वक़्त की शाखाओं को पकड़े बिजली की एकाग्रता सीमा के बीच मैं खड़ा धूल और मिट्टी के मोटे कणों को चेहरे कि परतों से हटा रहा था। तभी यह विशिष्ट दृश्य मेरी एक प्रवृत्ति में चल पड़ा। मैं खड़ा था। भीड़ की विवेकशीलता चल रही थी। काली परछाईयाँ मेरे सिर पर मंडरा रही थी। संतुलन असंतुलन के बीच बड़ा फर्क था। कई आलोचको की आवाजें निडियंत में ही नहीं थी। भीड़ का प्रतिनिधित्व करने के लिए मेरे मन का ख़्याल मुझमें कुलबुला रहा था। रात जंगल मे रहने वाले किट-पतंगों की गूंज दिव्यमा न थी। पानी की बाल्टी में मैली पतलून पहने एक बुझा-बुझा सा शख़्स थकी आँखों से रात मे घूमते गश्तगरों से सलाम करता। दूर से चिमनियों सी चमकती बल्ब और रंगीन ट्यूबलाईट की लुपलुपाती रोशनी जिसके घेरे में भीड़ में व्यस्त डिजीटल मीडीया अपनी छटा बिखेर रहा था। कई अन्य रूपों के माध्यम से जिसमें समाये थे।
पानी की छोटी सी बाल्टी में उसने कई पोलीथिन पैकेट रखे हुए थे। वो पोलीथिन पैक पानी था।जिसको बेचने के लिये वो शख़्स अपनी एक जगह बनाये खड़ा था। जो होंठो से धीरे-धीरे प्यास को वितरित करता अपने पास बुलाता। वहां अपने चेहरे पर कोई लड़का मुखौटा लगाये भीड़ को देख रहा था। मनमाने ढंग से उसकी आँखें चल रही थी। पोलीथिन पैक पानी को उसने हाथों में लेकर हवा में घुमाना शुरु कर दिया। बस, फिर क्या था सब की आँखें वहाँ देखने लगी। शाखारूपी वक़्त ने जैसे सबको अपनी ग्रफ्त में ले लिया।
राकेश
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