Friday, September 18, 2009

पढ़ना क्या है?

अपने आपको रख पाने का मतलब क्या है?

"जानकारी" जो एक बढ़े स्थर पर हमारे आसपास है जिसमें पढ़ने के मायनें इतने महत्वपूर्ण हैं कि उसमे आने वाली ज़िन्दगी, कला या जगह- सब एक मायनें लेकर जीवन में एक एक्ज़ॉम्पल की तरह से ठहर जाती है और अगर बाहर आती है तो हमेशा किसी अन्तरविरोध में या बने-बनाये ढाँचों को और मजबूत करने।

स्कूल, अख़बार और साइनबोर्ड इसी घेरे के पात्र लगने लगते हैं। जिनका जीवन किसी न किसी प्रकार इतिहास को लेकर चलता है। कहानी, शब्द, चुटकिला, शेर-शायरी या कविताएँ सभी किसी ना किसी चेहरे की मोहताज़ बनने लगती है। बस, कोई मुखड़ा होना चाहिये जिसकी माँग में शहर जीता है। महत्वपूर्ण होने के बावज़ूद भी मुखड़े की माँग एक चित्र खींचकर कोई कोना दे देती है। जिससे ये दावा होने को उतारू हो जाता है कि "हमें जानकारी है" यही माँग या जरूरत सा दिखता है। जिसका आधार क्या है यह समझ में नहीं आता पर सवाल छोड़ जाता है।


अपने आपका दोहराना या अपने आपको बता पाना क्या है?

इसी को अगर दूसरे मायनों में अपने में तलाशा जायें तो जानकारी महज़ एक जानकारी ही नहीं रहती। वो अपने अनूभव का अनुमान लगने लगती है। पढ़ना अपने अनुमान को ताज़ा करना और नया मायने देने के बराबर बनने लगने लगता है। इतना होने के बावज़ूद भी दिखता कहाँ है और कैसे दिखता है? वहीं शायद कहीं गुम है। पढ़ना खाली जीवनी पढ़ना ही नहीं होता। अगर सही मायने में देखा जाये तो उसे किसी के आगे यानि अपने खुद के बाहर पढ़ना भी होता है। जिसे हम दोहराना नाम देकर खामोश कर देते हैं। क्यों लोग कुछ पढ़कर किसी के सामने उसे दोहराते हैं? क्यों वो जीवनी सफ़र करती हैं कई अलग ज़ुबानों में?

पढ़ना या दोहराना - इन दोनों के बीच मे आखिर है क्या? एक मज़ा, एक अनुमति, एक टाइम या फिर अपने लिये कुछ तैयार करने की तलाश?

जहाँ पर एक सोच है “पढ़ना बहुत जरूरी है।"
इसमें कहावतों की क्या इमेज़ बनती है?

दूसरा, “मुझे तो खाली बसों के नम्बर ही पढ़ने आते हैं।"
इसमे बनने वाली एक साधारण छवि क्या है?

पढ़ने के साथ में चिन्ह या पहचान के भी मायने जीवन के साथ बंधे हैं। नज़र और बनावट के कनेक्ट रिलेशनश़िप में चिन्ह पढ़ने की इमेज़ को गहरा करते हैं और वही ढाँचें शख़्स के साथ में महत्वपूर्ण हो जाते हैं। "बातें" और "समझ" इसके दायरे में बनावट को आँकना खाली अपना मतलब बनाने पर ही उतारू नहीं रहता बस, शहर पढ़ने के नये मायने लेकर जी रहा है। अपने आसपास में वो ज्ञात होता रहता है।

पढ़ने में सवाल और उसके जवाब से परे जाये तो क्या बचता है?

सुभाष भाई जिनके लिये पढ़ने की इस रफ़्तार मे महत्वपुर्णता तलाश से शुरू होती है और गोला लगाने पर ख़त्म हो जाती है। अगर कभी दो-चार पेज़ आगे भी निकल जाते तो वो तलाश वापस खींच लाती। अख़बार के कई पन्नों में वो नीले-काले पैनों से गोला लगा चुके है। पढ़ना तलाश और वो शब्द जो पहले से ही ज़िन्दगी की सच्चाई से जहन में घर बना चुके है वही लपेट में आते हैं।
"अवश्यकता.......अवश्यकता" और यही गोले पढ़ने की चाहत को आगे बढ़ा देते हैं। बस, अपनी उम्र और ज़रूरत या माँग को अपने हित में कर लेते हैं। यही पढ़ना है जो शायद कभी ख़त्म ही नहीं होता बशर्ते अपनी जगह बना लेता है। हर रोज़ एक नया अख़बार उनके हाथों में नज़र आता है और बस, कुछ पाने या मिल जाने में ही अटक जाता है। फिर वही कुछ देर तक साथ में चलता है और बाद में कई सारी कटिगों में किसी खुंटी के साथ में लटक जाता है। ऐसा लगता है जैसे की पाने की तलाशें जीवन के दौर में हटकर जमा होती रही हैं।

तलाश तक जाते हैं, उसे खोजते हैं फिर जब पा लेते हैं तो?

तलाश से पहले या तलाश का वर्तमान हमें कई तरह के कटघरे में ख़ड़ा कर देता है और हम उसी वर्तमान में अपने को मौज़ूद रखने के लिये खुद से बाहर जाने की कोशिस करते रहते हैं पर तलाश पार हो जाने के बाद में हमारा आने वाला कल क्या तस्वीर सामने लाता है वो ध्यान में नहीं रहता। हम बस, उस अन्धेरे कल में से खींचकर कुछ निकालते रहते हैं निरंतर।

खुद पढ़ना और किसी के आगे पढ़ना क्या है?

लख्मी

Wednesday, September 16, 2009

हाउस बॉय

बल्बो की चमकीली रोशनी हॉल की दिवारों और फर्श पर फैली थी। ईटेलियन मार्वल किसी आईने से कम नहीं दिख रहा था। खिड़कियों का लॉक खोला था। बाहर से अचानक हवा का झौंका सारे फर्श की रोनक को मटियामेट कर गया। शानदार लकड़ी के बड़े से टेबल की सारी पॉलिश ही बेअसर हो गई। उसे देखकर कोई भी कह सकता था की इस टेबल पर कई रोज़ से कपड़ा नहीं लगा। मेरे हाथों में हमेशा दो डस्टर रहते थे। एक पीला और दूसरा सफेद। पीला जो काफी मुलायम होता था। सफेद जो खद़ड का होता था। मेरी पैन्ट की जैब में कॉलीन की बोतल लगी रहती थी।
मैं फर्नीचर पर जमी धूल-मिट्टी को पहले सूखे सफेद कपड़े से साफ करता फिर बाद में गीले कपडे पर कॉलीन छिड़क कर दो-चार बार रगड़कर हाथ मारता।

हॉल में कोई फंग्शन था। एक घण्टे का वक़्त मेरे पास था। सूपरवाईजर ने बिना खटखटाये दरवाजा खोला और चारों तरफ गिद्द की तरह देखने लगा। मेरे हाथ जहाँ थे वहीं रूक गये। कमर के पीछे मैं दोनों हाथकर के खड़ा हो गया। सूपरवाईजर को देखा, मैंने सोचा की ये जरूर कोई कमी निकालेगा या सारा काम फटाफट करने के लिये कह कर चला जायेगा और क्या वो मुझे शबासी देने थोड़े ही आया था। मेरी तरफ आकर उसने पहले फर्श पर उंगलियाँ लगाकर देखा फिर वो टेबल को देखकर बोला, "क्या कर रहे हो आधे घण्टे से एक कमरा साफ नहीं हुआ। ये क्या है? ये टेबल ऐसे साफ होता है?”
"सर! सब साफ था अभी। अचानक से खिड़की खुली और बाहर से हवा अन्दर आई, सारे में मिट्टी हो गई।"

सूपरवाईजर, "देखो बहाने मत बनाओ। खिडकी खुली थी तो किसकी गलती है मेरी तो नहीं।"

वो डायलॉग बोलता गया। मैंने सहमती जताते हुए कहा, "सर ठीक है मैं दोबारा साफ कर देता हूँ।"
उसने कहा, "चारो तरफ देखकर साफ किया करो। कहीं कोई निशान न रह जाये। गेस्ट नराज हो जाते हैं। ये लोग जरा सी भी भूल बर्दास नहीं कर पाते। समझे क्या?”

"जी हाँ।"
"तो चलो शुरू हो जाओ।"
"ओके सर!”
मैं टेबल पर दोबारा डस्टिंग करने लगा। कमरे में जल रहे बल्बो की रोशनी एक तरफ थी और दूसरी तरफ खिड़की के शीशों में से पारदर्शी धूप आसमान से सफ़र करती चली आ रही थी। मेरे पास वक़्त देखने का कोई जुगाड़ नहीं था। बिना अनुमान के मुझे सारी जगह में सफाई करनी थी। कमरे के सारे एसी बन्द थे। अभी यहाँ कोई सेमीनार होने की तैय्यारी हो रही थी। मैं अपने अजीबो-गरीब दिमागी ख़्यालों को सोचते-सोचते काम पर भी ध्यान लगाये था। जो कर रहा था उसके विपरीत मेरे तन-मन में अनेक विचार प्रकट हो रहे थे। टेबल पर से मिट्टी ठीक प्रकार से साफ करने के बाद मैंने हाथ में गीला कपडा लिया और उस पर कोलीन छिड़क कर टेबल को रगड़ने लगा। अपने हाथों को जब काम करते देखता तो ऐसा लगता जैसे कोई मशीन का कोई पाट्स इस टेबल को चमका रहा हो। कभी हल्के हाथ से तो कभी भारी हाथ से टेबल की सतह को चमकाने की कोशिश कर रहा था।
मशीन कोशिश नहीं करती। मैं कोशिश कर रहा था पर खुद को यकायक मशीन मे बदलते देखा था।
पसीना माथे पर बार-बार आता पर टेबल पर पसीना गिरना ठीक नहीं था फिर से निशान बन जाते।फिर जीरो से सब शुरू करना पड़ता।

उस कमरे में कोई और भी था जो शायद मेरे काम को देख रहा था। मेरा वहम! जो बार -बार किसी की मौज़ूदगी को सामने ला रहा था। शायद अब न आ जाये। कितनी बार थका हूँ कितनी बार रूक कर सांस ली है और फिर से चल पड़ा हूँ। खुद ही होठों के बीच कुछ शब्द बुदबुदाने लगता। जल्दी कर कहीं वो आ न जाये। वो आ गया तो उसके सामने फिर से कोई डेमो दिखाना पड़ेगा।

मेरी उपस्थिती से सूपरवाईजर को क्या लेना-देना वो जो चाहता है वो चमक उपस्थित होनी चाहिये।
जो देखना चाहता है जिसके लिये कोई आ रहा है जिस को न्यौता है। सारी चीजें और जगह को उस मेहमान के लिये ही तो तराशा जा रहा था। हॉल के अन्दर तमाम तरह की चीज़ों और वहाँ पर बनी ओक्सीजन जो बन्द कमरे मे भी जीवन बनाये थी। साँस लेने के लिये इतना ही काफी नहीं था। शरीर की माँसपेशियाँ अकड़ गई थी। पानी में कई बार हाथ भिगोने से हथेलियों की खाल किसी दिवार के सिलन जैसी लग रही थी लग रहा था। ज़ुकाम तो था ही डन्डे पानी ने इसे और गाड़ा बना दिया था।

पैरों में रबड़ के लम्बे वाले जूते पहन रखे थे। जो घुटने तक आते थे। उनमे भी पानी भरा पड़ा था। जब मैं चलता तो जूतों में भरा पानी छप-छप से आवाज़ करता लेकिन बाहर नहीं आता। ईटेलियन मार्वल से बने फर्श पर इक बार तो वाईपर घूमा चुका था के फिर से सूपरवाईजर चैक करने के लिये आया।
"कितना हुआ? जल्दी करो वो फिर टेबल पर उंगलियाँ लगाकर सफाई जाँचने लगा।"
उसने कहा, "हाँ, ये तो ठीक है चलो।"
ये कहकर वो फौरन बाहर निकल गया। मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। मुझे लगा वो कुछ देर रूक जायेगा पर ऐसा नहीं हुआ। मैं बाहर आया कैक्टर ऐरीया कुछ ही दूरी पर था। मुंसी जी मेरे पास आये और “ क्या चल रहा है बेटे?” वो मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले।

मेरी तरह उन्होंने भी यूनीफोर्म पहनी हुई थी। मैंने हँसकर उनकी बात का जबाब दिया बस मुंसी जी आप का आर्शिवाद है। उम्र करीब चालीस साल के होगें पर उनके चेहरे मे वो ताज़गी अभी ज़िन्दा थी जो युवाओं में होती है। तभी हाथ मे झाडू लिये डेनी साहब भी कोई गीत गुन-गुनाते हुए चले आ रहे थे।
हम हॉल के बाहर कोने में खड़े थे। मुंसी जी ने सलमान को होले से आवाज लगाई, "अरे मियाँ सलमान जरा हमें भी चाय का चखा दो।"
"अभी लो जनाब।" वो अपने लम्बे बालों को भवों से उपरकर के बोला।

कॉफी मशीन का बटन दबाया और एक-एक करके चाय प्लासटिक के कपो में डालने लगा मशीन से आती चाय और कॉफी की महक पूरे ऐरीयो को महका रही थी।

खास बात ये है की जो नाम अभी पुकारे जा रहे थे वो वास्तविक नहीं थे। इन नामों से इन सब शख़्सों को बुलाने का एक स्टाईल बना हुआ था। हमारे पूरे स्टाफ में करी दस शख़्स ऐसे थे जिनके नाम प्यार से रखे गए थे। भला डस्टर हाथ मे लेकर चलने वाला मुंसी कैसे हो सकता है। एक कॉफी पिलाने वाला, "सलमान खान कैसे हो सकता है।"
तज्जूब है वो सब इन्ही नामों को पसन्द करते थे। मगर काम जो ज़िन्दगी मे खास रूप लिये था।उसके लिये भी तो जीना जरूरी था। सारे क्लीन करने वाले प्रोडेक्ट लेकर सूपरवाईजर आ धमका। वहाँ यहाँ सब चाये का मज़ा ले रहे हो। वहाँ मेरी मैनेजर ने लगा रखी है चलो काम पर। ये किस्सा यही ख़त्म नहीं होना था। आगे भी बहुत कुछ बाकी था।

राकेश

सारथी बनकर

सबसे अच्छा चलाने के उद्देश्य से क्या है?
जिसमें अचाकन हो चाहे न हो
अगर ये है तो उद्देश्य, उद्देश्य नहीं

समय को जीने वाला, समय से टकराता है
वो समय के भीतर या बाहर कमजोर नहीं पड़ता
वो खुद को चैताता है।

सारथी बनकर
कंक, पंछी बनकर
लक्ष्य को भेदता है

वो अरण्यानी में नहीं खोता
उसके साथ सदैव
गरूड़ के इरादे रहते हैं।

वो तेजस्वीं खुद अरण्यानी है
जिसे जीना आता है
जीवन चकित कर देने वाली बात है
अमर गाथा है
काल्प-युगव्यापी दूनिया है।

राकेश

घुमंतू जादूगर

कहाँ से आये हो कहाँ को जाना
जीवन वहीं जहाँ ठहरे कोई तराना
यही है ज़िन्दगी की नईया
यही है मृत्युशय्या

आज को न कर बर्बाद समझकर
प्रमाणिकृत होगी तेरी छवियाँ
भूलना जरूरी है, याद करना भी जरूरी है
मत चूक इस काल से
तेरे जाने के बाद उभरेगीं तेरी कहानियाँ

केसर की किरणें तेरी झोली में है
क्यों उजालों को खोजता है
भटक जायेगा तो आप ही ढूँढ लेंगी तुझे
संसार की उंगलियाँ

चाँदनी की तुझे क्या परवाह
तेरे सिर पे आसमानी ताज है
जमीं है पैरों तले
यही मिलेगी अभिव्यक्तियाँ

ईश्वर या धर्म ये है तेरी प्रतिमा
जो कथित है विरासतों के पन्नों पर
क्या इनके लिए तेरे जीवन में
होती हैं कभी तबदिलियाँ

ऐतिहासिक आवेग को समझ
जिसमें झिलमिलाती कई ज्योतियाँ
सोच समझले न आज फिर लौटेगा
टकटकी लगाये बैठी कई रणनीतियाँ

राकेश

दैनिक सज्जाएँ

अपनी इच्छाओं को पकड़कर चलने वाले,
खुद उड़ने की तमन्ना रखते हैं।

बन्दिश क्या है? एक ऐसा सैलाब जिसे अपने सीने की कसक से कहीं किसी कोने में बैठाया हुआ है। बन्दिश खुद को संतुलन मे रखने की या बन्दिश दुनिया को अपने से दूर करने की मंसा से चलती है। ये कोई खुद से या खुद के लिये लिया गया कोई फैसला नहीं है। ये तो एक ऐसा समझोता है जो आँखें मूंदकर चलने की आदत को तैयार करता है। आदत को तैयार करना क्या है?


पहचान बन गई शख़्सियत
चिन्ह बन गए उसके बटन

कुछ पल के लिए भूल जाओ की हम कौन हैं? कहाँ से आये हैं? कहाँ को जाना है? जो तेरी पहचान है वही मैं भी हूँ। तेरा या मेरा कुछ नहीं है। कुछ पल के लिये अपनी याद्दास्त गवाँ दें और सोचें की फिर से मिला है मौका एक नई पहचान बनाने का। सबसे पूछते फिरे की मैं कौन हूँ?, क्या आप मुझे जानते हैं?

पहचान के साथ बोले गये शब्द और याद्दास्त – अतीत गवाँ कर बोले गये शब्द। इन दोनों का घर कहाँ है और कैसा बना है?



वर्तमान को खोजें तो कहाँ तक जायेगें हम?

नज़ारों को मान लिया मन्जिल - मन्जिल खोई है अंधेरों में।
अतीत का पल्लू पकड़े हम भविष्य को धमकाते हैं।
वर्तमान की कोई हैसियत नहीं बस, बीते हुए को दोहराते हैं।
होठों से निकली बात अतीत की झोली में गिर जाती है।
आदमी के मरने के बाद उसकी बातें याद आती हैं।
हर अतीत में हुई बात को वर्तमान के किसी सवाल या घटना की जरूरत पड़ती है
और वर्तमान में घटी घटना अतीत की कहानी बनकर उभर पाती है।

वर्तमान कहाँ है? वर्तमान कितने समय का होता है? वर्तमान का असल वक़्त कितना है? एक पल, क्षणिक पल, शून्यता का पल।

कितने वक़्त जीते हैं हम किसी की कहानी को वर्तमान में?

लख्मी

Monday, September 7, 2009

हमराही कौन होते हैं?

ज़िन्दगी में हमारे साथ साये के अलावा शायद ही कोई होता है। मगर हालातों की रोशनी में साया भी छिप जाता है।

रात काली होती है मगर वो अपने अन्दर कई धुंधले छीटें लेकर चलती है।
रात अपना दामन पसारे राहगीरों के आने का इंतजार करती है। सुबह यहीं कहीं है। हाथों की मुट्ठी अभी खुलेगी और वो फुर्र हो जायेगी। इस दुनियाँ के ज़र्रे-ज़र्रे में मिल जायेगी।

ओह! बेरी सुबह तू कब आयेगी?
वो कदम बढ़ाती है, फिर आती है,
फिर चलती है और दबा कर चलती है। चलती चली जाती है।
कदमों की आहट कहीं दस्तकें देती है फिर वो चलती है अपने साथ एक छवि लिए।

जो कहती है - सुनती है, इतराती है - शरमाती है। फूल, पत्तियाँ, चीजें, जगहें लोग समय सब बदल जाता है। रात के घने अन्धेरे में एक उजाले की किरण फूटती है। आवाजें तांता लगाए खड़ी होती है।
मैं वही हूँ।


दिनॉक/ 22-07-2009, समय/ रात 8:00 बजे.

राकेश

शायद, कुछ पक रहा है


दिनॉक/ 15-08-2009, समय/ दोपहर 2:00 बजे

लख्मी