Friday, August 21, 2009

इस बार का मुद्दा था घर

दस साथी एक बार फिर से बैठ गए थे सवालों और कल्पनाओं को एक दूसरे के समीप लाने के लिए। सभी अपना -अपना तर्क उसमे डाल रहे थे घर को समझना क्या है और उसे बनाना क्या है? इस सवाल को लेकर बहस मे उतरने की कोशिश चल रही थी।

सभी ने इस सवाल से अपनी बातचीत को शुरू किया। एक साथी अपने साथ मे अपने घर का नक्शा लेकर आया हुआ था। जिसमें सब कुछ पहले से ही तय था मगर इस बार उसने अपने घर के नक्शे मे एक हॉल यानि पचास लोगों के एक साथ बैठने की कल्ना की थी जिसको वो अपने घर के नक्शे मे देखना और बनाना चाहता था। उसने कई बार अपने इस नक्शे को बनाया था और कई बार अलग - अलग लोगों से उसे बनवाया भी था। जो भी उनके घर में चाहें मेहमान बनकर आता या कोई भी पड़ोसी की हैसियत से आता वो सभी को वो नक्शा दिखाकर उसको पूरा करने मे जुट जाते होगें। लेकिन यहाँ पर वो नक्शे को नहीं अपनी कल्पना को रखना चाहते थे।

उन्होंने कहा, "हमारे घर को जब भी हम बनवाने की सोचते हैं तो चाहैं उसे नया बनवाया जाये या फिर उसकी मरममत करवाई जाये मतलब तो एक ही रहता है। उसके अन्दर परिवार को सोचना है और अगर उसके साथ मे ज्यादा से ज्यादा सोचेगें भी तो किसी किश्म का रोज़गार या फिर हद से हद कोई प्रोग्राम। लेकिन ये सब जुड़ते हैं परिवार से ही। तो इसमे हमारा घर कहाँ है? वो तो गुज़ारा करने की जगह बन जाती है। इसको अगर तोड़ना है तो हम कैसे तोड़ सकते हैं? क्या घर रहने, कमाने और खुशी देने के अवसरों का कमरा है? मैंने कोशिश किया है कि मकान को थोड़ा शोहरूम, थोड़ा सिनेमा, थोड़ा रहना और थोड़ा अवसर के रूप मे देखने की। उसमे अगर मुझे कुछ सोचना है तो क्या सोचना होगा?"

उसके नक्शे मे काटा - पीटी बहुत थी। कहीं - कहीं पर तो कुछ गोले भी बने हुए थे। कुछ साफ-सपाट था तो कहीं पर कुछ लिखा हुआ था। उनके पास मे एक फोटो एलबम भी थी जिसमे घर की कुछ तस्वीरें थी जो ज्यादातर घरों मे होती सफेदी की थी। उसमे कमरों का साइज़ बहुत बड़ा था। जिसे वो दिखाकर अपनी कल्पना को छवि दे रहे थे।

उसपर उन्होंने कहा, "क्या हम अपने घर को एक दिन शादी हॉल, एक दिन प्लेहाउस, एक दिन खाना खिलाने की जगह मानकर नहीं रह सकते, इससे क्या हमारा घर देखने का नज़रिया बदल जायेगा?"

इस सवाल के बाद में बातचीत का आधार खाली घर और उसकी अन्दर की दस्तकारी को सवारने और दोबारा से बनाने के अलावा कुछ और भी था। जैसे - घर को खाली रहने और किसी और को सोचने के लिये नहीं था।

तभी एक साथी ने अपनी बात को कहा, “घर को इतना बड़ा पहले से क्यों बना लिया कि वो सोचने के मुद्दे बन गया। क्या बिना कुछ ज्यादा सोचे हम अपने घर के आकार को बदल नहीं सकते? हर मौके पर घर बदलता है। उसकी सजावट से लेकर उसके आने - जाने के रास्ते भी कुछ हद तक बदल जाते हैं फिर क्यों इस सवाल को लेकर इतना बड़ा किया जा रहा है?”

ये सवाल इस महकमे में आते ही सब अपनी हुंकारी सी भरने लगे। ये दोनों ही मुद्दों में खामोशी और बहस को लेने के लिये तैयार था। एक साथी ने कुछ पन्ने अपनी जैब से निकाले और दिखाते हुए कहने लगे, “ये सब एक किताब के पन्ने हैं, जिसमें छत को भगवान और इंसान के बीच का माना गया है। कहते हैं कि जमीन अनाज़ से जोड़ती है और छत आसमान का मान पाती है। इन दोनों के बीच मे इंसान को रखा गया है। इसी को हम घर की सूरत मे देखते हैं।"


सवालों की दिशा चाहे कुछ भी हो मगर उसका अहसास बराबर था। हम ढाँचों को कैसे देखते हैं? वे ढाँचें जिनमें हम रहते हैं या रहने की कल्पना करते हैं या फिर जिनको हम कोई नाम नहीं दे पाते। हमारे रहने के ढाँचें समाजिक ढाँचों की तस्वीर मे हम वक़्त पनपते रहते हैं और सार्वजनिक ढाँचें चुनाव मे रहते हैं मगर जो ढाँचा बनाने का सवाल यहाँ पर उभरता है उसमें इन दोनों का मेल है तो कभी इन दोनों से अलग कुछ पाने की अपेक्षा रखता है।

सवाल जारी था . . .

ये कुछ गहरे और बड़े सवाल उठाने की कग़ार चल पड़ी है....
मुलाकात का सिलसिला भी - ये सिलसिला कई सवाल लेने की कोशिश में है जो बौद्धिक और समाजिक ढाँचों के बने - बनाये स्तर को दोबारा से समझने और उनके साथ एक खास तरह से मिलने का अहसास बयाँ कर पाये। हम जहाँ रहते हैं और जहाँ जाना चाहते हैं उन दोनों के बीच में क्या देखते हैं? खुद के जीवन के कुछ सवालों से ये गुट समझने की कोशिश करता है। ये शायद, सबके जीवन से वास्ता रखता है।

निरंतर.....


लख्मी

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