Thursday, January 6, 2011
शहर की मशहूर मार्किट का रास्ता
एक दानव जैसी भूख उसे निगलने ही वाली थी। कदमों की आहट ने उसके ध्यान को अपनी तरफ केन्द्रित किया। खूबसूरती उसके चेहरे से
ऐसा बुख़ार चढ़ा चैप्टर समझ नहीं आता था।
वो बे-मौत मारा जाता है। किसी को देखो और फिर कोई देखते-देखते जरा हंस दे या थोडा रहम खाकर ध्यान देने लगे हम समाज से नहीं डरते हिम्मत से काम लो उस रोज एक फ्लैट पहुंचा। दरवाजा बन्द था। दिवार में लगे बटंन को दबाकर उसने अपने आने का संकेत दिया।
रिश्तों को निभाने के लिये जरूरत होती है। आजकल आजमाईशों का तूफान पैदा हो गया। शहर की मशहूर मार्किटों में निकलता रास्ता वो समय महत्वपूर्ण था। दस्तक देते सुना बाकी सबके लिये मुलाकात जरूरी थी। मन के भटकते विचारों का कही ठिकाना न था।
दिमाग में विचार अनेकों मेंढक की तरह जन्म लेने लगे। इन हठ करने वाली कल्पनाओं में वो जैसे कोई प्रेम की मूर्रत बना रहा था। अब उसे याद आया की 2 बजे उसे कुछ और पैकेट लेकर होज़खास जाना था। कुछ शक्लें उसके दिलों-दिमाग को खसोटने लगी।
उसने फोन किया, "हैलो सर"
सर मतलब खाओ, "पहले ये बताओ तुम यहां क्यों नहीं आये 2 बजकर 40 मिनट हो रहे हैं।"
"सर बस मैं रास्ते में हूँ।"
"अच्छा कहाँ पर हो?"
"सर बस पहुंच गया"
"कहाँ पहुँचे?"
"मार्किट।"
धूप के चूंधिया देने वाले माहौल के बीच दिलकश नज़र ही काफी होती थी। अगले दिन फिर सवेरा हुआ। इच्छाएँ जो सिर्फ और सिर्फ चाहत में बदल गयी थी। नि:सकोच होकर।
राकेश
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