आने वाले कुछ ही सालों में दिल्ली में छा जायेगें मैट्रो ट्रेन के स्टेशन। तेजी से दौड़ेगी हमारी ज़िन्दगी इस मैट्रो में पर जिन लोहे की पट्टरियों पर मेट्रो दौड़ेगी उन पट्टरियों को सम्भाले हुए खड़े होगे कई सरकारी और गैर-सरकारी कन्ट्रक्शन कम्पनियों के हाथों से बनाये गए वो पुल।
जिनकी नीव में, बुने गए ढाँचो में, मलवे में और अन्य हादसों की सतहों में न जाने कितनी ही ज़िन्दगियाँ समा चुकी होगी। हादसे तो कदम रखते ही है ज़िन्दगी का सच निचौड़ने के लिये। इसलिये ये हादसे जीवन में यमराज बनकर आते हैं और समय की अदृश्य सरहदो को लाँघकर शरीर से ज़िन्दगी को छीन ले जाते हैं।
मौत एक सच है और ज़िन्दगी उस से भी बड़ा सच है। मौत जीतकर भी हार जाती है और ज़िन्दगी हार कर भी जीत जाती है। अगर ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाइयों को पीकर हम मौत को मात देते हैं तो मौत भी हमारी ताक में रहती है। वो जगह-जगह हमें तलाश रही होती है। अपने हाथों में एक तरह का इन्विटेशनकार्ड लेकर। मौका मिला और कहीं किसी के भी हाथ में थमाकर रफूचक्कर हो जाती है। ये मौत अचानक ज़िन्दगी में आ जाती है। कब-कहाँ और कैसे, किसी को इन सवालों का जबाब मालूम नहीं है।
अभी पिछले साल 2008 मे हुई लापरवाही को मैट्रो पुल बनाने वाले लीडरों ने एक एक्सीडेन्ट करार दे दिया। लक्ष्मीनगर के पास बने इस पुल के नीचे बीचो-बीच दबी ब्लूलाइन बस में बैठे लोगों की मौत ने पूरे शहर में सनसनी का माहौल बना दिया था।
कई जख्मी हुए कई मौत के घाट उतर गये। सरकार हिल गई मीडिया ने इस दिन को बार-बार दिखा-दिखा कर लोगों के दिलों में दहशत भर दी। लोग मरे हंगामा हुआ। ये ख़बर न्यूज चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बनी रही। लाखों की आँखों मे ये मंज़र खौफ बन कर दिलो-दिमाग पर छाया रहा। मगर वक़्त ने अपने तेवर नहीं बदले वो ज्यों का त्यों चलता रहा। आखिरकार ये मौत भी उन लाखों-करोड़ों मौत की तरह अपना कोई बयान पीछे छोड़ गई। जिसे पढ़कर या सुनकर, आने वाली नस्लें अपने अतीत से कुछ सीख पायेगीं। इससे याद्दश्त को कोई हानी नहीं होगी, क्योंकि अतीत की परछाईयाँ याद्दश्त में ईजाफा करती हैं। वर्तमान बनाती हैं। अपने बीते माहौल के एक-एक मूवमेन्ट को लेकर वो एक नया वर्तमान पैदा भी करती है।
ये ज़ुमला उस कहावत से बिल्कुल भिन्न है जिसने कहा है की "मुर्गी पहले आई थी या अण्डा" जो भी पहले आया मौत तो उसी की हमराज बन जाती है। वो बीता लम्हा जो किसी की रहगुज़र से होकर निकला और किसी की झोली में आकर गिर गया। शायद लक्ष्मी नगर के इस मैट्रो पुल वाले हादसे से आबादी उभर चुकी थी। भूल चुकी थी उस मौत को जो कई सौ टन के सीमेन्ट से बने पुल के नीचे दब कर हुई थी।
आज उस हादसे ने फिर करवट बदली है। फिर मौत ने अंगड़ाई ली है। फिर वही सवाल। फिर भूलने के तरीके पर प्रश्न चिन्ह लगा है। फिर वही याद्दश्त को झिजोंड़ने वाली तस्वीरें। जो जीवन में एक दम से शून्यता का अहसास दिला जाती है और बुन देती है हमारे चारों ओर डर का जाल। जिसमें उलझ जाती है हमारी बहूमुखी चिन्ताये। जो निकलती है हमारे विचारों के मंथन से और सवालों की प्रगाढ़ता से। क्यों? क्या? और कैसे? फिर आमने-सामने होती है ज़िन्दगी और मौत और इनके बीच झूलती है वो शंकाए जिनको जन्म देती है सरकार की जल्दबाजी। सत्ता का चलन वो है जो अपने आपसे भी समझोता नहीं करता।
सरे आम ये कहा जा रहा है की केन्द्र सरकार ने भारत में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलो से जुड़ी परियोजनाओ के कारण मैट्रो निर्माण के कामों को पूरा करने वाली कम्पनियों की डेड लाईन का वक़्त अब ख़त्म होने को आ रहा है। इसलिये इस पूरी प्रक्रिया को कामयाब करने के लिये कुछ ज़्यादा ही तेजी बर्ती जा रही है।
जमरूदपुर में मैट्रो पुल के टूट जाने से रविवार के दिन शहर में अफरा-तफरी का माहौल बना रहा। इस दोहरी घटना ने 24 घन्टे शहर के लोगों को हैरत में डाल दिया। जो भी हो पहले पुल टूटा फिर क्रेन के हादसे से मलवे में दब जाने से लोगों की जान चली गई।
क्रेन का गार्ड गिरने से एक दम से धमाका हुआ की चारों तरफ तमाशा-ए-बीन लोग कार्मचारी और मजदूर अपनी जान बचाकर दूर भागे। लगभग क्रेन की मशीन चार सौ टन के स्लेब को ठिकाने लगाने का काम कर रही थी। अब चाहे मशीनी ख़राबी हो या कोई लापरवाही जो होना था हो चुका। मूंबई की कम्पनी ने कहा है की मरने वालों या घायलों को मुआवज़ा दिया जायेगा। इससे ज़्यादा कम्पनी और क्या कर सकती है।
रोज़ाना की ज़िन्दगी में हादसे खड़े होते हैं। आने वाला समय उन हादसों को भुला चुका होगा जो आज कल शहर में घटीत हो रहे हैं। मानो तेजी से कोई वायरस हमारी नव निर्मीत दूनिया में आ चुका है। जो जगह-जगह कह़र ढा रहा है। वो हमारे सारे सम्पर्क जान गया है सारे राज़ जान गया है। इसलिये ज़िन्दगी के टेढे-मेढे रास्तों पर एक अनचाही हेवानियत की मौज़ूदगी ने कदम-कदम पर शिकंजा बिछा दिया है। जैसे - मौत सब को खैरात में बाँटी जा रही हो। कहीं खाने - पीने की चीज़ों में तो कही घूमते-फिरते जगहों में होने वाले धमाको से कभी अपने ही चूकने से। तो कहीं हादसा खुद एक शिकारी बनकर शिकार करता है। ये मौत ज़िन्दगी की गलियों में अपना सा कुछ ढूँढती फिरती है।
एक अजीब सी बात सुनने को मिली है पुल के आसपास बसे लोग ये कह रहे की यहाँ मैट्रो पुल बनाने के लिये कई सौ साल पुराने पीपल के पेड़ को काट डाला है इसलिये ये हादसा हुआ है। शनी देव जी के नाराज होने की वज़ह से ये दूर्घटना हुई है।
गेनम इंडिया कम्पनी को गैर जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। शनी देव जी इस पीपल के पेड़ में विराजमान होते थे। मैट्रो के कामगारों ने इसे एक झटके में ही काट डाला। कई सौ साल पुराने इस पेड़ की पूजा जमरूदपुर गांव के लोग करते आये थे। अब वो पेड़ नहीं रहा ये बात वहाँ तेजी से फेल गई है की यहाँ अब अक्सर इस तरह के हादसे होते ही रहेगें।
राकेश
4 comments:
sochne wallee bat hai
एक विचारणीय लेख है ...
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
shokriya dosto aap ne humara ek shehr hai ko padh ummid hai ki aap is tareh apne comments daite rahege.
aap ka har shabd or line saval ,line immpotant hai.
rakesh
pks
shokriya dosto aap ne humara ek shehr hai ko padh ummid hai ki aap is tareh apne comments daite rahege.
aap ka har shabd or line saval ,line immpotant hai.
rakesh
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