उसी खुरदरेपन से छिटका वक़्त का एक तार
हर घर में अब एक अलमारी अब बुक होने लगी थी। चाहें इस अलमारी में बर्तन, तोहफे या कपड़े हो या न हो लेकिन कैसेटें रखना तो तय हो गया था। हर कोई इस जिद्द में अपनी अलमारी को भरने में जुटा रहता कि एक दिन सबको दिखा सकें या जब भी उसके घर में कोई आये तो उसकी नज़र इस अलमारी से दूर ही नही जाये। यूहीं अलमारी भरने की मारामारी पूरे इलाके और गली के अन्दर कूद रही थी।
ये साल कुछ गज़ब ही गुज़रने की लालसा में था। सन् 1984 का उस बड़े शौर का ख़त्म होना था और कई छोटे-छोटे शौर शुरू होने की ये पहली साल थी। जहाँ सारी आवाज़ें अगर एक साथ भी मिलकर गूंजें तो भी शौर नहीं कहला सकती थी। सन् 1987 और सन् 1988 का ये दौर अपनी चरमसीमा पर था। अब पूरी गलियाँ एक – दूसरे से आवाज़ों की लड़ाई करने के लिए बेहद तैयार थी। कभी आमने - सामने तो कभी आस – पड़ोस में तो कभी एक छत से दूसरी छत तक ये आवाज़ें नाचती फिरती। यही ज़ोरा-ज़ोरी करने में अपनी पूरी ताकत लगा देती।
ये साल कुछ गज़ब ही गुज़रने की लालसा में था। सन् 1984 का उस बड़े शौर का ख़त्म होना था और कई छोटे-छोटे शौर शुरू होने की ये पहली साल थी। जहाँ सारी आवाज़ें अगर एक साथ भी मिलकर गूंजें तो भी शौर नहीं कहला सकती थी। सन् 1987 और सन् 1988 का ये दौर अपनी चरमसीमा पर था। अब पूरी गलियाँ एक – दूसरे से आवाज़ों की लड़ाई करने के लिए बेहद तैयार थी। कभी आमने - सामने तो कभी आस – पड़ोस में तो कभी एक छत से दूसरी छत तक ये आवाज़ें नाचती फिरती। यही ज़ोरा-ज़ोरी करने में अपनी पूरी ताकत लगा देती।
आखिरकार ये शौर था क्या?, कहीं ये किसी बड़े तुफान का अंदेशा तो नहीं था या फिर बड़े तूफान के बाद का शौर था। ऐसा शायद यहाँ पर कुछ भी नहीं था। ये शौर उन शब्दों से बना था जिसमें सारे काम हल्के पड़ जाते थे। गुट रौनकदार बन जाते और माहौल अगला - पिछला सब भूल जाते। ये उन आवाज़ों का शौर था जो किसी को रातों को सुलाने के लिए होती तो किसी को रातों को जगाने के लिए। किसी को करीब बुलाने का इशारा होती तो किसी को तन्हाई में किसी की याद दिलाने के लिए होती। जो भी हो मगर ये घुल गया था इस दौर में। और कभी-कभी तो गानों का व गीतों का ये शौर एक – दूसरे को चुप कराने के लिए होता। ये एक कशमकश थी जो लोग दिल के किसी कोने में छुपाये रखते, खेल खेलने के लिए तो कभी नज़रबन्द करने के लिए। कभी किसी को सुनाने के लिए तो कभी खुद सारी आवाज़ों को भूल जाने के लिए। यही लड़ाई भले ही रोज़ाना होती लेकिन काम इसकी ओट में हल्के और आसान होते चले जाते। सवेरे - सवेरे भग्ति गीत चलते लेकिन उसके तुरंत बाद ही गाना बदल दिया जाता। जैसे हर गाने और शब्दों का कोई चुनिंदा वक़्त हो। उसके बाद ही "हिम्मतवाला - फ़िल्म चलती तो, कभी प्रेमरोग फ़िल्म के गीत गुन-गुनाते। जैसे ही ये फिल्में अपना ज़ोर पकड़ लेती तो उसके बाद शुरू होती ज़ोरआज़माइश की दुनिया। खींचातानी की हरकतें और भिड़ जाने का जोश।
इसी शौर के बीच में एक आवाज़ ये भी थी, जिसको सुनने के लिए कानों को तैयार करने की जरूरत नहीं थी और न ही कहीं किसी एक तरफ में ध्यान लगाने की। ये आवाज़ तो आपको तालशती हुई आपके पास खुद ही चली आयेगी।
उनका घर अपनी पूरी गली में सबसे छोटा था। दस ही किलो की सफेदी में पूरे घर को रंग दिया जाता। हर बार एक ही रंग की सफेदी से पूरे घर की दीवारों पर अनगिनत परतें चढ़ चुकी थी। उनका बड़ा ही गज़ब शौक था अपने घर को सजाने का। वो हर सड़क पर लगते बाजार में यही सोचकर घूस जाता करती थी।
दक्षिणपुरी में ये पहली बार था की फ़िल्मी हीरो-हिरोइने के पोस्टरों पर इतना ज़ोर था। पोस्टकार्ड, पोस्टर, कलैन्डर और जैब के मुताबिक बनने वाले टिक्कल यहाँ की हवाओ को कबज़े में कर चुके थे। इन्ही सभी से भरा था उनका पूरा घर, कहीं पर जितेन्दर, कहीं पर अनिल कपूर तो कहीं पर अमिताभ बच्चन दीवारों की रौनक बड़ाते नज़र आते।वो हमेंशा इन्ही से अपने घर के वो कोने छुपाने का काम करती जिनको उनके घर में देखने की किसी को जरूरत नहीं थी। कभी अलमारी के ऊपर, कभी दो कमरों की दरारियों के ऊपर तो कभी दीवारों में कीलों से हुए छेदो को दबाने के लिए। वो इन पोस्टरों को दर्जनों के हिसाब से खरीद लाया करती थी। पाँच रूपये के बड़े पोस्टर और छोटे पोस्टकार्ड पाँच रूपये में दस मिल जाया करते थे। सबको जमा करती और उसके बाद में बैठ जाती उन्हे अपने घर की दीवारों पर चिपकाने। जब तक घर के सभी उन पोस्टरों के रंगो और कपड़ो की खूबसूरती में खोते तब तक स्टोप पर आटे की लेहई बनाने का काम चलता। जिसमें थोड़ा आटा और थोड़ा अरारोट डाला जाता। उसके थोड़ा ठंडा हो जाने के बाद में वो बेहद चिपकना हो जाता। बस, फिर तो धड़ा - धड़ लेहई पोस्टरो के पीछे कपड़े से लसेहड़ी जाती और पोस्टर को दीवार पर बहुत ही नर्म हाथ से चिपका दिया जाता। हाँ जब कभी उनकी दीवार उस पोस्टर को संभाल नहीं पाती तो वो उसके कोने पर हाथ से दो - चार घूंसे मार कर उसे चिपका देती। उनका ये शौक उन्हे बेहद खुशी देता था। अपना घर वो इन्ही चेहरो से भरकर वो बहुत खुश होती और फिर प्रथा शुरू होती उनकी अपने पड़ोसियों को घर में बुलाने की। किसी की भी आँख दीवारों से नीचे ही नहीं खिसकती थी। जो भी एक बार ऊपर देख लेता तो बस, वहीं पर जम जाता। कभी यहाँ देखता तो कभी वहाँ, और इन्हे ये सब देखने में इतना मज़ा आता की वो किसी को ये बता भी नहीं पाती थी।
चाय की चुश्कियों के साथ बातें अपना ज़ोर पकड़ लेती। पोस्टर में दिखने वाला सीन किस फ़िल्म का या ये इस तरह के कपड़ों के इस हीरों में किस फ़िल्म में पहने हैं वो बताना और याद करना शुरू हो जाता। अब चाहे कितना भी वक़्त लग जाये लेकिन सभी फ़िल्मों के नाम बता कर ही सांस ली जायेगी। अगर इनमें से कोई पोस्टर या पोस्टकार्ड किसी गाने के सीन का होता तो बस, वो गाना गाना चालु हो जाता। आवाज़ कैसी भी हो लेकिन गाना तो गाया ही जायेगा। किसी - किसी सीन में लड़ाई का दृश्य होता तो कोई ऐसा होता की वो याद में अटक जाता।
बातों ही बातों में ये भी तय कर लिया जाता कि अगली बार अगर हम फोटो खिंचवाने गये तो इस तरह से खड़े होकर खिंचवायेगें। अक्सर श्री देवी के खड़े होने के अंदाज़ को पकड़ा जाता। सभी वहाँ पर खड़ी हो - होकर ये दिखाती की वो कैसे खड़ी है। और अपने चेहरे के भाव में उसकी किसी फ़िल्म की अदा का कैद किया जाता। ये खेल खुद को ताज़ा करने के लिए था या खाली वक़्त को महसूस करने के लिए मगर ये किसका असर है वो दिखने लगा था।
सभी उस एक सीन से पूरी फ़िल्म की स्टोरी सुनाने बैठ जाती। कोई उस फ़िल्म को दोबारा देखने की कहती तो कोई उस सीन के बाद में कौन सा सीन था वो बताने लगती या अगर किसी ने ये नहीं देखी होती तो वो क्या बतायेगी वो सोचती रहती। मगर इस सब में वो छुपी बातें भी निकल आती जो इस समय की सबसे दावेदार होती। कोई इस फ़िल्म को कैसे देखकर आई है और कब देखकर आई है या फिर कहाँ देखकर आई है? ये सब निकलने लगता। ये दौर ऐसा नहीं था की कहीं भी, कैसे भी और कभी भी फ़िल्म देखली जाये। इसके लिए तो बहुत सोचना पड़ता था।
माहौल बेहद गर्म हो जाता। पूरी फ़िल्म उन्ही तस्वीरों के जरिये दिमाग में घुमाई जाती। जैसे की ये कोई पोस्टर नहीं बल्कि उसी फ़िल्म की बची हुई रॉल है, जो बिना आवाज़ के सामने दिखाई दे रही है। यही तो कमाल था उनका इन पोस्टकार्डों को लगाने का तरीका। वो इस तरह से अपने घर में वो लगाती थी की लगता था कोई फ़िल्म चल रही है। वो उन्ही दृश्यो को दुकानों - दुकानों ढूँढती फिरती जो एक ही फ़िल्म के लगते थे। भले ही वो किसी भी फ़िल्म के होते या भले ही वो खाली किसी जगह पर खिंचवाई फोटो ही क्यों न होती। वो सबके मिलाकर एक बनाती और उन्हे दरवाज़े या दिवार पर कुछ इस तरह से चिपकाती की लगता जैसे बिना आवाज़ के कोई फ़िल्म देखली हो। यही देखने तो लोग उनके घर में दौड़े चले आते थे।
हर रोज़ शाम में तो कभी दोपहर में उनके घर में यही मण्डली जमती और फ़िल्मो की कहानियाँ मुँहज़ुबानी सुनाई जाती। जिसने वो फ़िल्म देखी होती वो उस मण्डली की रानी होती और जिसने नहीं देखी होती वो उस मण्डली के सबसे महत्वपूर्ण होते जिससे वे मण्डली चलती थी। बड़े चाव से सभी उस कहानी सुनाने वाली के चेहरे और बातों में खो जाती। एक – एक सीन हो या कहानी के कोई ख़ास अहसास उसे फौरन ही बता दिया जाता। उसके बाद उस सीन पर बातें होना शुरू होती। किसी को वो बेहद अच्छा लगता तो किसी को वो बेहद बुरा। कोई हीरो की तारीफ करती तो कोई गुन्डा यानी विलयन को गाली देती। मगर मण्डली और कहानी का मज़ा कभी ख़त्म ही नहीं होता।
ये पहला सीन था जिसका न तो कोई हाथ था और न ही पाँव यानी ये मण्डली है भी या नहीं ये किसी को जानने की जरूरत नहीं था। फिर भी ये चलती ही जा रही थी। इसके पाँव बाहर कब निकल जायेगें इसका भी किसी को कोई अहसास नहीं था। धीरे - धीरे ये कहानियाँ सुनाने का दौर यहाँ इस गली से दक्षिणपुरी के कुछ हिस्सो में छाने लगा। फ़िल्मों को देखकर सुनाने का चश्का पूरे इलाके की शान बन गया। कोई गानो से शायरी करता तो कोई हीरो के डाँस में झूमता नज़र आता। फ़िल्मों की कहानियाँ लोग अपने तरीके से एक – दूसरे में सुनाने लगे थे।
ये इलाका कब पुरानी कहानियों और आस – पड़ोस की बातों से कब बाहर आ गया वो किसी को पता ही नहीं चला था। ये झटके से नहीं हुआ था इतना पता था। ये जैसे इस जगह की रग़ो में उतर गया था। रात – रात बस, यही गुट बने रहते थे। अमिताभ बच्चन, राजकपूर, शत्रुघनसिंहा और धमेंद्र के नाम के डंके बजने लगे थे। हर किसी के बालों का कटींग अमिताभ बच्चन के जैसा दिखता और सबके पहलवानी का शौक चड़ चुका था।
गली के अन्दर दाखिल होते ही गानों की लड़ाई सुनाई पड़ती। कौन सा गाना चल रहा है वो मालुम ही नहीं पड़ता था। "मेंरे सामने वाले के गाने की आवाज़ तेज़ कैसे है?” इसी जिद्द ने पूरा मैदान मारा हुआ था।
रेडियो के जमाने में डैक होना बहुत ही धांसू बात थी। कमलेश अपनी गली की पहली लड़की थी जिसके घर में डैक था। अब इससे कौन मैदान मार सकता है? उस समय वो इस्टआफ कैलास में काम करती थी। अव्वल तो उनके काम का सारा रूपया - पैसा उनकी माँ के हाथों में जाता था मगर वो कुछ ऊपर का काम करके अपने लिए रोजाना का बीस रुपया बचा लिया करती थी। बस, उन्ही पैसे से वो अपने घर को सजाने का मन बनाती थी। अपनी उसी कमाई से वो एक डैक खरीद लाई थी। लोकल कम्पनी का था। जिसमें रेडियो और कैसेट दोनों ही चलते थे। स्पीकर साथ में आये थे दो थे, जिनको अलग - अलग भी लगाया जा सकता था और दीवार में लटकाया भी जा सकता था।
गली में लोगों को घरो से बाहर निकले के लिए कुछ माहौल होते थे। या तो गली में कोई खेल दिखाने वाला हो या ढोल बज रहे हो या फिर किसी के यहाँ कोई समान आ रहा हो। ऐसा ही आज शाम में हुआ। गली में जैसे ही स्कूटर वाला उनका डैक लेकर आया तो देखने वालों की भीड़ लग गई। सभी ये देख रहे थे कि ये रूकेगा कहाँ? जब तक वो चलता जाता तब तक लोग यही सोचते जाते की किस के यहाँ आया होगा? "नेता जी ने मंगाया होगा, नहीं - नहीं शायद कोने वाली ने लिया होगा?” यही अंदाज़े लगाये जाते। आखिर ये है किसका?
कमलेश जी ने माँ हाथों में पानी का ग्लास और थाली लेकर जैसे ही बाहर आई तो सबके समझ में आ गया की ये कहाँ आया है। स्कूटर वाले ने जैसे ही दरवाज़े के सामने कदम रखा तो उनकी माँ ने जमीन पर वो पानी डाला और सिंदूर का टीका डैक को लगाया उसके बाद उसे घर में लिया। अब सब कुछ शुभ – शुभ होगा। जैसे ही वो डैक वाला अन्दर दाखिल हुआ तो पीछे - पीछे पड़ोसियों का झुण्ड भी दाखिल हुआ। सभी उस कागज़ के डिब्बे के खुलने का इन्तजार कर रहे थे, कि आखिर इसमें है क्या? खुद कमलेश जी ने ही इस पहेली को हल किया, उन्होनें उसे डिब्बे की कैद से जैसे ही आज़ाद किया तो देखने वालो की भीड़ लग गई। उसका रंग और डिजाइन देखकर सभी खुश हो रहे थे। अब तो बस, इन्तजार था उसकी आवाज़ सुनने का। उस बन्दे ने घर में उसे रखकर सबसे पहले उसकी आवाज़ सुनाने की बारी लगाई। अब कैसेट तो थी नहीं तो उन्होनें सबसे पहले उसका रेडियो ही चलाया। आवाज़ साफ नहीं आ रही थी। उसने इधर – उधर देखा और फिर से दोबारा उसका कान मारोड़ने लगा। अभी यहाँ पर रेडियो इतना साफ नहीं चल रहा था। शायद बनती हुई जगह में रेडियो की ट्यूनिंग बहुत कम थी। आवाज़ में गाना कम और झर्राहट ज्यादा थी। जब इससे काम ना बना तो उन्होनें एक कैसेट निकाली और उसे लगा दिया उस डैक में, “सब जिस जगह में रहते हैं, उस जगह को वो घर कहते हैं।" इस लाइन से उसने आवाज़ तेज़ करना शुरू किया और "हम जिस घर में रहते हैं उसे प्यार का मंदिर कहते हैं।"
गाने की आवाज़ गली को एक ही दरवाज़े के सामने जमा करने की ताकत दिखा दी थी। सबकी नज़र उस चलते गाने पर डैक के ऊपर जमी थी। जब उसमें गाना चल रहा था तो उसमें जलती लाइट भी कभी कम तो कभी तेज़ हो रही थी। ऐसा लग रहा था की जैसे वो भी इस गाने पर नाच रही है। अब गली में आवाज़ सुनकर कुछ मिठ्ठे की फरमाइशें करना शुरू कर दिया। यहाँ पर मौका तलाशते थे लोग की कुछ ऐसा हो की मुँह मिठा करने की बारी आ जाये। और इस दौरान ये बहुत जोरों - शोरो से चल रहा था। नया काम, नई दुकाने, नई चीज़ें और नया कोई नक्शा यहाँ पर हर वक़्त बनता रहता था। बस, सभी उसी में लीन होने के अपने बिछोने बिछाने की कगार पर रहते।
उनका घर उस एक चीज के आने से बहुत छोटा नज़र आने लगा था। पूरे घर में वो उसके रखने और जमाने की जगह तलाश रही थी। काफी देर तक वो यही सोचती रही कि इसे कहाँ पर रखा जाये। खाली रखना होता तो कोई बात नहीं थी उसके रखने में तो ये भी तो जोड़ना था न की इसे ऐसी जगह रखा जाये जहाँ से आराम से नज़र आये और इसकी आवाज़ बाहर तक जाये। अब ऐसी जगह ढूँढना आसान काम नहीं था। बड़ी लम्बी मस्ककत के बाद में उन्होनें कुछ इंतजाम करने की ठानी, उन्होनें अपने कपड़ो की अटैची खाली की और उसपर उसे टिका दिया। लेकिन यहाँ से नज़र तो नहीं आ रहा है। तो उन्होनें उस अटैची के नीचे चार इंटे रखी और उसे ऊँचा कर लिया। इंटों को पुराने अखबार से लपेटकर उन्हे छुपा दिया और बहुत सजाकर उसे रखने और दिखाने लायक बना दिया।
सब इंतजाम करने के बाद में उनका काम था कि उसकी किश्त बराबर चुकाना और उसके लिए नई – नई कैसेटों का जुगाड़ करना। शायद वो इस काम को तो आसानी से कर सकती थी। तभी तो उसे देख – देखकर बहुत खुश थी। कुछ दिनों तक तो उनका मन अपने घर के अलावा बिलकुल भी लगा ही नहीं। बस, सोचती रहती थी कि कैसे जल्दी से घर जाऊँ और डैक को चलाऊँ। वो तो बस, घर की तरफ भागने की बैचेनी में हमेंशा रहती। इससे भी उनका दिल नहीं भरता था। वो रोज़ शाम खाना बनाते समय अपनी छत पर ही उसे रख लिया करती थी और रेडियो चलाकर उसकी आवाज़ तेज कर दिया करती। आवाज़ जहाँ तक भी जाती तो बस, लोगों को उस तरफ झुकना शुरू हो जाता। बस, आवाज़ ही तो कानों तक आती थी। वे कहाँ से आ रही है वो सोचना जरूरी नहीं था। कान कहीं खुद – ब – खुद पँहुच जाते थे। ये काफी था।
अटैची को पोस्टकार्ड से भर दिया गया। उसके ऊपर के हिस्से में हिम्मतवाला फ़िल्म के हीरो जितेन्दर का पोस्टर लगाया गया और डैक को एक सफेद साफ कपड़े से ढाका गया लेकिन वहाँ तक जहाँ तक उसकी लाइटें चमकती थी। ताकी उने घर में कोई आये तो इसे पहले देखे।
चाहें किसी को या उनको खुद को कुछ याद रहे या न रहे लेकिन उन्हे ये याद रहने लगा था की इससे रोजाना एक घंटा रेडियो चलाना है। शाम का वक़्त होते ही वो खाना बनाने के लिए छत पर जाती और रेडियो की भी आवाज़ उनके हाथों के थप – थप के साथ आती रहती। ये वक़्त लोगों के काम को तसल्ली से ख़त्म करने के लिए बना दिया था कमलेश जी ने। उनके पड़ोस का मकान, सामने का घर और उसके पीछे का वो ऊँचा मकान सभी से लोग झाँकते और आवाज़ को सुनने की फरमाइशें करते। मगर आवाज़ कभी वो तेज़ नहीं करती थी। कहती, “ये गाना धीमी आवाज़ में ही अच्छा लगता है।"
ये वक़्त उनके घर में पड़ोसियों का जमावड़ा लगा रहता। सारा काम – वाम ख़त्म करके सभी उनके घर में गाने सुनने चली आती। आधे वक़्त तो उनके घर में रेडिया चलता और बाकी के वक़्त रेडियो से निकलते गाने में झूठी कहानियाँ बनती, मनगढ़ंत किस्से सभी सुनाती, सभी को पता था की ये फ़िल्म नहीं देख सकती अकेले कहीं पर जाकर मगर फिर भी सभी सुनती की और सुनाती की ये फ़िल्म उसने कहाँ और कैसे देखी। हँसी में सही लेकिन ये सच मान लिया जाता। कभी - कभी तो कोई गाँव तो रिश्तेदारी में जाकर देखी है ये कहकर बड़ी बन जाती। यहाँ किसी को क्या लेना - देना था। हाँ भई देखी है तो देखी है। सुनाओ।
ये बातें इस माहौल की राज़दार बनी रहती। माहौल कहीं का कहीं हो जाता मगर ये बातें कभी ख़त्म ही नहीं होती। अगर रेडियो में गाने पंद्रह आये है तो सात फिल्में तो इनकी देखी - दिखाई होती। ये तय हो जाना पक्का हो जाता।
उनकी अलमारी में आज 150 कैसेटे हैं, लेकिन कोई भी साबूत नहीं है। सारी टूटी पड़ी हैं। एक बार कबाड़ी की दुकान पर घर की कुछ बोतलें बैचने गई थी। वहाँ पर देखा की कोई कबाड़ी अपनी बोरी खाली कर रहा है, सही - खराब माल छाँट रहा है। उसी में ये काफी सारी कैसेटें थी उन्होनें वो सारी की सारी कैसेटें छाँट ली थी। आवारा, नदिया के पार, कर्ज़, बॉबी और गोलमाल जैसी फिल्में उन्होनें पहले से ही छाँटली थी। लेकिन उनके मन तो सारी कैसेटें ले जाने की थी। उन्होनें सारी कैसेटें भरली थी और उस कबाड़ी से मोल – भाव करके उन्होनें उन्हे 50 रुपये दिये और सारी कैसिटें भर लाई। अब तो बस, उन्हे चैक करना रह गया था। पूरे पंद्रह दिन और कई रातें लगी उन्हे ये चैक करने में। अब तो उनके शाम के वक़्त के लिए काफी गाने थे जिन्हे वो चलाकर सबको सुना सकती थी।
माहौल में नये गाने और पुराने की गानो की हमेंशा लड़ाई लगी रहती। मगर आवाज़ों पर इसका कभी ज़ोर ही नहीं रहता। माहौल में फ़िल्म के गाने से ज्यादा उस अनदेखी फ़िल्म की कहानी पर इतना ज़ोर होता कि सभी उसी अनदेखी को अनजानी फ़िल्म की तरह से खुद में उतारते। जिससे उनके घर का वो माहौल किसी और दुनिया के हवाले हो जाते। अब तो उनके घर के अन्दर, घर के बाहर और छत के ऊपर जमने वाला माहौल इस जगह के लिए वो दौर था जिसमें कुछ दिलों में उतारा जाता।
अलमारी तो अब भरने लगी थी। कभी रोजाना के बीस रुपये में उसको जान मिलती तो कभी कबाड़ी की दुकान से सांसे लेकिन अलमारी और ये माहौल दोनों ही एक – दूसरे के रचेता बन गये थे। कमलेश ही रोजाना जैसे इस माहोल को रचती वैसे ही हर रोज़ कबाड़ी की दुकान पर जाना उनका तय हो गया था। कबाड़ी की दुकान उनकी गली के बाहर ही थी। जिसमें वो कभी सहेलियों के बहाने तो कभी घर से टीन – टपर्र बैचने के बहाने वहाँ पर जाने लगी। लेकिन इस सबके पीछे तो कुछ और ही था। जो वो अच्छी तरह से जानती थी।
अलमारी को भरना उनके अपने मन को भरने के समान था। जैसे वो खुद को ही भर रही हो। ये खुद को भरना या उस माहौल का जमना, असल में ये शुरूआत थी, जिसमें किसी भी तरह की बाधा नहीं थी।
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जीवन में तरक्की होना बेहद ज़रूरी है।
लेकिन तरक्कियां जीवन को कोनों में डाल देती हैं।
समय का बदलाव बेहद ज़रूरी है
मगर बदलाव आत्मनिर्भरता को ठोस कर देता है।
लख्मी
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