जब कमरे में अधेरा नीचे उतर आया था। घर में पलंग पर बिना सलवट की चादर बिछी हुई थी। तकिये को बड़े प्यार से साथ -साथ सिरहाने रखा हुआ था। दिवार पर खुबसुरत पहाड़ो की, झरनों की पेन्टिग टगीं हुई थी। टेबल, फैन, स्टूल, फूलदान और मेरी शादी में मिला आईना भी।
बाहर तो कुछ सन्नाटा सा मालूम हो रहा था। मगर अन्दर कमरें में बिना बल्ब की और ट्यूब लाईट की रोशनी में टीवी पर फिल्म देखकर वक्त काट रही थी। आंखों के आगे टीवी में चलती फिल्म में बदलते अलग-अलग रंग मेरे चेहरे पर दिख रहे थे। फिल्म के डायलॉग के साथ सीन बदलता तो मेरे हाथ – पैरों पर परछाईयां सी बन जाती।
सुशीला का दिल उस वक्त बड़ा बेचैन तो था ही क्योंकी 5 वर्ष पहले सुशीला से शादी होने के बाद उनके पति पैसा कमाने शहर से दूर चले गये थे। बीच-बीच में चिट्ठियां आती रहती थी। एक आखरी चिट्ठी 5वें साल में आई। उसे घर के कोने में छुपा कर सुशीला ने उस चिट्ठी को खोला अपने कांपते हाथो से ...उसने उन्ही कांपते हाथो से चिठ्ठी पकडी हुई थी। उसने चिट्ठी को खोला और पढ़ना शुरू किया।
प्रिय्र सुशीला
तुम कैसी हो और घर वाले कैसे हैं? सब ठीक तो है। सब को मेरा नमस्ते कहना। मैं राजी खुशी से हूँ। तुम्हारी ख़बर महीनों से नहीं ले पाया। इसलिये ये आखरी चिट्ठी भेज रहा हूँ। इस के बाद तो मैं आ ही जाऊंगा। शादी होने के 10 दिन बाद ही तुम को घर में जाने- अन्जानो के साथ छोड़ आया लेकिन मां-बाबूजी और मेरे भाई बहन तुम्हें बहुत प्यार करते होगें। तुम्हे अकेलापन कभी महसूस नहीं होता होगा। मैं ये यकिन से कहता हूँ। माफ करना, तुमने इन 5 सालो में मेरे इन्तजार मे बहुत तकलीफ उठाई होगी। लेकिन अब मैं चन्द दिनों में ही तुम्हारे करीब होगा। तुम वैसे ही दुल्हन की तरह मेरे सामने आना। तुम्हारा शिंगार किया चेहरा मैं फिर से अपनी आंखों में बसाना चाहता हूँ। अच्छा मैं अगले महीनें की 7 तारीख तक आ जाऊगां मेरा इंतजार करना।
तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा.....
चिट्ठी को मोढ़ कर सुशीला ने अलमारी में रख दिया और तभी से ही वो हफ्तों /दिनो को गिन – गिनकर बिताती। मां बाबूजी और बाकियों को रोज जल्दी खाना खिला कर वो शाम का काम निपटा कर अपने कमरे में आकर उस दिन को याद करती। जब सुशीला ने इस चौखट पर पहला कदम रखा था। वो लम्हा जो उसने उनके साथ बिताया था। अभी दिल में वो लम्हें जिन्दा थे। देर रात तक जगने से सुशीला की आंखें पत्थरा गई थी।
अभी भी वो सुबह होने का इन्तजार करती हुई टीवी के रिर्मोट के बटनों को खामखा बदल हुई दिवार पर लगी घड़ी की सुईयो पर नजरें को ठहर -ठहर कर दौड़ा रही। उनके आने की खुशी में सुशीला ने केसरी रंग की साड़ी पहनी हुई थी। काजल आंखो में मुस्कुरा रहा था। बिंदी आसमान के तारों की तरह टिम - टिमा रही थी। गालों पर सुर्ख रंग चड़ आया था। टीवी से मन भर जाने के बाद उस ने उठ कर रोशनी में आने के लिये ट्युब लाईट जला दी। रोश्नी ने कमरे को उजागर कर दिया वो टीवी को बन्द कर के रिर्मोट को टेबल पर रखकर उस बडे से आईनें मे अपनी सूरत बड़ी ग़ोर से देखने लगी। आईने के सामनें खड़ी वो आईने से ही चीड़ कर कर खिले भाव से बोली ...... “अब तेरी ज़रूरत नहीं होगी मुझे। उन के आने के बाद तू मुझे देखने को तरस जाएगा देख लेना"
सुशीला की मुस्कान जैसे आईनें को चटका देगी ऐसा लग रहा था। आईना तो मौजूदा वक्त की तस्वीर ही दिखा रहा था। उसे भला बेईमानी करने में क्या मिलता। ट्यूब लाईट की रोश्नी में आईने के आगे बैठे-बैठे उस के चेहरे से खुशी का रंग धीरे-धीरें उतर रहा था। इन्तजार से लड़ती सुशीला की जिज्ञासा उस के दिमाग में कुछ धुंधली तस्वीरें को वो देख रही थी। 5वर्ष की अवधी का समय और आने वाले समय की एक जंग की कोई गूंज सी सुनाई दे रही थी। ख्यालों में खोई सुशीला और उस की आंखे पलंग पर से दरवाजे की तरफ देखते - देखते वही लग गई। 2 घंटे बाद दरवाजें पर कुन्दी को खड़काने की आवाज से उठ कर वो तेजी में भागी। रात से ही सजीं हुई सुशीला के पांव में बंधी पाजैब झन-झनाती हुई बजी।
दरवाजा खोलते ही ढ़ेरो भिन्न भिन्नाती आवाजों का एक गुच्छा सा अन्दर आ गया। चिड़ियों की चहचहाट, गाड़ियों की साँये - साँये, काम पर निकलते लोग। इन सभी की गूंज बनी आवाज़ें सुबह अपने जोर पर आ गई थी। दरवाजा खुलने के बाद सुशीला कच्ची सी नींद से जागी। आंखों के सामने सिर से गम्छा बांधे। वो कुर्ता पजामा पहने उसे दूध वाला अपनी साईकिल को स्टेन्ड पर लगाता दिखा। सुशीला सोच रही थी "ये कौन आया" के इतने में उसने दूध के डिब्बे में से एक लीटर दूध निकाल कर कहा "बहन जी क्या आज दूध हाथों में लो गी क्या?”
.... दूध वाला सुशीला को देखकर मूह सुकोड़कर और घूरकर देखता रहा .... सुशीला चुपचाप रसोई से भगोना लेकर आई दूध लेकर रसोई मे रखकर बाहर आकर कमरे में ही बैठ गई और उस आईने की तरफ देखने लगी।
वो सोच रही थी की अभी भी वक़्त पूरा नहीं हुआ।
इतने में उसके दरवाजे पर एक जोरदार दस्तक हुई। लगता था की कोई दरवाजा पीट रहा है। साथ ही काफी रोने की आवाज़ होने लगी। मगर इन सभी आवाज़ों को सुशीला सुन नहीं सकती थी। वो सो चुकी थी।
बाहर तो कुछ सन्नाटा सा मालूम हो रहा था। मगर अन्दर कमरें में बिना बल्ब की और ट्यूब लाईट की रोशनी में टीवी पर फिल्म देखकर वक्त काट रही थी। आंखों के आगे टीवी में चलती फिल्म में बदलते अलग-अलग रंग मेरे चेहरे पर दिख रहे थे। फिल्म के डायलॉग के साथ सीन बदलता तो मेरे हाथ – पैरों पर परछाईयां सी बन जाती।
सुशीला का दिल उस वक्त बड़ा बेचैन तो था ही क्योंकी 5 वर्ष पहले सुशीला से शादी होने के बाद उनके पति पैसा कमाने शहर से दूर चले गये थे। बीच-बीच में चिट्ठियां आती रहती थी। एक आखरी चिट्ठी 5वें साल में आई। उसे घर के कोने में छुपा कर सुशीला ने उस चिट्ठी को खोला अपने कांपते हाथो से ...उसने उन्ही कांपते हाथो से चिठ्ठी पकडी हुई थी। उसने चिट्ठी को खोला और पढ़ना शुरू किया।
प्रिय्र सुशीला
तुम कैसी हो और घर वाले कैसे हैं? सब ठीक तो है। सब को मेरा नमस्ते कहना। मैं राजी खुशी से हूँ। तुम्हारी ख़बर महीनों से नहीं ले पाया। इसलिये ये आखरी चिट्ठी भेज रहा हूँ। इस के बाद तो मैं आ ही जाऊंगा। शादी होने के 10 दिन बाद ही तुम को घर में जाने- अन्जानो के साथ छोड़ आया लेकिन मां-बाबूजी और मेरे भाई बहन तुम्हें बहुत प्यार करते होगें। तुम्हे अकेलापन कभी महसूस नहीं होता होगा। मैं ये यकिन से कहता हूँ। माफ करना, तुमने इन 5 सालो में मेरे इन्तजार मे बहुत तकलीफ उठाई होगी। लेकिन अब मैं चन्द दिनों में ही तुम्हारे करीब होगा। तुम वैसे ही दुल्हन की तरह मेरे सामने आना। तुम्हारा शिंगार किया चेहरा मैं फिर से अपनी आंखों में बसाना चाहता हूँ। अच्छा मैं अगले महीनें की 7 तारीख तक आ जाऊगां मेरा इंतजार करना।
तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा.....
चिट्ठी को मोढ़ कर सुशीला ने अलमारी में रख दिया और तभी से ही वो हफ्तों /दिनो को गिन – गिनकर बिताती। मां बाबूजी और बाकियों को रोज जल्दी खाना खिला कर वो शाम का काम निपटा कर अपने कमरे में आकर उस दिन को याद करती। जब सुशीला ने इस चौखट पर पहला कदम रखा था। वो लम्हा जो उसने उनके साथ बिताया था। अभी दिल में वो लम्हें जिन्दा थे। देर रात तक जगने से सुशीला की आंखें पत्थरा गई थी।
अभी भी वो सुबह होने का इन्तजार करती हुई टीवी के रिर्मोट के बटनों को खामखा बदल हुई दिवार पर लगी घड़ी की सुईयो पर नजरें को ठहर -ठहर कर दौड़ा रही। उनके आने की खुशी में सुशीला ने केसरी रंग की साड़ी पहनी हुई थी। काजल आंखो में मुस्कुरा रहा था। बिंदी आसमान के तारों की तरह टिम - टिमा रही थी। गालों पर सुर्ख रंग चड़ आया था। टीवी से मन भर जाने के बाद उस ने उठ कर रोशनी में आने के लिये ट्युब लाईट जला दी। रोश्नी ने कमरे को उजागर कर दिया वो टीवी को बन्द कर के रिर्मोट को टेबल पर रखकर उस बडे से आईनें मे अपनी सूरत बड़ी ग़ोर से देखने लगी। आईने के सामनें खड़ी वो आईने से ही चीड़ कर कर खिले भाव से बोली ...... “अब तेरी ज़रूरत नहीं होगी मुझे। उन के आने के बाद तू मुझे देखने को तरस जाएगा देख लेना"
सुशीला की मुस्कान जैसे आईनें को चटका देगी ऐसा लग रहा था। आईना तो मौजूदा वक्त की तस्वीर ही दिखा रहा था। उसे भला बेईमानी करने में क्या मिलता। ट्यूब लाईट की रोश्नी में आईने के आगे बैठे-बैठे उस के चेहरे से खुशी का रंग धीरे-धीरें उतर रहा था। इन्तजार से लड़ती सुशीला की जिज्ञासा उस के दिमाग में कुछ धुंधली तस्वीरें को वो देख रही थी। 5वर्ष की अवधी का समय और आने वाले समय की एक जंग की कोई गूंज सी सुनाई दे रही थी। ख्यालों में खोई सुशीला और उस की आंखे पलंग पर से दरवाजे की तरफ देखते - देखते वही लग गई। 2 घंटे बाद दरवाजें पर कुन्दी को खड़काने की आवाज से उठ कर वो तेजी में भागी। रात से ही सजीं हुई सुशीला के पांव में बंधी पाजैब झन-झनाती हुई बजी।
दरवाजा खोलते ही ढ़ेरो भिन्न भिन्नाती आवाजों का एक गुच्छा सा अन्दर आ गया। चिड़ियों की चहचहाट, गाड़ियों की साँये - साँये, काम पर निकलते लोग। इन सभी की गूंज बनी आवाज़ें सुबह अपने जोर पर आ गई थी। दरवाजा खुलने के बाद सुशीला कच्ची सी नींद से जागी। आंखों के सामने सिर से गम्छा बांधे। वो कुर्ता पजामा पहने उसे दूध वाला अपनी साईकिल को स्टेन्ड पर लगाता दिखा। सुशीला सोच रही थी "ये कौन आया" के इतने में उसने दूध के डिब्बे में से एक लीटर दूध निकाल कर कहा "बहन जी क्या आज दूध हाथों में लो गी क्या?”
.... दूध वाला सुशीला को देखकर मूह सुकोड़कर और घूरकर देखता रहा .... सुशीला चुपचाप रसोई से भगोना लेकर आई दूध लेकर रसोई मे रखकर बाहर आकर कमरे में ही बैठ गई और उस आईने की तरफ देखने लगी।
वो सोच रही थी की अभी भी वक़्त पूरा नहीं हुआ।
इतने में उसके दरवाजे पर एक जोरदार दस्तक हुई। लगता था की कोई दरवाजा पीट रहा है। साथ ही काफी रोने की आवाज़ होने लगी। मगर इन सभी आवाज़ों को सुशीला सुन नहीं सकती थी। वो सो चुकी थी।
राकेश
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