वर्तमान इस बात का गवाह है की आज दिल्ली की सड़कों पर यातायात के सुलभ प्रयोजन हैं पर वक़्त के नये और कारगर योजनाओं की चपेट में आकर यातायात के कई साधनों के लुप्त होने के बिन्दू दिख रहे हैं। ये देखने में आता है की शहर आदमी की ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा ही नहीं बल्की आज शहर की आबों-हवा के बिना आदमी की कल्पना करना नामुम्मकिन सा लगता है।
शहर में सत्ता का सिक्का चलता है इसमें कोई शक़ नहीं है। वो कानूनी दाव-पेच के जरिये अपने लोकतंत्र में जीने वाले प्रत्येक व्यक़्ति से राज्य का नुकसान और मुनाफा करने के लिये सार्वजनिक सम्पदाओं में जीते लोगों पर टेक्स जैसे भुगतानों से अपनी जड़ों को सींचती है और बदले में देती है एक तराजू-बट्टे से नपा-तुला शरीर कि चक्की में पिसा वो हिस्सा जो संतुष्ट ही करता है। सपने पूरे नहीं करता। सपनों को जन्म ही लेने नहीं देता। बल्की आप किसी के सपने के लिये जी रहे हो ये समझ कर खुद को मारकर भी ज़िन्दा रखा जाता है। ये ज़्यादा दिखाई देगा उस निराकार उद्देश्यहीन और भौतिक दूनिया में एहतियात बरती विवेकशील इच्छाओं में। असुविधाओं में एक सच्चा जीवन अपनाकर जीने वाले मजदूर आदमी में। इंसान ने शरीर की अनेक क्षमताओं के बारे में शायद जान लिया है।
तभी वो खुद को किसी के सपने के लिये ज़िन्दा रखकर उसके साथ अपना सपना भी देखना शुरू कर देता है। इसलिये अपना एक क्षेत्र मानकर आदमी किसी न किसी विभाजन के बीच रहकर अपने आराम और काम से अलग बनी रचना में भी जीने लगता है।
ये चाहत उस नियम को तोड़ती है जो किसी के जन्म से पहले बन जाता है। जो समाज में आने वाले के आगमन के होते ही उसकी छवि को समाज में प्रचलित कर देता है। लेकिन असल में जब बनाने वाले के हाथ ही ये भूल जाये की मैंने इस नेन-नक्श से सोभित रूप - आकार को बनाया किस लिये है? और वो करना क्या चाहता है? तब वक़्त की भविष्य वाणियाँ भी झूठी पड़ जाती है फिर काल्पनिकता इतनी गाढ़ी हो जाती है की सपना भी हक़ीकत में बदल जाता है या सब सच हो रहा होता है। यानी इंसान को जब मौत के लिये बनाया है तो अपने लिये जीने की वज़ाहें तलाश लेता है और फिर जीना चाहता है तो फिर इंसान को बनाने वाला भी अपना ईरादा बदल देता है और हमारी तलाश की ज़िन्दगी मे ईजाफा कर देता है।
ऐसा ही तेवर मैंने आटो रिक्शा बनाने वालो के जीवन में देखा। एक चलता-फिरता भौतिक जीवन का ढ़ाँचा। जिसका शायद भाविष्य है। ये एक साधन और ज़रिया तो है ही, पर किसी को कहीं से कहीं तक छोड़ने के अलावा इसके साथ रोजमर्रा की सच्चाई और काल्पनिलताएँ जुड़ी है। ये एक जगह में गढ़ा जीवन बनाये हुए है। जिसके साथ कई लोग, कई घर की कशमकश से भरी इच्छाएँ उज़ागर हो रही है। इन सारी भावनाओं और ज़िन्दगी इमारतें को खड़ा रखने वाली जगह है। जो ये एक आटो रिक्शा रिपेयर मार्किट है। जिसके साथ यहाँ पर भारी संख्या में लोग जुड़े हैं। इस समूदाय में हर कोई किसी न किसी का उस्ताद और शार्गीद है पर किसी को भी इस बात का जरा भी अभिमान नहीं है। सब का कार्य करने का अपना अन्दाज है अपना तरीका है। सब एक - दूसरे के स्वभाव से सुसोभित रहते हैं। दिन भर में न जाने कितनी बार किसी न किसी से मिलते-जुलते नज़र डाल जाते हैं और मज़ाक के अन्दाज में कोई भी बात कह जाते हैं। सब का आपस में बड़ा अच्छा ताल-मेल का रिश्ता है। जो उदारता और करूणा अहसास देता है पर जब उस मार्किट से बाहर निकलते हैं तो अजीब सी ताकतें इस अहसास को जख़्मी करने की कोशिश करती है। जो मार्किट से बनकर बाहर आता है उसे इस्तेमाल के नज़रिये से ज़्यादा नहीं समझा जाता है।
आज कल ऐसी ही कुख़्यात नीती के शिकार जो शहर के जागने से सोने तक में अपनी एहम भूमिका निभाते हैं। वो जैसे मानो सूरज की तरह कभी डूबते ही नहीं चाँद की तरह कभी छिपते ही नहीं। दूनिया के चौबीस घंटे घूमते रहने के बावज़ूद प्रत्येक व्यक़्ति को अस्थिर अहसास ही मालूम होता है। जब की वो अपनी जगह को बहुत कम छोड़ते हैं।
दूनिया में जीने रहने वाले इंसान को अपनी अनेक भूमिकाएँ बनाकर रहना पड़ता है। बस, वो जहाँ है अपनी जगह को मजबूती से पकड़े रहे तभी उसके जीवन के कठोर से कठोर हालातों का सामना करने की ताकत आती है। जो जड़ो में निरंतर पुर्नमिश्रण करते रहने से होता है।
अब मैं सोच रहा हुँ की में एक ऐसी खोज के लिये चला था जिसका छोर अभी मैंने ठीक से समझा ही नहीं। लेकिन उसमें भटक जरूर गया हुँ। जब मेरे सामने मेरी अपनी खोज को सबसे पहले चुनौती देनी बाली बात थी की मैं दूनिया के एक छोटे से भूआकार मे बनी लम्भ-सम्भ पचास मीटर से अधिक जगह में जाकर शामिल हो रहा हुँ। उस जगह में जीतने भी लोग मुझे देखते हैं वो बेहद संकोच मे पड़े होकर भी मुझे आसानी से अपने बीच से गुजर देना चाहते हैं फिर मैं कैसे और किन सवालों को चीज़ों को लेकर उनके बीच जा बैठूँ। जिससे मुझे उनकी ज़िन्दगी का हर क्षण को जीना और स्वतंत्रता के साथ एक-दूजे से मेल-मिलाप बनाये रखने की मोज़ूदगी मिली। मैं ये कहकर अपनी तलाश को कमजोर नहीं करना चाहुँगा की मेरे चन्द सवालो के जवाब पाना और किसी चीज को खोज पाने की मुझे इच्छा रही है। ये मान लेना मेरे लिये और मेरे बेमतलब मक्सद के साथ सरासर नाइंसाफी होगी।
बात चाहें जहाँ से भी शुरु हुई हो तलाश का मुद्दा चाहें कुछ और दिखा रहा हो। जरूरी तो ये बन पड़ता है की आपने उस तलाश में जारी रहे वक़्त के लम्हात में जीवन की रचनात्मकता और अनेक भूमिकाओं की नाट्कियता को कैसे अपने अदान-प्रदानों में लिया?
अपना एक अदभूत कुटुम्भ सा बनाये "ये इंद्रिरा विराट" मार्किट की ये जगह दक्षिणपुरी के साथ ही जन्म ले चुकी थी। शुरू में इस जगह मे चाय, खाना, पर्चुने की दूकान चलाने वाले ही आये थे। तेजी से बनते घरों और एक जगह से दूसरी जगह जाने के उम्दा साधनों के न होते हुए आटो रिक्शा ही रह जाता था जिसमें लोग अपने सामान को लाया और ले जाया करते थे। आटो आने की वजह अभी ओझल है मैं इस पर से पर्दा नहीं उठा चाहता। मगर आज जो पूरी मार्किट में घूसते ही सुनने को मिलता है जो हो रहा होता है। उसे पचाने के लिये अजगर के माफिक शरीर चाहिये।
मुझे ये जानने की एक हुड़क सी लगी की इस जगह में पहले कौन आया होगा।? मैं जगह से हर बार इतना प्रभावित रहता हुँ की मुझे जगह में अपने खुद के होने का पता ही नहीं होता। कि मैं कौन हुँ और कहाँ से आया हुँ? जगह के (अवतरन) वज़ूद में मैं अपने पूरी तरह से खो बैठता हुँ। आप यकिन ये सोचे की ऐसा बेडोल बन्दा कैसे किसी तलाश को ज़िन्दा रख पाता होगा? आप मेरे ओधड़ स्वभाव को काश समझ पाते तो मुझे शुकून मिलता। आप इस बात पर भी हंस रहे होगें की बहकी और भटकते विचार वाला कोई कैसे हमारे बीच आ सकता है। तो मैं आप को विश्वास दिलाता हुँ की मैं आप के ही बीच में हुँ और जो बात कर रहा हुँ जिस ज़िन्दगी को आपके नज़दीक ला रहा हुँ। वो भी आपके ही बीच से निकला समाज है। बल्की मैं तो ये कहता हूँ की ये तो आप ही का हम शक़्ल है। जो कहीं भीड़ में खो गया है। आप जिसे मानो कुम्भ के मेले में खोज रहे हैं और मिलने के उपरान्त भी आप उसके रूप और रचनाशीलता को पहचान नहीं पा रहे हैं पर कोई चिन्ता की बात नहीं ज़िन्दगी में ऐसा अक्सर होता है। चीज़ों को देखने की हमारी एक नपी-तुली दूरी होती है जिसके ज़रा भी कम या ज़्यादा होने से हम ठीक से अपने सम्मुख देख नहीं पाते हैं।
शहर हर शख़्स की जेब में इजाफा करता है, जो आज के युग में उपभोगता और उत्पादनकर्ता की बीच के तार को जोड़े रखता है।
भाग दुसरा.........
मैं सोच रहा हूँ की लिखकर इस ज़िन्दगी को महसूस किया जा सकता है तो मेरा अपना भौतिक विकास होना जरूरी है। लिखना क्या है और कैसे ये आगे बड़ता और गाढ़ा होता है? ये मैंने अपने और दूसरों से लिये अनूभव को लेकर समझ पाया हूँ। मैं जब भी सोच रहा होता हूँ तो मेरे ख़्याल से या ख़्यालों के सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक सुचनाएँ जो मेरे चारों ओर कोई वर्ग न बना कर कोई अदृश्य रेखाओं खींचा नक्शा महसूस होता है। जिसमे छूअन और टकराने का सकेंत मिलते हैं जिसमें बने बन रहे दृष्टिकोणों के ठण्डे-गर्म स्पर्शो को हम लेते रहते हैं। इस लिये मुझे लिखने जैसी रचनात्मकता में यानी इस शैली में मानवियता के गुणों के साथ जीवन के फलसफाएँ जानने को भी मिलते हैं। किसी भी प्रथमिकता को पाने के लिये हमारा चेतन्य या जिज्ञासू होना जरूरी है। इस आटो रिक्शा मार्किट में मैंने वो सारी सम-विषम भावनाएँ और क्षमताएँ देखी जो हर क्षण को अंनदमय बनाती है जीवन की दिर्गता को पारिस्थितियों को नये- नये सिरों से शुरू करती है। यही तो यथार्थ का स्वरूप है।
आज मैं एक आटो रिक्शा रिपेयर करने वाले से मिला। जो दक्षिणपुरी मे विराट सिनेमा के पास बनी मार्किट की एक दुकान में काम करता है। अजय कुमार, इस मार्किट में पिछले सोलहा साल से काम कर रहे हैं। वो आटो रिक्शा की बॉडी का डेंट निकालते हैं और कटे - पुराने लोहे की वेल्डिंग भी करते हैं। अजय से जब मैं मिला तो उस के सारे कपड़े तेल और ग्रीस से सने हुए थे। वो मुझसे हाथ मिलाने मे झिज़क रहा था।
आटो रिक्शा को रिपेयर करने काम यहाँ बड़े पैमाने पर होता है। रोज़ 500 से ज़्यादा आटो रिक्शा यहाँ रिपेयर होते हैं। अजय - सुबह 9 बजे से रात को 9 बजे तक काम करता है। उसके ही जैसे लगभग यहाँ सभी लोग आटो की रूप-सज्जा और रिपेयरिंग करते हैं। मैनें एक आटो बनते हुए देखा जिसकी लोहे की हड्डियों पर रेक्सिन चढ़ाई जा रही थी। दूसरा आदमी उसके पीछे एक आर्कशित पेंटिंग बना रहा था। एक शख़्स आटो की हैड लाईट लगा रहा था। एक उसके सामने नम्बर लिख रहा था, फिर शीशा, एफ.एम. सैट करना - अन्दर की गद्दियाँ लगाना। देखते ही देखते चन्द घन्टो में आटो बनकर तैयार हो गया। अजय से इस बारे में बात हुई है। वो इस पर अपनी कई तरह की दृष्टि डालता है। इस काम को अपने जीवन का एक महत्वपुर्ण हिस्सा मानता है।
एक ख़ास बात ये है की सब यहाँ आटो रिपेयर करवाने आते हैं और बदले में अपने और काम करने वालों के बीच में अलग-अलग तरह के माहौल बना कर चले जाते हैं। एक छोटी सी जगह में लोगों का अदभुत मिल होता है जिसमें सब की अपनी एक तलाश होती है और उस तलाश के जरिये कुछ पाने की जिज्ञासा होती है जिसमें बड़े हर्ष और उल्लास के साथ जिया जाता है। यहाँ दुख और निराशा के लिये NO Entry है। सब मस्ती में जीते हैं।
राकेश
2 comments:
बहुत ही बढिया सन्देश भी देती है यह पोस्ट.........
hi om aap ke jabab se humen khoshi hoti hai or aage cheleng lene ki takat milti ,kya aap humare blog ,ek-shehr-hai ke folover banna chahege .
tanxs
pks
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