Friday, January 28, 2011

जो चीज़ें याद में नहीं जाती


( मेरे साथी के सहयोग से - अज़रा, शमशेर, लव और लख्मी )

कुछ चीज़ें यादों में नहीं जाती तो कहाँ जाती हैं?

बिना क्रम के और बिना भविष्य के,
बिना लौटने के और बिना जाने के,
बिना रूकने के और बिना चलने के,
बिना ठहरने के. . . .


लख्मी

Monday, January 17, 2011

फ्लेश बैक लाइव

मैं बहस करना चाहता हूँ इस सोच से की अनूभवी शख़्स एक लाइब्रेरी की तरह होता है। ये बहस कोई नकारात्मक नहीं है और न ही ये उन शख़्सों के साथ कोई लड़ाई है। जो खुद को ये मानकर जीते हैं या जो ये कहते हैं। सवाल है की अनूभवी क्या है? कोई जमापूंजी है या रूके हुए समय का उदाहरण?

मुझे लगता है जैसे इस बंधन में कई जीवन हैं जो गाड़े होते जाते हैं। एक ठहराव की भाषा लेकर इसे जीवन का स्टॉप बनाने की ओर निकल जा रहे होते हैं। ये स्टॉप कोई भाषाई या चुप्पी में चले जाना नहीं है बल्कि ये शरीर की कल्पना का अंत है। ये खास बँटवारा है और इसमें बाकी का इंसान या समूह का एक हिस्सा लग जाता है इन्हे पिछला याद दिलाने के लिये और ताज़ा करने के लिये और दूसरा हिस्सा लग जाता है इनको उसी ठहराव में चिन्हित करने के लिये। मेरा ये मानना है इन्हे ताज़ा क्यों किया जाये और चिन्हित क्यों? यहाँ पर जीवन का कोनसा सवाल ओपन होता है?

जब कोई शख़्स रोजगारिक पारिवारिक और नैतिकता से भरी ज़िन्दगी से रिटायरमेन्ट ले लेता है तब जीवन के सारे ज्ञान, कहानी, शख़्स और लड़ाइयाँ क्यों फ्लेश होती हैं?

पिछले दिनों अपने पिताजी से बात कर रहा था। उनसे बातें करते हुए लगा की मैं आज उनके सामने नहीं बल्कि किसी काम से बेजान शरीर से मुखातिब हूँ या कह सकते हैं कि किसी और तरह की जान डालने वाले शरीर के सामने बैठा हूँ। अपने जीवन में आने वाले और मौज़ूदा समय का उदाहरण बनाकर जीने वाले इस शरीर से बातचीत आज एक तरफ को ही जोर लगाती ज़्यादा नज़र आई। वे अपने जीवन के सफ़र को अब अपना उदाहरण बना लेते और सामने बैठे शख़्स के आगे परोस देते। लेकिन ये क्या है? यही सवाल मैंने पिछले दिन उनसे पूछ लिया कि आज जब आप अपने शरीर को ठहराव में ले आये हैं तब ये सब उदाहरण, कहानियाँ और ज्ञान क्यों बाहर आ रहा है, इससे पहले ये कहाँ था?

उनका इसके ऊपर एक साधारण और पका हुआ जवाब था। वे बोले, “इससे पहले ये बन रहा था। काम, मेहनत और इमानदारी में ये बनता रहा। आज ठहराव है तो बाहर निकल आता है।"

"आपकी ज़िन्दगी में ठहराव क्या है?” बात में एक और सवाल पूछा मैंने।
वे बोले, “ठहराव तो ठहराव है। एक आराम।"

उनसे कि हुई बातें समाजिक जीवन के वे भीतरी किनारे थे जिनको छूकर ही कोई तस्वीर बनाई जाती है। यानि भाव और काम से बने सारे छोर। बात महज़ ये नहीं थी कि मैं उनके साथ कोई बदलाव या पिछले वक़्त की बात करने में जुटा था। बल्कि ये एक लम्बा बँटवारा है। जो दिखता नहीं है। ठहराव क्या है या आराम क्या है? शरीर और समय के साथ किया हुआ समझौता या कुछ और।

अपने एक दोस्त के साथ कि हुई बातचीत का एक हिस्सा याद आया। उससे एक बार किसी ने पूछा था की अगर आप अपने काम पर जा रहे हैं और आज आपकी ट्रेन आने में 10 मिनट की देरी है तो उस वक़्त में आप कहाँ तक की कल्पना करते हैं? तब वे बोला था की वे जहाँ जा रहा है वहाँ पर क्या हो रहा होगा वे सोचेगा। कल कितने बजे आना है वे सोचेगा और यहाँ-वहाँ देखकर टाइम पास करेगा।

इस बात के बाद में दिमाग गूँजा विनोद कुमार शुक्ल की किताब "दिवार में एक खिड़की रहती थी" का एक किरदार जो काम पर जाने में 2 मिनट की देरी में वहाँ पर खड़ा सोच रहा है कि वे एक पान खा ले। लेकिन अगर वे आज पान खायेगा तो उसे कल भी खाना होगा और कल भी पान खाना पड़े तो उसे लगेगा की मुझे पान खाने की लत है। अगर मैं यूहीं पान खाता रहा तो लत तो लग जायेगी। फिर मैं रोज़ 2 मिनट पहले निकलूंगा उसके हिसाब से सारे कामों का टाइम बदलना होगा।

ये किरदार सोचते हुए अपने काम और रोज़गारिक बंधनों से परे हो जाता है। यहाँ पर आने के बाद में मैं सोच रहा था की क्या ये दस मिनट या कहीं भी दो मिनट क्या हमें उस ठहराव का अंदेशा नहीं देते? हम इस किरदार की भांति क्यों नहीं इस वक़्त को सोच पा रहे हैं? मैं सोचता रहा, तब लगा की हमारे दिमाग की कल्पना बहुत हो सकती है लेकिन हमारे शरीर की कल्पना हमारे दिमाग से ज्यादा नहीं है।

असल में ये ना तो मेरे दोस्त और न ही मेरे पिताजी की कल्पना और सोच पर सवालिया निशान था बल्कि ये जीवन जीने का सिस्टम एक तार की तरह खींचा है। शरीर, दिमाग और काम ये मुख्य धारा दिन को पिरोती हैं। ये धारा दूसरे को कुछ ज्ञान बाँटती हुई जा रही है या तीव्र करने की मुहीम में कुछ मशीनी बना रही है। पहली धारा कहती है, ये मौका है कुछ पा ले। तो दूसरी कुछ पाने की चाहत मे निकल जाती है। फिर पाना-पाना और पाना खुद के झुकाव और खुद को खोना लाज़मी हो जाता है। पाना इतना मुख्य हो जाता है कि उसमें ठहराव एक अंत है। जिसमें जोर की दुनिया अपने पलटने पर होती है। वही जोर जो शहर को अपनी ओर खींचता है।

पिताजी अपने आज को ठहराव का लम्बा आराम मानते हैं और सोचते हैं कि उनके पास जो भी वे बँट जाये। लेकिन इसमें उनका अपने लिये चैलेंज कहाँ है? हमारे अपने लिये किन सवालों और चैलेंज का असर है?

मुझे एक वक़्त में आकर लगा की दिमाग और शरीर इनको पहले से ही तैयार करके समाज मे उतारा जाता है। कहाँ जाना है? कब जाना है?, कैसे जाना है? कहाँ नहीं जाना है क्यों नहीं जाना है? इसमें मिलना और जगह के साथ बहुत कड़ा रिश्ता बना होता है। बहुत बहस में होने के बाद में दिमाग की कल्पना उड़ान पकड़ती नज़र आती है लेकिन शरीर को लेकर कोई कल्पना नहीं होती। अगर शरीर की कल्पना को उड़ान में ले जाया जाये तो वे समाज से एक विरोधाजनक भिड़ंत ले लेता है।

शरीर को हम किन कल्पनाओं में ले जा सकते हैं?

लख्मी

Thursday, January 6, 2011

शरीर तुम हो!




जब कभी उसके बनाये चेहरे होते उसकी बनाई कहानी होती और उसी की सांसो से लिखे शब्द होते। जीवन को दिन प्रतिदिन छिलती जो भौतिक शरीर तुम समझते हो काम-काजी दूनिया में उसका एक महत्वपूर्ण रोल जिसमें कई अनगिनत झांकियाँ प्रवेश कर जाती है।


राकेश

शहर की मशहूर मार्किट का रास्ता




एक दानव जैसी भूख उसे निगलने ही वाली थी। कदमों की आहट ने उसके ध्यान को अपनी तरफ केन्द्रित किया। खूबसूरती उसके चेहरे से
ऐसा बुख़ार चढ़ा चैप्टर समझ नहीं आता था।

वो बे-मौत मारा जाता है। किसी को देखो और फिर कोई देखते-देखते जरा हंस दे या थोडा रहम खाकर ध्यान देने लगे हम समाज से नहीं डरते हिम्मत से काम लो उस रोज एक फ्लैट पहुंचा। दरवाजा बन्द था। दिवार में लगे बटंन को दबाकर उसने अपने आने का संकेत दिया।

रिश्तों को निभाने के लिये जरूरत होती है। आजकल आजमाईशों का तूफान पैदा हो गया। शहर की मशहूर मार्किटों में निकलता रास्ता वो समय महत्वपूर्ण था। दस्तक देते सुना बाकी सबके लिये मुलाकात जरूरी थी। मन के भटकते विचारों का कही ठिकाना न था।

दिमाग में विचार अनेकों मेंढक की तरह जन्म लेने लगे। इन हठ करने वाली कल्पनाओं में वो जैसे कोई प्रेम की मूर्रत बना रहा था। अब उसे याद आया की 2 बजे उसे कुछ और पैकेट लेकर होज़खास जाना था। कुछ शक्लें उसके दिलों-दिमाग को खसोटने लगी।

उसने फोन किया, "हैलो सर"
सर मतलब खाओ, "पहले ये बताओ तुम यहां क्यों नहीं आये 2 बजकर 40 मिनट हो रहे हैं।"
"सर बस मैं रास्ते में हूँ।"
"अच्छा कहाँ पर हो?"
"सर बस पहुंच गया"
"कहाँ पहुँचे?"
"मार्किट।"

धूप के चूंधिया देने वाले माहौल के बीच दिलकश नज़र ही काफी होती थी। अगले दिन फिर सवेरा हुआ। इच्छाएँ जो सिर्फ और सिर्फ चाहत में बदल गयी थी। नि:सकोच होकर।

राकेश