Friday, December 21, 2012

उसे कल रात मालुम हुआ की वो सड़क पर है





इंतजार करना

किसी जगह के इतना करीब आ जाना कि जिससे बाहर निकलना खुद के वश से भी बाहर हो जाये। उस अजनबी स्थान के जैसा जो अपने साथ कई छवियों की गुंजाइशें लिये चलते हैं। जैसे एक खुली तस्वीर हो और उसमें समय की छुअन को महसूस करने की आजादी हो। अजबनी कहां मिलते हैं? और जहां मिलते हैं वहां उनके सामने मैं क्या हूँ?

एक रास्ता जो भीड़ से लदालद है, कोई उसमें से अपने लिये कुछ खींच रहा है। वे क्या खींच रहा है वो अस्पष्ट है मगर वो नियमित किसी खींचने मे उसका आभाव समतल नहीं है। किसी विस्तार होती ध्वनि के सामने खड़े हुये खुद को पाने की कोशिश के समान। खुद को विभिन्नता लिये रूपों के बीच में खोने के जैसा या खुद को उस खोने के भीतर संभालने के जैसा। वे निगाह को तलाश रहा है। वे जो उसकी ओर आयेगी। वे जो उसकी निगाह से टकरायेगी। वे जो उसके लिये होगी। मगर इस समय के बहाव में रूपों की तेजी उसे अपनी ओर खींच ले रही है। वे कई निगाहों से टकरा रहा है। वे कुछ झणिक पलों में किसी के लिये उसका बन जाता है और फिर एक ही पल में फिर से वही बन जाता है जिस लिबास में वो आया है। ये नियमित चलता है। रूपों के मेले में किसी ऐसे किरदार की तरह जो कहीं चलते हुये रूक गया है। 

कोशिश की पोटली में छिटक कर गिरा व बचा हुआ समय जो किसी को मिलने के निकला है।




बिखरी हुई चीजों को उठाना

लकीरें खीची हैं, एक दूसरे पर चड़ी हैं, कहीं जा रही हैं, मिट्टी है तो कहीं पर गाढ़ी हो रही है। उसके पीछे कई पेरों की छापें दौड़ में है। बिना किसी आवाज़ व ध्वनि के वे किसी के होने के अहसास को जिन्दा बनाये रखे हैं। सुनाई देती है, कुछ कहती है। मगर वे किसकी है वे अहसास नहीं लगाया जा सकता। मगर उसके पीछे खुद को लपेटे हुये चला जा सकता है।

बेमूरत होती चीजें अपनी मौजूदा छवियो से बिफर गई है। विरोध मे हो गई हैं। कोई बड़ी मूरत नहीं है। बस, आड़ी तेड़ी, धूंधली गाढ़ी लकीरें हैं। जो किसी हूजूम को खुद मे बसाये हुये है।

चीजें खुद ब खुद समेट लेने की चाह में उन लकीरें में बस गई हैं। वे जो छाटने मे नहीं है और ना ही अपने वश मे करने मे हैं। वे उस चुनाव की चौखट पर खड़ी है जहां से चीजें अपने से दूर की नहीं होती। वे कोई धातू नहीं है। वे खुद को व्यक़्त करने की चाह में शक़्ल लेती है। कोई अपनाने मे है मगर इस अंधविश्वास के तहत की ये अपनाना अपना बनाने से बाहर है।

अनगिनत छाप किसी अनछुये अहसास की तरह किसी राह की रहनवाज होती हैं। जो उस न्यौतेगार की तरह है जिसमें बिना किसी रिश्ते के जिया जा सकता है।



कुछ खोना

कोई यहां आने वाला है और सब यहां से जा‌ने वाले है के बीच है अभी यह समय और जगह। ये बीच की धारा वापसी के लिये नहीं बनी। मगर फिर भी कुछ खोना - गायब हो जाने से बेहतर है। नक्शे मे नज़र आती उन तेड़ीमेड़ी राहों की तरह जिनके साथ चला जाये तो कब किस मोड़ पर चले जायेगे का अहसास जिंदा रहता है। वे राहें एक दूसरे को काट रही है या हम उस कटने के भीतर होकर उसे सिर्फ एक राह समझ रहे हैं में दुविधा है मगर फिर भी जीवंत है।

कब कोई पहचाना जाता है? शायद पहचाने जाने से पहले वो खोया हुआ है।

हर कोई कुछ खोता जा रहा है और खुद उस खोये हुये तालशने मे खोया है। दोनों के बीच मे बसी दुनिया उसे अपने मे समेट लेने के लिये है। मगर वो दुनिया जो छिद्रित और छोटे दृश्यों मे दिखती है उसका पूर्ण रूप गायब होकर भी अस्पष्ट है।




रोना (घर के बाहर)

दायरों के भीतर और दायरों के बाहर अपनी आकृतियां हर बार किसी नये रूप मे चली जाती है। इनका जाना कभी हमारे खुद के चुनाव से होता है तो कभी वे अकस्मात आकर चौंका जाती है। चुनाव के कटघरे मे ये आकृतियां अभिनय या लिबास मे खुद को चिंहित कर जाती है और अकस्मात आते रूप खुद को भी अपने ही सामने खड़ा कर देते है जिसमें हम खुद को पहचानने से इंकार करना भी चाहे मगर नहीं कर सकते।

अकस्मात आते रूप हमारे नहीं है, हमारे से है मगर महज़ हमारे लिये नहीं है। वे एक दुनिया खींचने के लिये बनते हैं और दुनिया को बनाने के लिये जीते हैं। मगर इस अकस्मात रूप का स्थान क्या है? विशाल कोना - जो अनेकों रूपो का ठिकाना बना है। इसमें अनेको लोग हैं। जो जहां से देख सकता है वो वहाँ से देख रहा है। अपने निजित्ता को छोड़ वो यहां आया हुआ है। वो भावनात्मक भी हो सकता है। मगर उसे कोई रोकेगा नहीं, कोई बांधेगा नहीं, कोई चुप नहीं करायेगा। इस कोने का आकार नहीं है, सरहद नहीं है।

किसी से अंजान और किन्ही अंजानों में खोना जाना की चाहत मे जीने कोशिश इसे सक्रिये रखती है। 


लख्मी

Wednesday, December 19, 2012

एक नई कहानी की शुरूआत

राकेश

रोशनी के बीच से

राकेश

एक जगह अदाकारी की

वो रह रोज़ बनठन के निकलता। कभी नाचकर तो कभी गाकर। हर रोज़ के लिबास से उसका कोई मेंचिग नहीं होता। हर दिन जैसे वो कुछ और बनने के लिये उठता और कुछ और बनकर निकलता। वे जो बनता, उसका कोई रूप नहीं था जिसे कामगार या पारिवारिक सदस्य नहीं बनाया जा सकता था। वे हर रोज़ सिनेमाहॉल की दीवार से टेक लगाये खड़ा हो जाता। घंटो वहां खड़ा रहता। वहां से गुजरने वाली हर नजर उसपर पड़ती और एक निगाह भरकर चली जाती। उसे कहां जाना है या वे कहां से आया है ये नहीं जाना जा सकता था। वे जैसे अपना कहां बना चुका था। भीड़ के बीच मे कभी तो कभी भीड़ से कुछ हटकर वे बालों में हाथ फेरते, इतराते, नज़रें घुमाते उस दीवार पर लगे बड़े बेनरों मे खुद को तलाशता। कभी तो उनकी ही तरह बन जाता है तो कभी उनकी तरह नहीं मगर उनसे खुद को बना लेता है।
ये दीवार उसके लिये क्या है? जहां वे खुद के बनने को दिखा पाता है या वे 'जहां' क्या है जहां पर वे खुद को बनने को दिखा पाये? जिसे घर, काम की जगह, खरीदारी की दुनिया से हटकर जी सके। वे जो खुद के खुल जाने के दृश्यों को ट्रांसफरिंग दुनिया मे ले जाये।

एक भीड़ लगी थी। हर कोई उस भीड़ का हिस्सा बनने के लिये उसकी तरफ भाग रहा था। कोई उस भीड़ के बीच में बैठा है। उसके सामने कुछ प्लेन तख्तियां पड़ी है। हर किसी मे वो बना रहा है। आसपास में लोग अपनी ही जगह पर खड़े कुछ आकृतियां बना रहे हैं। कोई बाजूबंद अदाकारी मे हैं, कोई पुकारने मे, कोई आसमान देखने में, कोई रक्षक की अदा में। हर किसी ने जैसे खुद को मोह मे डालने की कोशिश को खुद मे पाल लिया है। भीड़ मे कोई उन्हे कैसे देखे से पहले वे खुद को कैसे देखेगें की जिद् पल गई है। वे सबको उन प्लेन तख्तियों मे उतार रहा है।

वे कौनसा स्पेश होगा जहां ये दुनिया खिल पायेगी? या वे स्पेश ही उड़ा दिया जाये जहां ये दिखती है तो क्या रह जायेगा? वे जगहें जो महज़ बोद्धिक स्पेशों की कल्पना लिये ही नहीं जीती बल्कि वे जगहें जो खुद को प्रस्तुत करने व दुनिया के सामने लाकर खड़ा करने के लिये होती हैं। वे जगहें वे नहीं है जो शहर के नक्शे मे स्थानों के बंटवारें से जानी व बनाई जाती है। वो जगहें वे भी नहीं है जिन्हे किसी से भागने के लिये बनाया जाता है। वो जगहें वे हैं - बुनी जा रही है। हर वक़्त, हर दिन अपने रूप बदल रही है।

कोई आने वाला है। वो बहुत देर से तैयार है। स्टेंड से टेक लगाये वो बार बार खड़ी देखती और फिर से दूर सड़क के पार देखने लगती। हाथों मे लगे पेपर उसके लिये कुछ झंझट बन रहे हैं। इंतजार का गुस्सा उन्ही को मरोड़ने से हल्का हो रहा है। स्टेंड का टूटा हुआ शीशा उसके लिये किसी ब्यूटीपार्लर के शानदार आइने से कम नहीं है। वो टहलती, घूमती उस शीशे मे एक झलक खुद को निहार लेती। कभी पास खड़े लोगों से उसकी निगाह मिल जाती तो कभी उनसे दूर कहीं छिटक जाती। ये पूरा माहौल उसके लिये एक ही चेहरे की शिनाख्त बन गया था। वो जिसे देख रही है वो नहीं है मगर यहां के सारे चेहरों मे एक वही है।

इंतजारिया रास्ते खुद को समय की मजबूत झलकियों से दूर किये चलते हैं। उन सफ़रों में जिनके पार कोई मंजिल की तलाश नहीं है। तलाश उन बिन्दूओं की जिनमें खुद को रिकोंसीटूट करके जिया जाता है। जिनके चेहरे उसके नहीं जो कभी किसी मोड़ पर मिले हैं। उनके भी नहीं जो रोज़ मिलकर दूर हो जाते हैं या दूर हो गये हैं। उन झलकियों की तरह हैं जिनसे इन चेहरों के अक्श बने हैं।

लख्मी

बहुत समय लगता है

कहीं का हो जाना कैसे जीने की कोशिश करता है। ऐसा जैसे किसी भूमण्डलिये अंधी फोर्स के सामने खड़े हैं और वे जितना अपनी और खींचती है उतना ही पीछे की ओर धकेलती है। उसके सामने खड़े रहने पर कुछ नहीं दिखता। बस, कुछ आकृतियां बनती है और झट से गायब हो जा रही है। कोई धूंधली परत उन्हे अपने कब्जे मे ले रही है। मैं उसके सामने से रोज़ निकल जाता रहा हूँ। कोई डर मुझे उसके अन्दर दाखिल नहीं होने देता। ये डर उसके भीतर घूसने का नहीं है। किसी ने जैसे मेरे पांव पकड़े हुए हैं। रोज वहां से गुजरता, लोगों को उसके अन्दर खोते हुये देखता। पहचानने की कोशिश करता। कोई पहचान में नहीं आता।

मैं उसके अन्दर दाखिल हो गया। मेरे आसपास एक भीड़ की गरमाहट महसूस हो रही थी। कोई नहीं दिख रहा था अब भी। मगर गरमाहट इतनी थी के उसको अहसास किया जा सकता था। जब बाहर निकला तो कई लोग उसके अन्दर दाखिल होने को तैयार खड़े थे। मुझे देख रहे थे। वैसे ही जैसे मैं देखता था। मेरा रंग बदल गया था। मुझपर कुछ और चड़ा था। मैं जैसे खुद को पहचान नहीं पा रहा था। कुछ समय लगा मुझे उसमे से बाहर निकलने मे। मगर बहुत समय लगा मुझे वापस "मैं" बनने में। मैं कुछ समय के लिये कुछ और बन गया पर वो कुछ और मैं कभी नहीं बन पाया।


रास्तों की बुनाई मे सफ़रों को याद रखने की खुटियां नहीं गड़ी होती। वे बह जाने के लिये बनते हैं। कोई उनपर कैसे चल रहा है या कोई उनपर कहां है का रहस्य निरंतर बना रहता है। कभी किसी को मुड़ने पर विवश करते हैं तो कभी किसी को उड़ान में ले जाने को।

यहां कौन क्या है और कौन, कौन है के सवाल बेमायने रूप मे हैं। बस, मैं किसे अपने करीब खींच रहा है और किसके करीब खिंच रहा हूँ का जादू बेमिशाल होकर चलता है। ये अस्पष्टता जीवन को उन रास्तों सा बना देती है जो अपने हर कटाव पर एक दुनिया की झलक देता है। जहां पर रहस्य, अपरिचित, बेचिंहित जीवन की उपाधि पाने की कोशिशों के बाहर होने की फिराक में चलते हैं। उस बहकने के साथ जिनका मानना है कि घेरो के बाहर का जीवन जिन्दगी को उत्पन्नित बनाता है।

हर कोई ये कोशिकाएँ उधार ले रहा हो जैसे। वो अनोखी दुनिया इन टूटी हुई जीवित कोशिकाओं से भरी हुई हैं। वे जो हर वक़्त सक्रिये है - एक दूसरे को इज़ात कर रही है। बिना याद्दास्त के बन रही है। जन्म, मौत फिर से जन्म लेना और फिर से मौत – इस साइकिल से वे दूर हो जाती जा रही है।

रास्ते वे नहीं है जो कहीं ले जाते हैं, वे नहीं है जो बाहर हैं, वे नहीं है जो दिखते हैं, वे नहीं है जो मंजिल के लिये बने हैं, वे नहीं है जो नक्शे मे कनेक्शन से दिखते हैं, वे नहीं है जो जुडाव के लिये बने है। वे इनविज़िवल लाइनें है। रंग, लिबास, कहानियां जो अनुभव जाल से बाहर की है, अभिव्यक़्तियां और इशारें। सब कुछ पल भर के अहसास मे जीते हैं और फिर रंग बदल लेते हैं। जीवन की कल्पना इनसे उधार ली गई रंगत है। इसका कोई ठिकाना नहीं है, जैसे हवा के झोकों मे ये मिक्स होकर चलती है। इस हवा के झोकों के साथ जाना जीवंत रहता है। 

लख्मी

Monday, December 17, 2012

तबादले अब होने लगे हैं

ढेरों तबादले होने लगे। हर रोज़ कोई नया ही चेहरा देखने को मिलता। कभी कोई नाम पूछने चला ‌आता तो कभी कोई पते के बारे में मालुमात करने। नज़रे इनती शक्की हो चली थी की हर कोई एक दूसरे को किसी न किसी केड़ी नज़र से देखने के हमेशा तैयार था। हर रोज जैसे डायरियाँ भरी जा रही थी। उनकी डायरी मे ज्यादा कुछ नहीं होता था जो भी वो किसी के लिये इतना कठोर चिन्ह होता कि उसको हर रात उठा लिया जाता। डायरी नामों और पहचानो से भरी लदी थी। पते तो किसी के मिलना आसान नहीं था लेकिन नाम के साथ एक पहचान लिखदी जाती। पहचान जिसको आगे चलकर क्या तमगा मिलेगा ये किसी को भी नहीं मालुम होता था। ये पहचान कोई चिन्ह होता तो कोई जल्दी मे पुकारा जाने वाला एक और नाम। उनकी डायरियों मे क्या लिखा जा रहा है ये भी ठीक से किसी को पता नहीं था। हाँ कलम चलने का अहसास हर किसी को होता और उस डायरी मे अपना नाम लिख जाने का डर भी। जहाँ - तहाँ भी ऐसा कुछ नजर आता तो वहाँ से फौरन भाग जाने का रिवाज़ यहाँ पर गली गली मे चल चुका था।


जो भी यहाँ पर पहली बार अपनी ड्यूटी सम्भालने आता उसका काम होता, जाकर सड़क - सड़क और गली के कोने - कोने मे नौजवानों के नाम लिखना, साथ ही साथ उनकी उम्र भी। शुरू - शुरू मे तो किसी को पता नहीं था कि नाम लिखवाना क्या बुरी बात है। जिससे भी नाम पुछा जाता वो बड़े ताव से अपना नाम लिखवा देता। लेकिन बाद मे इसका अन्दाजा हो गया था। नाम लिखवाना यहाँ इस वक़्त के लिये किसी कहर से कम नहीं था। जैसे ही किसी नये चेहरे को अपने मोहल्ले मे देखते तो वहीं कट लेते।

इस वक़्त मे जो होता वो सब को पता होता लेकिन इसके बाद क्या होगा वो किसी को पता नहीं था। नाम, उम्र, काम और एक सवाल, सवाल मे भरी होती थी खटास और अक्कड़ जो किसी को बर्दास्त नहीं थी। लेकिन कर भी  तो कुछ नहीं कर सकते थे। बस, उस वक़्त बर्दास्त करने के प्याले गले से उतारने पड़ते।

जगह में जैसे पैसा लुट रहा था। रात में किसी को भी पकड़ लो बस, उसके पीछे उसके घरवाले तो आयेगें ही वही लायेगें सब कुछ, रात का डर लोगों में कहीं न कहीं बहुत गहरा छुपा होता। वो ये सब जानते थे। उस डायरी में जिस किसी को भी नाम लिखने की ड्यूटी की जाती। वो उसमे कई राते भी कैद कर लिया करता था। उसमे कई ऐसी रातें कैद थी या कैद होने की लाइन में खड़ी हो जाती थी। 

ये समय जहाँ पर कोने - कोने मे खड़े और बैठने के ठिकाने बना रहा था वहीं दूसरी ओर उन्ही ठिकानों मे समय के साथ उठने - बैठने के प्रोग्राम भी तय किये जा रहे थे। रात के शौर से कोई अन्जाना नहीं था। सबको उसके पीछे की तस्वीरो का अन्दाजा था। वो जानता था कि किस आवाज के साथ मे किस तरह की तस्वीर जुडी है। कौन कहाँ से भाग रहा होगा, कौन वहाँ पर रहता है, कौन कैसे फसा होगा। इसका भरपूर अहसास यहाँ सबको रहता। हर रात मे किसी न किसी तरह के नये शोर की उम्मीद यहाँ पर सबको रहती थी। शायद आज कल से अलग कुछ सुनाई दे। लेकिन खुद को अपनी आवाज़ नहीं सुनवाना चाहता था या फिर बनाना चाहता था।

रोज रात मे गोलू काम पर से लौटता था, उसे हर रात अपना रास्ता बदलना पड़ता। कभी वो जगंल के रास्ते से घर की तरफ मे आना होता तो कभी सीधे रास्ते से। ये कोई उसका खेल नहीं था इसमे दोनों रास्तो मे बसी गहरी छाप समाई थी। कभी जंगल कहर बरसाता तो कभी सीधे रास्ते पर कोई न कोई धमाल मचा होता। जिसका उसे पूरा पता था लेकिन उसका आना और जाना कभी बन्द नहीं हुआ था। वो बिना रुके बस, चला आता। कभी पाँव पूरी तरह से दुखते थे तो कभी आराम भरते। मगर उसे इन्ही  तीन सालों मे इस दुखने का अहसास गायब करना पड़ा था या ये कह सकते हैं की उसे उस चलने की आदत सी हो गई थी।

दरवाजा पीटने की बहुत जोर दार आवाज आई, लेकिन कोई सुनवाई नहीं। उसने दोबारा से दरवाजे को उसी तरह से पीटा, इस बार भी आवाज पर कोई सुनवाई नहीं हुई। गोलू ने इस बार दरवाजे पर हाथ मारने के अलावा अपने हाथ मे लगे भौपूं को बहुत से फूँक मारकर बजाया। उसके एक ही फूँक पर दरवाजे अन्दर से आवाज़ आई, “आ रही हूँ, क्यों गीत सुना रहे हो?”

वो तो अच्छा था की आस पड़ोस वालो की नींद अन्दर सोती अम्मा की नींद से ज्यादा गहरी थी। जिन्हे उनके भौंपू का पता भी नहीं चला। वो बाहर आई और बोली , “मैं जाग रही थी लेकिन उठने मे वक़्त लग गया।"

गोलू को भले ही  इस काम मे तीन साल हो गये हो लेकिन उसकी फूँक मे अभी वो बात नहीं आ पाई थी की वो किसी  ताल को सिनेमा हॉल की आखिरी कुर्सी तक पहुँचा सके। जिसका उसे बेहद मलाल रहता। इसी को वो कहीं पर बोल दिया करता। उसे आवाज़ मे वो पैनापन और भारी अहसास लाना था। जिसके बारे के बारे मे उसकी अम्मा भी बखूबी जानती थी।

गोलू ने उस भारी से भौंपू को अपने काँधो से उतारा और तैयार होने लगा खाने के लिये। आज कुछ खमोशी मे सोचने के लिये काफी कुछ था उसके पास। पूरा घर शांत लग रहा था, शायद आज गली के बाहर से भी कुछ शोर नहीं आ रहा था। तभी इतनी गहरी खामोशी सी लग रही थी। कुछ देर तक वो अपने भौंपू को देखता रहा। सोचने लगा की अगर आज कोई शोर नहीं हुआ तो वो इसके साथ मे कैसे खेल पायेगा। दरवाजे के बाहर वो थोड़ी देर के लिये खड़ा हो गया। खाना जमीन पर लग चुका था। अपने भौंपू को एक कोने मे खड़ा करके खाने के लिये बैठ गया।

कानों मे थोड़ा सा भी अगर शोर सुनाई देता तो उसका चेहरा फोरन दरवाजे की तरफ मे मुड जाता और आँखें मटकती रहती। खाने के हाथ रुक जाते। मगर शोर के साथ उसका रिश्ता कम नहीं होता।

"आज कहाँ गया था?" उसकी अम्मा ने पूछा।
"ज्यादा दूर नहीं गया था, पास मे ही जाना हुआ। जिसके घर मे शादी थी वहाँ किसी की मौत हो गई थी तो उसने सारा का सारा इंतजाम बाहर ही कर रखा था। तो वहीं पर हो गया।" वो टूक मुँह मे घुमाते हुये बोल रहा था।

इसके बाद मे उसकी अम्मा कुछ बोली नहीं, शायद मौत की सुनकर थोड़ा शांत हो गई थी। वो जल्दी से खाना खाकर छत की तरफ मे जाने की सोच रहा था। रात पता नहीं कब खत्म हो जाये इसका डर भी तो उसके दिमाग मे था और आज तो बिना किसी आवाज़ के उसको कोई डांट- फटकार न दे उसका भी खौफ था। आज तो आवाज मे धीमापन ही रखना होगा। क्या पता आज कोई जाग रहा हो, क्या पता आज किसी को नींद न आई हो। इसलिये छत पर जाने के बाद मे थोड़ा इंतजार भी तो करना होगा। वो खाते खाते ये सब सोच रहा था। प्लेट मे रोटी और सब्जी खत्म हो चुकी थी। वो आखिरी टूक को प्लेट मे मलकर उसमे प्लेट मे पड़ी सब्जी के तेल को रोटी के टूक पर चिपका रहा था। यहाँ पर आखिरी टूक मुँह मे गया नहीं की उसका पूरा ध्यान उसके भौंपू पर चला गया।

उलटे मुँह वो पूरे दिन की  थकावट से भरा खड़ा, थोड़ी ही देर मे वो कहीं जाने के लिये भी जैसे राह देख रहा था। गोलू हमेशा देर रात होने की राह तकता रहता। उसकी छत चाहें भले ही छोटी हो लेकिन वो गली के एक दम कोने पर थी। जहाँ से उसके ऊपर पड़ोसियों का साया नहीं था। ऐसा नहीं  था की पडोसियों की रिश्तेदारियों मे उसको जाना आना नहीं पड़ता था, वो तो था ही लेकिन जब वो अपने मे होता था तो बस, कहीं सोचने और पहुँचने की जल्दी नहीं होती थी उसे।

प्लेट खाली और साफ हो गई, उसके हाथ लेकिन उसकी किनारियों पर खेल रहे थे - जैसे कुछ नई लकीरें खींच रहे हो। पीछे से आवाज़ आई, “अब क्या पूरी प्लेट ही खा जायेगा?”

गोलू एक और उंगली मुँह मे दबाता हुआ उनकी तरफ देखता रहा। मगर कुछ कहा नहीं। बहुत सी शादियों मे जाना आना होता है लेकिन कभी - हर बार दरवाजे से ही वापस लौट जाने का काम होता है। न जाने कितनो की शादी मे जाते हैं, दुनिया को नचाते हैं, दुनिया फरमाइशे करती है और नाचती भी है। सबको दरवाजे तक जैसे ही पहुँचाते हैं कि तभी कोई हाथ पैसे बड़ा देता है और दिवाली के आखिरी बम की तरह फटकर वापस आना हो जाता है।

हर रात की  कहानी शुरू कुछ यूहीं होती है। दिवाली के आखिरी बम की  तरह शोर करती हुई आती है और बाद मे एक लम्बा सन्नाटा सामने लाकर डाल जाती। गोलू पिछले कुछ सालों मे इस शोर के बाद का सन्नाटा बना हुआ है। जिसमे उसे इतना मज़ा आता है की वो फूला नहीं समाता।वो खुश है कई सारी आवाज़ों के बीच मे अपनी आवाज़ को खोता महसूस करने मे। जहाँ पर लोग आवाज़ का गुम होना देखते हैं वहीं पर गोलू खुद की आवाज़ निकालने के लिये उसी शौर का इन्तजार करता है।

रात काफी हो चुकी है, सारे आलम एकदम गायब सा है। उसी बीच मे गोलू अपनी छत पर अपने उस बाजे के साथ मे छत की एक लम्बी सी दीवार की ओटक मे बैठने के लिये तैयार है। आज का आलम बेहद शांत है, जैसे कुछ भी बनने और टूटने की आवाज़ नहीं है, नहीं तो रात के नो बजे नहीं की किसी न किसी के एक दूसरे से लड़ने और भिड़ने की आवाज़ें आनी शुरू हो जाती साथ ही मे पुलीस के सायरन की आवा‌ज़ तो जैसे हर आवाज़ को पिरोने वाले धागे का काम करती।

पिछले कितने समय से गोलू एक ही गाना बजाने की कोशिश कर रहा है लेकिन वो सांस पर पूरी तरह बैठ नहीं रहा। उसके पिताजी कहते हैं कि तुझे अभी बजाना आया भी नहीं है और तुझे शादियों मे बैण्ड बजाने का काम भी मिल गया, ये पता नहीं कैसे हुआ। हम तो सालों के रियाज़ के बाद मे किसी के यहाँ पर रुके थे।

चाहें तो गोलू इस बात का रोज़ाना जवाब दे सकता है लेकिन वो इसपर बोलना वाज़िब नहीं समझता। वो बस, छत पर चड़ जाता और बाजे मे पानी मारकर उसे थोड़ा खंगाल लेता। तराई हो जाने के बाद मे आवाज़ की संजिदगी बेहद मासूम हो जाती। वो इन्तजार कर रहा था कुछ और समय बीत जाने का, छत के चारों तरफ कभी सामने तो कभी नीचे की तरफ देखने लगा। सड़क पूरी खाली थी। जैसे ही उसे कुछ अंधेरे मे परछाइयाँ नज़र आती तो वो अपना बाजा उठाकर अपने मुँह से लगा लेता लेकिन जैसे ही वो परछाइयाँ गायब हो जाती तो बाजा बिना घुन के ही नीचे उतर आता और सांस उसके गले मे ही अटक कर रह जाती। वो दोबारा से उसी तरह मे देखने लगता लेकिन जब तो कुछ नज़र नहीं आता वो कुछ करता नहीं। छत के चारों और भी कुछ नज़र नहीं आ रहा था। उसके और बाजे के बीच की दूरी कितने समय की हो गई थी, आज उसके हाथ भी काँप रहे थे कि आखिर मे क्या हो गया है जो कुछ नज़र नहीं आ रहा है। कहीं मेरी आँखें तो कमजोर नहीं हो गई, कुछ सुनाई भी नहीं दे रहा कहीं कान तो नहीं हल्के हो गये हैं। वो अपने मे ही कुछ कुलबुलाने लगा। मगर इससे क्या फायदा होने वाला था। 

सायरन की बहुत जोरो से आवाज़ उठी ऐसा लगा रहा था की कहीं कुछ जबरदस्त हुआ है। गोलू अपना बाजा लेकर तैयार हो गया। यहाँ तक पता नहीं कब वो शोर आये उससे पहले ही वो दीवार पर अपनी पोज़िशन लेकर बैठ गया था । उसका घर गली के नुक्कड़ पर होने के कारण उससे सड़क पर होने वाली कोई भी हरकत नहीं छुपी थी। उसी के साथ वो अपने बाजे की जुगाली करता था। जिससे उसके जोर से बजाने पर भी किसी कोई आपत्ती नहीं होती थी, ऐसा माहौल बन जाता था की शौर हो या संगीत सबको एक ही तरह से सुनकर लोग परेशानियाँ नहीं बनाते थे। सब कुछ घुल जाता था रात के समय मे। कोई कहाँ पर हल्ला मचा रहा है या कोई कहाँ पर कानों के नीचे बाजा बजा रहा है वो सब कुछ कभी नजदीक तो कभी दूर रखकर समझोते मे ले लिया जाता।

हाथों मे कुछ चमक रहा था ये बहुत सारे लोग थे, कौन छोटा है या बड़ा इसका पता नहीं चल रहा था। इतना पता था की सभी एक दूसरे के ऊपर चड़ने के लिये तैयार है। बहुत तेज आवाज़े थे। इतनी आवाजें थी के पता नहीं चल रहा था की कौन किसकी तरफ है बस, मारने - मर जाने की बहुत भंयकर माहौल था। गोलू ने भी उसी बीच अपना बाजा अपने मुँह पर लगाया और जोरदार सांसे उसमे फूँकने लगा। गाने बोल के साथ मे नीचे बज रही लड़ाई किसी बहस और कभी जुगाली की तरह से लग रही थी। पूरे मे हल्ला मच गया था की गली के बाहर लड़ाई हो रही है, लेकिन किसी को उस आवाज़ के पीछे बजते उस बाजे की आवाज़ नहीं आ रही थी।

इसका गोलू को कुछ लेना - देना नहीं था और न ही उन लड़ने वाले लड़को का। हर शोर उसी माहौल तक बना रहता जिससे वो बन रहा था और अगर किसी मे मिल जाता तो वो सबके लिये बन जाता। ये सारा उस सायरन की आवाज़ से पहले का खेल था, जिसमे गोलू बस, मौका देखता था अपने अन्दर की सांसों से बनी आवाज़ को किसी और आवाज़ के सहारे या अन्दर अपनी आवाज़ को बनाने का। ये खेल वो रोज़ खेल रहा होता। जहाँ पर लड़ाइयाँ यहाँ के माहौल और रहन – सहन को दर्शा रही थी वही पर गोलू किसी और माहौल की नींव उसी के अन्दर बना रहा था। ये दोनों के बीच की कुछ बहस थी, जिद्दी बहस।

कुछ ही देर मे वो शौर कम होने लगा, और गोलू खुद की सांसो को आराम देने लगा। सायरन की आवाज़ चाहे आये या ना मगर शोर के तेज और कम होने का समय कुछ ही क्षणों मे होने लगता। बहुत धीमी सायरन की आवाज़ आने लगी। लेकिन उस बाजे की आवा‌ज़ कम नहीं हो रही थी। गोलू आज अपने से बाहर हो चला था, शायद गाने की लय पकड़ ली थी, बहुत दिनों से गाने तक पहुँता और वापस की तरफ उतर आता लेकिन आज तो जैसे जुगाली करने का मजा आ गया था।

उसने बहुत देर के बाद मे जब नीचे देखा तो सब कुछ शांत हो चुका था, गोलू उस बाजे को लेकर नीचे उतरा और इधर – उधर देखते हुए वो बाजे को वापस उसी ऑधें मुँह दरवाजे से टिका जमीन पर लेट गया। कुछ देर लेटने के बाद मे वही शोर घर के बाहर दोबारा से सुनाई दिया। मन मे बहुत कर रहा था की फिर से बाजे को उठाकर जाऊ छत पर लेकिन शोर को अब सुनने मे ही उसका मन लग गया था। फिर से वही सायरन की आवाज़ और शौर ख़त्म।

लख्मी

एक कामग़ार शहर में

कोई सड़क पार कर रहा होगा
कोई गाड़ी को धक्का लगा रहा होगा
कोई नाले किनारे बैठा बीढ़ी पी रहा होगा।
कोई झूले को धक्का मारकर ले जा रहा होगा।
कोई टेंट उखाड़ रहा होगा।


कोई खेलों के लिए सड़क पोत रहा होगा।
कोई बस का इंतजार कर रहा होगा।
कोई सड़क के किनारे लगे पेड़ के नीचे पसीना पौंछ रहा होगा।
कोई स्टेशन के गेट पर खड़ा खिड़की खुलने का इंतजार कर रहा होगा।


कोई बस के पीछे लटक रहा होगा।
कोई कांधे पर बोरी लटकाए कुछ बीन रहा होगा।
कोई अपने हाथों से दूसरे हाथों में पेम्पलेट बाँट रहा होगा।
कोई बीआरटी कॉरिडोर को डर-डर के पार कर रहा होगा।
कोई सड़क पर लगे बोर्ड पढ़ रहा होगा।
कोई साइकिल की उतरी चैन लगा रहा होगा।
कोई पानी की रेहड़ी के छाते के नीछे छुप रहा होगा।
कोई पैदल पथ में कहीं सो रहा होगा।


कोई खम्बे पर चढ़ा होगा।
कोई भरी धूप में चिल्ला रहा होगा।
कोई उस चिल्लाते हुए कामग़ार को देख रहा होगा।
कोई आटो के मीटर की रेटिंग देख रहा होगा।
कोई टूटी हुई चप्पल से चलने की कोशिश कर रहा होगा।
कोई बस के गेट पर लटका होगा।
कोई साथ वाली लड़की को देख कर मुस्करा रहा होगा।
कोई किसी को लवलेटर दे रहा होगा।
कोई सिनेमाहॉल के बाहर बैठा होगा।




कोई सवारी उठाते आटो में फँसकर बैठा होगा।
कोई सड़क पर अपनी जेब से गिरा रूपया खोज रहा होगा।
कोई किसी की साइकिल पेंचर कर रहा होगा।
कोई किसी खड़ी गाड़ी के होर्न को बार-बार बजाकर भाग रहा होगा।
कोई कुत्तों से डरके गली में से निकल रहा होगा।
कोई किसी खिड़की पर खड़ा होगा मौसम को कोस रहा होगा।
कोई नौकरियों के फोर्म में अपने मुताबिक कुछ तलाश रहा होगा।



कोई छोले-भटूरे की दुकान पर खड़ा जैब टटोल रहा होगा।
कोई बस स्टेंड पर बैठा पेंटिग कर रहा होगा।
कोई धूप में अपनी किताब सुखा रहा होगा।
कोई बस स्टेंड पर लेटा किताब पढ़ रहा होगा।
कोई गली के कोने पर गुट में बैठा कोई अधूरी कहानी सुना रहा होगा।
कोई किसी दीवार पर रात में कुछ लिख रहा होगा।
कोई स्ट्रीट लेम्प की रोशनी में दीवारों पर पोस्टर चिपका रहा होगा।


कोई बाहर खड़े रिक्शे पर अपने सोने का इंतजाम कर रहा होगा।
कोई तेज हवा में दिया जलाने की कोशिश कर रहा होगा।
कोई किसी दरवाजे से कान लगाकर कुछ सुनने की हिमाकत कर रहा होगा।
कोई अस्पताल के बाहर खड़ा दुआ पढ़ रहा होगा।
कोई गले लगाने के लिये किसी को ढूँढ रहा होगा।
कोई बारिश से बचने के लिये कोई ओटक तलाश रहा होगा।
कोई किसी से माचिस मांग रहा होगा।


कोई वहाँ पर खड़ा होकर सोच रहा होगा की किसकी शक़्ल देखकर निकला था घर से।
कोई अपनी दुकान उठा रहा होगा।
कोई अपने घर का छप्पर ठीक कर होगा।
कोई देख रहा होगा उसके जैसे कितने लोग हैं।
कोई बंद होते मेले के सामने खड़ा है।
कोई रेडलाइट पर किसी का हाथ पकड़ने के लिये खड़ा है।
लख्मी