Wednesday, July 31, 2013
Monday, July 29, 2013
Monday, July 15, 2013
मेरी छत का पीपल
मेरी छत पर एक पीपल का छोटा सा पौधा ना जाने कहां से उग आया।
जो भी उसे देखता बस वही सकबकाया।
मां कहती है - इसे उखाड़कर फैंक दे वरना ये पूरे में फैल जायेगा।
तो पिताजी कहते हैं - तू चिंता मत कर तेरी पौधे उगाने की तमन्ना को पूरा कर जायेगा।
दादी कहती - ये भूतों का डेरा है ये तेरे घर को ही निगल जायेगा।
तो इस पर पिताजी फिर से कहते - चल इस छत के सूनेपन को खत्म तो कर जायेगा।
बच्चे कहते - पिताजी इसकी निम्बोरी को हम कंचे बनाकर खेलेगें।
तो कुछ दिनों के मेहमान कहते - भाई हमें तो छत पर बिस्तरा करदे हम तो यहीं रह लेगें।
पड़ोसी कहते - ये एक बार बड़ने लगा तो दिवारों को तोड़ देगा।
दूर से देखते लोग कहते - ये नींव तक जाकर उसकी ताकत को फोड़ देगा।
दादी फिर से कहती - बच्चों का छत पर आना बंद हो जायेगा।
ये सुनकर गली के लोग कहते - बूरी आत्माओं का रास्ता तुम्हारे के लिये खुल जायेगा।
पिताजी मगर किसी की ना सुनते "तुम सब पागल हो" बस यही लाइन हर बार बुनते।
पानी की टंकी चेकिंग करने आये सरकारी अधिकार उसे देख कुछ जरूर बोल जाते।
पानी मे काई जम रही है इससे, चालान करवाना नहीं है तो इसे यहां से हटा दे।
बारिश पड़ी तो उसकी हल्की कमजोर झड़ियां और भी हरी हो गई।
लगता था जैसे बिन मुराद के पैदा हुई लड़की बड़ी हो गई।
अब उसे जवान होने पर रोक लगाई जायेगी।
अगर वो बोलने वाले के मुताबिक नहीं रही तो वो उखाड़ दी जायेगी।
वो तो शुक्र है कि छोटा सा पेड़ अभी चार साखाओं पर ही खड़ा है।
नीले आसमान के नीचे चुल चुल पानी की लकीरों पर ही पड़ा है।
लख्मी
जो भी उसे देखता बस वही सकबकाया।
मां कहती है - इसे उखाड़कर फैंक दे वरना ये पूरे में फैल जायेगा।
तो पिताजी कहते हैं - तू चिंता मत कर तेरी पौधे उगाने की तमन्ना को पूरा कर जायेगा।
दादी कहती - ये भूतों का डेरा है ये तेरे घर को ही निगल जायेगा।
तो इस पर पिताजी फिर से कहते - चल इस छत के सूनेपन को खत्म तो कर जायेगा।
बच्चे कहते - पिताजी इसकी निम्बोरी को हम कंचे बनाकर खेलेगें।
तो कुछ दिनों के मेहमान कहते - भाई हमें तो छत पर बिस्तरा करदे हम तो यहीं रह लेगें।
पड़ोसी कहते - ये एक बार बड़ने लगा तो दिवारों को तोड़ देगा।
दूर से देखते लोग कहते - ये नींव तक जाकर उसकी ताकत को फोड़ देगा।
दादी फिर से कहती - बच्चों का छत पर आना बंद हो जायेगा।
ये सुनकर गली के लोग कहते - बूरी आत्माओं का रास्ता तुम्हारे के लिये खुल जायेगा।
पिताजी मगर किसी की ना सुनते "तुम सब पागल हो" बस यही लाइन हर बार बुनते।
पानी की टंकी चेकिंग करने आये सरकारी अधिकार उसे देख कुछ जरूर बोल जाते।
पानी मे काई जम रही है इससे, चालान करवाना नहीं है तो इसे यहां से हटा दे।
बारिश पड़ी तो उसकी हल्की कमजोर झड़ियां और भी हरी हो गई।
लगता था जैसे बिन मुराद के पैदा हुई लड़की बड़ी हो गई।
अब उसे जवान होने पर रोक लगाई जायेगी।
अगर वो बोलने वाले के मुताबिक नहीं रही तो वो उखाड़ दी जायेगी।
वो तो शुक्र है कि छोटा सा पेड़ अभी चार साखाओं पर ही खड़ा है।
नीले आसमान के नीचे चुल चुल पानी की लकीरों पर ही पड़ा है।
लख्मी
Tuesday, July 9, 2013
मेरे पापा की रिपोर्टकार्ड
बड़े भाई काफी दिनो
से गाडी लेने की सोच रहे थे। जिसके लिये उन्हे अपनी
महिने की तंख्या मे से
कुछ-कुछ पैसा जोड़ना पड रहा था। अक्सर
वो किसी मिंया-बीवी को मोटर साइकिल पर बैठे देखते तो एक
चाहत सी अन्दर उमड़ पड़ती और कई सपने उसकी तरंगो मे पमपने लगते। लेकिन इतना
पैसा होना शायद मुमकिन नही लग रहा था तो किसी से बात करके
बैंक से लोन उठाने की कशकस मे लगे हुये थे। बड़े भाई साहब अपने
सपनो को पालने के साथ-साथ एक अच्छे पिता भी है दो बच्चो
के उनके प्रति वो बड़े सर्तक रहते है। अक्सर अपने बच्चो की
जब भी रिर्पोटकार्ड हाथो मे आती है तो एक लम्बा भाषण बडे
प्यार से दे डालते है। प्यार से भरे इन शब्दो मे इस चिकने लठ
की मार शरीर पर तो नही लगती पर जहन मे और जमीर पर तो अपनी
छाप जरुर छोड देती है। और लगे हाथ वो अपने बीते स्कूली
दिनो की बातों और कहानियो को भी सुना डालते है। जो नसिहत
के तौर पर होती है पर सुनने मे पता नही लगता कि आखिर मे क्या कहने की कोशिशे कर रहे है?
बडे भाई साहब अपनी इन बातो मे बीते दिनो की हल्की हल्की कहानियों को चेहरे पर
ला ही देते है। एक दिन बच्चो की रिर्पोट कार्ड हाथो
मे लिये खड़े थे। बच्चे अपनी रिर्पोट लार्ड पर उनके
हस्ताक्षर कराने के लिये लाये थे। लेकिन इन्हे खाली साइन ही
नही करना था। थोडा नजर भी तो डालनी थी। ओर अगर कुछ बोला नही
नम्बरो के बारे मे तो फिर पिता का रौब क्या रहा?
नम्बरो को देखते ही बोले,
"ये क्या नम्बर है? बेटा अगर यही हाल रहा तो फाइनल पेपरो मे क्या हाल
होगा? किसी भी पेपर मे 50 परसेन्ट से भी
नम्बर नहीं है। मै क्या देखु इसे, और क्या साइन करु?
अपनी मां से ही कराले।
मालुम है तुम्हारी उम्र मे हम खेलने के अलावा पढाई पर भी
ध्यान देते थे और मेरे नम्बर हमेशा 75
परसेन्ट से भी ज्यादा नम्बर आते थे। मेरा टीचर हमेशा मुझे आगे वाले डेक्स पर ही
बिठाता था। और ये क्या है?"
इतना तो वो हमेशा
कहते ही थे और हल्की सी झलक अपने बीते दिन की भी रख देते थे।
मगर आज तो
किसी और ही धून मे थे। जिससे लोन की बात की थी उसने कल के लिये बुलाया था। शाम से ही अपने डोकोमेन्ट को
इकठ्टा करने मे जुटे हुये थे। अपनी अटेची को जमीन पर रखे दोनो हाथो से उसमे कुछ खरोर रहे थे। उनकी बीवी भी अलमारी
मे पुराने पर्स और लोकर मे लगी नीले रगं की पन्नी मे
से कुछ पेपर निकाल कर देख रही थी।वहीं साथ ही बिखरे पेपरो मे बच्चे भी
न जाने क्या क्या उठाकर देख रहे थे?
ऐसे मे कुछ जरुरी कागजो मे कुछ वो कागज भी मिल जाते
है जिनमे खाली यादें ही नही बल्की एक लम्बी जिन्दगी का
हिस्सा बसा हो यानि के दस से पंद्रहा साल। सभी कागजो मे व्यसत
हो रहे थे। तभी उनके लडके के हाथ बड़े भाई साहब की रिर्पोट कार्ड
लग गई। वो उसे अपने हाथों मे लेकर पढने लगा पढते=पढते
वो पुरे कमरे मे घूम रहा था।
हिन्दी मे 34, गाणित मे 2, अग्रेजी मे 23 जब वो इसे पढ रहा था तो सभी की नजर बडे भाई साहब पर थी और सभी हसं भी रहे थे। बड़े चाव से लडका बार-बार नम्बरो को दोहरा रहा था। मगर बड़े भाई साहब जान बूझ कर पेपरो मे खोये का नाटक कर रहे थे। इन नम्बरो और उनके चेहरे को देखकर सब सोच रहे थे कि उन बडी-बडी बातो, कहानियो ओर उन दिनो के पीछे कोन सा शख़्स था? ओर पेपरो मे खोने वाला, बाइक की चाहत रखने वाला, और इस समय रिर्पोट कार्ड के नम्बरो मे कोन सा शख़्स है?
लख्मी
Thursday, July 4, 2013
आसपास से साधन
आसपास अनेकों रंगबिरंगी जीवन की घटनाओं का एक जत्था किसी
एक शख्स की जिन्दगी की कहानी कहता है। कभी सौगातें, कभी मुश्किलें, कभी फैसले तो कभी चाहतों
के गट्ठर बनकर। हर शख्स और रिश्तों के भीतर कई ऐसे कारणपस्त दृश्य छिपे हैं जो
उदाहरण बने कईयो के जीवन में दखलअंदाजी करते हैं। एक दूसरे में ट्रांसफर होते। ये दृश्य बनते एक जिन्दगी
से हैं लेकिन फिर सबके हो जाते हैं। किताबें
इन सबके हो जाने से पिरोये जाती हैं। जिनमें हंसी, खुशी,
चुनौतियाँ, परेशानियां और उनके निवारण, कामयाबी के चरण को बखूबी बुनियादी शब्दों में बांधकर एक पुल बनाया
जाता है। किताब उस पुल को ध्यानपूर्वकता से पढ़ने और भविष्य की तस्वीर को गाढ़ा कर
देने की फोर्स का एक नाम भी हो सकता
है।
स्कूली किताब के पाठ, आकार और पाठ के ज्ञान को उसके वज़न द्वारा किताबों में भरा जाता
है। लेकिन इतने बेजोड़ जोड़ के बावजूद भी जब एक क्लास इनके बीच घूम रही होती है तब
वे सभी वज़न आम जीवन की जमीन पर बिखर जाते हैं। जैसे किसी पाठ के किरदारों, जगहों, भाषाओं, महोलों से भरी लदी गाड़ी का जोरदार एक्सीडेंट जीवन के तरल पहाड़ से हो गया हो। उस पाठ के कई हिस्से आम जीवन की जमीन को छूने लगते हैं।
किताबें अणुओं की भांति रेंगती हैं। एक से दूसरे को धकेलतीं हैं। फिर मिलना व चिपकना शुरू होता है। जिसमें कई ऐसी जीवनिए
घटनायें,
शख्स, भीड़,
रिश्ते, कहानियां भी खिंच आती हैं जिनका भाषा और जमीन से चिपकने की कोई जरूरत नहीं।
लख्मी
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