Wednesday, January 29, 2014

नूरी का कूण्डा

मचान पर से सारे कपड़ों को खिंचकर नीचे बिखेर लिया। दोपहर का लिया हुआ भी कूण्डा भी साथ में ही रखा था। वो सारी सलवारों के नैफे छू-छू कर देख रही थीं। कहीं इसमे तो नहीं, कहीं इसमे तो नहीं! साथ वाली शकीला बाजी ने आकर पूछा "अरी नूरी तू ये क्या कर रही है?”

कपड़ो को टटोलते हुए नूरी ने एक नज़र शकिला बाजी पर डाली और फिर लग गई नैफो में कुछ तलाशने। शकिला बाजी ने पास में रखा कूण्डा हाथ में उठाते हुये कहा,  "अरी नूरी ये तो बहुत अच्छा लग रहा है। क्या जुम्मा बाजार से लाई"

"ना भाभी दोपहर में ही बर्तन वाले से लिया है।" कई दिनों से पुराने कपड़ों का गट्ठर बंधा पड़ा था। तो सोच रही थी के कोई बर्तन वाला आ जाये तो इन्हे देकर कोई बड़ा सा बर्तन ले लुं। दोपहर में एक आया था पूरी गली में आवाज लगाता हुआ फिर रहा था मैनें उसे रोका और पूछा कि क्या क्या बर्तन लाया है?

उसने कहा, "बाजी सभी कुछ है।"

"आटे के कूण्डा है?”

"हां है।"

"कितने कपड़ो मे देगा?”

"सात जोडी से कम नही दूगां।"

"अरे ओ भईया पाचं जोडी मे देना

हो तो बता।"

"अरे बाजी आप भी चलिये अच्छा

दिखाईये।"

"इधर आजा भईया गली मे"


ये कहकर नूरी ने मचान पर से कपड़ों का पूढ़ला उतारा। छोटे-बड़े पैन्ट-कमीज, कच्छे-बनियान वो इधर-उधर करती हुई उन्होनें अपने कपड़ों की छटाई की। कौन से घिस रहे हैं? कौन से फट रहे हैं उन्हे ही निकाला जाये थोड़ी मस्क्कत के बाद में पाचं जोड़ी कपड़ों का जुगाड़ हो पाया। उस पर भी बर्तन वाले के नख़रे। इनकी छोटी मोटी बहस शुरू हो गई।

"अरे कैसा है बहन जी ये तो घिसा हुआ है।"

"अरे भईया अभी से घिस गया अभी पिछले महिने ही सिलवाया है।"


काफी ना-नुक्कड के बाद बर्तन वाले ने वो कपड़े रख लिये और नूरी के हाथों में चमचमाता कूण्डा पकड़ाकर उसमे बाहर की गली मापी। नूरी खुश थी की उन्होनें इतने कम कपड़ों में इतना बढिया कूण्डा ले लिया। उन्होनें वो कूण्डा गली में खड़ी होकर सलमा की अम्मी, सुम्मी की अम्मी, रेशमा की अम्मी और भाई को दिखाया। देखा भाभी कितना अच्छा कूण्डा है और कितने कम कपड़ों में दे गया।

"अरी हां नूरी तूने तो सही ले लिया हमसे तो कपड़ों का ढेर ले जाता है और उसपर भी नख़रे करता है।"
नूरी माथे पर सलवट लाते हुये " बाजी मुझे भी यूं ही ना दे गया निरा दिमाग चाट गया मेरा भी।"

सुम्मी की अम्मी कूण्डे को हाथों में लेकर जाचते हुये बोली, "अरी तो क्या हो गया चीज भी तो बढिया दे गया।"

कुण्डे को अपने हाथों में सम्भालते हुये फिर से बोली,  "शायद साकिब उठ गया है रोने की आवाज लग रही है?”

ये कहते हुये अपने घर में चली गई। और शाम के कामकाज में लग गई। बच्चे खेल रहे थे साकिब पानी की बालटी में लगा हुआ था। नूरी काम से निबटा कर अपने पैसों को गिन रही थी। कितने बचे और कितने खर्च हुए। सो रूपये में से दस रूपये बच गये थे। नूरी खुश थी क्योकि आज डबल खुशी का दिन था। एक तीन सो रूपये पूरे होने की खुशी और दूसरा कम कपड़ों में कूण्डा लेने की। जैसे ही भाभी हाथ में दस रूपये दबाये मचान की तरफ में सलवार को उतारने पलकी जिसके नैफे में वो पैसे जमा करती थी। ये देखकर तो उनके पैरो तले से जमीन ही खिसक गई। क्योकि सलवार वहां पर नहीं थी। नूरी ने दोपहर का कूण्डा लेने का वाक्या दिमाग में दोहराया तो याद आया की वो सलवार तो बर्तन वाला ले जा चूका है। "हाय अल्ला ये क्या कर दिया मैने?”

ये सोचकर वो बाहर की तरफ में भागी उन्होनें कई गलियां भागते-दौड़ते नापी की कहीं वो बर्तन वाला यहीं कहीं घूम रहा हो? मस्जिद की तरफ, असलम की तरफ, सुखी सब्जी वाले की तरफ सब तरफ में देखा सबसे पुछा पर वो बर्तन वाला कहीं नहीं मिला नूरी सिर को पकडकर आ गई।

इंतजार

जब कमरे में अधेरा नीचे उतर आया था। घर में पलंग पर बिना सलवट की चादर बिछी हुई थी। तकिये को बड़े प्यार से साथ -साथ सिरहाने रखा हुआ था। दिवार पर खुबसुरत पहाड़ो की, झरनों की पेन्टिग टगीं हुई थी। टेबल, फैन, स्टूल, फूलदान और मेरी शादी में मिला आईना भी।

बाहर तो कुछ सन्नाटा सा मालूम हो रहा था। मगर अन्दर कमरें में बिना बल्ब की और ट्यूब लाईट की रोशनी में टीवी पर फिल्म देखकर वक्त काट रही थी। आंखों के आगे टीवी में चलती फिल्म में बदलते अलग-अलग रंग मेरे चेहरे पर दिख रहे थे। फिल्म के डायलॉग के साथ सीन बदलता तो मेरे हाथ – पैरों पर परछाईयां सी बन जाती।

सुशीला का दिल उस वक्त बड़ा बेचैन तो था ही क्योंकी 5 वर्ष पहले सुशीला से शादी होने के बाद उनके पति पैसा कमाने शहर से दूर चले गये थे। बीच-बीच में चिट्ठियां आती रहती थी। एक आखरी चिट्ठी 5वें साल में आई। उसे घर के कोने में छुपा कर सुशीला ने उस चिट्ठी को खोला अपने कांपते हाथो से ...उसने उन्ही कांपते हाथो से चिठ्ठी पकडी हुई थी। उसने चिट्ठी को खोला और पढ़ना शुरू किया।


प्रिय्र सुशीला

     तुम कैसी हो और घर वाले कैसे हैं? सब ठीक तो है। सब को मेरा नमस्ते कहना। मैं राजी खुशी से हूँ। तुम्हारी ख़बर महीनों से नहीं ले पाया। इसलिये ये आखरी चिट्ठी भेज रहा हूँ। इस के बाद तो मैं आ ही जाऊंगा। शादी होने के 10 दिन बाद ही तुम को घर में जाने- अन्जानो के साथ छोड़ आया लेकिन मां-बाबूजी और मेरे भाई बहन तुम्हें बहुत प्यार करते होगें। तुम्हे अकेलापन कभी महसूस नहीं होता होगा। मैं ये यकिन से कहता हूँ। माफ करना, तुमने इन 5 सालो में मेरे इन्तजार मे बहुत तकलीफ उठाई होगी। लेकिन अब मैं चन्द दिनों में ही तुम्हारे करीब होगा। तुम वैसे ही दुल्हन की तरह मेरे सामने आना। तुम्हारा शिंगार किया चेहरा मैं फिर से अपनी आंखों में बसाना चाहता हूँ। अच्छा मैं अगले महीनें की 7 तारीख तक आ जाऊगां मेरा इंतजार करना।

तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा.....

चिट्ठी को मोढ़ कर सुशीला ने अलमारी में रख दिया और तभी से ही वो हफ्तों /दिनो को गिन – गिनकर बिताती। मां बाबूजी और बाकियों को रोज जल्दी खाना खिला कर वो शाम का काम निपटा कर अपने कमरे में आकर उस दिन को याद करती। जब सुशीला ने इस चौखट पर पहला कदम रखा था। वो लम्हा जो उसने उनके साथ बिताया था। अभी दिल में वो लम्हें जिन्दा थे। देर रात तक जगने से सुशीला की आंखें पत्थरा गई थी।

अभी भी वो सुबह होने का इन्तजार करती हुई टीवी के रिर्मोट के बटनों को खामखा बदल हुई दिवार पर लगी घड़ी की सुईयो पर नजरें को ठहर -ठहर कर दौड़ा रही। उनके आने की खुशी में सुशीला ने केसरी रंग की साड़ी पहनी हुई थी। काजल आंखो में मुस्कुरा रहा था। बिंदी आसमान के तारों की तरह टिम - टिमा रही थी। गालों पर सुर्ख रंग चड़ आया था। टीवी से मन भर जाने के बाद उस ने उठ कर रोशनी में आने के लिये ट्युब लाईट जला दी। रोश्नी ने कमरे को उजागर कर दिया वो टीवी को बन्द कर के रिर्मोट को टेबल पर रखकर उस बडे से आईनें मे अपनी सूरत बड़ी ग़ोर से देखने लगी। आईने के सामनें खड़ी वो आईने से ही चीड़ कर कर खिले भाव से बोली ......  “अब तेरी ज़रूरत नहीं होगी मुझे। उन के आने के बाद तू मुझे देखने को तरस जाएगा देख लेना" 

सुशीला की मुस्कान जैसे आईनें को चटका देगी ऐसा लग रहा था। आईना तो मौजूदा वक्त की तस्वीर ही दिखा रहा था। उसे भला बेईमानी करने में क्या मिलता। ट्यूब लाईट की रोश्नी में आईने के आगे बैठे-बैठे उस के चेहरे से खुशी का रंग धीरे-धीरें उतर रहा था। इन्तजार से लड़ती सुशीला की जिज्ञासा उस के दिमाग में कुछ धुंधली तस्वीरें को वो देख रही थी। 5वर्ष की अवधी का समय और आने वाले समय की एक जंग की कोई गूंज सी सुनाई दे रही थी। ख्यालों में खोई सुशीला और उस की आंखे पलंग पर से दरवाजे की तरफ देखते - देखते वही लग गई। 2 घंटे बाद दरवाजें पर कुन्दी को खड़काने की आवाज से उठ कर वो तेजी में भागी। रात से ही सजीं हुई सुशीला के पांव में बंधी पाजैब झन-झनाती हुई बजी।

दरवाजा खोलते ही ढ़ेरो भिन्न भिन्नाती आवाजों का एक गुच्छा सा अन्दर आ गया। चिड़ियों की चहचहाट, गाड़ियों की साँये - साँये, काम पर निकलते लोग। इन सभी की गूंज बनी आवाज़ें सुबह अपने जोर पर आ गई थी। दरवाजा खुलने के बाद सुशीला कच्ची सी नींद से जागी। आंखों के सामने सिर से गम्छा बांधे। वो कुर्ता पजामा पहने उसे दूध वाला अपनी साईकिल को स्टेन्ड पर लगाता दिखा। सुशीला सोच रही थी  "ये कौन आया" के इतने में उसने दूध के डिब्बे में से एक लीटर दूध निकाल कर कहा "बहन जी क्या आज दूध हाथों में लो गी क्या?”

.... दूध वाला सुशीला को देखकर मूह सुकोड़कर और घूरकर देखता रहा .... सुशीला चुपचाप रसोई से भगोना लेकर आई दूध लेकर रसोई मे रखकर बाहर आकर कमरे में ही बैठ गई और उस आईने की तरफ देखने लगी।
वो सोच रही थी की अभी भी वक़्त पूरा नहीं हुआ।

इतने में उसके दरवाजे पर एक जोरदार दस्तक हुई। लगता था की कोई दरवाजा पीट रहा है। साथ ही काफी रोने की आवाज़ होने लगी। मगर इन सभी आवाज़ों को सुशीला सुन नहीं सकती थी। वो सो चुकी थी।

राकेश

Wednesday, January 8, 2014

तारे बोलते हैं जरा ध्यान लगाकर सुनें

लोगों ने जीवन देती इस खुरदरी, सपाट, मिट्टीदार, गरम भूमी को अपने खून से सींचा है। आंदोलन भरे दौर आये और चले गये। लोग जीये और वो किसी तारे की तरह चमके फिर बादलों मे छूप गये। पर इस जीवन धरातल के ऊपर कोई पक्की बुनियाद ही नहीं बन सकी जिसके जोर से किसी इंसान को उसका अस्तिव प्राप्त हो पाता। फिर भी सहास लेकर इंसान अपने को हर तरह के समय के मुताबिक ढ़ालने की कोशिश करता है। वो किसी की ज़िन्दगी में अपनी मौजूदगी के निशान बनाने की कोशिश करता चला रहा है। समाज में रहकर उसे ज़िन्दगी को जीने कोई एक ढंग मिलता है। लेकिन इस ढंग को वो आत्मनिर्भता से जीना चाहता है। जिससे सब रिश्तों और समाजिक जिम्मेदारियों में रहकर वो अपने जीवन के ऐसे मूल अनुभव जोड़ सके जो उसके स्वरूप से ज़िन्दा किये जा सकें। तभी आसमान में जगमगाते ये तारे बोलते हैं जरा ध्यान लगाकर सुनें......

राकेश

Monday, January 6, 2014

सिर्फ देखने वाला श्रौता


हमारी आज़ादी जो हर चीज को साथ लिये उड़ने की सोचती है। वो आज़ादी हमें हर जगह भले ही ना मिले मगर वो अपने जाले सी इच्छाओं से हर पल को झपटना चाहती है। साथ ही यह भी महसूस कराती है कि हर जगह, वस्तु, रिश्ता उसी की लपेट में है। इच्छाओं से बाहर कुछ नहीं दिखाती। पर उस माहौल से अनछुई रहती है जहां पर उसके रिश्ते उसे जान लेने का दावा करते हैं। उसी एक तरह के माहौल और उसके दायरे को भेदने के लिये अपने से बाहर जाती है। और सिर्फ देखने वाला श्रौता बन अपनी भाषा तलाशती है। अन्दर और बाहर के घेरे में शख्सियत अचानक से मिले व छीने गये मौको को अपनी आज़ादी का परिणाम मानकर उसका भरपूर अहसास करती जाती है।

अचानक से मिले व छीने गये मौको के घेरे से बाहर क्या है?

राकेश

आसमान बहुत छोटा है

यहाँ पर कोई नहीं आता। उनमें से तो कोई नहीं आता जो इसे अपना कहकर जब्त कर लेते हैं और उनमे से भी कोई नहीं आता जो इसे अपना बिलकुल भी नहीं कहते। ये खुली है और हमेशा खुली ही रहेगी। ये उनके लिये बनी है जो कभी-कभी यहाँ पर आकर रोज़ के लिये रह जाते हैं उनके लिये हैं जो यहाँ रोज़ आते हैं और कभी-कभी रह जाते हैं। ये कोई कोना या किनारा नहीं है, ये कोई कमरा या धरा नहीं है। ये तो बस, एक खाँचा है।

बहुत तेज बारिश हो रही है। पूरी सड़क पर दूर – दूर तक कोई भी नज़र नहीं आ रहा है। अंधेरा इतना है की कोई अगर झटके से भी यहाँ पर आ जाये तो टकरा ही जाये। ये रात बहुत काली होने वाली है लगता है। किसी को शायद याद नहीं है कि वो तो वहाँ पर आ ही गये होगें जिन्होनें इस जगह से वादा किया हुआ है।

एक बेहद मद्धम सी रोशनी झलक रही थी जिसको देखकर यहाँ के होने का हल्का सा अहसास होता। वे रोशनी इस काली रात मे उस दिए की भांति अपना क़िरदार निभाती जो बीरबल की खिचड़ी कहानी मे दूर रखे अकेले चमक रहा था और कोई उसे देखकर जी रहा था। सड़क के किनारे पर रखी एक टेबल, उसपर रखा एक स्टोप जिसकी जलने की आवाज़ बारिश की तेज और भारी आवाज़ से लड़ रही थी। स्टोप पर रखा बड़ा और मोटा छाता। उसकी के नीचे वे दबी और दुबकी बैठी थीं। स्टोप की बलखाती आवाज़ के साथ साथ उनके भी गीत की बहुत धीमी सी आवाज़ उसी छाते के नीचे खेल रही थी। वे सिकुड़ी बैठी थीं। लगता नहीं था की वे आसानी से उस टेबल पर बैठ जायेगीं लेकिन नीचे के पानी और ऊपर की धरा से बचने के लिये उनका इस तरह लुभावने अंदाज मे बैठना अपनी ओर खींचता था।