अपने आपको रख पाने का मतलब क्या है?
"जानकारी" जो एक बढ़े स्थर पर हमारे आसपास है जिसमें पढ़ने के मायनें इतने महत्वपूर्ण हैं कि उसमे आने वाली ज़िन्दगी, कला या जगह- सब एक मायनें लेकर जीवन में एक एक्ज़ॉम्पल की तरह से ठहर जाती है और अगर बाहर आती है तो हमेशा किसी अन्तरविरोध में या बने-बनाये ढाँचों को और मजबूत करने।
स्कूल, अख़बार और साइनबोर्ड इसी घेरे के पात्र लगने लगते हैं। जिनका जीवन किसी न किसी प्रकार इतिहास को लेकर चलता है। कहानी, शब्द, चुटकिला, शेर-शायरी या कविताएँ सभी किसी ना किसी चेहरे की मोहताज़ बनने लगती है। बस, कोई मुखड़ा होना चाहिये जिसकी माँग में शहर जीता है। महत्वपूर्ण होने के बावज़ूद भी मुखड़े की माँग एक चित्र खींचकर कोई कोना दे देती है। जिससे ये दावा होने को उतारू हो जाता है कि "हमें जानकारी है" यही माँग या जरूरत सा दिखता है। जिसका आधार क्या है यह समझ में नहीं आता पर सवाल छोड़ जाता है।
अपने आपका दोहराना या अपने आपको बता पाना क्या है?
इसी को अगर दूसरे मायनों में अपने में तलाशा जायें तो जानकारी महज़ एक जानकारी ही नहीं रहती। वो अपने अनूभव का अनुमान लगने लगती है। पढ़ना अपने अनुमान को ताज़ा करना और नया मायने देने के बराबर बनने लगने लगता है। इतना होने के बावज़ूद भी दिखता कहाँ है और कैसे दिखता है? वहीं शायद कहीं गुम है। पढ़ना खाली जीवनी पढ़ना ही नहीं होता। अगर सही मायने में देखा जाये तो उसे किसी के आगे यानि अपने खुद के बाहर पढ़ना भी होता है। जिसे हम दोहराना नाम देकर खामोश कर देते हैं। क्यों लोग कुछ पढ़कर किसी के सामने उसे दोहराते हैं? क्यों वो जीवनी सफ़र करती हैं कई अलग ज़ुबानों में?
पढ़ना या दोहराना - इन दोनों के बीच मे आखिर है क्या? एक मज़ा, एक अनुमति, एक टाइम या फिर अपने लिये कुछ तैयार करने की तलाश?
जहाँ पर एक सोच है “पढ़ना बहुत जरूरी है।"
इसमें कहावतों की क्या इमेज़ बनती है?
दूसरा, “मुझे तो खाली बसों के नम्बर ही पढ़ने आते हैं।"
इसमे बनने वाली एक साधारण छवि क्या है?
पढ़ने के साथ में चिन्ह या पहचान के भी मायने जीवन के साथ बंधे हैं। नज़र और बनावट के कनेक्ट रिलेशनश़िप में चिन्ह पढ़ने की इमेज़ को गहरा करते हैं और वही ढाँचें शख़्स के साथ में महत्वपूर्ण हो जाते हैं। "बातें" और "समझ" इसके दायरे में बनावट को आँकना खाली अपना मतलब बनाने पर ही उतारू नहीं रहता बस, शहर पढ़ने के नये मायने लेकर जी रहा है। अपने आसपास में वो ज्ञात होता रहता है।
पढ़ने में सवाल और उसके जवाब से परे जाये तो क्या बचता है?
सुभाष भाई जिनके लिये पढ़ने की इस रफ़्तार मे महत्वपुर्णता तलाश से शुरू होती है और गोला लगाने पर ख़त्म हो जाती है। अगर कभी दो-चार पेज़ आगे भी निकल जाते तो वो तलाश वापस खींच लाती। अख़बार के कई पन्नों में वो नीले-काले पैनों से गोला लगा चुके है। पढ़ना तलाश और वो शब्द जो पहले से ही ज़िन्दगी की सच्चाई से जहन में घर बना चुके है वही लपेट में आते हैं।
"अवश्यकता.......अवश्यकता" और यही गोले पढ़ने की चाहत को आगे बढ़ा देते हैं। बस, अपनी उम्र और ज़रूरत या माँग को अपने हित में कर लेते हैं। यही पढ़ना है जो शायद कभी ख़त्म ही नहीं होता बशर्ते अपनी जगह बना लेता है। हर रोज़ एक नया अख़बार उनके हाथों में नज़र आता है और बस, कुछ पाने या मिल जाने में ही अटक जाता है। फिर वही कुछ देर तक साथ में चलता है और बाद में कई सारी कटिगों में किसी खुंटी के साथ में लटक जाता है। ऐसा लगता है जैसे की पाने की तलाशें जीवन के दौर में हटकर जमा होती रही हैं।
तलाश तक जाते हैं, उसे खोजते हैं फिर जब पा लेते हैं तो?
तलाश से पहले या तलाश का वर्तमान हमें कई तरह के कटघरे में ख़ड़ा कर देता है और हम उसी वर्तमान में अपने को मौज़ूद रखने के लिये खुद से बाहर जाने की कोशिस करते रहते हैं पर तलाश पार हो जाने के बाद में हमारा आने वाला कल क्या तस्वीर सामने लाता है वो ध्यान में नहीं रहता। हम बस, उस अन्धेरे कल में से खींचकर कुछ निकालते रहते हैं निरंतर।
खुद पढ़ना और किसी के आगे पढ़ना क्या है?
लख्मी
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