Friday, July 17, 2009

वो एक नया वर्तमान पैदा करती है...

आने वाले कुछ ही सालों में दिल्ली में छा जायेगें मैट्रो ट्रेन के स्टेशन। तेजी से दौड़ेगी हमारी ज़िन्दगी इस मैट्रो में पर जिन लोहे की पट्टरियों पर मेट्रो दौड़ेगी उन पट्टरियों को सम्भाले हुए खड़े होगे कई सरकारी और गैर-सरकारी कन्ट्रक्शन कम्पनियों के हाथों से बनाये गए वो पुल।

जिनकी नीव में, बुने गए ढाँचो में, मलवे में और अन्य हादसों की सतहों में न जाने कितनी ही ज़िन्दगियाँ समा चुकी होगी। हादसे तो कदम रखते ही है ज़िन्दगी का सच निचौड़ने के लिये। इसलिये ये हादसे जीवन में यमराज बनकर आते हैं और समय की अदृश्य सरहदो को लाँघकर शरीर से ज़िन्दगी को छीन ले जाते हैं।


मौत एक सच है और ज़िन्दगी उस से भी बड़ा सच है। मौत जीतकर भी हार जाती है और ज़िन्दगी हार कर भी जीत जाती है। अगर ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाइयों को पीकर हम मौत को मात देते हैं तो मौत भी हमारी ताक में रहती है। वो जगह-जगह हमें तलाश रही होती है। अपने हाथों में एक तरह का इन्विटेशनकार्ड लेकर। मौका मिला और कहीं किसी के भी हाथ में थमाकर रफूचक्कर हो जाती है। ये मौत अचानक ज़िन्दगी में आ जाती है। कब-कहाँ और कैसे, किसी को इन सवालों का जबाब मालूम नहीं है।

अभी पिछले साल 2008 मे हुई लापरवाही को मैट्रो पुल बनाने वाले लीडरों ने एक एक्सीडेन्ट करार दे दिया। लक्ष्मीनगर के पास बने इस पुल के नीचे बीचो-बीच दबी ब्लूलाइन बस में बैठे लोगों की मौत ने पूरे शहर में सनसनी का माहौल बना दिया था।

कई जख्मी हुए कई मौत के घाट उतर गये। सरकार हिल गई मीडिया ने इस दिन को बार-बार दिखा-दिखा कर लोगों के दिलों में दहशत भर दी। लोग मरे हंगामा हुआ। ये ख़बर न्यूज चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बनी रही। लाखों की आँखों मे ये मंज़र खौफ बन कर दिलो-दिमाग पर छाया रहा। मगर वक़्त ने अपने तेवर नहीं बदले वो ज्यों का त्यों चलता रहा। आखिरकार ये मौत भी उन लाखों-करोड़ों मौत की तरह अपना कोई बयान पीछे छोड़ गई। जिसे पढ़कर या सुनकर, आने वाली नस्लें अपने अतीत से कुछ सीख पायेगीं। इससे याद्दश्त को कोई हानी नहीं होगी, क्योंकि अतीत की परछाईयाँ याद्दश्त में ईजाफा करती हैं। वर्तमान बनाती हैं। अपने बीते माहौल के एक-एक मूवमेन्ट को लेकर वो एक नया वर्तमान पैदा भी करती है।

ये ज़ुमला उस कहावत से बिल्कुल भिन्न है जिसने कहा है की "मुर्गी पहले आई थी या अण्डा" जो भी पहले आया मौत तो उसी की हमराज बन जाती है। वो बीता लम्हा जो किसी की रहगुज़र से होकर निकला और किसी की झोली में आकर गिर गया। शायद लक्ष्मी नगर के इस मैट्रो पुल वाले हादसे से आबादी उभर चुकी थी। भूल चुकी थी उस मौत को जो कई सौ टन के सीमेन्ट से बने पुल के नीचे दब कर हुई थी।


आज उस हादसे ने फिर करवट बदली है। फिर मौत ने अंगड़ाई ली है। फिर वही सवाल। फिर भूलने के तरीके पर प्रश्न चिन्ह लगा है। फिर वही याद्दश्त को झिजोंड़ने वाली तस्वीरें। जो जीवन में एक दम से शून्यता का अहसास दिला जाती है और बुन देती है हमारे चारों ओर डर का जाल। जिसमें उलझ जाती है हमारी बहूमुखी चिन्ताये। जो निकलती है हमारे विचारों के मंथन से और सवालों की प्रगाढ़ता से। क्यों? क्या? और कैसे? फिर आमने-सामने होती है ज़िन्दगी और मौत और इनके बीच झूलती है वो शंकाए जिनको जन्म देती है सरकार की जल्दबाजी। सत्ता का चलन वो है जो अपने आपसे भी समझोता नहीं करता।

सरे आम ये कहा जा रहा है की केन्द्र सरकार ने भारत में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलो से जुड़ी परियोजनाओ के कारण मैट्रो निर्माण के कामों को पूरा करने वाली कम्पनियों की डेड लाईन का वक़्त अब ख़त्म होने को आ रहा है। इसलिये इस पूरी प्रक्रिया को कामयाब करने के लिये कुछ ज़्यादा ही तेजी बर्ती जा रही है।

जमरूदपुर में मैट्रो पुल के टूट जाने से रविवार के दिन शहर में अफरा-तफरी का माहौल बना रहा। इस दोहरी घटना ने 24 घन्टे शहर के लोगों को हैरत में डाल दिया। जो भी हो पहले पुल टूटा फिर क्रेन के हादसे से मलवे में दब जाने से लोगों की जान चली गई।

क्रेन का गार्ड गिरने से एक दम से धमाका हुआ की चारों तरफ तमाशा-ए-बीन लोग कार्मचारी और मजदूर अपनी जान बचाकर दूर भागे। लगभग क्रेन की मशीन चार सौ टन के स्लेब को ठिकाने लगाने का काम कर रही थी। अब चाहे मशीनी ख़राबी हो या कोई लापरवाही जो होना था हो चुका। मूंबई की कम्पनी ने कहा है की मरने वालों या घायलों को मुआवज़ा दिया जायेगा। इससे ज़्यादा कम्पनी और क्या कर सकती है।

रोज़ाना की ज़िन्दगी में हादसे खड़े होते हैं। आने वाला समय उन हादसों को भुला चुका होगा जो आज कल शहर में घटीत हो रहे हैं। मानो तेजी से कोई वायरस हमारी नव निर्मीत दूनिया में आ चुका है। जो जगह-जगह कह़र ढा रहा है। वो हमारे सारे सम्पर्क जान गया है सारे राज़ जान गया है। इसलिये ज़िन्दगी के टेढे-मेढे रास्तों पर एक अनचाही हेवानियत की मौज़ूदगी ने कदम-कदम पर शिकंजा बिछा दिया है। जैसे - मौत सब को खैरात में बाँटी जा रही हो। कहीं खाने - पीने की चीज़ों में तो कही घूमते-फिरते जगहों में होने वाले धमाको से कभी अपने ही चूकने से। तो कहीं हादसा खुद एक शिकारी बनकर शिकार करता है। ये मौत ज़िन्दगी की गलियों में अपना सा कुछ ढूँढती फिरती है।

एक अजीब सी बात सुनने को मिली है पुल के आसपास बसे लोग ये कह रहे की यहाँ मैट्रो पुल बनाने के लिये कई सौ साल पुराने पीपल के पेड़ को काट डाला है इसलिये ये हादसा हुआ है। शनी देव जी के नाराज होने की वज़ह से ये दूर्घटना हुई है।

गेनम इंडिया कम्पनी को गैर जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। शनी देव जी इस पीपल के पेड़ में विराजमान होते थे। मैट्रो के कामगारों ने इसे एक झटके में ही काट डाला। कई सौ साल पुराने इस पेड़ की पूजा जमरूदपुर गांव के लोग करते आये थे। अब वो पेड़ नहीं रहा ये बात वहाँ तेजी से फेल गई है की यहाँ अब अक्सर इस तरह के हादसे होते ही रहेगें।

राकेश

Wednesday, July 15, 2009

दो आँखें जो हमेशा तैरती है...

कौन समय कब तक हावी रहेगा ये कोई नहीं समझ सकता और कौन सा समय कब तक शरीर से चिपका रहेगा ये भी कोई नहीं समझ सकता।

किताब के पन्नो की तरह यहाँ समय का चक्का हमेशा और लगातार पलटता रहता है, हर दिन का जैसे नया ही चित्र हो। अगर चित्र वही होगा तो उसके अन्दर की हलचल एकदम अलग होगी। हर कदम पर जैसे मोड़ नहीं चित्र बदलते हैं।

मुझे अच्छी तरह से याद है मैं यहाँ की गलियों से तकरीबन 2 साल सिर नीचे करके चलता आया हूँ। इसलिए मुझे मोड़ तो नहीं मगर उनकी शुरूआत ही नज़र आती रही। ऊपर क्या है उससे मैं हमेशा अन्जान ही बना रहा। मन करता था की यहाँ की हर गली और कौना देखूँ, जहाँ पर मैं गया भी नहीं हूँ वहाँ पर जाकर देखूँ। क्या मैं थक जाऊँगा? या फिर ये जगह मुझे थकने ही नहीं देगी। मैं यहाँ तक तो अपने में ही रहा।

असल में ये जगह अन्तहीन है, दिवार से लगी दिवार इसका अहसास करवाती है। कई दिवारें तो एक – दूसरे से भिन्न लगती है तो कई पता ही नहीं लगने देती कि इसके ऊपर चलते समय के आँकड़े अलग – अलग हैं। कब पहला ख़त्म हुआ और दूसरा शुरू। किसी कविता के अहसास की भांति ये चलती रहती है।
......
ये पाँचवी बार था, वो वहीं पर बैठी थी। गली के अन्दर आते और जाते बन्दे को देख रही थी, जैसा वो अब तक करती आई थी। इस पूरी गली में दो ही आँखें ऐसी थी जो हमेशा खुली रहती थी। किसी से मिलना हो पाये ना हो पाये लेकिन कोई आपको वहाँ पर देख लिया करता था। उनसे कोई भी बचकर नहीं निकल सकता था। पहली तो ये नजदीकी से निहारती ये अम्मा की आँखें और दूसरा वो गली के कोने पर लगा स्ट्रीपलेम्प हो हमेशा ही अपनी आँखें फड़फड़ाता रहता। उसका फड़कना जैसे कभी बन्द ही नहीं होने वाला था।

उनके हाथ, पाँव और शरीर जैसे किसी चीज़ से सुन्न हैं लेकिन आँखें जैसे कभी थकती ही नहीं हो। वो यहाँ से वहाँ आती - जाती रहती। हर दो पल में उनकी पलकें कुछ इस तरह से झपकती जैसे मानो कितने ही समय को उनके दिल के अन्दर ले गई हो। तस्वीर पर तस्वीर बस, चड़ती ही जाती।

सिर के ऊपर से वो हमेशा चमक का अहसास करवाने में सक्षम रहता। चाहें उसके नीचे से कोई गुज़रे, बैठे या खड़ा रहे इसका उसपर कोई गहरा असर नहीं रहता। मगर वो हमेशा ही अपने होने अहसास करवाता रहता। कभी तो अपनी पूरी आँखें खोल लेता तो कभी बस, तस्वीर पर तस्वीर खींचता ही रहता। इसका उसे जैसे बहुत मज़ा आता कई रोशनियों से भिड़ने में। न तो ये कभी पूरा जलता और न ही कभी पूरा बन्द होता। किसी की गलती से ये यहाँ पर खड़ा अनेको रोशनियों का विद्रोही बन गया था। जो हमेशा क्षत्रिये बनकर लड़ने के जुझारू बना रहता।
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उनके कानों से कई आवाज़ें होती हुई घर की चौखट पार करती। उनके इशारे इनकी इतनी प्यारी ज़ुबान है कि हर कोई उनके पास में बैठकर उनके इन्ही इशारों में दो - दो हाथ करने के लिए तैयार रहता। ये किसी भरपूर चाहत के समान होता। हर कोई उनके पास में बैठकर बोलना क्या चाहता था लेकिन बोल क्या जाता इसका तो मतलब दोनों को ही नहीं पता होता लेकिन जिसने भी वो इशारा किया होता उनके विश्वास में कोई भी कमी नहीं आती। वो दोबारा इशारों से अपनी कहानी कह डालने की कोशिश करता रहता।

मुँह की तरफ इशारा होता तो वो गर्दन हिला देती, शरीर की तरफ में हाथ खेलता तो वो गर्दन हिला देती लेकिन जैसे इशारे में हाथ आसमान की तरफ लम्बा खिंचता तो उनकी आँखें ही इधर से उधर घूम जाती। वो समझने के लिए जैसे बेइन्तहा कोशिश कर रही हो। सामने बैठा शख़्स अपने इशारे करता, रुकता, फिर करता और फिर रुकता। बात जैसे किश्तो में अपने मायने बता रही हो मगर जब वो बोलती तो हाथ जैसे नृत्य करते और हवा में तैरते नज़र आते।
........
उनकी कहानी हवा में अपने आकार बनाती चली जाती। घर, बारह और आसमान सभी उनकी कहानी के पात्र बन जाते। कभी - कभी तो जमीनपर पड़े पत्थर भी उनके इशारों की आत्मकथा में मेंन और बेहतरीन क़िरदारी निभाते नज़र आते। कहानी तो उन्ही के हिसाब से हमेशा चालु रहती।

इस दौर में समझने और समझाने जैसी जद्दोजहद सामिल रहती मगर जोश तो बरकरार रहता।

किसी को पता चले या न चले की वो जमीन तक अपनी चमक दे रहा है, जमीन पर रखे और पड़े हर चीज को छु रहा है। अपनी छुअन का अहसास भी करवा रहा है। जैसे - जैसे फड़कता वैसे - वैसे जमीन पर पड़ी हर चीज़ उसी के साथ में डाँस करती नज़र आने लगती। डिस्को लाइट की तरह से ये सब कुछ हिलता हुआ नज़र आने लगता।

उसका यही काम था जो वो बिना किसी की इजाजत लिए करता चलता जाता और कितनी ही बन्द और खुली आँखों में मिल जाता।

लख्मी

साधन - क्या है?

साधन - पहला भाग...

साधन क्या है? ये सवाल कोई अनोखा नहीं है। इससे हम जैसे रोज़ लड़ते हैं और इसे रोज बनाते भी हैं। हर कोई खुद के लिये जैसे साधन जुटाता फिरता है। कोई कल्पना करने के लिये साधन बनाता है, कोई खुद को रखने के, कोई कहानी सुनाने के, कोई महफिल मे शामिल होने के, कभी - कभी महफिल भी साधनो से रची जाती है तो कभी रच जाने के बाद मे लोग छोटे - छोटे कारणों को अपनी बातचीत का साधन बना लेते हैं। क्या हमें पता है की हमारे आसपास चलती बातचीत के समुहों मे साधन क्या होते हैं?

एक जगह जहाँ पर इस सवाल को लेकर बातचीत चली। ये दस साथियो का एक गुट है जिनके लिये साधन कोई सीढ़ी नहीं थे और न ही वो कोई हवा मे झूलती डोर। साधन जो एक रूप बनता है किसी चीज़ मे गहरेपन से उतरने का। एक मौका बनता है किसी से जुड़ने और संकल्प बनाने का। साधन कोई चाबी नहीं है लेकिन कई अनेको सोच और कल्पनाओ को खोलने और उसे बहने देने का अच्छा खासा इंतजाम कर सकती है।

यहाँ पर आये कुछ साथी अपने साथ एक साधन लेकर आये कोई किताबें लाया - विनोद कुमार शुक्ल – खिलेगा तो देखेंगे की और कोई लाया फिल्म का एक क्लीप - फिल्म थी ( आई क्लाउन) कोई तस्वीरे लाया- जिसमे तीन लड़कियाँ अलग - अलग ड्ररेस मे बैठी थी, तो कोई ड्राइंग / ग्रापिक्स जिसपर वो उन्हे बनाने और उन्हे देखने का नज़रिया बना पाने की कोशिश मे था। कोई टेकनॉलोजी से मोबाइल लाया और कोई किसी माहौल के विवरण के तरह किसी वर्कशॉप की तस्वीरे और लेख लाया।

किताबें हमारी ज़िन्दगी मे क्या सजों पाती है? क्या खाली टाइम मे पढ़ने का जरिया?, क्या पढ़कर भूल जाने के तरीके? या कुछ और है? या स्कूलो की तरह से पढ़ने और जवाब देने के बाद मे सब कुछ खत्म हो जाता है?, शायद नहीं

यहाँ पर किताबों का कुछ और ही रूप था - जिसमे कुछ ऐसे मुल्यवान सवाल उभरे की उसको सोच पाना किसी नई धारा के साथ बहने के समान था। ये सवाल किसी से पूछे जाने वाले सवाल नहीं थे और न जवाब पाने के साथ मे खत्म हो जाने वाले। सवाल खुद के साथ मे जीवन का फलसफा समझने के लिये तत्पर थे।

एक साथी ने एक किताब रखी जो समाजिक नितियो की भरमार थी। जिसमे जीवन जीने के तरीके और उसको बनाने के आयाम कुछ बने - बनाये ढाँचो के ऊपर चलने वाले बने थे। यहाँ पर वो किताब को पढ़कर कुछ सवाल खोज पाया-

सवाल था : मूलधारा क्या है? हमारे जीने की, हमें बनाने की और हमारे चलने की?
असल मे एक धारा तो हमारे आसपास मे बनी है जिसमे सब कुछ पहले से ही तय हो जाता है। हमारे दिमाग का हमारे शरीर के साथ और हमारे चलने का हमारे रुकने के साथ। लेकिन ये मूल धारा मे चलना हमे नये की तरफ धकेल पाता है? क्या इसमे नये की कल्पना शामिल होती है?
अगर हम इस मूलधारा से हटकर सोचना चाहते हैं तो उसके बिन्दू क्या हैं?

मूलधारा को सोचते हुये चले तो हमें क्या मिलता है? जीवन की ये मूलधारा क्या है? कुछ तो है जिसके साथ बन्धे हैं?

उसी के साथ मे एक और साथी ने एक किताब रखी जिसमे इस सवाल से जुझने का एक नज़रिया तो नहीं कह सकते लेकिन एक कोना समझमे आने की कोशिश मे रहा। दूसरे साथी ने कहा, "मैं और बाहर की दहलीज़ पर बैठकर कुछ बनाना क्या होता है?

इस सवाल से असल मे हम उस छोर को लाने की कोशिश कर सकते थे जो आर या पार की भूमिका को जीवन मे खत्म कर देता है। फैसला नहीं है और न ही फैसले तक का जीवन है। ये किसी धारा के बीच की दुनिया है जो बनी - बनाई नहीं है। जो निरंतर बहती है। मूलधारा कहीं पर जाकर तो अपने बने बनाये रूपो मे फसती है। वो कोने कौन से हैं? ये दहलीज़ उस अनकेनी की बुनियाद की तरह से है। जिसे गिना नहीं जा सकता लेकिन गिनती मे नहीं है ये भी नहीं कहा जा सकता।

"दहलीज़" शब्द से मूलधारा को समझा जा सकता है या शायद नहीं। लेकिन काम - प्रक्रिया उसके बाद मे फैसला ये तय कर देता है उस नितियों को जिसे कड़ी धारा के माध्यम मे देखा जाता है। मगर यहाँ पर सवाल कुछ दूसरा हो गया था। जो कहीं पर है, लेकिन नज़रों से चिन्हित नहीं किया जा सकता।

लख्मी

Tuesday, July 7, 2009

आटो रिक्शा - जगह की जिन्दगी

वर्तमान इस बात का गवाह है की आज दिल्ली की सड़कों पर यातायात के सुलभ प्रयोजन हैं पर वक़्त के नये और कारगर योजनाओं की चपेट में आकर यातायात के कई साधनों के लुप्त होने के बिन्दू दिख रहे हैं। ये देखने में आता है की शहर आदमी की ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा ही नहीं बल्की आज शहर की आबों-हवा के बिना आदमी की कल्पना करना नामुम्मकिन सा लगता है।

शहर में सत्ता का सिक्का चलता है इसमें कोई शक़ नहीं है। वो कानूनी दाव-पेच के जरिये अपने लोकतंत्र में जीने वाले प्रत्येक व्यक़्ति से राज्य का नुकसान और मुनाफा करने के लिये सार्वजनिक सम्पदाओं में जीते लोगों पर टेक्स जैसे भुगतानों से अपनी जड़ों को सींचती है और बदले में देती है एक तराजू-बट्टे से नपा-तुला शरीर कि चक्की में पिसा वो हिस्सा जो संतुष्ट ही करता है। सपने पूरे नहीं करता। सपनों को जन्म ही लेने नहीं देता। बल्की आप किसी के सपने के लिये जी रहे हो ये समझ कर खुद को मारकर भी ज़िन्दा रखा जाता है। ये ज़्यादा दिखाई देगा उस निराकार उद्देश्यहीन और भौतिक दूनिया में एहतियात बरती विवेकशील इच्छाओं में। असुविधाओं में एक सच्चा जीवन अपनाकर जीने वाले मजदूर आदमी में। इंसान ने शरीर की अनेक क्षमताओं के बारे में शायद जान लिया है।

तभी वो खुद को किसी के सपने के लिये ज़िन्दा रखकर उसके साथ अपना सपना भी देखना शुरू कर देता है। इसलिये अपना एक क्षेत्र मानकर आदमी किसी न किसी विभाजन के बीच रहकर अपने आराम और काम से अलग बनी रचना में भी जीने लगता है।

ये चाहत उस नियम को तोड़ती है जो किसी के जन्म से पहले बन जाता है। जो समाज में आने वाले के आगमन के होते ही उसकी छवि को समाज में प्रचलित कर देता है। लेकिन असल में जब बनाने वाले के हाथ ही ये भूल जाये की मैंने इस नेन-नक्श से सोभित रूप - आकार को बनाया किस लिये है? और वो करना क्या चाहता है? तब वक़्त की भविष्य वाणियाँ भी झूठी पड़ जाती है फिर काल्पनिकता इतनी गाढ़ी हो जाती है की सपना भी हक़ीकत में बदल जाता है या सब सच हो रहा होता है। यानी इंसान को जब मौत के लिये बनाया है तो अपने लिये जीने की वज़ाहें तलाश लेता है और फिर जीना चाहता है तो फिर इंसान को बनाने वाला भी अपना ईरादा बदल देता है और हमारी तलाश की ज़िन्दगी मे ईजाफा कर देता है।

ऐसा ही तेवर मैंने आटो रिक्शा बनाने वालो के जीवन में देखा। एक चलता-फिरता भौतिक जीवन का ढ़ाँचा। जिसका शायद भाविष्य है। ये एक साधन और ज़रिया तो है ही, पर किसी को कहीं से कहीं तक छोड़ने के अलावा इसके साथ रोजमर्रा की सच्चाई और काल्पनिलताएँ जुड़ी है। ये एक जगह में गढ़ा जीवन बनाये हुए है। जिसके साथ कई लोग, कई घर की कशमकश से भरी इच्छाएँ उज़ागर हो रही है। इन सारी भावनाओं और ज़िन्दगी इमारतें को खड़ा रखने वाली जगह है। जो ये एक आटो रिक्शा रिपेयर मार्किट है। जिसके साथ यहाँ पर भारी संख्या में लोग जुड़े हैं। इस समूदाय में हर कोई किसी न किसी का उस्ताद और शार्गीद है पर किसी को भी इस बात का जरा भी अभिमान नहीं है। सब का कार्य करने का अपना अन्दाज है अपना तरीका है। सब एक - दूसरे के स्वभाव से सुसोभित रहते हैं। दिन भर में न जाने कितनी बार किसी न किसी से मिलते-जुलते नज़र डाल जाते हैं और मज़ाक के अन्दाज में कोई भी बात कह जाते हैं। सब का आपस में बड़ा अच्छा ताल-मेल का रिश्ता है। जो उदारता और करूणा अहसास देता है पर जब उस मार्किट से बाहर निकलते हैं तो अजीब सी ताकतें इस अहसास को जख़्मी करने की कोशिश करती है। जो मार्किट से बनकर बाहर आता है उसे इस्तेमाल के नज़रिये से ज़्यादा नहीं समझा जाता है।

आज कल ऐसी ही कुख़्यात नीती के शिकार जो शहर के जागने से सोने तक में अपनी एहम भूमिका निभाते हैं। वो जैसे मानो सूरज की तरह कभी डूबते ही नहीं चाँद की तरह कभी छिपते ही नहीं। दूनिया के चौबीस घंटे घूमते रहने के बावज़ूद प्रत्येक व्यक़्ति को अस्थिर अहसास ही मालूम होता है। जब की वो अपनी जगह को बहुत कम छोड़ते हैं।

दूनिया में जीने रहने वाले इंसान को अपनी अनेक भूमिकाएँ बनाकर रहना पड़ता है। बस, वो जहाँ है अपनी जगह को मजबूती से पकड़े रहे तभी उसके जीवन के कठोर से कठोर हालातों का सामना करने की ताकत आती है। जो जड़ो में निरंतर पुर्नमिश्रण करते रहने से होता है।

अब मैं सोच रहा हुँ की में एक ऐसी खोज के लिये चला था जिसका छोर अभी मैंने ठीक से समझा ही नहीं। लेकिन उसमें भटक जरूर गया हुँ। जब मेरे सामने मेरी अपनी खोज को सबसे पहले चुनौती देनी बाली बात थी की मैं दूनिया के एक छोटे से भूआकार मे बनी लम्भ-सम्भ पचास मीटर से अधिक जगह में जाकर शामिल हो रहा हुँ। उस जगह में जीतने भी लोग मुझे देखते हैं वो बेहद संकोच मे पड़े होकर भी मुझे आसानी से अपने बीच से गुजर देना चाहते हैं फिर मैं कैसे और किन सवालों को चीज़ों को लेकर उनके बीच जा बैठूँ। जिससे मुझे उनकी ज़िन्दगी का हर क्षण को जीना और स्वतंत्रता के साथ एक-दूजे से मेल-मिलाप बनाये रखने की मोज़ूदगी मिली। मैं ये कहकर अपनी तलाश को कमजोर नहीं करना चाहुँगा की मेरे चन्द सवालो के जवाब पाना और किसी चीज को खोज पाने की मुझे इच्छा रही है। ये मान लेना मेरे लिये और मेरे बेमतलब मक्सद के साथ सरासर नाइंसाफी होगी।

बात चाहें जहाँ से भी शुरु हुई हो तलाश का मुद्दा चाहें कुछ और दिखा रहा हो। जरूरी तो ये बन पड़ता है की आपने उस तलाश में जारी रहे वक़्त के लम्हात में जीवन की रचनात्मकता और अनेक भूमिकाओं की नाट्कियता को कैसे अपने अदान-प्रदानों में लिया?

अपना एक अदभूत कुटुम्भ सा बनाये "ये इंद्रिरा विराट" मार्किट की ये जगह दक्षिणपुरी के साथ ही जन्म ले चुकी थी। शुरू में इस जगह मे चाय, खाना, पर्चुने की दूकान चलाने वाले ही आये थे। तेजी से बनते घरों और एक जगह से दूसरी जगह जाने के उम्दा साधनों के न होते हुए आटो रिक्शा ही रह जाता था जिसमें लोग अपने सामान को लाया और ले जाया करते थे। आटो आने की वजह अभी ओझल है मैं इस पर से पर्दा नहीं उठा चाहता। मगर आज जो पूरी मार्किट में घूसते ही सुनने को मिलता है जो हो रहा होता है। उसे पचाने के लिये अजगर के माफिक शरीर चाहिये।

मुझे ये जानने की एक हुड़क सी लगी की इस जगह में पहले कौन आया होगा।? मैं जगह से हर बार इतना प्रभावित रहता हुँ की मुझे जगह में अपने खुद के होने का पता ही नहीं होता। कि मैं कौन हुँ और कहाँ से आया हुँ? जगह के (अवतरन) वज़ूद में मैं अपने पूरी तरह से खो बैठता हुँ। आप यकिन ये सोचे की ऐसा बेडोल बन्दा कैसे किसी तलाश को ज़िन्दा रख पाता होगा? आप मेरे ओधड़ स्वभाव को काश समझ पाते तो मुझे शुकून मिलता। आप इस बात पर भी हंस रहे होगें की बहकी और भटकते विचार वाला कोई कैसे हमारे बीच आ सकता है। तो मैं आप को विश्वास दिलाता हुँ की मैं आप के ही बीच में हुँ और जो बात कर रहा हुँ जिस ज़िन्दगी को आपके नज़दीक ला रहा हुँ। वो भी आपके ही बीच से निकला समाज है। बल्की मैं तो ये कहता हूँ की ये तो आप ही का हम शक़्ल है। जो कहीं भीड़ में खो गया है। आप जिसे मानो कुम्भ के मेले में खोज रहे हैं और मिलने के उपरान्त भी आप उसके रूप और रचनाशीलता को पहचान नहीं पा रहे हैं पर कोई चिन्ता की बात नहीं ज़िन्दगी में ऐसा अक्सर होता है। चीज़ों को देखने की हमारी एक नपी-तुली दूरी होती है जिसके ज़रा भी कम या ज़्यादा होने से हम ठीक से अपने सम्मुख देख नहीं पाते हैं।

शहर हर शख़्स की जेब में इजाफा करता है, जो आज के युग में उपभोगता और उत्पादनकर्ता की बीच के तार को जोड़े रखता है।

भाग दुसरा.........

मैं सोच रहा हूँ की लिखकर इस ज़िन्दगी को महसूस किया जा सकता है तो मेरा अपना भौतिक विकास होना जरूरी है। लिखना क्या है और कैसे ये आगे बड़ता और गाढ़ा होता है? ये मैंने अपने और दूसरों से लिये अनूभव को लेकर समझ पाया हूँ। मैं जब भी सोच रहा होता हूँ तो मेरे ख़्याल से या ख़्यालों के सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक सुचनाएँ जो मेरे चारों ओर कोई वर्ग न बना कर कोई अदृश्य रेखाओं खींचा नक्शा महसूस होता है। जिसमे छूअन और टकराने का सकेंत मिलते हैं जिसमें बने बन रहे दृष्टिकोणों के ठण्डे-गर्म स्पर्शो को हम लेते रहते हैं। इस लिये मुझे लिखने जैसी रचनात्मकता में यानी इस शैली में मानवियता के गुणों के साथ जीवन के फलसफाएँ जानने को भी मिलते हैं। किसी भी प्रथमिकता को पाने के लिये हमारा चेतन्य या जिज्ञासू होना जरूरी है। इस आटो रिक्शा मार्किट में मैंने वो सारी सम-विषम भावनाएँ और क्षमताएँ देखी जो हर क्षण को अंनदमय बनाती है जीवन की दिर्गता को पारिस्थितियों को नये- नये सिरों से शुरू करती है। यही तो यथार्थ का स्वरूप है।


आज मैं एक आटो रिक्शा रिपेयर करने वाले से मिला। जो दक्षिणपुरी मे विराट सिनेमा के पास बनी मार्किट की एक दुकान में काम करता है। अजय कुमार, इस मार्किट में पिछले सोलहा साल से काम कर रहे हैं। वो आटो रिक्शा की बॉडी का डेंट निकालते हैं और कटे - पुराने लोहे की वेल्डिंग भी करते हैं। अजय से जब मैं मिला तो उस के सारे कपड़े तेल और ग्रीस से सने हुए थे। वो मुझसे हाथ मिलाने मे झिज़क रहा था।

आटो रिक्शा को रिपेयर करने काम यहाँ बड़े पैमाने पर होता है। रोज़ 500 से ज़्यादा आटो रिक्शा यहाँ रिपेयर होते हैं। अजय - सुबह 9 बजे से रात को 9 बजे तक काम करता है। उसके ही जैसे लगभग यहाँ सभी लोग आटो की रूप-सज्जा और रिपेयरिंग करते हैं। मैनें एक आटो बनते हुए देखा जिसकी लोहे की हड्डियों पर रेक्सिन चढ़ाई जा रही थी। दूसरा आदमी उसके पीछे एक आर्कशित पेंटिंग बना रहा था। एक शख़्स आटो की हैड लाईट लगा रहा था। एक उसके सामने नम्बर लिख रहा था, फिर शीशा, एफ.एम. सैट करना - अन्दर की गद्दियाँ लगाना। देखते ही देखते चन्द घन्टो में आटो बनकर तैयार हो गया। अजय से इस बारे में बात हुई है। वो इस पर अपनी कई तरह की दृष्टि डालता है। इस काम को अपने जीवन का एक महत्वपुर्ण हिस्सा मानता है।
एक ख़ास बात ये है की सब यहाँ आटो रिपेयर करवाने आते हैं और बदले में अपने और काम करने वालों के बीच में अलग-अलग तरह के माहौल बना कर चले जाते हैं। एक छोटी सी जगह में लोगों का अदभुत मिल होता है जिसमें सब की अपनी एक तलाश होती है और उस तलाश के जरिये कुछ पाने की जिज्ञासा होती है जिसमें बड़े हर्ष और उल्लास के साथ जिया जाता है। यहाँ दुख और निराशा के लिये NO Entry है। सब मस्ती में जीते हैं।

राकेश