साधन - पहला भाग...
साधन क्या है? ये सवाल कोई अनोखा नहीं है। इससे हम जैसे रोज़ लड़ते हैं और इसे रोज बनाते भी हैं। हर कोई खुद के लिये जैसे साधन जुटाता फिरता है। कोई कल्पना करने के लिये साधन बनाता है, कोई खुद को रखने के, कोई कहानी सुनाने के, कोई महफिल मे शामिल होने के, कभी - कभी महफिल भी साधनो से रची जाती है तो कभी रच जाने के बाद मे लोग छोटे - छोटे कारणों को अपनी बातचीत का साधन बना लेते हैं। क्या हमें पता है की हमारे आसपास चलती बातचीत के समुहों मे साधन क्या होते हैं?
एक जगह जहाँ पर इस सवाल को लेकर बातचीत चली। ये दस साथियो का एक गुट है जिनके लिये साधन कोई सीढ़ी नहीं थे और न ही वो कोई हवा मे झूलती डोर। साधन जो एक रूप बनता है किसी चीज़ मे गहरेपन से उतरने का। एक मौका बनता है किसी से जुड़ने और संकल्प बनाने का। साधन कोई चाबी नहीं है लेकिन कई अनेको सोच और कल्पनाओ को खोलने और उसे बहने देने का अच्छा खासा इंतजाम कर सकती है।
यहाँ पर आये कुछ साथी अपने साथ एक साधन लेकर आये कोई किताबें लाया - विनोद कुमार शुक्ल – खिलेगा तो देखेंगे की और कोई लाया फिल्म का एक क्लीप - फिल्म थी ( आई क्लाउन) कोई तस्वीरे लाया- जिसमे तीन लड़कियाँ अलग - अलग ड्ररेस मे बैठी थी, तो कोई ड्राइंग / ग्रापिक्स जिसपर वो उन्हे बनाने और उन्हे देखने का नज़रिया बना पाने की कोशिश मे था। कोई टेकनॉलोजी से मोबाइल लाया और कोई किसी माहौल के विवरण के तरह किसी वर्कशॉप की तस्वीरे और लेख लाया।
किताबें हमारी ज़िन्दगी मे क्या सजों पाती है? क्या खाली टाइम मे पढ़ने का जरिया?, क्या पढ़कर भूल जाने के तरीके? या कुछ और है? या स्कूलो की तरह से पढ़ने और जवाब देने के बाद मे सब कुछ खत्म हो जाता है?, शायद नहीं
यहाँ पर किताबों का कुछ और ही रूप था - जिसमे कुछ ऐसे मुल्यवान सवाल उभरे की उसको सोच पाना किसी नई धारा के साथ बहने के समान था। ये सवाल किसी से पूछे जाने वाले सवाल नहीं थे और न जवाब पाने के साथ मे खत्म हो जाने वाले। सवाल खुद के साथ मे जीवन का फलसफा समझने के लिये तत्पर थे।
एक साथी ने एक किताब रखी जो समाजिक नितियो की भरमार थी। जिसमे जीवन जीने के तरीके और उसको बनाने के आयाम कुछ बने - बनाये ढाँचो के ऊपर चलने वाले बने थे। यहाँ पर वो किताब को पढ़कर कुछ सवाल खोज पाया-
सवाल था : मूलधारा क्या है? हमारे जीने की, हमें बनाने की और हमारे चलने की?
असल मे एक धारा तो हमारे आसपास मे बनी है जिसमे सब कुछ पहले से ही तय हो जाता है। हमारे दिमाग का हमारे शरीर के साथ और हमारे चलने का हमारे रुकने के साथ। लेकिन ये मूल धारा मे चलना हमे नये की तरफ धकेल पाता है? क्या इसमे नये की कल्पना शामिल होती है?
अगर हम इस मूलधारा से हटकर सोचना चाहते हैं तो उसके बिन्दू क्या हैं?
मूलधारा को सोचते हुये चले तो हमें क्या मिलता है? जीवन की ये मूलधारा क्या है? कुछ तो है जिसके साथ बन्धे हैं?
उसी के साथ मे एक और साथी ने एक किताब रखी जिसमे इस सवाल से जुझने का एक नज़रिया तो नहीं कह सकते लेकिन एक कोना समझमे आने की कोशिश मे रहा। दूसरे साथी ने कहा, "मैं और बाहर की दहलीज़ पर बैठकर कुछ बनाना क्या होता है?
इस सवाल से असल मे हम उस छोर को लाने की कोशिश कर सकते थे जो आर या पार की भूमिका को जीवन मे खत्म कर देता है। फैसला नहीं है और न ही फैसले तक का जीवन है। ये किसी धारा के बीच की दुनिया है जो बनी - बनाई नहीं है। जो निरंतर बहती है। मूलधारा कहीं पर जाकर तो अपने बने बनाये रूपो मे फसती है। वो कोने कौन से हैं? ये दहलीज़ उस अनकेनी की बुनियाद की तरह से है। जिसे गिना नहीं जा सकता लेकिन गिनती मे नहीं है ये भी नहीं कहा जा सकता।
"दहलीज़" शब्द से मूलधारा को समझा जा सकता है या शायद नहीं। लेकिन काम - प्रक्रिया उसके बाद मे फैसला ये तय कर देता है उस नितियों को जिसे कड़ी धारा के माध्यम मे देखा जाता है। मगर यहाँ पर सवाल कुछ दूसरा हो गया था। जो कहीं पर है, लेकिन नज़रों से चिन्हित नहीं किया जा सकता।
लख्मी
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