Monday, January 6, 2014

आसमान बहुत छोटा है

यहाँ पर कोई नहीं आता। उनमें से तो कोई नहीं आता जो इसे अपना कहकर जब्त कर लेते हैं और उनमे से भी कोई नहीं आता जो इसे अपना बिलकुल भी नहीं कहते। ये खुली है और हमेशा खुली ही रहेगी। ये उनके लिये बनी है जो कभी-कभी यहाँ पर आकर रोज़ के लिये रह जाते हैं उनके लिये हैं जो यहाँ रोज़ आते हैं और कभी-कभी रह जाते हैं। ये कोई कोना या किनारा नहीं है, ये कोई कमरा या धरा नहीं है। ये तो बस, एक खाँचा है।

बहुत तेज बारिश हो रही है। पूरी सड़क पर दूर – दूर तक कोई भी नज़र नहीं आ रहा है। अंधेरा इतना है की कोई अगर झटके से भी यहाँ पर आ जाये तो टकरा ही जाये। ये रात बहुत काली होने वाली है लगता है। किसी को शायद याद नहीं है कि वो तो वहाँ पर आ ही गये होगें जिन्होनें इस जगह से वादा किया हुआ है।

एक बेहद मद्धम सी रोशनी झलक रही थी जिसको देखकर यहाँ के होने का हल्का सा अहसास होता। वे रोशनी इस काली रात मे उस दिए की भांति अपना क़िरदार निभाती जो बीरबल की खिचड़ी कहानी मे दूर रखे अकेले चमक रहा था और कोई उसे देखकर जी रहा था। सड़क के किनारे पर रखी एक टेबल, उसपर रखा एक स्टोप जिसकी जलने की आवाज़ बारिश की तेज और भारी आवाज़ से लड़ रही थी। स्टोप पर रखा बड़ा और मोटा छाता। उसकी के नीचे वे दबी और दुबकी बैठी थीं। स्टोप की बलखाती आवाज़ के साथ साथ उनके भी गीत की बहुत धीमी सी आवाज़ उसी छाते के नीचे खेल रही थी। वे सिकुड़ी बैठी थीं। लगता नहीं था की वे आसानी से उस टेबल पर बैठ जायेगीं लेकिन नीचे के पानी और ऊपर की धरा से बचने के लिये उनका इस तरह लुभावने अंदाज मे बैठना अपनी ओर खींचता था।



खुशिया जी पहले से यहाँ पर बैठी हैं ये देखकर कोई हैरान नहीं होता। हाँ, मगर उनके इस रूप को देखने और उसे धारण करने का अहसास लिये यहाँ पर कई अपने आपको उनके सामने पटक देते हैं। खुशिया जी यहाँ कर एक इकलौती औरत हैं जिन्होनें सबसे पहले सड़क के किनारे दुकान लगाई। जिसे दुकान समझकर कोई उनके पास आता ही नहीं था। असल में, यहाँ जितने भी लोग आते थे वे न तो उनकी दुकान के लिये आते थे और न ही उनके लिये। बस, फिर भी आते रहते और उनकी नज़र उनमे से पहले तो किसी पर पड़ती नहीं थी लेकिन जब पड़ जाती तो नज़र उनपर से हटती नहीं थी। हर कोई उनसे उनके "कहाँ की हैं" होने का सबूत मांगते। शायद ये सवाल उभरता था उनकी ज़ुबान से या उनके रविये से। लेकिन वो कभी ये नहीं बता पाती थीं और शायद कभी बताना भी नहीं चाहती थीं। इस जगह के काले - गोरे उजाले ने कितनी आसानी से सभी "कहाँ" को मिटा दिया था तो यहाँ पर आकर रिश्तेदारी और पड़ोस को बोलने की क्या जरूरत थी। वे हँसती और कहती, “हम तो यहीं की हैं।" और बात का असर खत्म हो जाता।

ये "कहाँ" का रविया और इस "कहाँ" की बोली। इसी ने सब कुछ तय कर दिया था। अगर बात मे बैचेनी और कसकता नज़र आती तो सारे "कहाँ" मर जाते और बातों मे अगर लीन करने और मज़ा देने की भूमिका उभरती तो सारे "कहाँ" का जन्म होने लगता। इस बँटवारे मे आखिर अपने "कहाँ" को क्यों जगह दि जाये?

इस रात और रोशनी मे "कहाँ" को कुछ इस तरह से मिला दिया था की "यहाँ" का "कहाँ" बनने और उसके साथ निकाह करने मे किसी को कोई आपत्ती नहीं थी। ये "कहाँ" एक सफ़र और नक्शा बताने का काम करता है वहीं पर ये उसी नक्शे और सफ़र का महारथी भी बना डालता है और ये अच्छी बात नहीं लगती।

अंधेरा चारों ओर के उजाले को खाये जा रहा था और जैसे ही मनभावन हवा का झौंका आता तो लगता जैसे कोई डरावना संगीत बज उठा है। पानी की कई रेखाएँ उनकी टेबल के नीचे खिंच गई थी। ठंडी और कठोर हवा उनके छाते को उड़ा ले जाती और उनके स्टोप की आवाज़ बिलकुल गायब हो जाती। स्टोप पर रखा पतीला अब भी ठंडे और गर्म के लड़ रहा था और उसमे उबलते अंडे न जाने क्या सोच रहे होगें अंदर पड़े-पड़े? अभी तक उनके पास कोई नहीं आया था। नहीं तो इस वक़्त मे उनकी इसी अद्धदुकान पर लोगों का और भटके मुसाफिरों का तांता लग जाता था। मगर उन्हे यहाँ पर किसी का इंतजार भी नहीं था क्योंकि उन्हे पता था की मेरे लिये इस जगह पर कोई नहीं आता। जो भी आता है अपने लिये ही आता है। इस धून को वो भलिभांति जानती हैं।

बिजली की जैसे ही चमक बादलों को चीरती जमीन तक आती वैसे ही किसी के पास मे होने का अहसास उभरता। पानी की मोटी-मोटी बूंदों मे सभी को अपने पीछे छुपा रखा था। वे उसी धुन मे गाये जा रही थीं। साथ मे एक आदमी कबसे खड़ा है उसका उन्हे कोई अंदाजा नहीं था। वे अपने सिर से पन्नी बांधा हुआ था। बाकि का सारा शरीर भीग रहा था बस, बचा था तो उनका सिर। उसी को पन्नी से ढका हुआ था। वे इधर-उधर देखने लगा- शायद कुछ तलाशने की नजर से। कुछ ही दूरी पर एक पत्थर दिखाई दिया। उन्होनें उस पत्थर को अपने दोनों हाथों से उठाया और उनकी टेबल के साथ मे जमीन पर बहुत जोरों से पटका। वे पत्थर पानी की लकीरों को काटता हुआ जमीन मे जम गया। अब उसने उनकी टेबल के नीचे से एक बड़ी सी पन्नी निकाली और उसे ओढ़े बैठ गया।

दूर से किसी के भागे आने और आवाज़ महसूस हो रही थी। पानी की छप-छप को कोई तेज़ करता हुआ जरूर आ रहा है इतना तो ज्ञात होता जा रहा था। सफेद पजामा और खाकी रंग का कुर्ता पहने एक शख़्स सिर पर कोई पेपर रखे भागा आ रहा था इसी तरफ। आवाज़ इतनी जोरो से नहीं थी लेकिन स्टोप की आवाज़ के साथ खुशिया जी के गाने की आवाज़ जैसे मिली हुई थी वैसे ही पानी की बौछारों के साथ उस पानी को काटती छप-छप का भी अहसास यहाँ बखूभी किया जा सकता था। बारिश बहुत जोरों से थी। इतनी तेज की पानी का कोई रोक नहीं था। बादल काले रंग से पुत गये थे और बिजली भी काली होती जा रही थी। वे जन भी जल्दी से उसी बैठे हुये शख़्स के पास मे आकर उसी पन्नी को सिर पर रखे हुए बैठ गये और खुशिया जी के गीत की बोली मे सुन्न हो गये।

खुशिया जी आसमान को देखती हुई गाए जा रही थीं। गीत कुछ समझ मे नहीं आ रहा था। उसकी लय क्या है वे महसूस किया जाता लेकिन गीत के बोल क्या हैं वे अपने मे ही सिमटकर रह जाते। लेकिन इतना ज्ञात जरूर होता की हाँ, कोई इस सड़क मे बारिश से टकराता हुआ कुछ गा रहा है। जिसे देखने की लरक यहाँ पर छप्परों और मुंडेरियों के नीचे - पीछे छुपे लोगों मे जरूर गुलाटियाँ मार रही होगी। गीत मे कल के लिये दुआयें भरी हुई थी। वे दबे स्वर में और गीत को रोककर कुछ दुआयें मांग रही थीं। वे अपने लिये नहीं थी और न ही जो यहाँ उनके पास मे आकर बैठ जाते हैं उनके लिये। वे तो इस जगह को उन दुआओं मे समेट रही थीं। आसमान को कभी कोसते तो कभी उसका शुक्रिया अदा करते। दबी हुई एक आवाज़ गीत को काटती हुई निकली, “कितना ही फट जा तू, लेकिन जब ये जमीन फटेगी तो तू छुप जायेगा।"

सही मायने में, जगह के बसने और बनने के बीच मे यही जगह खाली रह जाती हैं और यही जगहें कितने को बैठाने का अहसास करवाती हैं। यानि मुसाफिरों से जुड़ा होना इस जगह के साथ रहता है। ये जगह जो किसी की नहीं हो सकती और सबके लिये खुली भी होती है।

इसमे बहुत नाज़ुक सी तस्वीर उभरती नज़र आती है। जैसे - कोई डांसर जब डांस करते-करते पूरी तरह से मग्न हो जाता तो ये मालुम करना बेहद मुश्किल होता है कि वो गाने की रिद्दम पर नाच रहा है या रिद्दम उसकी मुद्राओं पर। इस जगह के साथ यही खेल रहता है। बस, नाच हमेशा चलता रहता है।

रात का कितना वक़्त वे अपने मे बिता डालती उसका उन्हे कभी मालुम ही नही रहता था। मगर जैसे ये जगह उनके सामने ही अपना हर रंग ले रही थी। कोनसा रंग कब चडा है और कोनसा रंग कितने समय तक चडा रहा है? वे सब जानती है। यहाँ से निकलने वालों के रूटमेप जैसे उनके बिना कभी पूरे ही नही होते थे। हर किसी के रूटमेप मे वो शामिल थी। कब कोन आया है? कब कोन यहाँ से निकलता है? और कब पुलिस या सरकारी आदमी आया? उनको सबका ध्यान रहता। लेकिन आज जैसे सब अपने उन कोनो मे छुपे थे जिनसे रोज भागते और छोड़ जाते थे। वो सब कुछ देख रही थी मगर कुछ बोलना और कहना उनके बस का नही था। वैसे सच माने तो वो कुछ कहना भी नही चाहती थी। वो तो बस, अपने छाते और उस टेबल पर बैठे इस जगह को दुआओं से भरे जा रही थी। जिसको भी इन दुआओ मे शामिल होना होता वे रात को धोका देकर यहाँ भाग आता और जिसे नही शामिल होना होता वे रात को रात समझकर खुद ही धोके मे रहता।

ये बारिश उन्हे बांधकर नहीं रख सकती थी और न ही उनके गीत को और न ही उनके मस्त होने के अहसास को। वे तो हमेशा आजाद रहे हैं और शायद हमेशा रहेगें।

किसी की पायल की आवाज़ आ रही थी। मगर बारिश मे पानी की बूंदों के साथ इस आवाज़ को कैसे सुना जा रहा है ये सोचना ही अपने आपमे खूबसूरत था। ये पीछे के किसी कमरे मे से आ रही थी। पहले तो ये साथ सुनाई नही दे रही थी लेकिन कुछ ही समय के बाद मे कभी तेज हो जाती तो कभी बहुत ही मद्धम। ऐसा लगता था जैसे कोई उस आवाज़ को रगड़ रहा है। किसी आवाज के साथ वे मिक्स थी। कान अपने आप ही वहीं चले जाते। उनका गीत और जोरो से आवाज़ करने लगता मगर उस आवाज़ को नहीं दबा पा रहा था। पीछे वाले कमरे मे उस आवाज़ की कसक सी फैल रही थी। रगड़ जैसे-जैसे ही बड़ती पायल की आवाज़ भी तेज हो जाती। लम्बी-लम्बी सिसकियाँ और चुड़ियों से कोई खेल रहा था। बारिश की इस ठंडक मे इन सिसकियों से कुछ हमेशा दिमाग मे तैर जाता। इस आवाज़ ने जैसे इस समा को उडान मे ले जाने को सारे रास्ते खोल दिये थे। यहाँ पर जो भी ये आवाज़ सुन पाता वो इस आवाज़ के साथ कहीं पर भी जा सकता था और दिमाग मे कुछ भी  और कैसी भी तस्वीरे बना सकता था।

हाथ मे कंचे बजाता हुआ कोई उनके पास मे आकर बैठ गया और उनके गीत के साथ मे अपने कंचो की आवाज़ को मिलाने लगा। कुछ ही देर मे सारी आवाज़ गायब हो गई और उनके गीत की आवाज़ और कंचो के रगड़ने की आवाज़ यहाँ की मालिक बन गई। नीचे बैठे तीनों लोगों के सिर पर रखी वो बड़ी पन्नी पानी से भर गई थी। सभी इंतजार कर रहे थे उनके गीत के खत्म होने का। आज तो काफी लम्बा चला वैसे उनके गीत। नहीं तो जैसे ही दिये जलने लगते हैं उनका गीत समाप्ती पर होता है। मगर आज क्या हो गया था? पहले तो लगा जैसे वो किसी आवाज़ को दबा रही हैं फिर लगा शायद वे बारिश को भोग लगा रही है। लेकिन जो भी उनका इस कदर खुलकर गीत गाना उनको सभी दिनों का बादशाह बना रहा था। जो किसी के काबू मे आने वाला नहीं था। किसी के बस का नहीं था की उनको कोई रोक ले और असल बात तो ये थी के उनको कोई रोकना भी नहीं चाहता था। आखिर मे यहाँ पर आते क्यों है? इसलिये नहीं की किसी को कुछ करने से रोका जाये। ये जगह और समय यहाँ किसी की जागीर तो नहीं था इसलिये रोकना और चुप कराना, बन्द करना, बहस करना जैसी चीजें यहाँ पर किसी काम की नहीं थी।

उनका गीत, कुछ गुनगुनाहट के करके कहीं खो गया मगर कंचों की आवाज़ आती रही। वो उन्हे रगडता रहा। कभी धीमे तो कभी तेजी से मगर जो संगीत उससे निकलता उसको समझना आसान नहीं था। जब वो गा रही थी तो लग रहा था की वो उस उन शब्दो और लय के साथ कुछ नई तस्वीरे दिखा रहा है लेकिन उनके खामोश हो जाने के बाद इसके अकेले की आवाज कहीं तक भी संगीत के पास नहीं थी।


वैसे कुछ आवाज़ें होती हैं जिन्हे अकेला नहीं बनाया गया। वे किसी के साथ होने पर अपनी दुनिया बनाती हैं। ये बिलकुल वैसा होता है जैसे - कोई गाने के साथ – साथ किसी बाल्टी को बजा रहा है और जब गाना खत्म हो जाता है तो बाल्टी भूखी लगने लगती है और अपने पेट को बजा रही होती है।

आवाज़ों को अकेले - अकेले सुना जाये तो वो किसी भाव को हावी कर देते हैं, रोना और हँसना दोनों को अलग – अलग रूप मे पेश करते हैं लेकिन जब आवाज़ें एक साथ मिलकर आती हैं तो संगीत का अहसास होता है। वे खिलने और उड़ने का अहसास करवाती हैं।

कंचों की आवाज के साथ अब एक दूसरी आवाज़ गाने लगी। साथ मे पन्नी पर पड़ती मोटी- मोटी बूंदे उनके साथ मे जुगाली कर रही थीं। यहाँ असल मे कोई भी किसी के साथ भी अपनी आवाज को मिला लेता और शुरू हो जाता। किसकी अपनी कोनसी आवाज़ है ये पता करना जरूरी नहीं था। बस, जरूरत थी तो एक ऐसी आवाज़ की जो सबको एक तार मे पिरो ले और खो जाने का मौका दे। कल ये आवाज़ खप्परों के टुकड़ों की थी और आज ये आवाज़ कंचो की थी। अगर हर नई आवाज़ हर रोज नया तार बनती तो यहाँ पर इस जगह मे वे उन सभी तारों का ऐसा गठबंधन जिसके होने और न होने का कोई महत्व लेने की कोई जरूरत नहीं थी। वे बस, इतना जानती थी के उनका यहाँ पर होना ही उनके लिये जिन्दा रहने का साधन है और वो इसे छोड़ना नहीं चाहती थी।

उन्होनें यहाँ पर बैठे - बैठे बहुत कुछ सुना और देखा है। इस सड़क के किनारे की सबसे अच्छी और गुप्त दोस्त यही रही हैं। अपनी कुछ कहती नहीं और सड़क की हर बात सुनकर किसी को बताती नहीं। इसका मतलब ये नहीं है कि वे खुद मे सब कुछ समेटते जा रही हैं बल्कि इसका असली मतलब तो ये है कि वे उन सभी भावों को ऐसे जीवन से मिला रही हैं जिसको हर चीज पर रोना और हँसना आता है। अगर उससे यही छीन लिया जाये तो क्या करेगा वो?


“लगता है रात बरदास्त से बाहर है आज?” वहीं पर बैठे एक जन ने कहा।

वे छाते मे से झाँकते हुए बोली, “अगर बरदास्त करने लायक होती तो लोग सोते ही क्यों? और अगर बरदास्त कर लेते तो क्या दिन रात भर घूमते?”

वे आवाज़ और सवाल दोनों बन्द हो गये। खुशिया जी दीए की तरह से जीती हैं। खुद जलकर दूसरों को रोशनी देने के जैसा नहीं। बल्कि उसके रूटीन की तरह। जब दीवा जलता है तब वे अपनी इस टेबल को बाहर खिसका लाती है और सुबह के चार बजे तक उनकी टेबल यहीं पर रखी रहती है। कभी पूरी रात टेबल पर बैठे - बैठे गुजार देती है तो कभी साथ मे अपनी चादर बिछाये ऊपर मुँह करके आसमान मे से अपने हिस्से के तारे गिनती है। मगर उनकी गिनती हमेशा अपने ऊपर ही आकर रूक जाती।

वे लेटती अकेले थी मगर जब सुबह होती थी तो साथ मे कई चादरें बिछी होती थी।

लख्मी

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