Wednesday, February 19, 2014

वापस लौटने के लिये नहीं

शहर अब कहीं जाने और वापस लौटने के लिये नहीं रह गया है।
शहर कुछ पाने और छोड़ देने के लिये नहीं रह गया है।
इस बहाव को किसी पकी निगाह से देखना अब नहीं रह गया।

बस, इस 'नहीं' के बीच रहकर शहर की परिकल्पना में जीना ही जिन्दगी है। जो हर रोज, हर समय ट्रांसफर हो रही है और नयेपन की तलाश में रहने वाला शख़्स अपने जीने के तरीके की सिमायें लाघने की कोशिश कर रहा है। वे शख़्स कहीं जाना चाहता है, कुछ बनाना चाहता है। और वो तलाश जो उसके होने से ही है मगर उसकी ना मौजूदगी  उस जगह को भव्यता में गुम जाती है। उसके अनेकों टूकडे, अनेकों लोगों में बदले जा रहे हैं। वे अपने शरीर से बाहर हो जाने के लिये लुफ्त होता जा रहा है। मगर शहर अपने 'नहीं' को नहीं छोड़ना चाहता।

Tuesday, February 18, 2014

खुरदरेपन से छिटका वक़्त का एक तार




उसी खुरदरेपन से छिटका वक़्त का एक तार 

हर घर में अब एक अलमारी अब बुक होने लगी थी। चाहें इस अलमारी में बर्तन, तोहफे या कपड़े हो या न हो लेकिन कैसेटें रखना तो तय हो गया था। हर कोई इस जिद्द में अपनी अलमारी को भरने में जुटा रहता कि एक दिन सबको दिखा सकें या जब भी उसके घर में कोई आये तो उसकी नज़र इस अलमारी से दूर ही नही जाये। यूहीं अलमारी भरने की मारामारी पूरे इलाके और गली के अन्दर कूद रही थी।

ये साल कुछ गज़ब ही गुज़रने की लालसा में था। सन् 1984 का उस बड़े शौर का ख़त्म होना था और कई छोटे-छोटे शौर शुरू होने की ये पहली साल थी। जहाँ सारी आवाज़ें अगर एक साथ भी मिलकर गूंजें तो भी शौर नहीं कहला सकती थी। सन् 1987 और सन् 1988 का ये दौर अपनी चरमसीमा पर था। अब पूरी गलियाँ एक – दूसरे से आवाज़ों की लड़ाई करने के लिए बेहद तैयार थी। कभी आमने - सामने तो कभी आस – पड़ोस में तो कभी एक छत से दूसरी छत तक ये आवाज़ें नाचती फिरती।  यही ज़ोरा-ज़ोरी करने में अपनी पूरी ताकत लगा देती।

Friday, February 14, 2014

खानाबदोशी


यहाँ पर वो सब कुछ जिन्दा हो जाता है जो इस मजबूत कागज के रंगों मे बसा है। वो मौजूद है, वो सुन सकता है, वो बोल सकता है, वो किसी को भी अपनी ओर खींच सकता है और किसी को भी कहीं भी उड़ा ले जा सकता है।

वो किसी एक धार की तरह से यहाँ अपनर पाँव जमाये हुये है। धार जिसको हम तेजी मे देखते हैं। धार जिसे चीज़ों के धकेले जाने पर महसूस करते हैं। धार जिसे हम हर वक़्त उसकी जगह बदल देने से आँकते हैं। मगर इसका नितान्त हो जाना ही नये अवशेषों को जन्म देता है। यहाँ का आसरा उसके इन्ही पहलुओ को रोशन करने की अदाकारी निभाता है।

एक पल को लगा कैसे कुछ भी छुटा हुआ नहीं है। सब कुछ पल्लुओ से बँधा है। कोई पहलु ऐसा हो ही जाता है जो कहीं दूर फैंकने पर जोर देता है कोई पहलु काटने को दौड़ता है तो कोई चुप्पी साधकर कहीं बैठ जाता है।

लेकिन यहाँ पर सब कुछ अपने कब्जे मे है। कुछ बी खो देने की बहस है। वो सभी पल उंगलियों के निशानों की तरह से कलेजे पर छपे हैं। ये तन्मयता कि कशीश मे बह जाने का बुखार है। जो एद – दूसरे के करीब और करीब ले आने की निर्पक्ष कोशिश करता है - बाँधता है। इस एक छोटी सी झलक मे एक अहसास बंध जाता है जिसे सालों गुज़र जाने के बाद भी महसूसकृत पल से देखा जा सकता है। वे पल इसमे बस गये हैं। जो भूलने से ज्यादा याद रह जाने की लड़ाई लडेगें या शायद लड़ते आये होगें।

ये उस पल को सामने खोलकर ले आते हैं। जिसे ज़िन्दगी बीत जायेगी लेकिन उस दृश्य को समझाना किसी के लिये भी आसान नहीं होगा। ये अहसास जैसे खुद मे कई अनमोल भेद समाये जी रहा है। ऐसे कई और चित्र हैं जो यहाँ पर बिखरे पड़े हैं । वे सभी निशानियाँ यहाँ पर पहले से चल – गुज़र रही हैं। जिन्हे कभी कैद नहीं किया जा सकता। जहाँ पर मानो चेहरे एक – दूसरे के लिये पाश्रवगायब की भांति जी रहे हैं। एक – दूसरे के बिना और एक – दूसरे के साथ। गाने वाले वो गीत जो गाये खुद की ज़ुबान से जाते हैं लेकिन होंठ उसमे किसी और के हिलते हैं।

यहाँ पर याद रखने को कुछ भी नहीं है तो शुक्र है की हाथों से खो जाने के लिये बी कुछ नहीं है। हर एक चीज मे मनो के हिसाब से कई आर्षित अहसास लदे हैं। जिनसे भरपूर पलो को बाँधा हुआ सा लगता है।

ये समय और चेहरे कहीं वापस ले जाने की माँग करते हैं। जहाँ से वापसी का रास्ता और मन्जिल नज़र ही नहीं आता। बस, जो डूब जाने को अपना आसरा मानती है। खानाबदोश होकर जीनव वाले दृश्य खुद को मौज़ुद रख पाते हैं। जिनमे बिना कुछ कहे ही बीते हुये समय के वो धार शामिल है जो किसी भी रिश्ते को खिसकने नहीं देतें। बस, उसी के साथ नये पैमाने जोड़ते हुये नज़र आते हैं।

कुछ ही समय के बाद ये एक ऐसा जित्र बनकर सामने आ गया था जिसमे खुद के अन्दर ले जाने की ताकत रहै। खुद से खिलवाड़ करने की चाहत है किसी भी पल के लिये ऐसा कतई महसूस नहीं होता की वक़्त से निकल जाया जा सकता है। ये अपने मे बसाये रखता है। अन्दर के उस तार को छेड़ देता है जिसके अनेको लोगों की छवि उभरती है।

उन बीती अनेको परतों गुंजाइशे महकती सी निखरती है। जो अरमानो को खुला छोड़ देने के बाद भी अपमे मे घोले रखती है। ये वे समा है जिसे भूला या भूलाया नहीं जा सकता। किसी एक चेहरे के साथ मे कहीं चले जाने की तमन्ना खुद मे भर लेने का अहसास होता है। वो उस रिश्ते को जागरूप करके जी रहे हैं। ये किस्सा एक या दो पल का ही नहीं है ये सालो की चेष्टा अपने मे लिये आजाद घूमते हैं। कल्पना के मुताबिक बुनने वाली जगह यहाँ पर पैरों मे बिखरी हुई सी नज़र आती है। जो फलती है बैठने से, सुनने से और कुछ नये पैमाने बनाकर कहीं खो जाने से।

उस काल्पनिक तस्वीर के हाथ मे आते ही ये बिलकुल भी नहीं लगा की ये कोई बेजान टुकड़ा है। लगा जैसे किसी जानदार टुकड़े को हाथो मे फसाये बैठा हूँ। जिसके अन्दर डूबने को मन होता है। जो यादों को खींच लेने की ताकत रखता है। मैं धीरे - धीरे इसके अन्दर दाखिल होता जाता हूँ। जिसमे मुझे कोई रोक नहीं दिखती। वो तमाम पल उभरने लगते है जो मुझे कुछ ही क्षण मे जाने - अंजाने चेहरों की बीच मे खड़ा कर देते हैं और मैं वहाँ पर खड़ा तस्वीर के अन्दर के हर शौर को सुन पाता हूँ, देख पाता हूँ। सब कुछ जैसे अपने पास ही लगने लगता है। कुछ भी तो नहीं खोया या खो जाने वाला है। जो भी अपना था या अपनाया गया था वो सब कुछ अपनी आवाज़ों और शौर के साथ यहीं पर मौज़ूद है।

सही मायनो मे ये उस पल को बेखौफ रख पाता है, जिसे कहीं भी, कभी भी याद करके या देखकर, नज़र भर की झलक निहारने से भी कई यादें आपस मे टकरा जाती हैं। वो सभी कुछ याद आता रहेगा जिसे शब्दों और बोलो की जरूरत नहीं है। लेकिन वो अहसास खाली कहानियों और घटनाओ मे ही बयाँ होता है। इतना होने के बावजूद भी उसके पीछे छुपे वे कण नहीं बताये जाते जिन्हे हम लिये जीते हैं। और जो उन सभी यादों का गठबधंन है।

असल मे चलता है तो बस इस मुलायम अहसास को महसूस करने की मुहीम। अभी जैसे कई और परतें शामिल हैं इस बिरखी दुनिया के दरमियाँ। 

लख्मी 

Wednesday, February 5, 2014

असाधारण लालसाएँ




जीवन में आकर्षण भर उजालों के बादल अधेरों के दरवाजों पर ठक-ठक करते हैं फिर इन गहरे अन्धेरों में हाथ पकड़ कर भटकाने वाली लालसायें कौन हैं? जिनके साथ भटकने के बाद अपना पता मिलना मुश्किल होता है।

इंसान अपने आसपास फैली संसार की भावूकता और मार्मिकता के कई रूपो, मुखोटों की अस्लियतों को एक आकार देते हुएँ अपने पीछे इफैक्ट छोड़ते जाते हैं जीवन के रसों को तरह-तरह से बनाने के लिये है।

राकेश

आभास




क्या निकलना, अन्दर जाने के जैसा ही होता है या जगह हमें बाहर धकेलती है? बाहर आना और बाहर धकेलना! दोनों के साथ और दोनों के बाद।

लख्मी