पड़ जाते हैं, जब सौगाते मिल जाती हैं।
कोने कम पड़ छोटे हो जाते हैं, जब दुनिया मिल जाती है।
यादें धूंधली हो जाती है, जब हकिकत रंग लाती है।
रात ढ़ल जाती है, जब सवेरा हो जाता है।
खामोशी टूट जाती है, जब आवाज कोई होती हैं।
आँखे देखने लग जाती हैं, जब पलके उठ जाती हैं।
इंतजार बड़ जाता है, जब मौज़ूदगी गायब होती है।
पंछी उड़ते फिरते हैं, जब मौसम हंसीन होता है।
नसीब बदल जाते है, जब कुदरत मेहरबान होती है।
आज़ादी लुभाती है जब सांसे आज़ाद होती है।
आंधियाँ इतराती है, जब तूफान आता है।
नदिया मुड़ जाती है, जब रास्ते जटील होते हैं।
छवि बन जाती हैं, जब रंग विभिन्न होते हैं।
दोस्त बन जाते हैं, जब इरादे नेक होते हैं।
जब रास्ते अलग हो जाते हैं तो चिन्ह बदल जाते हैं।

हवा-हवा नहीं , रोशनी-रोशनी नहीं ,चीज़ें-चीज़ें नहीं ,मैं-मैं नहीं तो और क्या है?
सब बे-मतलब मगर दुनिया कोई बनावटी माहौल तो नहीं जिसे मिट्टी के पुतले और इन पुतलों में ऊर्जा ठुसी हो। जो किसी के ईशारों पर नाच रहे हैं। इंसान नाम की कोई चीज़ हमने सादियों पहले सुनी थी। अब तो इंसान की खाल में अधमरे शरीर ठुस रखे हैं जिनमें नमी बनाये रखने के लिये जीवन छिड़का जाता है।

सुनने के लिये कान बहुत हैं देखने के लिये आँखें बहुत हैं। पाने के लिये चाहत बहुत है मगर देने के लिये हाथ कम हैं। नये जमाने और नई तकनिकों के बीच में इंसान ने अपने नैतिकता को ख़त्म ही कर दिया है इसलिये शायद सब फर्जी हो गया है। भूख को भी टाटा किया जाता है प्यास का भी नाम पुँछा जाता है।

मैं कब क्या सीखा ये भुल गया मगर याद रहा की मैं क्या सीखा। जब मुझे ये अहसास हुआ की मैं किसी से कुछ पा रहा हूँ तो मेरे कच्चेपन को मजबूती मिली। घर मे माँ-बाप,स्कूल में टीचर, रास्ते में दोस्त सब किसी न किसी तरह मेरी पूँजी बनते गये। मन की सेल्फों में जैसे को खजाना भर गया हो। मैं तैय्यार हो गया मेरे पीछे कई लोग साया बन कर चले। जिन्होनें मुझे आज में धकेला। वो मेरे पास नहीं तो क्या हुआ उनकी अनमोल सौगातें तो हैं जो सीखते सिखाते मेरी झोली में आ गीरी।

राकेश